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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 नरक, मुक्ति आदि पारलौकिक तत्वों में विश्वास करते हैं। यदि पारिभाषिक रूप में वेद विरोधी होने से कुछ दर्शनों को नास्तिक कहा जाता है तो चार्वाकू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों को नास्तिक कोटि में रखा जाना आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि वास्तव में ये तीनों दर्शन वैदिक विचारधारा से सहमत नहीं है।
कुछ लोग ऐसा समझने लगे हैं कि भारतीय दर्शन की दो शाखाएं हैं- आस्तिक और नास्तिक। तथा कथित वैदिक दर्शनों को आस्तिक और जैन, बौद्ध दर्शनों को नास्तिक दर्शन कहते हैं। वास्तव में यह वर्गीकरण मिथ्या है। आस्तिक और नास्तिक शब्द “अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' इस पाणिनि सूत्र के अनुसार बने हैं। उनका मौलिक अर्थ यही था कि परलोक की सत्ता को मानने वाला आस्तिक और परलोक की सत्ता को न मानने वाला नास्तिक कहलाता है। इस अर्थ में जैन दर्शन को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। शब्द प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तु तत्व पर विचार करने के कारण अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन का अपना एक आदरणीय वैशिष्ट्य है। वैदिक दार्शनिक दृष्टि से जैन दर्शन की सारी दार्शनिक दृष्टि भिन्न है। इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु जैन दर्शन का महत्त्व उसकी प्राचीन परंपरा को छोड़कर दूसरे महत्व के आधारों पर भी है। किसी भी दार्शनिक विचारधारा का महत्त्व तब होता है, जबकि वह बिना किसी पूर्वाग्रह के प्रकृत वास्तविक समस्याओं पर वस्तुत: उन्हीं की दृष्टि से विचार करे अन्य भारतीय दर्शनों में शब्द प्रमाण की जो प्रमुखता है। वह एक प्रकार उनके महत्व को कुछ कम ही कर देता है। उन दर्शनों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि विचारधारा की स्थूल रूपरेखा का अंकन तो शब्द प्रमाण कर देता है तथा तत्तद्दर्शन केवल उसमें अपने रंगों को ही भरना चाहते हैं। इसके विपरीत जैन-दर्शन के अध्ययन से ऐसा आभास होता है, जैसे कोई बिल्कुल साफ प्लेट पर लिखना शुरु करता है। दार्शनिक दृष्टि के विकास के लिये आवश्यक है कि स्वतंत्र विचारधारा की भित्ती पर अपने विचारों का निर्माण करें और परंपरागत पूर्वाग्रहों से स्वयं को सुरक्षित रख सके।
जैन धर्मरूपी महल चार स्तम्भों पर स्थित है। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह। समय-समय पर तीर्थकरों ने इसी महल का जीर्णोद्धार किया और इसे युगानुकूलता देकर इसके समीचीन स्वरूप को स्थिर किया। संसार का प्रत्येक सत् कभी, समूल नष्ट नहीं होता है, परिवर्तन अवश्य होता है। वह उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यात्मक है। इस प्रकार विलक्षण है। चेतन या अचेतन कोई भी इस नियम का अपवाद नहीं। यह "त्रिलक्षण परिणामवाद" जैन दर्शन की आधारशिला है। अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद पद्धति के खम्भों से जैन-दर्शन का तोरण बँधा है। विविधा नय, सप्तभंगी, आदि इसकी झालरें है। नेमिनिर्वाण महाकाव्य के पन्द्रहवें सर्ग में भी, जैन दर्शन का बहुशः उल्लेख हुआ है । जैन दर्शन में जीव, अजीव, आस्रव बन्ध संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्वों के यथार्थ ज्ञान को मुक्ति-मार्ग माना है। जैनाचार्य ने इन सात तत्वों में पुण्य और पाप इन दो का जोड़कर, नौ पदार्थ माने हैं। मुक्ति-मार्ग में रत्नत्रय
जैन दर्शन में सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचरित्र की "रत्नत्रय" संज्ञा है। "समयसार