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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
• वक्तैव सूत्रार्थप्रापणे गम्ये परोपयोगान्नयति नयः • नीयते चानेन अस्मिन् वेति नयनं वा नयः
• वस्तुनः पर्यायाणां संसभवताऽधिगमनमिथ्यर्थः।। ____णी प्रापणे धातु से नय की उत्पत्ति हुई है नी का अर्थ ले जाना भी होता है जो वक्ता के अभिप्राय को या सूत्र के अर्थ की ओर लगाता है उसका नाम ही नय है। व्युत्पत्ति
नीयते गम्यते श्रुतपरिच्छिन्नार्थक देशोऽनेनेति नयः अर्थात् जिससे श्रुत प्रसिद्ध प्रमाण को विषय बनाकर एक अंश विशेष का एक देश कथन नय है।
1 नयनं नयो नीयते परिच्छिद्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः।
जो अनन्त धर्मात्मक अध्यवसाय की ओर ले जाता है उसका नाम ही नय है। नय के पर्यायवाची
नय को प्रापक, कारक, साधक, निवर्तक, निर्भासक, उपलम्भक और व्यंजक ये सभी नय के एकार्थवाची शब्द है। उतराध्ययन चूर्णि में कारक, दीपक, व्यंजक, भावक और उपलम्भक 35 को भी एकार्थवाची कहा है।
जिनेन्द्र वर्णी ने प्रयोजन अभिप्राय, लक्ष्य, दृष्टि, अपेक्षा, मुख्यतः और नय को एकार्थवाची माना है। नय उसी का नाम है जिसे किसी प्रयोजन या कारण को दृष्टि में रखकर प्रयोग किया जाता है। इसलिए सर्वसाधारण व्यक्तियों को होनी असंभव है। इसका यथार्थ प्रयोग प्रमाण ज्ञानी या सम्यक्दृष्टि कर सकता है।
प्रयोजन विशेष को दृष्टि में रखकर बोला गया वाक्य ही श्रोता के जीवन में हित उत्पन्न कर सकता है या श्रोता को वस्तु व्यवस्था समझाने में सफल हो सकता है, परन्तु यह तभी संभव है जबकि श्रोता स्वयं मुख्य करके कहे गये एक अंग को समझ कर हृदय कोष में जमा करता जाए और इस प्रकार धीरे-धीरे संपूर्ण अंगों को धारण करके अंत में परस्पर मिलाकर एक रस कर दे। ज्यों-ज्यों वह आगे के अंगों को धारण करेगा- त्यो- त्यों उसे वस्तु की निकटता प्राप्त होगी इसीलिये प्रयोजन वश बोला गया नयवाक्य श्रोता को वस्तु के निकट पहुचाने या ले जाने की शक्ति रखता है। नय के भेदः
प्रयोजन या वक्ता के अभिप्राय के कारण से जितने भी वचन व्यवहार होते हैं उतने नय कहे जाते हैं।
जावदिया वयण वहा तावदिया चेव होंति णयवाया।
जावदिया णयवाया तावदिया चेव परसमया।। जितने भी प्रकार के वचन है उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद उतने ही अन्य मत है।
तत्व नाना धर्मात्मक है ऐसा आचार्य देवसेन ने स्वयं कहा है और उसी आधार पर