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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
चारित्तं खलु धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो॥" वस्तु का स्वभाव धर्म है। दस प्रकार- क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य आदि भाव धर्म है। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। यहां पर आचार्य ने धर्म के विविध स्वरूपों को बतलाया है। जीव आदि पदार्थों के स्वरुप का नाम धर्म है। जैसे शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप है, यही चैतन्य उसका धर्म है। अग्नि का स्वभाव उष्णता है और जल का स्वभाव शीतलता है। यही उसका धर्म है तथा उत्तम क्षमादि रूप आत्मपरिणाम भी धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप तीनों रत्न भी धर्म है। इस प्रकार प्राणियों की रक्षा करना धर्म है।
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः।१० सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म है ऐसा भी कहा गया है। व्यवहार धर्म और निश्चय धर्म स्वरूप
व्यवहार धर्म- "पंचपरमेष्ठ्यादि भक्तिपरिणामरूपो व्यवहार-धर्मस्तावदुच्यते। पंच परमेष्ठी आदि की भक्ति के परिणाम से व्यवहार धर्म होता है। जिसे पुण्य भी कहा गया
"धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते। १२
"गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्क्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते।"13 आहार दान आदि चतुर्विध दान गृहस्थों का परम धर्म है। सम्यक्त्व धर्म से परंपरागत मोक्ष की प्राप्ति होती है। "व्यवहारधर्मे च पुनः षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादि- लक्षणे वा शुभोपयोग स्वरूपे रतिं कुरु।' साधुओं की दृष्टि से भी षडावश्यक धर्म है तथा गृहस्थों की दृष्टि से दान, पूजादि शुभ उपयोग व्यवहार धर्म है। निश्चय धर्म स्वरूप
आत्मधर्म, विशुद्धधर्म है, यह विशुद्धता भी उत्तम परिणामों से आती है। जिसके विषय में सभी आचार्यों ने स्पष्ट कथन किया है कि आत्म परिणाम से समभाव उत्पन्न होता है यही अतिशयता को प्राप्त होता है।
"चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो।''15 अपने स्वरूप का आचरण चारित्र है। वह धर्म वस्तु का स्वभाव धर्म है। जो समभाव है चंचलता से रहित आत्मा का परिणाम है। वीतराग चारित्र, धर्म, सम परिणाम, आत्मा का परिणाम एकार्थ वाचक है।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।" अर्थात् मोह व क्षोभ रहित (राग द्वेष व योगों से रहित) आत्मा के परिणाम धर्म है। वस्तुस्वरूप की अपेक्षा रागादि ही हिंसा, अधर्म व अव्रत है और उनका त्याग ही अहिंसा