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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
जिनभद्रगणि ने कहा है कि संसार की अनन्त वस्तुएँ अनभिलप्य है, जिनका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता है। जो अभिलभ्य पदार्थ है, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय है और जो प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही सूत्रबद्ध है। इसलिए वस्तु के संदर्भ में सापेक्ष कथन ही उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन कर सकता है। क्योंकि निरपेक्ष कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त रह जाने के कारण या उन धर्मों का निषेध हो जाने से वह कथन असत्य हो जाता है। इसलिए कथन की पूर्ण सत्यता को बनाये रखने के लिए एवं वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिए सापेक्ष कथन पद्धति ही समीचीन हो सकती
अनेकान्त की अपरिहार्यता
सामान्य रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक दर्शन यही दावा करते हैं कि उनके मान्य विचार, मार्ग और सिद्धांत ही सत्य हैं। परिणामस्वरूप विरोधी प्रवृत्तियों और विरोधी मतभेदों का जन्म होता है। इन विरोधी या एकान्तिक मतभेदों ने जीवन को सुलझाने की अपेक्षा और अधिक उलझाकर संघर्ष और निराशाओं को उत्पन्न करने का ही काम किया।
जब कोई जिज्ञासु जगत, जीवन और जीवन संबन्धी प्रश्नों के समाधान के लिए संसार के विभिन्न दार्शनिक परंपराओं का अध्ययन करता है तो घोर निराशा में पड़ जाता है और उसकी दृष्टि और अधिक उलझ जाती है। इसका कारण यह है कि विभिन्न दार्शनिक परंपराओं में जीव, जगत और जीवन के विषयक इतने परस्पर विरोधी विचारों को प्रस्तुत किया गया है जिससे उनमें आकाश-पाताल का अन्तर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ- आत्म तत्त्व के विषय में ही विभिन्न परस्पर विरोधी विचारों को रखा गया है। कोई दर्शन आत्मा को नित्य मानता है, कोई उसे अनित्य मानता है। कोई आत्मा को एक कहता है तो कोई अनेक कहता है। किसी दर्शन के अनुसार आत्मा विभु है तो अन्य किसी दर्शन के अनुसार आत्मा अणु है। आत्मा जैसे विषय पर भी दार्शनिक एकमत नहीं हो पाये। ऐसी स्थिति में जिज्ञासु को निराश होना स्वाभाविक ही है कि आखिर सत्य क्या है ?
जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के आधार पर इस समस्या का समाधान किया है। अनेकान्तिक दृष्टि के माध्यम से परस्पर विरोधी दार्शनिक अवधारणाओं के विरोधों का परिहार करके समन्वय स्थापित करने के प्रयास किये गये हैं। अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं और उलझनों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है। समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, यशोविजयजी आदि अनेक दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के बल पर ही नित्य-अनित्य, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व-नास्तित्व आदि विरोधी विचारों का युक्तिसंगत समन्वय किया है। 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय' नामक ग्रंथ में हरिभद्रसूरि ने विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। देवेन्द्रमुनि के शब्दों में अनेकान्तवाद रूपी न्यायाधीश परस्पर विरोधी दावेदारों का निर्णय बहुत ही समीचीन रूप से करता है और उसमें वादी और प्रतिवादी दोनों के साथ न्याय किया जाता है।