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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
२. ईर्यापथ आस्रव
ईर्ष्यापथ अर्थात् योगगति जो कर्म मात्र योग से ही आते हैं, वे ईर्ष्यापथ आस्रव हैं।" सकषाय जीव के साम्परायिक और अकषाय जीव के ईर्यापथ आस्रव होता है। उपशान्तकषाय क्षीणकषाय, क्षीणमोह और सयोगकेवली के योग क्रिया से आये हुए कर्मों का संश्लेषण न होने से सूखी दीवाल पर पड़े हुए धूलि की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं। इस प्रकार की क्रिया ईर्यापथ आस्रव है। कषायों का आस्रव हो जाने के कारण यह दीर्घकाल तक नहीं ठहर पाती। इसकी स्थिति एक समय की होती है। ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के जीव कषाय रहित हैं इसलिए उनके अकषायरूप ईर्यापथ आम्रव होता है।
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दोनों प्रकार के आस्रव में से कोई भी आस्रव की सत्ता जीव के सत्ता में पायी जाती है तो वह संसारी ही है। संसार में रहते हुए अघातिया कर्मों की स्थिति शेष रहने के कारण जीव बद्ध होता हुआ भी अबद्ध ही है । संसारी मुक्त होने के कारण सयोग केवली अवस्था सकल परमात्मा के पद को भी प्राप्त रहती है। आस्रव संसार अवस्था तक है। उसके अभाव होने पर मुक्तावस्था की प्राप्ति निश्चित है।
जीवों के आस्रव की विशेषता भी पायी जाती है। योग प्रत्येक संसारी जीव के होता है योग होने पर भी संपूर्ण जीवों के आस्रव समान नहीं होता। क्योंकि जीवों के परिणामों के अनन्त भेद हैं जैसा कहा भी गया है " णाणा जीवा णाणा कम्माणि णाणविह हवे लद्धि'”” अर्थात् संसार में अनेक जीव हैं, उनके कर्म भी अनन्त हैं। इसलिए उनकी लब्धि यां भी नाना प्रकार की होती हैं। आस्रव की विशेषता के कारणों को दर्शाते हुऐ उमास्वामी आचार्य लिखते हैं "तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेभ्यस्तदुद्विशेषः" अर्थात् तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभव, अधिकरण और वीर्य विशेष के भेद से आस्रव की विशेषता होती है।
आस्रव में उक्त कारणों से विशेषता पायी जाती है, क्योंकि कारण पूर्वक ही कार्य होता है जिस आस्रव का जैसा कारण है, उसके अनुसार ही कर्मास्रव की व्यवस्था निश्चित है। द्रव्यकर्मों के निमित्त से होने वाले आस्रव को दिखलाने के लिए कर्म की मूल आठ प्रकृतियों ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मों के हेतुओं को दिखलाया जा रहा है
अतः
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण- ज्ञान को जो आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है और दर्शन गुण का आवरण करने वाला दर्शनावरणीय कर्म है। इन दोनों कर्मों के आस्रव के कारण निहव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात है इन आस्रव निमित्तों के स्वरूप भट्टाकलंकदेव ने विस्तार से समझाये हैं, उन्हीं के अनुसार प्रस्तुत हैं
प्रदोष किसी के ज्ञानकीर्तन (ज्ञान की महिमा जानने/सुनने) के बाद मुख से कुछ न कहकर अन्तरंग में पिशुनभाव होना, ताप होना प्रदोष है। मोक्ष की प्राप्ति के साधनभूत