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अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 यदि यह माना जाये कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन संसारकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने की योग्यता उत्पन्न होती है तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि संसार की स्थिति को अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल मात्र करने का कार्य किन परिणामों से हुआ? अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल सीमित हो जाने का अर्थ है सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति निश्चित हो गई। यह कार्य अनादि मिथ्यात्व दशा में कैसे संभव हो सकता है? प्रायोग्य लब्धि के काल में भी केवल कर्मों की स्थिति को घटाकार अन्तः कोड़ा कोड़ी करने का कार्य होता है किंतु संसार की स्थिति सीमित करने का कार्य होना नहीं बताया है क्योंकि प्रायोग्य लब्धि अभव्य को भी प्राप्त हो सकती है। करणलब्धि के काल में भी संसार घटाने का कार्य होने का उल्लेख नहीं किया गया है। अतः संसार की स्थिति घटाकर अर्द्ध-पुद्गल परावर्तन कर लेने का कार्य सम्यग्दर्शन द्वारा सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के प्रथम समय में होना तर्क संगत प्रतीत होता है।
जो यह मानते हैं कि सब जीवों के अर्थात् अनादि मिथ्या दृष्टि के भी मोक्ष जाने का काल नियत है अन्यथा सर्वज्ञता की हानि हो जायेगी, क्या उसको उपर्युक्त सर्वज्ञ वाणी पर श्रद्धा है? जिसकी सर्वज्ञ वाणी पर श्रद्धा नहीं है, वह सर्वज्ञ को मानने वाला नहीं हो सकता।
विचारणीय बिंदुः- १. सम्यक्त्व से अनंत संसार शांत होता है। २. मोक्ष जाने का काल नियत नहीं है। ३. यदि नियत माना जायेगा तो एकांत नियत वाद के रूप में एकांत मिथ्यात्व होने से सम्यक्त्व के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगता है। कुछ लोगों के द्वारा ऐसी शंका उपस्थित की जाती है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का काल नियत है और मोक्ष जाने का काल भी नियत है। जब मोक्ष जाने का काल नियत है तो उनका संसार का काल भी नियत है। अतः सम्यग्दर्शन से अनंत संसार काल घटकर पर्याप्त अपने नियत समय पर ही होगी आगे पीछे नहीं हो सकती। नियत वाद एकांत मिथ्यात्व का ऐसा नशा चढ़ा हुआ है कि सम्यग्दर्शन के माहात्म्य को भी अस्वीकार किया जाने लगा है। यदि मोक्ष अपने नियत समय पर होगा तो मोक्ष रूप कार्य का नियामक कारण काल हो गया और 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः यह सूत्र वाक्य व्यर्थ हो गया।
भव्य जीव अपने नियत काल के अनुसार ही मोक्ष जायेगा इस शंका का उत्तर देते हुए स्वामी अकलंक देव ने राजवार्त्तिक में कहा है:- "यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वक मोक्षकालस्य नियमोऽस्ति। केचिद् भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येयेन केचिदंतेन, अपरे अनंततानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति, ततश्च न युक्तम् भव्यस्य कालेन, निःश्रेयसोपपत्तेः इतिः।" यदि सर्वस्य कालो हेतुष्टिः स्यात्, बाह्याभ्यन्तरकारणनियमस्य दृष्टस्येष्टस्य वा विरोध: स्यात् (राजवार्तिकं 1/3) अर्थात्:- भव्यों के समस्त कर्मों निर्जरा से होने वाले मोक्ष के काल का कोई नियम नहीं है। कोई जीव संख्यातकाल में मोक्ष जायेगा, कोई असंख्यात और अनंतकाल में मोक्ष जायेगा। कोई अनन्तानन्तकाल तक भी मोक्ष नहीं जायेंगे। इसलिये भव्यों के मोक्ष जाने के काल का नियत है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। यदि सब ही के काल का नियम मान लिया जावे अर्थात् सब ही में एक काल को ही कारण मान लिया जावे तो प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाण के विषयभूत बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से विरोध आ जावेगा अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर कारणों के अभाव का प्रसंग आ जावेगा।