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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
हो जाता है। समाधि-उत्तराध्ययन, आचारांग आदि जैनागमों में समाधि शब्द का प्रयोग बहुत बार हुआ है। किन्तु वह भी ध्यान की चरम अवस्था ही है। कुछ सीमा तक समाधि व शुक्लध्यान में साम्य भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में 'पृथक्त्व-श्रुत-सविचार' तथा 'एकत्व-श्रुत-अविचार' इन दो स्थितियों का वर्णन किया है। ये पातञ्जल सवितर्क समापत्ति द्वारा तुलनीय है। जहां ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों वहां उक्त दोनों की संज्ञा सविचार
और निर्विचार समाधि है। ऐसा पतञ्जलि कहते हैं। निर्विचार-समाधि में अत्यन्त वैशद्य-नैर्मल्य रहता है, अत: योगी को उसमें अध्यात्म प्रसाद-आत्म-उल्लास प्राप्त होता है। उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतम्भरा होती है। उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है। इस प्रकार समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं। फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से निर्बीज-समाधि दशा प्राप्त होती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं ने उसका शुद्ध स्वरुप आवृत कर रखा है। ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाएगा, वह आत्मा स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जाएगी। आवरणों के अपचय के नाश के जैन दर्शन में तीन क्रम हैं- क्षय, उपशम और क्षयोपशम। क्षयकिसी कार्मिक आवरण का सर्वथा निर्मल या नष्ट हो जाना। उपशम- अवधि-विशेष के लिए मिट जाना या शांत हो जाना उपशम। क्षयोपशम-कर्म की कतिपय प्रवृत्तियों का सर्वथा क्षीण हो जाना और कतिपय प्रकृतियों का समय विशेष के लिए शांत हो जाना। कर्मों के उपशम से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज समाधि से तुलननीय है, क्योंकि वहां कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं हुआ है, केवल उपशम हुआ है। कार्मिक आवरणों के क्षय से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज समाधि से तुलनीय है; क्योंकि वहाँ कर्म-बीज संपूर्णत: दग्ध हो जाता है।
इस प्रकार उक्त विषय के अनुशीलन से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि इन दोनों परंपराओं में काफी सामञ्जस्य है। शाब्दिक व पारिभाषिक वैविध्य के रहते हुए भी एक समता की सी प्रतीति होती है। वास्तव में कहा जा सकता है कि पातञ्जल योग तथा जैनयोग में अनेक ऐसे पहलू हैं जिन पर गहराई से तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
संदर्भ 1. योगसूत्र 1/2 2. योगशास्त्र 1/15 3. तत्त्वार्थ सूत्र-61, स्थानांग सूत्र- 3.1.124 4. पातञ्जल योगदर्शन वृत्ति- उपाध्याय यशोविजय 5. तत्त्वार्थसूत्र 24.1 6. उत्तरा. सूत्र - 29.8-13 7. योगसूत्र - 2/46