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सामान्य विशेषात्मक वस्तु की श्रद्धा सम्यक्दर्शन है
- बाबूलाल जैन वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सिर्फ सामान्य या सिर्फ विशेष को होना असंभव है। वस्तु सामान्य रहित विशेष नहीं हो सकती और विशेष रहित मात्र सामान्य भी नहीं होती। फिर भी सामान्य विशेष नहीं होता और विशेष सामान्य नहीं होता। वस्तु का सामान्य अंश जहाँ एक और द्रव्यार्थिकनय या द्रव्यदृष्टि का विषय है, वहीं दूसरी ओर वस्तु की लगातार बदलती अवस्थाएं, पर्याय या विशेष पर्यायार्थिकनय या पर्यायदृष्टि के विषय हैं। इस प्रकार ये दोनों ही प्रतिपक्षीनय या दृष्टियां वस्तु के सामान्य व विशेष करती है। जबकि नयों या दृष्टियों के पक्ष से रहित प्रमाण का विषय सर्वदेश अथवा संपूर्ण वस्तु है और वही प्रमाण का विषय सम्यक्ज्ञान है।
आत्म वस्तु के मात्र सामान्य अंश का अथवा विशेष अंश का ज्ञान और श्रद्धान कभी भी संपूर्ण वस्तु का ज्ञान श्रद्धन नहीं होता है। सामान्य ज्ञान विशेष के ज्ञान बिना अधुरा है, सम्यक् नहीं, और विशेष का ज्ञान सामान्य के ज्ञान बिना अधूरा है, सम्यक् नहीं। दोनों ही एक दूसरे से निरपेक्ष होकर सम्यक् नहीं होते हैं। मात्र पर्यायदृष्टि का ज्ञान पर्यायमूढ़पना है। इसी प्रकार मात्र द्रव्यदृष्टि का ज्ञान द्रव्यमूढ़पना है।
जहाँ भी शास्त्रों में भगवान आचार्यों के द्वारा यह कहा गया है कि द्रव्यदृष्टि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है वहां निश्चयपूर्वक यह समझना चाहिए कि यह कथन पर्यायमूढ़ को लक्ष्य करके कहा गया है। जो पर्यायमूढ़ थे उनको द्रव्यदृष्टि के सम्यक् एकान्त द्वारा द्रव्य के सामान्य विशेषात्मक श्रद्धान करने के लिए उपदेश दिया गया है। यह कथन प्रतिपक्षी नय से निरपेक्ष नहीं है। पर्यायदृष्टि के विषय की मिथ्यादृष्टि की मान्यता(1) शरीर आत्मा में एकपना
(2) रागादिभावों में अपना स्वभावपना (3) द्रव्यकर्म के साथ कर्ताकर्मपना (उपादपना) (4) बाहरी निमित्तों में कर्तापना (5) संयोगी वस्तुओं में एकत्व बुद्धि (जो अहंकार को पुष्ट करती है) द्रव्यदृष्टि के विषय की मिथ्याश्रद्धानी की मान्यता(1) पर्यायदृष्टि के वस्तु अंश को असत्यार्थ मानना (2) रागद्वेषादिक भावों से रहित अपने को मानना (3) शरीर के सत्य संयोग को न मानना (4) द्रव्यकर्म के साथ निमित्त जैमैत्तिक संबन्ध भी न मानना (5) बाहरी निमित्तों को साधन भी न मानना। सही सम्यक्त्व मान्यता(1) शरीर आत्मा में एकत्वपना नहीं, संयोग मानना (2) रागादिभाव आत्मा का विभाव है, स्वभाव नहीं है। (3) कर्म के निमित्त- नैमित्तिक संबन्ध मानना, कर्ताकर्म संबन्ध न मानना। (4) बाहरी निमित्त साधन हो सकता है कारण नहीं है।