________________
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
आशाधर जीने व्रत का स्वरूप इस प्रकार कहा है “किन्हीं पदार्थों के सेवन का या हिंसाादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिये संकल्प करके त्याग करना व्रत है या पात्रदान आदि अच्छे कर्मों में उसी प्रकार संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है।'' इस कथन में व्रत में पाप से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति दोनों स्वीकार की गयी है। श्रावक के बारह व्रत कहे गये हैं- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। श्वेताम्बर परंपरा में पांच अणुव्रतों को मूलव्रत तथा शेष सात को उत्तरव्रत कहा गया है।"
गुणव्रत
गुणव्रत अणुव्रतों में विशेषता उत्पन्न करते है। अणुव्रती के गुणों की अभिवृद्धि कारक होने के कारण गुणव्रत संज्ञा सार्थक है। अणुव्रत स्वर्ण रूप है और गुणव्रत उस सोने पर चमक बढ़ाने वाले हैं। तीन गुणव्रत पांचों अणुव्रतों में शक्ति का संचार करते हैं। उनके परिपालन में सहायक होते हैं उनकी संरक्षा करते हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी गुणव्रतों का वर्णन करते हुए कहते हैं
दिग्व्रतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम्।
अनुवृहणाद् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः।। अर्थात् दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण व्रत इन तीनों को (अष्टमूलगुणों, अणुव्रतों) व्रतों की वृद्धि करने से आर्य पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं आचार्य सोमदेव सूरि ने उपासकाध्ययन में गुणव्रतों को दिग्विरित, देशविरति और अनर्थदण्डविरति के भेद से तीन गुणव्रत बताये हैं।
अणुव्रत मूलगुण रूप है और सप्तशील उत्तर गुण है। तत्त्वार्थभाष्य के उल्लेखानुसार श्रावक के शील और उत्तरगुण एकार्थक है। सूत्रकार गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को शील संज्ञा देते हैं। किन्तु सोमदेव ने इन्हें उत्तरगुणो में परिगणित किया है। गुणव्रतों की तीन संख्या को प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। किन्तु नाम की दृष्टि में मत वैभिन्य मिलता है। ___तत्त्वार्थसूत्रकार दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत की संज्ञा में अभिहित करते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुवर्ती चामुण्डराय, वसुनन्दि, अमितगति, सोमदेव, पं. मेधावी आदि है। समन्तभद्र स्वामी दिग्व्रत, भोगोपभोगपरिमाण व्रत और अनर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत के भेद बतलाते हैं। पण्डित आशाधर जी ने भी समन्तभद्र स्वामी द्वारा प्रतिपादित गुणव्रतों को स्वीकार किया है केवल इतना भेद है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और वसुनन्दि आदि तो देशव्रत को गुणव्रतों में परिगणित करते हैं किन्तु समन्तभद्र आदि आचार्य उसे देशावकाशिक शिक्षाव्रत नाम से व्याख्यायित करते हैं। भोगोपभोगपरिमाण व्रत को आचार्य समन्तभद्र ने गुणव्रत स्वीकार किया है किन्तु तत्त्वार्थसूत्र इसी व्रत को नामान्तर उपभोगपरिभोगव्रत से शिक्षाव्रत मानते हैं। विचारणीय है कि देशावकाशिक या देशव्रत को गुणव्रत माना जाये या शिक्षाव्रत? क्योंकि कुछ आचार्य तो गुणव्रत कहते हैं और कुछ शिक्षाव्रतो में परिगणित करते हैं। सभी श्रावकाचारों में देशव्रत का स्वरुप समान ही मिलता है- जीवनपर्यन्त के लिय किये हुए दिग्व्रत में काल की मर्यादा द्वारा अनावश्यक क्षेत्र में आने आने का परिमाण करना देशव्रत है।