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शान्ति-क्रान्ति की मैराथन दौड़ में श्रमणचर्या
-डॉ. सुरेश चन्द जैन तीर्थंकर महावीर के वीर शासन की यह सदी नित नए कीर्तिमान स्थापित करने जा रही है, वैसे जहाँ 20वीं शताब्दी में अहिंसा और सत्याग्रह के अस्त्रों से देश की आजादी दिलाने वाले पुरोधा पुरुष महात्मा गाँधी ने भगवान् महावीर के सर्वोदयी सिद्धान्त को पुनर्जीवित किया था, वहीं परम पूज्य आचार्य शान्तिसागर जी ने विस्मृतप्राय श्रमण चर्या को जीवन्तता प्रदान की थी। उनका ही यह सुफल है कि आज पूरे देश में सहस्राधिक श्रमण-मुनि यत्र-तत्र विहार करते हुए शान्तिमय क्रान्ति में सन्नद्ध हैं। श्रमणचर्या में एक नए आयाम को भी जोड़ा गया है और वह है नवतीर्थ निर्माण। संभवत: आचार्य कुन्दकुन्द इसे मुनि के आवश्यक गुणों में शामिल करना भूल गए थे इसीलिए वर्तमान के आचार्यों ने आगमानुकूल नए तीर्थ निर्माण की प्रक्रिया में स्वयं को जोड़ते हुए समाज को सक्रिय भागीदारी करने के लिए उत्प्रेरित किया है। पूर्व में ज्ञान ज्योति रथ प्रवर्तन हुआ था। उसकी शुरुआत महासभाध्यक्ष श्री निर्मल जी सेठी ने की थी और उसका प्रवर्तन देश की राजधानी दिल्ली से हुआ था। इसी कड़ी में एक और रथ का प्रवर्तन हुआ है उसकी शुरुआत भी आदरणीय सेठी जी ने ही की। इस रथ प्रवर्तन का नामकरण पुष्पगिरि दिग्विजय रथ प्रवर्तन हुआ है तथा जिसका प्रवर्तन शान्ति-क्रांति दृष्टा राष्ट्रसंत मुनि तरुणसागर जी के मार्गदर्शन में हुआ है तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री रमनसिंह ने इस रथ को हरी झंडी दिखायी है। यह रथ देश की चारों दिशाओं में दिग्विजय करता हुआ जनवरी 2011 तक पुष्पगिरि पहुंचेगा जहां अनुमानतः 10-15 लाख श्रद्धालुओं की उपस्थिति में दिग्विजय रथ का समापन होगा। चक्रवर्ती कौन होगा? इसका निर्णय उपस्थित जनसमुदाय करेगा और चयनित चक्रवर्ती का पदारोहण एवं अभिषेक भी होगा ही। क्योंकि इसके बिना दिग्विजय रथ विजय की सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? यह यक्ष प्रश्न आज भी है और 2011 तक बना रहेगा।
पुराणों में चक्रवर्ती छः खण्डों की विजय के लिए दिग्विजय करते थे। आज तक न तो कहीं पढ़ने में आया और न ही गुरुमुख से सुना कि धर्मप्रभावना की भी दिग्विजय यात्रा होती है। वैसे भी, आज न तो कोई चक्रवर्ती है और कदाचित् कोई शासक चक्रवर्ती बनने का प्रयास करे भी तो जनतंत्र में यह संभव ही नहीं। राजा-महाराजा, सम्राट और चक्रवर्ती होने का यह युग नहीं है। शान्ति-क्रांति दृष्टा यदि चक्रवर्ती हो सकें तो यह ध म का मंगल प्रभात मानना होगा क्योंकि धर्म की स्थिति तीर्थ में है और जितने तीर्थ होंगे उतना ही लोगों का उद्धार होगा और चरम पुरुषार्थ मोक्ष की सिद्धि भी। क्योंकि तीर्थकर तो इस कालचक्र में होने से रहे तो तीर्थक्षेत्र के नव-निर्माण की श्रृखंला में भला कौन ऐसा सन्त होगा जो एक नए तीर्थ का निर्माण न करना चाहेगा? ऐसी जन-धन और धर्म प्रभावना