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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
इस कार्य का बीड़ा और लगभग एक वर्ष के कठोर परिश्रमपूर्वक कृति को प्रस्तुत रूप प्रदान किया। इसमें संकलित परिभाषाएं अनुपम हैं। धीर की परिभाषा करते हुए आचार्य वसुनन्दि ने लिखा है कि
एयाइणो अविहला वसंतिगिरिकंदरेसु सप्पुरिसा।
धीरा अदीणमणसा रममाणा वीरवयणम्मि॥ ७८९॥ जो एकाकी रहते हैं, विकलतारहित हैं, गिरिकन्दराओं में निवास करते हैं, सत्पुरुष हैं, दीनतारहित हैं, वीर भगवान के वचनों में रमते हुए वे धीर कहलाते
__ कृति की पाण्डुलिपि तैयार करने में डॉ. अशोक कुमार जैन, रीडर- जैन बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन साधुओं, शोधार्थियों, विद्वानों एवं समाज के स्वाध्यायी बन्धुओं के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी एवं सार्थक है। कृति का प्रकाशन अनुपम है।
-डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन,
बुरहानपुर