________________
अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 (ख) दर्शन- वस्तु तत्त्व का विचारों द्वारा समर्थन (ग) न्याय- विचारों के सूत्रों को खण्डन मंडन एवं शंका समाधान रूप में दृढ़
करना। न्याय दर्शन
विचारों को हेतु पूर्वक प्रस्तुत करना न्याय की प्रमुखता है। आचार्य देवसेन ने दर्शनसार तत्त्वसार आदि ग्रंथों में वस्तु स्वरूप को प्रतिपादित करने के लिए स्वमत और पर मत दोनों को ही आधार बनाया है, जो वैदिक एवं श्रमण परंपरा में सर्वत्र विद्यमान है। क्योंकि उन्होंने प्रत्येक युग के अनुसार वस्तु स्वरूप को समझा और अपने युग तक आते-आते दर्शन के चिंतन को न्याय संगत बनाने के लिए जो तर्क शैली प्रस्तुत की है वह शाश्वत संपूर्ण एवं वस्तु के हर पक्ष को प्रस्तुत करने वाला है। जैन न्याय का विकास
__ आगम का विषय अत्यन्त ही गंभीर है जिन्हें श्रुत कहा गया है। वे श्रुत अंग आगम उपांग आगम आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें सर्व प्रथम निम्न न्याय संबन्धी विषयों का समावेश हुआ।
(1) आत्मवादी दृष्टिकोण। (2) लोकवादी / जीवजगत और विश्व संबन्धी विचार का दृष्टिकोण। (3) कर्मवादी दृष्टिकोण।
जो इनके मूल विषय में है वह प्रश्न और उत्तर दोनों ही लिये हुए हैं आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि अंग आगम ग्रंथों में प्राकृत में ही उनके प्रश्न किये गये और प्राकृत में ही उनके उत्तर दिये गये। प्रश्नोत्तर की वस्तु स्थिति में सामान्य और विशेष दोनों ही विद्यमान है। किं वत्थु अत्थि? जब यह प्रश्न किया जाता है तब मात्र अस्ति या मात्र नास्ति ही उपस्थित नहीं होते उस समय नित्य, अनित्य, असत्, भेद, अभेद तद् अतद् निराकर साकार आदि की दृष्टि भी सामने आती है।
षट्खण्डागम, कषायपाहुड एवं अन्य अन्य आचार्यों के ग्रंथों में अपेक्षाकृत वस्तु का व्यवहार हुआ है। वहां संख्यात असंख्यात गुण पर्याय उत्पाद व्यय ध्रुव सत् असत् सामान्य विशेष नित्य अनित्य इत्यादि तर्क गर्भित प्रश्नोत्तर न्याय की ओर ले जाते हैं। न्याय युग का विभाजन
(क) आदियुग ई. 200 ई. 650 समंतभद्र काल (ख) मध्यकाल ई. 650 से 1050 अकलंक काल (ग) अंतकाल ई. 1050 से ई. 1700 प्रभाचन्द्र काल न्याय युग का अन्य विभाजन(1) आगमयुग का न्याय (2) आगम का व्याख्यायुग और उसका न्याय (3) प्रमाण शास्त्र व्यवस्था का युग और उसका न्याय नवीन न्याय युग