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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
आधुनिक न्याय युग
उक्त दृष्टि से भी न्याय की परंपरा को प्रतिपादित किया जाता है। तीर्थकर पंरपरा से लेकर अब तक जो कुछ भी जिनागम का सार है या जिसे जन जन तक पहुँचाया जा रहा है उसमें तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता उमा स्वामी के सूत्रात्मक प्रयोगों में जो न्याय का प्रवर्तन हुआ है वह चिंतन के सूत्रों पर आधारित है। आचार्य कुन्द कुन्द ने पंचास्तिकाय की व्यवस्था में संपूर्ण जीवजगत की वस्तु स्थिति का निरूपण किया है। स्वसमय और पर समय की व्याख्या के सूत्रों से जुड़ा समयसार आत्म तत्त्व का यथार्थ चित्रण करता है। ज्ञान ज्ञेय, कुन्द-कुन्द के प्रिय विषय हैं परन्तु प्रवचन सार में ये तीनों मत-मतांतरों को लेकर स्वसमय का विवेचन करते हैं। पर समय के चिंतन को भी सामने रखते हुए अपने विषय में गंभीर विचार किया। उन्होंने प्रमाण, नय, निक्षेप, आदि को स्याद्वाद एवं अनेकान्त की दृष्टि से खण्डन-मण्डन पर विशेष बल दिया। समंतभद्र के पश्चात् पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने न्याय की परंपरा को बढ़ाया। अकलंक ने अपने बुद्धि से तर्क का एक ऐसा आधार बनाया जिसमें सभी पक्ष खुल कर सामने आये। वैदिक एवं श्रमण परंपरा के जैन और बौद्ध तथा अन्य सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक की समग्र दृष्टि ने तर्क को विशेष महत्व दिया।
प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, हेमचन्द्र, धर्मभूषण, यशोविजय, हरिभद्र आदि के विकास क्रम के साथ-साथ न्याय की परंपरा सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी तक निरंतर ही चलती रही। उन्नसवीं बीसवीं शताब्दी में न्याय
आचार्य शांतिसागर से पूर्व श्रुत अध्ययन एवं अध्यापन की दृष्टि में क्या भेद था यह स्पष्ट नहीं, परन्तु आचार्य शांति सागर ने तत्त्व आचार विचार एवं व्यवहार की दृष्टि से युग को नई पहिचान दी। आचार्य देशभूषण आचार्य ज्ञान सागर, आचार्य अजित सागर एवं अन्य आचार्यों ने तर्क को विशेष महत्व दिया। बीसवीं शताब्दी में आचार्य ज्ञान सागर ने अनेक ग्रंथों की रचनायें की और उनके मूल में तार्किक शैली को आधार बनाकर वस्तु तत्त्व का विवेचन किया। उनकी प्रवचनसार टीका एवं तत्त्वार्थसूत्र टीका में न्याय के सभी पक्ष विद्यमान हैं। इससे पूर्व न्यायाचार्य गणेश प्रसाद वर्णी एवं अन्य विद्वानों ने न्याय के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जिनेन्द्र वर्णी का नय दर्पण एक सुन्दरतम कृति है न्यायाचार्य माणिकचन्द्र जी कौन्देय, पं. सुखलाल सिंघवी, पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, डॉ. गुलाब चन्द्र दंडी, पं. दलसुख मालवणियां, पं. बंशीधर न्यायालंकार, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, पं. बालचन्द्र शास्त्री, पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री, पं. हीरालाल शास्त्री, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, पं. माणिकचन्द्र, पं. अमृतलाल शास्त्री, आचार्य विद्यानंद, पं. जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री, डॉ. दरबारीलाल कोठिया, पं. उदयचन्द्र जैन, पं. फूलचन्द शास्त्री, आर्यिका ज्ञानमति, आर्यिका विशुद्धमति, आर्यिका सुपार्श्वमति, आदि का जैन न्याय के विकास में उल्लेखनीय योगदान है। नय की विविध परिभाषायें• श्रुतज्ञान के आश्रय को लिए हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण