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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
17. मनुष्य की सामान्य इच्छाओं की पूर्ति प्रकृति द्वारा बिना किसी कठिनाई के पूरी की
जा सकती है, किन्तु जब इच्छा बहुगुणित होकर कलुषित हो जाती है, तब उसे पूरी करना प्रकृति के लिए कठिन हो जाता है। मनुष्य की यह बहुगुणित इच्छा ही प्राकृतिक संकटों की जननी है। इसी कलुषित एवं बहुगुणित इच्छा की तुष्टि के फलस्वरूप पर्यावरण तहस-नहस हो जाता है। वायु, जन ध्वनि एवं दृश्य प्रदूषित हो जाते हैं। जैसेजैसे व्यक्ति की इच्छा बहुगुणित और कलुषित होती जाती है, उसकी संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। उसका मन, चित्त, धवलता के स्थान पर कालिमा ग्रहण कर लेता है। ऐसी प्रवृत्तियों को नियमित करने के लिए जैन आचार्य कहते है। कि हम प्रयत्न पूर्वक चलें, प्रयत्न पूर्वक ठहरें, प्रयत्न पूर्वक सोएं, प्रयत्न पूर्वक बैठे, प्रयत्न पूर्वक बोलें
और प्रयत्न पूर्वक भोजन करें। आइये, हम कालिमा के पथ को छोड़कर धवलता के पथ पर अग्रसर हों और अपने पर्यावरण का संरक्षण एवं सवंर्द्धन करें। हम अपने प्राकृतिक धर्म का निर्वाह करें। अपने पर्यावरण को सम्हालें। अपने परिवेश को शुद्ध रखें और सब मिलकर अपनी धरा को सजाऐं।
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विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मानाम्।।
भर्तृहरि नीतिशतक, 63 - विपत्तिकाल में धैर्य, ऐश्वर्य में क्षमा, सभा में वाक्चातुरी, शास्त्र में व्यसन- ये सब गुण महात्माओं में स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं।