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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 नय की व्यवस्था करते हुए अनेक भेदों का उल्लेख किया है। यहाँ तक कि उन्होंने नय विभाजन में दो से लेकर दस तक ही संख्या को महत्व दिया है। प्राचीन परंपरा के आचार्यों की दृष्टि में नय की व्यवस्था को लेकर नय का इस तरह विभाजन किया है। मूल नय भेद और उनका स्वरूप
सामान्य से नय के दो भेद हैं
दो चेव मूलिमणया भणिया दव्वत्थपज्जयत्थगया
अण्णं असंखसंखा ते तब्मेया मूणेयव्वा।" द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में दो ही मूल नय कहे गये हैं। अन्य संख्यात संख्या को लिए हुए उन दोनों के ही भेद जानने चाहिए।
णिच्छयववहारणया मूलिभेया णायाण सव्वाणं।
णिच्छय साहणहेऊ दव्वयपज्जत्थिया मुणह॥ संपूर्ण नयों के निश्चय नय और व्यवहार नय ये मूल भेद है निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है साधन का हेतु अर्थात् व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिक नय है।
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो॥ व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा ऋषिवरों ने दिखलाया है जो जीव भूतार्थ के आश्रित है वह जीव निश्चय कर सम्यक्दृष्टि है।।
आचार्य सिद्धसेन ने सामान्य विशेषात्मक रूप से नयों का कथन किया है। तीर्थकरों के वचन सामान्य, विशेषात्मक है। वे सामान्य रूप से द्रव्य के प्रतिपादक है और विशेष रूप से पर्याय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों से मूल वस्तु की व्याख्या की गई है। शास्त्रों में जिन सात नयों का वर्णन मिलता है, वह इन नयों का विस्तार है। सभी नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों में गर्भित है। इनमें द्रव्यार्थिक नय का विस्तार नैगम, संग्रह एवं व्यवहार रूप है तथा पर्यायार्थिक नय का विस्तार ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत रूप है। मूल में जिनवाणी का विवेचन करने वाले दो ही नय है।42 नय उपनयों के भेद एवं स्वरूप
जो पर्याय को गौण करके द्रव्य को ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं और जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय
जो सब रागादिभावों को जीव का कहता है या रागादिभावों को जीव का कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यर्थिक नय है।" पर्यायार्थिक नय और उसके भेद
जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है। जो