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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
प्रेरणा एवं अनुभूति प्रदान करते हैं। तीर्थकर यह जानते थे कि मानव प्रकृति पर निर्भर है, अतएव उन्होंने प्रकृति, वन्य पशु एवं वनस्पति जगत के प्रतिनिधि के रूप में महत्त्वपूर्ण विभिन्न प्रतीक चिन्ह् स्वीकार किए। 24 तीर्थकरों के 24 चिन्हों में से प्राणी-जगत से 13 चिन्ह है। प्राणी जगत के बैल, हाथी, घोड़ा, बंदर, हिरण एवं बकरा इत्यादि मनुष्य जगत के लिए सदैव उपयोगी एवं सहयोगी रहे हैं। ये जीव जगत के लिए वरदान स्वरूप रहे हैं। स्वस्तिक एवं कलश मांगलिक हैं, अतः क्षेमंकर है। वज्रदण्ड न्याय, वीरता एवं शौर्य का प्रतीक है। प्रकृति का महत्त्वपूर्ण घटक चन्द्रमा शीतलता एवं प्रसन्नता प्रदायक है। कल्पवृक्ष, वनस्पति जगत् का प्रतीक है। लाल, एवं नीलकमल पुष्प जगत के सुमधुर एवं सुरभित प्रतिनिधि है। पुष्प अपनी प्राकृतिक सुन्दरता एवं सुकुमारता से शान्ति और प्रेम का संदेश प्रसारित करते रहे हैं। इस प्रकार
जैन संस्कृति प्रकृति आधारित संस्कृति है। १४.प्रत्येक जैन तीर्थकर को विशुद्ध ज्ञान (केवल ज्ञान) की प्राप्ति किसी विशेष वृक्ष की
छाया में प्राप्त हुई। जैन साहित्य में इन वृक्षों को तीर्थकर वृक्ष या केवल वृक्ष कहते हैं। भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकरों के वृक्ष पर्यावरण संरक्षण के जनक एवं संपोषक हैं। यह मान्यता है कि प्रत्येक वृक्ष में संबंधित तीर्थकर का आंशिक प्रभाव विद्यमान रहता है। विशेष्य तीर्थकर वृक्ष की सेवा, दर्शन और अर्चना से संबंधित तीर्थंकर की कृपा प्राप्त होती है। तीर्थंकर वृक्ष के रोपण से संबंधित स्थल की आध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि होती है। 24 तीर्थंकरों के जामुन, पीपल, कैथा, नन्दी, तिलक, आम, अशोक, मौलश्री, बांस, देवदार एवं साल है। पंचम तीर्थकर सुमतिनाथ एवं षष्ठ तीर्थंकर पदमप्रभ दोनों तीर्थकरों ने प्रियंगु वृक्ष को ही स्वीकार किया है। यह अपवादात्मक स्थिति बन गई है। इस प्रकार 24 तीर्थकरों ने 23 प्रकार के भिन्न भिन्न
वृक्षों को स्वीकार कर वृक्ष संरक्षण को परोक्ष रूप से संवर्धन प्रदान किया है। १५.जैन तीर्थकर प्रकृति और पर्यावरण के विशेषज्ञ थे। अतः उन्होंने स्वयं को प्रकृति से
जोड़कर पर्यावरण को आध्यात्मिक जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। परिणामतः उनके द्वारा आदेशित तीर्थकर चिन्ह एवं तीर्थकर वृक्ष भारतीय-संस्कृति में पूरी तरह से रच-पच कर भारतीय जीवन पद्धति के अंग बन गए। तीर्थंकरों ने अपनी घनघोर तपस्या के लिए भारतवर्ष के सघन वन तथा वन्य प्राणियों की प्रचुरता वाले क्षेत्रों का चयन किया है। तीर्थकरों ने अपने चिन्ह्नों और वृक्षों के माध्यम से प्रकृति से अपना जीवंत संपर्क बनाये रखा है। प्रकृति संरक्षण में जैन चिंतन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। आज आवश्यकता है कि इस जीवन्त इतिहास को विश्व के समक्ष पुनः उद्घाटित किया
जाए।
16. तीर्थकर चिन्ह्न-समूह और तीर्थकर वृक्ष समूह अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के पर्यावरण
की अनुभूति का प्रवाही स्रोत है। चिन्हों और वृक्षों की यह चौबीसी प्रकृति, वनस्पति, पशु एवं पक्षी जगत की महत्त्वपूर्ण अभय-वाटिका है। इस अभय-वाटिका से शान्ति का शाश्वत निर्झर प्रवाहित हो रहा है।