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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
वस्तु में एक साथ विद्यमान रह सकते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते हैं कि एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी की अपेक्षा से पति है तो बहन की अपेक्षा से भाई है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति पति और भाई दोनों है। एक ही भोजन स्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा से पथ्य है तो अस्वस्थ अथवा रुग्ण व्यक्ति के लिए अपथ्य बन जाता है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु छोटी-बड़ी, शीत-उष्ण, कोमल-कठोर बन जाती है। इस प्रकार सामान्यतया मानव बुद्धि जिन्हें परस्पर विरोधी गुण धर्म मान लेती है, वे भी एक ही वस्तु में अपेक्षा भेद से पाये जाते हैं।
इसी कारण से जैनाचार्यों ने सत्ता को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य न कहकर परिणामी नित्य माना है। सत्ता प्रतिसमय निमित्तों के आधार पर परिवर्तित होते हुए भी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं करती है। जैसे- एक ही व्यक्ति बालक, युवा और वृद्ध, शक्ति आदि भी बदलते रहते हैं। फिर भी व्यक्ति 'वही रहता है'। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाएं बदलती रहती हैं, परन्तु व्यक्ति तो वही रहता है। व्यक्ति बदलकर भी नहीं बदलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यायें बदलती रहती हैं। व्यक्ति अर्थात् दृष्टा नहीं बदलता है। बाल्यावस्था नष्ट होकर युवावस्था प्रकट होती है, परन्तु इन दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति नहीं बदलता है। व्यक्ति तो 'वही' रहता है। इस प्रकार एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य, ये तीनों युगपत् रहते हैं। उत्पाद एवं नाशरूप पर्यायों के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं होता है और द्रव्य (ध्रुवांश) के बिना पर्यायें नहीं होती है। अतः द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। इस प्रकार द्रव्य की दृष्टि से सत्ता नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। भगवान महावीर से पूछा गया कि जीवन नित्य है, या अनित्य ? भगवान का उत्तर था- जीव अपेक्षा से भेद से नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य और पर्याय दृष्टि से जीव अनित्य है। नित्य और अनित्य के समान ऐसे अनन्त परस्पर विरोधी धर्म वस्तु में सापेक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं। अतः वस्तु में स्वीकारात्मक, निषेधात्मक, परस्पर विरोधी, परस्पर-अविरोधी आदि अनेक गुणधर्म होने से वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मात्मक और अनैकान्तिक है। ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमितता
जब प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होती है तब वस्तु के अनेक गुणधर्मों की ओर दृष्टि को ओझल करके किसी एक गुण धर्म का सर्वथा विधान करना एकान्तिक कथन है, जो असत्य का प्रतिपादक हो जायेगा। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी भी धर्म का निषेध नहीं करते हुए सभी धर्मों का विधायक कथन ही वस्तुतत्त्व का सत्य प्रतिपादन कर सकता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो अनन्त धर्मात्मक वस्तु तत्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करना सहज नहीं है। हर वस्तु में इतने अधिक धर्म, गुण पर्याय आदि मौजूद रहते हैं कि उनका बता पाना असंभव नहीं होने पर भी कठिन अवश्य हो जाता है।
एक ओर वस्तु का स्वरूप विराट है, तो दूसरी ओर इस विराट स्वरूप को जानने के हमारे साधन सीमित हैं। मानव के पास सत्यगवेषण के लिए दो ही साधन हैं- इन्द्रियाँ