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सर्वार्थसिद्धि में वर्णित नय विमर्श
-डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन
नयप्रक्रिया में तीर्थंकरों की तीर्थ परम्परा सुरक्षित है, जिसे अर्थाधिगम के लिए ज्ञान-प्रमाण की तरह ही स्वीकार किया गया है। विभिन्न विचारधाराओं के सामान्य और विशेष वर्गीकरण के मूल में समन्वय समग्रता तथा विश्लेषण-आंशिक सत्यताएं ही दृष्टिगोचर होती हैं। परन्तु जब इनमें से प्रस्फुटित अवान्तर विचारधाराएं विभिन्न विचारध राओं को लेकर प्रमुखता से एकान्तिक पक्ष की ओर बढ़ने लगती हैं तब अनेक वादविवाद उत्पन्न हो जाते हैं। अतीत के दार्शनिक साहित्य पर दृष्टिपात करें तो इस तरह की अनेक विचारधाराओं का अस्तित्व पाया जाता है। जैसे ब्रह्माद्वैतवादियों का झुकाव सामान्य की ओर रहा है, जिन्होंने अन्तिम निष्कर्ष में भेदों को नकार दिया। बौद्धों ने अभेदों को मिथ्या बताया। अनेक द्रव्यों को मानने वाले सांख्य प्रकृति पुरुषवाद के रूप में उनकी नित्यता और व्यापकता के एकान्त का परित्याग नहीं कर सके। किसी ने धर्म धर्मी, गुण गुणी आदि में एकान्त माना इत्यादि अनेक मतों में परस्पर विरोधी विचारधाराएं दृष्टिगोचर होती हैं। इन सभी विरोधी दृष्टियों का समन्वय माध्यस्थभाव से जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि ने किया है। इसी अनेकान्त दृष्टि से नयवाद का उद्भव हुआ। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि नयव्यवस्था का मूलाधार अनेकान्तवाद है। स्याद्वाद और सप्तभंगी भी अनेकान्त से फलित सिद्धान्त हैं।
अनन्तधर्मात्मक वस्तु के परस्पर विरोधी धर्मों का प्रतिपादन नयव्यवस्था के बिना संभव नहीं है। वह प्रत्येक वस्तु के धर्म का दृष्टिकोण से पृथक्करण, यथोचित विन्यास आदि अनेक अपेक्षाओं से सिद्ध होता है। अपेक्षाओं का सृजन, मन की सहज रचना, उस पर पड़ने वाले आगन्तुक संस्कार और चिन्त्य वस्तु के स्वरूप आदि के मिलने पर होता है। ऐसी अपेक्षाएं अनेक होती हैं, जिसका आश्रय लेकर वस्तु का विचार किया जाता है, वही अपेक्षाएं दृष्टिकोण के नाम से अभिहित होती हैं। ये दृष्टिकोण एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए अपने अंश में सत्यता सिद्ध करते हैं। इन सत्यांशों के ही प्रतिपादक नय होते हैं तथा सभी अपेक्षाओं का समुच्चय अनेकान्तदर्शन बन जाता है। अर्थाधिगम का साधन नय
जैनेतर दर्शनों में अर्थाधिगम के रूप में मात्र प्रमाण को ही स्वीकार किया गया है।, परन्तु जैनदर्शन में अर्थाधिगम के लिए प्रमाण के साथ नय को भी आवश्यक माना गया है। क्योंकि नय के बिना वस्तु का ज्ञान अपूर्ण है। नय ही विविध वादों, समस्याओं, प्रश्नों आदि का समाधान तथा वस्तुस्वरूप का यथार्थ मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। प्रमाण विविध