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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
समवाय संबन्ध को प्राप्त सुख-दु:ख का अनुभव करने वाले पुद्गल स्कन्ध ही वेदनीय नाम से कहे जाते हैं। वेदनीय कर्म को समझाने के लिए शहद लिपटी तलवार का उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार मधुलिप्त खड्ग की धार को चाटने से पहले अल्प सुख और फिर अधिक दुःख होता है। अर्थात् जिह्वा कट जाने पर तीव्र वेदना होती है। उसी प्रकार पौद्गलिक सुख में दु:खों की अधिकता होती है। सुख के कारणभूत साता वेदनीय और दु:ख के कारणभूत असाता वेदनीय कर्म है।
असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण- अपने या दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं। पीड़ा लक्षण परिणाम को दु:ख कहते हैं। अनुग्राहक के संबन्ध का विच्छेद होने पर वैकल्य विशेष शोक कहलाता है। परिवादादि निमित्त के कारण कलुश अन्त:करण का तीव्र अनुशयताप है। परिताप से उत्पन्न अश्रुपात, प्रचुर विलाप आदि से अभिव्यक्त होने वाला क्रन्दन ही अक्रन्दन है। आयु, इन्द्रिय, बल, श्वासोच्छ्वास आदि का वियोग करना वध है। अतिसंक्लेश पूर्वक स्व-पर अनुग्राहक, अभिलषित विषय के प्रति अनुकम्पा-उत्पादक रोदन परिदेवन है।'
क्रोधादि के आवेश से दु:खादि आत्मा पर उभयस्थ होते हैं। ये दु:ख, शोक, ताप, अक्रन्दन, वध और परिदेवन स्व-पर और उभय में होते हैं। जब क्रोधादि से आविष्ट आत्मा अपने में दु:ख शोकादि उत्पन्न करता है, तब वे क्रोधादि उभ्यस्त होते हैं और जब समर्थ व्यक्ति कषायवश पर ये दुःखादि उत्पन्न करता है, तब वे परस्थ होते हैं और जब साहूकार कर्ज लेने वाले से ऋण वसूल करने आते हैं तब तज्जनित भूख-प्यास आदि के कारण दुःखित होते हैं, वे उभयस्थ होते हैं।
प्रश्न यह है कि असाता वेदनीय के आस्रव निमित्त उक्त ही हैं और भी हो सकते है। इसका समाधान करते हुए आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं- "इन कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण इस प्रकार है-अशुभ प्रयोग, पर परिवाद, पैशुन्य, अनुकम्पा का अभाव, परपरिताप, अंगोपांगच्छेद, भेद, ताडन, त्रासन, तर्जन, मर्त्सन, लक्षण, विशंसन, बन्धन, रोध न, मर्दन, दमन, शरीर, को रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भावन, निर्दयता, हिंसा, महारम्भ, अधिक परिग्रह का अर्जन, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्म जीवित्व, अनर्थदण्ड, बाण पाश यन्त्र आदि दु:ख शोकादि से गृहीत होते हैं। ये स्व-पर और उभय में रहने वाले दुःखादि परिणाम निश्चित रूप से असाता वेदनीय के आस्रव के कारण हैं।' पर की तरह अपनी बुद्धि से अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। उपकार भावना से अपनी वस्तु अर्पण करना दान है। ___सातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण- भूतानुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान, सराग संयम, योग, क्षान्ति और शौच सातावेदनीय के आस्रव हैं। इनको इस प्रकार समझना चाहिए। आयुकर्म के उदय से होने वाले भूत है अर्थात् संपूर्ण प्राणी भूत कहलाते हैं किसी प्यासे, भूखे, दु:खी प्राणी को देखकर जो वास्तव में जीव का मन दुःखित होता है उसे प्राणियों की कृपा कहते हैं, वही अनुकम्पा है। व्रतियों पर अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है। सरागी