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संबोधन
कहा परदेसी को पतियारो। मन मानै तब चलै पंथ कों, साँझि गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छाँड़ि इतही, पुनि त्यागि चलै तन प्यारो।।1।।
दूर दितावर चलत आपही, कोउ न राखन हारो।
कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो।।2।। धन सौं रुचि धरम सों भूलत, झूलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहिं भव पारो।।3।
सांचे सुख सौं विमुख होत हैं, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया' आप ही आप संभारो।।4।।
कहा परदेसी को पतियारो।। गरब नहिं कीजै रे ए नर निपट गँवार। झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे। कै छिन साँझ सुहागरु जोबन, कै दिन जग में जीजै रे।। बेगहि चेत बिलम्ब तजो नर, बंध बढे थिति कीजै रे। 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे।।
- कविवर भूधरदासजी