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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
को स्पष्ट नहीं किया जा रहा है। उक्त नामकर्म के आस्रव कारणों को जानकर मानव को अगले भव सुधार हेतु प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है। गोत्र कर्म के आस्रव के कारण
सन्तान क्रम से चले आने वाले जीव के आचरण को गोत्र संज्ञा दी गई है। जैसे कुम्हार छोटे अथवा बड़े घड़ों को बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म जीव को उच्च अथवा नीच कुल में उत्पन्न करता है। नीच और उच्च के भेद से गोत्र दो प्रकार का है।
जिसके द्वारा आत्मा नीच स्थान में पायी जाती है या जिससे आत्मा नीच व्यवहार में आती है, वह नीच गोत्र है। दूसरों की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के सद्गुणों का छादन तथा अपने अविद्यमान गुणों का उद्भावन करना, नीच गोत्र के आस्रव के निमित्त है। इनके अतिरिक्त अपनी जाति, कुल, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य, आज्ञा और श्रुत का गर्व करना, दूसरों की अवज्ञा व अपवाद करना, दूसरों की खोज को अपनी बताना, दूसरों के श्रेय पर जीना आदि ये नीच गोत्रकर्म के आस्रव के कारण हैं। इनको जानकर इनसे बचना श्रेयस्कर है।
नीच गोत्र के आस्रव के कारणों के विपरीत कारण (आत्मनिन्दा, परप्रशंसा', परसद्गुणोंद्भावन, आत्मसद्गुण आच्छादन) गुणीजीवों के प्रति नम्र वृत्ति, अहंकार का अभाव तथा उद्दण्ड स्वभाव नहीं होना, ये सब उच्च गोत्र के आस्रव के कारण हैं।
उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ और उच्च गोत्र के निमित्त हैं- जैसे जाति, कुल, बल, सौन्दर्य, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तपादि की विशेषता होने पर भी अपने में अहंकार का भाव नहीं आने देना, पर का तिरस्कार नहीं करना, उद्दण्ड नहीं होना, पर की निन्दा नहीं करना, किसी से अशुभ, किसी का उपहास, बदनामी आदि नहीं करना, मान नहीं करना, धर्मात्माओं का सम्मान करना, विशेष गुणी होने पर भी अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृति, भस्म से ढकी हुई अग्नि की तरह अपने ढके हुए माहात्म्य का प्रकाशन नहीं करना और धार्मिक साधनों में अत्यन्त आदरबुद्धि रखना आदि कार्यों से भी उच्च गोत्र का आस्रव होता है। अतः उक्त कार्य की प्रवृत्ति बहुत श्रेष्ठ है, उसे करना चाहिए। अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण
अन्तराय शब्द का अर्थ विघ्न है। अन्तर अर्थात् मध्य में- विघ्न बनकर आने वाला कर्म अन्तरायकर्म कहलाता है। यह कर्म भण्डारी की तरह जीव के दान लाभ आदि कार्यो में बाधक बन जाता है। बाधक बनना या विघ्न डालना अन्तरायकर्म का आस्रव का कारण है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा अन्तराय के आस्रव हैं। इनके अतिरिक्त ज्ञान का प्रतिषेध, सत्कारोपघात, स्नान, आभूषण, भक्ष्य आदि कार्यों में विघ्न करना, किसी के वैभव समृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग नहीं करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, देवता के लिए निवेदित किये गये या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण करना, देवता का अवर्णवाद करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरों की शक्ति का अपहरण, धर्म का व्यवच्छेद करना, दीक्षित को दिए जाने वाले दान को रोकना, कृपण,