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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 कथितम्) अवश्य कहते हैं। सीमन्धर कथितम्' नहीं। कुन्दकुन्दाचार्य जैसा श्रेष्ठ आचार्य जिसे हम तीर्थंकर महावीर स्वामी एवं गौतम गणधर स्वामी के पश्चात् श्रद्धापूर्वक मंगलस्वरुप स्वीकार करते हैं, अपने परोपकारी विदेहक्षेत्रस्थ विद्यमान बीस तीर्थकरों में प्रथम सीमंधर स्वामी को स्मरण न करें यह संभव प्रतीत नहीं होता है। कहीं न कहीं कोई भूल अवश्य है।
एक बात और। संस्कृत पद्यों अथवा प्राकृत गाथाओं की संरचना में शब्दों को आगे-पीछे कहीं भी रखा जा सकता है, किन्तु जब पद्य अथवा गाथा का अर्थ करते हैं तब उन शब्दों को व्यवस्थित। अन्वय करके अर्थ किया जाता है। दर्शनसार की पूर्वोक्त गाथाजइ पउमणंदिणाहो .... आदि में 'सीमंधरसामि' को 'पउमणंदिणाहो' को विशेषण मान लें तो यही अर्थ निकलेगा कि- सीमन्धर स्वामी पद्यनन्दि महाराज (कुन्दकुन्दाचार्य) यदि दिव्यज्ञान के द्वारा संबोधन न देते तो श्रमण (साधुजन) सुमार्ग (मोक्षमार्ग) का ज्ञान कैसे प्राप्त करते ?
उस समय परिस्थितयाँ ऐसी हो गई थीं कि सब कुछ गड्डमगड्ड हो गया था, ऐसे समय में सीमाओं/ मर्यादाओं को धारण करने/ कराने में समर्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने दिव्यज्ञान से संबोधित कर श्रमणों को मोक्षमार्ग में लगाया था।
जो कुछ भी हो, पर इतना अवश्य है कि पं. नाथूराम प्रेमी ने जब दर्शनसार की उक्त 43वीं गाथा का हिन्दी अनुवाद किया होगा तो उनके मन में जाने-अनजाने कुन्दकुन्दाचार्य के विदेहक्षेत्र गमन की किंवदन्ती अवश्य काम कर रही होगी और तदनुकूल उन्होंने हिन्दी अर्थ कर दिया तथा उस पर अपनी टिप्पणी भी लिख दी।
पं. पदमचन्द्र शास्त्री ने सीमन्धर स्वामी को पद्यनन्दिनाथ का विशेषण बनाकर जो अर्थ किया है उसको भी प्रथम दृष्ट्या झुठलाया नहीं जा सकता है।
संयम धारण किये बिना सवस्त्र मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से सही किन्हीं को यदि कुन्दकुन्दाचार्य का विदेहक्षेत्र गमन इष्ट हो तो इससे लौकिक अभीष्ट की सिद्धि हो सकती है, प्रसिद्धि भी हो सकती है, किन्तु पारमार्थिक सिद्धि न तो अभी संभव है और न कभी संभव होगी। ___ अतः विद्वानों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे इसे विवाद का विषय न बनायें, अपितु शोध का विषय बनाये और निष्पक्ष दृष्टि से विचार कर तथ्यों को ग्रहण करें।
- प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
जैन-बौद्धदर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी (उत्तरप्रदेश)