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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म। आचार्य अमृतचन्द सूरि ने मुनि और श्रावक दोनों को ही इन बारह अनुप्रेक्षाओं के निरन्तर चिंतन करने का उपदेश दिया है।"
इन 12 भावनाओं के चिंतन से साधु अपने वैराग्यमय जीवन को सुदृढ़ करता है। इसलिये इन्हें संवर का कारण कहा जाता है। इन अनुप्रेक्षाओं से जीव उत्तम क्षमादि धर्मों का पालन करते हैं और परिषहों को जीतने में उत्साह उत्पन्न होता है। अनेकान्त___अनेकांत का अर्थ है परस्पर विरोधी दो तत्वों का एकत्र समन्वय। तात्पर्य यह है कि जहाँ दूसरे दर्शनों में वस्तु को केवल सत् या असत् सामान्य या विशेष, नित्य या अनित्य, एक या अनेक और भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है। वहाँ जैन दर्शन में वस्तु को सत् और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया गया है और जैन दर्शन की यह मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्वों के एकत्र समन्वय को सूचित करती है। संदर्भ1. दर्शन संग्रह (प्रस्तावना) डॉ. दीवानचन्द्र। 2. वेदान्त-सार (भूमिका) डॉ. कृष्णकान्त त्रिपाठी। 3. द्रष्टव्य- भारतीय दर्शन (एन इंट्रोडक्शन टू इण्डियन फिलास्फी का हिन्दी अनुवाद)
चट्टोपाध्याय एवं दत्त पृ. 3-4 4. अष्टाध्यायी 4/4/30 5. क्षत्र-चूडामणिः एक अध्ययन- पृष्ठ 160 6. नेमिनिर्वाण 15/6 तथा 15/46 7. नयचक्र 323 एवं समयसार गाथा 1/16
स्यात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र त्रितयात्मकः। मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः।।
तत्वार्थसार 1/3 9. द्रष्टव्य समयसार 1/7 एवं नयचक्र 321 10. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। तत्त्वार्थसूत्र 1/1
इतित्रयी तु मार्गः स्यादपवर्गस्य नापरम्। क्षत्रचूडामणि 6/21 11. तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। जीवाजीवाश्रवबन्धसंवर निर्जरा मोक्षास्तवम।। 12. भूदत्थेणामिगदा जीवाजीवाय पुण्णपाव च। आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत।।
समयसार 1/13 13. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टां सम्यग्दर्शनमस्मयम् 14. वत्थूण जंसहावं जहट्टियं (ण्यपमण तह सिद्ध) तंतह व जाणणे इह सम्म पाणं जिगाविति।। 15. द्रव्यसंग्रह 42 16. उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम्। तत्त्वार्थसार- 1/4 19. वृत्तं च तद् द्वयस्यात्मन्नयस्खलद् वृत्तिधारणम्। क्षत्रचूड़ामणि 6/20 18. जीवाजीवाश्रवा बन्धसंवरौ निर्जरान्वितौ। मोक्षश्च तानि तत्वानि व्याप्नुवन्ति जगत्रयम्।
नेमिनिर्वाण 15/51