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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
का आत्मा में अटल रूप से धारण करना सम्यक् चारित्र है।।” सप्ततत्त्वों का विवेचन
"नेमिनिर्वाण" काव्य के पंचदश सर्ग में सात तत्वों का वर्णन आया है जिनका पृथक्-पृथक् वर्णन भी हुआ है। इसमें जीव अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष इन सातों तत्त्वों का वर्णन करते हुए कहा है कि उन तत्त्वों से तीनों लोक व्याप्त है और इनके ज्ञान से ही अन्ततः मुक्ति प्राप्त होती है। यह भगवान् जिनेन्द्र ने कहा है। ध्यान
चिन्ता के निरोध को ध्यान कहते हैं। यद्यपि ध्यान की स्थिति उत्तम संहनन वाले को अन्तर्मुहूर्त तक ही होती है। किन्तु ध्यान की भावना चलती रहती है। इस लिए बदलते हुए ध्येय की भावना के साथ ध्यान अधिक समय तक भी रह सकता है। पं. टोडरमल ने लिखा है "एक का मुख्य चिन्तन होय अर अन्य चिन्ता रुके, ताका नाम ध्यान है। जो सर्व चिन्ता रुकने का नाम ध्यान होय तो अचेतन मन हो जाये। बहुरि ऐसी भी विविधता है जो संतान अपेक्षा नाना ज्ञेय का भी जानना होय, परन्तु यावत् वीतरागता रहे, रागादि करि आप उपयोग को भ्रमावे नाही तावत् निर्विकल्प दशा कहिये है। 20 गति की अपेक्षा जीव के नारकीय, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार भेद करते हुए उनकी प्रवृत्तियों के संबन्ध में नेमि निर्वाण में ध्यानों का विवेचन हुआ है। ध्यान के चार भेद हैं- आर्त, रौद्र, धर्म
और शुक्ल। इनमें अंतिम दो ध्यान मोक्ष के कारण है। प्रारंभ के दो ध्यान अप्रशस्त हैं और संसार के कारण हैं। तप
जैन दर्शन में कर्मों का क्षय करने के लिए तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इच्छा के निरोध अथवा चैतन्य के प्रतपन के लिए तप कहा गया है। तप को धर्म के दशलक्षणों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जिस प्रकार सोने के तपाने से उसका मैल दूर हो जाता है इसी प्रकार तप के प्रभाव से आत्मा का कर्मों रूपी मैल दूर हो जाता है। तप इन्द्रिय जन्य और कामभाव के नाश का प्रमुख कारण है। क्षत्रचूड़ामणि में मुक्ति की प्राप्ति के लिए तप को अत्यन्त आवश्यक माना गया है। वहाँ कहा गया है कि मुनिराज जैसे महापुरुष इन्द्रपने के योग्य विभूति को भी छोड़कर मुक्ति के हेतु तपों को तपते हैं, उनके लिये बारम्बार नमस्कार हो।
जैन दर्शन में तप को कर्मों की निर्जरा का कारण मानते हुए बाह्य और आभ्यन्तर के भेद दो प्रकार का माना गया है। इसमें बाह्य तप छः प्रकार का और आभ्यन्तर तप छः प्रकार के हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तश्य्यासन और कायक्लेश यह छः प्रकार का बाह्य तप है। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान, ये अन्तरंग तप है। तप के विषय में ध्यातव्य है कि शास्त्र विहित तप ही कार्यकारी है। पंचाग्नि तप आदि को महाकवि वादीभसिंह सूरि हेय तपों में गिनते हैं। उनका कहना