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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
इस प्रकार अनेकान्तवाद सब दर्शनों की धुरी के रूप में है। दार्शनिक समस्याओं की बाते तो दूर रही दैनिक जीवन का व्यवहार, अर्थात् समाज और परिवार के सम्बन्धों का निर्वाह भी अनेकान्त के बिना नहीं होता है। आचार्य सिद्धसेन का कथन है कि जिसके बिना लोक-व्यवहार का निर्वाह भी नहीं होता, उस जगत के एकमात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है।
द्वारा- डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड मु.पो. शाजापुर (म.प्र.) 465001
संदर्भ1. दर्शन और चिंतन, पं. सुखलालजी, पृ.151
स्याद्वाद और सप्तभंगीनय, भिखारीराम यादव, पृ.42 'अनन्त धर्मात्मक वस्तु'- स्यादवाद मंजरी, श्लोक 22 की टीका अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ.12 जीवन पाथेय, साध्वी युगल निधि-कृपा, पृ.32 अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ.1 जैन तत्त्वमीमांसा, पं. फूलचन्द शास्त्री, पृ.339 धवला, 15/25/1 अनेके अन्ताः धर्माः सामान्य विशेष पर्याय। गुणा सस्येति सिद्धेऽनेकान्तः, सप्तभंगीतरंगिणी, पृ.30 मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ, पृ.350 दर्शन और चिन्तन, पं. सुखलाल जी, पृ. 149 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ.3 एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति- ऋग्वेद, 1/164/46 अनादिमत्वरं ब्रह्म न सत्तान्नासदुच्यते- भगवद्गीता, 13/12 तदेजति जन्नजति पदूरे तद्धन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाहायतः।।-ईशावास्योपनिषद्, 5 बहिस्तश्च भूतानामचरं चरमेव च- भगवद्गीता, 13/16 तं जीवं तं शरीरं.....संयुक्तनिकाय पालिभाग- 2,12,-36