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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
तीन नय हैं। निश्चय और व्यवहार नय
सर्वार्थसिद्धि में निश्चय और व्यवहार नय की वैसी चर्चा नहीं पायी जाती जैसी की अध्यात्म ग्रंथों में उपलब्ध होती है। परन्तु अध्यात्मपरक आगमिक काल में इन नयों से भी होता रहा है। व्यवहार और एवंभूत नय से उक्त नयों का प्रयोजन सिद्ध हो ही जाता है। श्लोकवार्तिककार ने एवंभूत नय को निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा विवेचित किया है। दोनों पद्धतियाँ सिद्धान्त का ही निर्वचन करती है। दोनों में अन्तर शरीर और आत्मा जैसा है। एक दृष्टि शुद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है तथा दूसरी दृष्टि सिद्धांत तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करती है। बात जब निश्चय और व्यवहार नय की आती तब इन नयों का प्रयोग प्रतिपाद्य की योग्यता के अनुसार होताा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट लिखते हैं कि 'परमभाव शुद्धस्वभाव का अवलोकन करने वाले पुरुषों के द्वारा शुद्धस्वरूप का वर्णन करने वाला शुद्धनय निश्चयनय है और अपरमभाव में स्थित हैं वे व्यवहार नय से उपदेश देने के योग्य हैं। किसी एक नय के पक्षपातियों को अध्यात्म गुरू आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के इस विचार को सदैव याद रखना चाहिए
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः।४९ जो शिष्य व्यवहार और निश्चय को यथार्थरूप से जानकर मध्यस्थ रहता है, पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेश का संपूर्ण फल पाता है।
अनेक आचार्यों ने निश्चयनय और व्यवहार नयों को मूल नय मानकर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को निश्चय हेतु में साधन माना है। उन्होंने यह भी लिखा है कि निश्चय नय ही द्रव्यार्थिक नय है अथवा द्रव्यार्थिक नय ही निश्चय नय है एवं व्यवहार नय पर्यायार्थिक नय है अथवा पर्यायार्थिक नय ही व्यवहार नय है। कारण और प्रयोजनों के कारण दोनों में अन्तर पाया जाता है, पर विषय भेद नहीं। संपूर्ण वस्तु के संबन्ध में उठे विवाद को प्रमाण के द्वारा ओर उसके एक अंश के विवाद को नय के द्वारा हल किया जाता है। नयों में सामान्य विषयवस्तु को द्रव्यार्थिक और पर्याय को पर्यायार्थिक विषय करता है। इसी तरह आत्मा के संबन्ध में उठे संपूर्ण विवाद को निश्चय नय समाप्त करता है। आत्मा से पर वस्तुओं में उत्पन्न हुए विवाद को व्यवहार नय समाप्त करता है। आचार्य अकलंक की दृष्टि में निश्चय और व्यवहार नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के आश्रित नय हैं। प्रभाचन्द्र और अभयचन्दसूरि ने अकलंक के मत का समर्थन किया है। सप्तनयों का स्वरूप
सप्तनयों के आन्तरिक स्वरूप और स्थिति का विवेचन इस आलेख के अर्थनय, शब्दनय आदि के प्रकरण में किया जा चुका है। सर्वार्थसिद्धि में सोदाहरण प्रत्येक नय के स्वरूप को भी स्पष्ट किया गया है। जिसकी विस्तृत व्याख्याएं अकलंक और विद्यानंद ने अपने ग्रंथों में की है। प्रसंगत: यहां सर्वार्थसिद्धि के अनुसार उनका संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत