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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 सर्वायतन मानते हुए सर्वोदय-दर्शन के अनुसार राज्य व्यवस्था में सर्वायतन यानि जो राज्यव्यवस्था सभी का, सभी के द्वारा एवं सभी के लिये हो" माना था।
असल में यह शब्दांतर इसलिए किया गया कि पाश्चात्य नीति शास्त्रज्ञों में सिजविक, बैंथम मिल आदि ने उपयोगितावाद का नया दर्शन कर खड़ा कर उसे "अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख" का आकर्षक नारा दिया था। किन्तु चूंकि इसका मूलाधार भौतिकवादी जीवन-दर्शन था, वह सर्वोदय-विचार का मंत्र नहीं स्वीकार किया गया। इसके बाद से वैदिक वाड.मय से “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्" का अधिक व्यापक आदर्श स्वीकार्य हुआ। बहुसंख्यक या बहुमत का आधार अल्पमत को खारिज करता है।
यही कारण है कि पाश्चात्य राजतंत्र में संसदीय प्रजातंत्र में बहुमत का आधार लोकतंत्र का अधिष्ठान बन गया। जिसके कारण अनेक विकृतियों का जन्म हुआ। बहुसंख्यक का गाणितिक समीकरण 51/49 भी हो सकता है एवं यदि 99/100 लेकर 51/49 भी हो सकता है। भारतीय संसद में हाल ही में मात्र 1 वोट से अटलजी की सरकार अपदस्थ हो गयी। एक राज्य में सरकार आज भी अल्पमत में रहकर शासन कर रही है। लेकिन बहुमत अल्पमत के अतिरिक्त उपयोगितावाद का आधार सर्वतोभद्र नही है और उसकी दृष्टि मात्र भौतिकवादी है।
हमें सोचना होगा कि सर्वोदय में 'उदय' शब्द केवल भौतिक उदय की अपेक्षा नही रखता है उपनिषद् में जिस प्रकार प्रेय एवं श्रेय तथा धम्मपद में पिय-सियस वग्गो का और न्याय वैशेषिक में अभ्युदय निः श्रेयस् है। साम्यसुत्र में अभिधेय परमसाम्य में सब का समन्वय है, उसी प्रकार का अन्तर उपयोगिता वाद एवं सर्वोदय में है। विनोबा जी ने साम्यसूत्र में अभिधेय परम साम्य की जब उपस्थापना की तो समता में केवल आर्थिक समता का ही नहीं, बल्कि राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक समत्व की बात रखी है। इस अर्थ में समन्तभद्र के सर्वोदय की अवधारणा मूल रूप से आध्यात्मिक है, जबकि गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय आध्यात्मिक होने के साथ-साथ लौकिक भी है। जिसमें जीवनका समस्त पक्ष समाहित है। जिसे हम संरचनात्मक सर्वोदय कह सकते हैं।
आचार्य समन्तभद्र ने अन्य संतो की तरह व्यक्तिगत साधना और व्यक्तिगत समाधि की है। कर्म के द्वारा मनुष्य बन्धन में पड़ता है और कर्म के क्षय होने से ही मोक्ष की सिद्धि होती है। गाँधी ने व्यक्तिगत सदाचार को कम महत्व नहीं दिया और जहाँ जैनाचार्यों ने पंचमहाव्रत को बौद्धों ने पंचशील तथा सांख्य-योग-वेदांत में पंचयाम् के रूप में व्यक्तिगत चारित्रिक साधना को अपनाते हुए एकादश व्रत का विधान रखा है, किन्तु जहाँ संत आदि अंतर्मुखता के कारण केवल व्यक्तिगत जीवन शुद्धि पर जोर देते हैं वहाँ गाँधी उनके विचार को मानते हुए देशकाल और परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति के साथ समाज को भी ध्यान में रखते हुए व्यवस्था की पवित्रता पर भी ध्यान देते हैं। भागवत महापुराण में प्रह्लाद ने भगवान द्वारा परमपद प्राप्त करने के लिए जाना छोड़ दिया था और कहा था जब तक समाज