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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
भावात्मक धर्म ही नहीं, अनन्त अभावात्मक धर्म भी है। आम्रफल को आम्रफल होने के लिए आम्रफलत्व धर्म तो चाहिए ही, साथ- साथ द्राक्षत्व, कदलीत्व आदि की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। यह आम्रफल है', ऐसा निश्चय तभी होगा जब उसमें द्राक्ष, कदली आदि के गुण धर्मों का अभाव होगा।
वस्तु के स्वरूप निर्धारण में विधि और निषेध दोनों की अपेक्षा रहती है। किसी एक के अभाव में वस्तु का स्वरूप नहीं बन पाता है। स्वयंभूस्तोत्र में लिखा गया है कि विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षा में उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है। व्यक्ति जब चलता है तब दोनों पैर एक साथ नहीं उठते हैं। दोनों एक साथ उठे तो चलना संभव नहीं हो सकता है। चलते समय एक पैर आगे बढ़ता है तो दूसरा पैर पीछे खिसक जाता है। इसी प्रकार विवक्षित समय में वस्तु के अनन्त धर्मों में से एक धर्म मुख्य होता है, शेष सारे धर्म गौण हो जाते हैं। डॉ. सागरमलजी जैन कहते हैं- वस्तु में अनेक भावात्मक धर्म हैं तो उससे कई गुना अधिक अभावात्मक धर्म है। भावात्मक और अभावात्मक दोनों धर्म मिलकर ही वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते हैं। वस्तु क्या है' और 'क्या-क्या नहीं है', इसी से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है। अतः वस्तु के निर्णय के लिए विधेयात्मक पक्ष के साथ निषेधात्मक पक्ष को भी स्वीकारना पड़ता है, अन्यथा वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी। वस्तु अनेकान्तिक है
ज्ञातव्य है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने के साथ-साथ अनेकान्तिक भी है। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु में न केवल विभिन्न गुण धर्म होते हैं, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ एक ही आम्रफल जब कच्चा रहता है, तब हरा और पकने के बाद पीला हो जाता है। वही आम्रफल कालान्तर में सड़कर काला भी हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार जो तत् है वही अतत् भी है; जो एकान्त है वह अनेकान्त भी है; जो सत् है वह असत् भी है। एक ही वस्तु में अस्तित्व-नस्तित्त्व, एकत्व-अनेकत्व, नित्यता-अनित्यता आदि अनेक पक्ष अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं होती है। इसी प्रकार वस्तु सर्वथा एक या अनेक भी नहीं है। नित्यता, अनित्यता आदि परस्पर निरपेक्ष नहीं है। नित्यता के बिना अनित्यता और अनित्यता के बिना नित्यता अर्थहीन हो जाती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं। एकता और अनेकता परस्पर अनुस्यूत रहते हैं। उत्पत्ति और विनाश भी एक दूसरे के बिना संभव नहीं है।” पंचास्तिकाय में भी कहा गया है कि भाव (सत्त्व) का कभी अभाव नहीं होता
और अभाव (असत्त्व) का कभी सद्भाव नहीं होता है। यद्यपि ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नित्यता और अनित्यता दोनों परस्पर विरोधी धर्म होने से एक ही वस्तु में एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ? वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम परस्पर सर्वथा विरोधी धर्म मानते है।, वे सर्वथा विरोधी धर्म नहीं होते हैं। दो विरोधी धर्म अपेक्षा भेद से