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श्रावक और गुणव्रत
-डॉ. सारिका त्यागी श्रावक का स्वरूप
'श्रणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः' अर्थात् जो हितकारी वाक्यों को सुनने वाला है, वह श्रावक है। 'श्रावक' शब्द का समान्य जो प्रायः लोकचर्चित अर्थ है-श्रा-श्रद्धावान्, व-विवेकवान्, क-क्रियावान्। आचार्यों ने श्रावकों के लिये श्रद्धा गुण की मुख्यता बतलायी है।
श्रद्धा के साथ विवेक और क्रियावान् होने पर ही इसकी सार्थकता है। यह शब्द स्वयं में रत्नत्रय को समाहित किये हुए है। 'श्र' श्रद्धा अर्थात् दर्शन 'व' विवेक अर्थात् ज्ञान 'क' क्रिया अर्थात् चारित्र के वाचक है। तीनों वर्ण रत्नत्रय की सूचना देते हैं अतः इससे स्पष्ट है कि 'श्रावक' रत्नत्रय का धारक होता है। श्रावक प्रज्ञप्ति नामक ग्रंथ में भी इसी प्रकार का कथन है
समतं दसणाई पर्यादहं जइजण सुणई य।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं विन्ति। अर्थात् जो सम्यग्दर्शनादि युक्त गृहस्थ प्रतिदिन मुनिजनों आदि के पास जाकर परम समाचारी (साधु और गृहस्थों का आचार विशेष) को सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं। 'श्रावक' नाम की निरुक्ति इस प्रकार की गयी है- 'श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीतिश्राः तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रे- बुधनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति।'
इसका अभिप्राय यह है कि श्रावक इस पद में तीन शब्द है। इनमें से 'श्रा' शब्द तो तत्त्वार्थ- श्रद्धान की सूचना करता है, 'व' शब्द सप्त धर्म क्षेत्रों में धनरूप बीज बोने की प्रेरणा करता हे और 'क- शब्द क्लिष्ट कर्म या महापापों को दूर करने का संकेत करता है। इस प्रकार कर्मधारय समास करने पर यह श्रावक नाम निष्पन्न हो जाता है। कुछ विद्वानों ने 'श्रावक' शब्द का अर्थ इस प्रकार भी दिया है जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओं से गृहस्थ और मुनियों के आचार धर्म को सुने, वह श्रावक कहलाता है।' श्रावक के व्रत ___ जीवनपर्यन्त हिंसा आदि पांच पापों के एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति को व्रत कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- अणुव्रत या महाव्रत। अणुव्रत श्रावक के लिये है और महाव्रत साधुओं के लिये होता है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है। यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है- इस प्रकार नियम करना व्रत है। व्रत शब्द विरति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है तथा प्रवृत्ति (वृतु वर्तने धातु से निष्पन्न होने के कारण) के अर्थ में भी होता है इसीलिये पण्डित