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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
मे गुणकर्म, सामान्यविशेष्य से पर्यायरूप पार्थक्य है और प्रत्येक क्षणवर्ती पर्याय अपने से भिन्न क्षणवर्ती पर्याय से भिन्न होती है। यही भिन्नता व्यतिरेक है। प्रतिक्षण अनन्तभेदों को आत्मसात् किये हुए संसारी जीव की क्रोध आदि व्यवहार पर्यायें हैं एवं ज्ञान आदि जीव की निश्चय पर्यायें हैं। तीर्थंकरों के वचन इन्हीं दो द्रव्यार्थिक नयों में संग्रहीत हैं, अन्य कोई तीसरा प्रकार नहीं है। इन नयों की विशेषता यह है कि ये नीति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद न होकर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के रूप में स्वतंत्र रूप से व्यवस्थित
ज्ञाननय, अर्थनय और शब्दनय
समस्त अर्थतत्त्व का संग्रह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों में हो जाता है। जब प्रत्येक पदार्थ को अर्थ, शब्द और ज्ञान के आकारों में बांटते हैं, तब इनके ग्राहक ज्ञान भी स्वभावतः तीन श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं, जिन्हें क्रमश: ज्ञाननय, अर्थनय और शब्दनय कहा गया है। दार्शनिक युग के आचार्यों ने सात नयों में प्रथम चार नयों को अर्थनय एवं उत्तर के तीन नयों को शब्द नयों के अन्तर्गत रखा है। ज्ञाननय का स्वतंत्र उल्लेख नहीं पाया जाता, पर नैगम नय के संबन्ध में यह कहा जाता है कि जब वह अर्थ को विषय करता है, तब अर्थनय एवं जब संकल्प को ग्रहण करता है तब वह ज्ञाननय की कोटि में आ जाता है। ज्ञात हो आचार्य सिद्धसेन नैगम नय को नहीं मानते। पं.फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री ने नय से संबन्धित विशेषार्थ में लिखा है कि सर्वार्थसिद्धि के विवेचन से यह पूर्ण रूप में परिलक्षित होता है कि पूज्यपाद को सप्तनयों का विभाजन उपचार नय, अर्थ नय, और शब्द नय के रूप में करना अभीष्ट रहा है। नय श्रुतज्ञान का भेद है। आलम्बन की प्रधानता से उसके सात भेद किये गये हैं। आलम्बन को उन्होंने उपचार, अर्थ और शब्द इन तीन भेदों में विभक्त करके लिखा है कि नैगम नय उपचार होकर भी अर्थ नय है, पर मुख्यतः वह उपचार नय ही है। शेष शब्द, समभिरूढ़ शब्द नय है।
'नीयते अनेन इति नयः' इस प्रकार नय की करण साधनरूप व्युत्पति करने पर सभी नय ज्ञान रूप सिद्ध होते हैं एवं 'नीयन्ते ये इति नयाः' ऐसी कर्म साधन रूप व्युत्पत्ति करने पर सभी नय अर्थनय सिद्ध होते हैं, क्योंकि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। श्लोकवार्तिक के अनुसार श्रोताओं के प्रति वाच्य का अर्थ का प्रतिपादन करने पर सभी नय शब्दनय स्वरूप हैं और स्वयं अर्थ का ज्ञान कराने वाले सभी नय स्वार्थ प्रकाशी होने से ज्ञाननय है। विधीयमान वस्तु के अंशों का कथन करने से अर्थनय हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूप से नय तीन प्रकार से व्यवस्थित हैं।
लघीयस्त्रय और श्लोकवार्तिक में नैगमादि चार नयों को एवं सन्मतिप्रकरण, राजवार्तिक आदि में संग्रह आदि तीन नयों को अर्थनय के अन्तर्गत समाहित किया गया है। स्याद्वादमंजरी में सप्तनयों के अर्थ और शब्द नय के रूप में विभाग के औचित्य को बताते हुए लिखा है कि 'अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं-अर्थ और शब्द। इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, जो प्रमाता के अभिप्राय-अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे अर्थ नय है, जिनमें नैगमादि चार नय अन्तर्भूत हो जाते हैं तथा जो शब्दविचार चतुर हैं, वे शब्दादि