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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 द्रव्यदृष्टि विषय की एकान्त मान्यता तो यह जीव किसी दूसरे का एकान्त उपदेश पाकर करता है। आचार्यों का उपदेश जो सम्यक् एकान्त की दृष्टि से दिया गया है उसे एकान्त रूप मान लेता है। पर्यायदृष्टि विषयवस्तृ अंश को वहां अभूतार्थ भी कहा हैक्योंकि द्रव्यदृष्टि के विषय के अन्तर्गत पर्यायदृष्टि के विषय का अभाव है। इसलिए रागादि, शरीरादि समस्त संयोगों को आत्म स्वरूप न होने से अभूतार्थ सत्यार्थ कहा है। यह पर्यायदृष्टि से भी उन संयोगों को, निमित्त-नैमित्तिक संबन्धों को मंजूर नहीं करता है।
पर्यायदृष्टि का एकान्त तो जन्म-जन्मांतर से चला आ रहा है। शरीर आत्मा में एकपना होने से सभी शरीर संबन्धी संयोगों में भी एकपना आ जाता है। उनके नाश से अपना नाश उनकी उत्पत्ति से सअपनी उत्पत्ति मानता है। समस्त संयोगों को इष्ट अनिष्ट मानकर रागद्वेष करने का अभिप्राय बनाये रखना है।
द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु कीरसही श्रद्धा होने से जब द्रव्य स्वभाव में एकत्वपना आता है तब पर्याय के साथ एकत्वपना नहीं रहता। जब स्वभाव में नित्यपना आता है तब पर्याय के साथ नित्यपना नहीं रहता। जब स्वभाव में नित्यपना आता है तो विभाव में अनित्यपना आ जाता है। जब स्वभाव को ध्रुव मानता है तो पर्याय अध्रुव हो जाती है। इस प्रकार द्रवय-पर्याय की सापेक्षता बनती है। मात्र पर्याय को अनित्य मानने पर भी वास्तविक अनित्यपा नहीं आयेगा। वह तो स्वभाव कोनित्य मानने पर ही पर्याय का अनित्यपना निश्चित होगा। दोनों की तो स्वभाव को नित्य मानने पर ही पर्याय का अनित्यपनाप निश्चित होगा। दोनों की ऐसी सापेक्षता है कि स्वभाव की सही श्रद्ध करे तो पर्याय की सही श्रद्धा हो। अध्यात्म चरणानुयोग की एकता
चरणानुयोग का समूचा कथन बाहरी साधन का विषय है। उसको साधन तो मानना चाहिए। कारण मानना चाहिए। साधन नहीं मानेंगे तो उसका अवलम्बन नहीं लेंगे
औरकारण मानने पर उससे कार्य उत्पन्न होना ही चाहिए जबकि ऐसा नहीं है। साधन उसे कहते हैं जिसका अवलम्बन लेकर हम पुरुषार्थ करके कार्य करें। कारण उसे कहते हैं जो कार्य उत्पन्न कर दे। जैसा अमृतचन्द्र स्वामी ने प्रवचनसार के चरणानुयोग अधिकार के शुरु में लिखा है। उन्होंने सम्यक्दर्शन-सम्यक्ज्ञान-सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के समूचे व्यवहार को साधन मानकर उसका अवलम्बन लेकर पुरुषार्थ पूर्वक अपने आत्म-स्वभाव में लगने को मंजूर किया है।
यह द्रव्यदृष्टि का ही प्रताप है कि उसके द्वारा जीव को अपनी पर्याय में होने वाली पराधीनता का सही ज्ञान होता है। इसलिए द्रव्यदृष्टि के विषयभूत वस्तु के ज्ञान के साथ साथ, इस जीव को पर्यायदृष्टि की अपेक्षा अपनी हीनता, अपना विकार दिखाई न दे तो इसके द्रव्यदृष्टि विषय ज्ञान को सही नहीं कहा जायेगा। अपनी पर्याय की हीनता दूर करने के लिए एक ओर जो अवलम्बन उस हीनता को बढ़ाने में साधन है उससे हरना चाहिए और ऐसे साधनों में लगना जरूरी है।
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