________________
59
अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 की वृद्धि होती है। इसलिए इन्हें गुणव्रतों के नाम से महापुरुष कहते हैं। इन गुणव्रतों के पालन से व्रती साधक अनेक पापों से बचता है। इतना ही नहीं उसके जीवन में अनन्त आकांक्षाओं का अन्त होने के कारण आत्म सन्तोषी हो जाता है। आठ मूलगुण
मूलगुण- स्वस्थ शरीर एवं निर्मल मन के आधार-श्रावक की स्थिति में मूल या नीवरूप होने से तथा मोक्ष के मूल कारण होने से श्रावक के प्रमुख गुणों की मूलगुण अन्वर्थ संज्ञा है। इसी प्रकार साधु के प्रमुख गुणों को भी मूलगुण कहा गया है।
"मांसाशिषु दया नास्ति, न सत्यं मद्यपायिषु। आनृशंस्यं न मत्र्येषु, मध दुम्बरसेविषु।" उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट है कि शरीर की स्वस्थता एवं मन की निर्मलता के लिए श्रावक की आचार संहिता में निर्दिष्ट मूलगुणों का पालन आवश्यक है। इसी में समाज की स्वस्थता है। मद्यत्याग, मांसत्याग और मधुत्याग के साथ पांच अणुव्रतों के परिपालन को वादीभसिंह ने श्रावक के आठ मूल गुण माने हैं।" शिक्षाव्रत
अणुव्रतों का धारण और गुणव्रतों का पालन जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार श्रावक को चार शिक्षाव्रतों का पालन भी आवश्यक है क्योंकि इन से महाव्रत की शिक्षा मिलती है। इसलिये इनका नाम शिक्षाव्रत सार्थक है। श्रुत ज्ञान रूपी नेत्र को धारण करने वाले श्रावक को उचित है कि वह देशावकाशिक आदि शिक्षा शिक्षाव्रतों को अवश्य धारण करें। शिक्षाव्रत, चार प्रकार के हैं देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग
कर्म
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के कारण जिन पुद्गल वर्णणाओं का बन्ध होता है उन्हें कर्म कहते हैं। क्षत्रचूडामणि में अनेक स्थलों पर कर्म और ताज्जन्य फलों का विवेचन हुआ है। ये कर्म आठ प्रकार के है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। अनुप्रेक्षा__जैन दर्शन में संवर के प्रसंग में अनुप्रेक्षाओं का विवेचन किया गया है। मिथ्या दर्शन आदि कर्मों के आगमन रूप आस्रव द्वारों के निरोध को संवर कहते हैं। जिस प्रकार अच्छी तरह से बन्द किये गये द्वारों वाला नगर शत्रुओं के द्वारा अगम्य हो जाता है उसी प्रकार अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा अच्छी तरह संवर को प्राप्त आत्मा कर्म-रूपी शत्रुओं के द्वार अगम्य हो जाता है। अनुप्रेक्षाओं में संसार शरीर आदि के स्वरूप को बार-बार चिंतन किया जाता है। ताकि संसार शरीर आदि के प्रति मुमक्षु का अनासक्त भाव हो तथा वह कर्मों का संवर कर सकें। अनुप्रेक्षाओं को जैनदर्शन में भावना भी कहा गया है इनकी संख्या चिंतन योग्य विषयों के आधार पर मानी गयी है।