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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
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कालशब्द कल धातु से बना है। कल धातु का अर्थ 'विचार करना' ऐसा भी पाया जाता
'अर्द्धपुद्गलपरावर्तन नामक काल के शेष रहने पर' इसका ऐसा अर्थ करना'संसारकाल के अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनपमात्र शेष रह जाने पर' युक्त नहीं है, क्योंकि आचार्यवाक्य में 'संसार' शब्द नहीं है। इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है- “प्रत्येक पुद्गलपरावर्त्तन में" अर्द्धपुद्गल परावर्तन नामक काल के शेष रहने पर प्रायोग्यलब्धि में जिस प्रकार सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति का, आत्माभिमुख परिणामों के द्वारा, घात करके संख्यातहजारसागरकम अन्त:कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण कर्मस्थिति कर दी जाती है, उसी प्रकार आत्माभिमुखी परिणामों के द्वारा पंचलब्धि में या सम्यक्त्व के प्रथमसमय में अनन्तानन्तकालप्रमाण संसारस्थित को काटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमात्र कर देता है।
जिस जीव ने पंचलब्धि में अनन्तसंसारस्थिति को काटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमात्र कर दिया उस जीव अर्द्धपुद्गलपरावर्तनसंसारकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन होता है। अन्यथा सम्यक्त्वोत्पत्ति के प्रथमसमय में ही अनन्तसंसारस्थिति कटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमात्र हो ही जावेगी।
-लुहाड़िया भवन मदनगंज - किशनगंज (राज.)
चोर जगा रहे हैं? चोरी क्यों होती है और किसकी होती है? ये सोचने की बात है। जिन-भगवान वीतराग है, मन्दिर ओर मंदिर के उपकरण सभी उनके नहीं। ये तो शुभ-रागियों द्वारा शुभ-रागभाव में निर्मित रागियों के भवन हैं और उनके बहुमूल्य भौतिक उपकरण भी रागियों के है। जिन-शासन में बीतराग-भाव की महिमा है और वीतरागभाव के साधन जुटाने के उपदेश।
अब परम्परा कुछ ऐसी बनती जा रही है कि लोग मन्दिरों और मूर्तियों में भौतिक सम्पदा देखने-दिखाने के अभ्यासी बन रहे है-वे सांसारिक विभूति का मोह छोड़ने के स्थान पर, वीतराग-भाव की प्राप्ति में साधनभूत-मन्दिरों, मूर्तियों में सांसारिक विमूति देखने लगे हैं। कोई चांदी, सोने और हीरे की मूर्तियाँ बनवाते हैं तो कोई बहुमूल्य छत्र-चमर सिंहासन आदि और यह सब होता नाम, ख्याति, यश और प्रतिष्ठा के लिए। लोग चाहते हैं नाम लिखाना आदि। यह मार्ग सर्वथा त्याज्य है।
जब लोगों ने राग-त्याग के वीतरागी उपदेश की अवहेलना की तब चोरों ने थप्पड़ मारकर उन्हें सचेत किया और वे मार्ग पर आने को मजबूर होने लगे हैं। अब वे कह रहे
सादा मन्दिर में सादा मूर्ति, वह भी विशाल पाषाणनिर्मित होनी चाहिए जिससे वीतरागता झलके।
लोगों की इस प्रक्रिया से क्या हम ऐसा मान लें कि जिन्होंने वीतरागता की अवहेलना की उन्हें चोरों ने थप्पड़ मारकर सीधे मार्ग पर लाने का उपाय ढूंढा है। असली बात क्या है? जरा सोचिए?
-पं0 पद्मचन्द्र शास्त्री, सम्पादक अनेकान्त वर्ष 36, कि0 4