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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010
“एगो अणादिय मिच्छादिट्ठी तिणि वि करणाणि काऊण पढमसम्मत्त पडिवण्णो। तत्थ सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए संसारमणंत सम्मतत्तगुणेण छेत्तूण पुणो सो संसारो तेण अद्धपोग्गल-परियट्टमेत्ता कदो।" (जयधवल पु. 2 पृ. 391) अर्थ-एक अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीव तीनों करणों को करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। "तथा सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथम समय में सम्यक्त्व गुण के द्वारा अनन्त संसार को छेदन कर उसने संसार को अर्द्धपुद्गलपरावर्तन मात्र कर दिया।"
“संसारतटे निकटः सम्यक्त्वोत्पत्तितः उत्कृष्टेन अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकालपर्यन्तं संसार-स्थायीत्यर्थः।" (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा)। अर्थ- जिसका संसार तट निकट हो अर्थात् सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिकाल से जिसकी संसार स्थिति का उत्कृष्ट काल अर्द्धपुद्गलपरावर्तन मात्र रह गया हो।
___“मिथ्यादर्शनपक्षयेऽसंयतसम्यग्दृष्टेरनन्तसंसारस्य क्षीयमाणत्वसिद्धेः।" (श्लोकवार्तिक 1/1/105)। अर्थात्- मिथ्यादर्शष्न (दर्शनमोहनीय) कर्म के उदय का अभाव हो जाने पर (सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर) अनन्त संसार का क्षय हो जाता है।
काललब्धि के प्रकरण में तत्वार्थ सूत्र अध्याय 2 सूत्र 3 की टीका में सर्वार्थसिद्धिकार ने स्पष्ट लिखा है कि तीन प्रकार की काललब्धियां हैं जो प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यताओं को बताती हैं। कोई भी भव्य आत्मा अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि तब होती है जब कर्मों की बंध व सत्त्व वाले कर्मों की स्थिति एक कोड़ा कोड़ी सागर से कम है। तीसरी काललब्धि भव संबन्धी योग्यताओं से संबन्धित है। यह जीव भव्य संज्ञी, पर्याप्तक जाग्रत ज्ञानी व योगी और सर्व विशुद्ध है तथा आदि शब्दसे उसमें जाति स्मरणादिक योग्यता भी है। वह प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है। धवलादि ग्रंथों के प्रमाणों से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पश्चात अर्द्धपुद्गल परावर्तन संसार भ्रमण का काल शेष रह जाता है। इस प्रकार इस परस्पर विरोधी जैसे प्रतीत होने वाले कथनों के विषय में श्री रतनचंद जी मुख्तार ने यह कहा है कि
इनमें तृतीय काललब्धि अर्थात् अन्त: कोटी कोटी प्रमाण कर्म स्थिति अनेक बार हो सकती है। द्वितीय काललब्धि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त विशुद्ध परिणाम भी अनेक बार होता है। इसी प्रकार है प्रथम काललब्धि भी अनेक बार प्राप्त होती है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि एक अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल में से आधा काल बीत जाने के पश्चात् अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रह जाता है तब उस जीव की प्रथम काललब्धि प्रारंभ होती है। यदि उस अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में सम्यक्त्वोत्त्पत्ति नहीं हुई तो वह काललब्धि समाप्त हो जाती है। फिर दूसरा पुद्गल परावर्तन काल प्रारंभ होता है। इस दूसरे पुद्गल परावर्त्तन काल में से जब आधा काल बीत जाता है और आधा अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रहता है तब इस जीव के पुनः प्रथम काललब्धि का प्रारंभ होता है। यदि इस अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में भीसम्यक्त्वोत्त्पत्ति नहीं होती यह प्रथम काललब्धि पुनः दूसरी