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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
तो वे महाव्रत ही अणुव्रत कहे जाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम द्वितीय तथा तृतीय प्रकाश में इन महाव्रतों का विस्तृत वर्णन किया है। ऐसी किंवदन्ती है कि आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरेश्वर कुमारपाल के लिए योगशास्त्र की रचना की थी इसीलिए उन्होंने गृहस्थ जीवन को विशेषतः दृष्टि से रखकर आत्म विकास हेतु परिपालनीय अणुव्रतों का भी बड़ा ही मार्मिक विश्लेषण किया। सापवाद और निरपवाद व्रत- परंपरा तथा पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित यमों के तारतम्यता रुप पर विशेषः ऊहापोह किया जाना अपेक्षित है। पतञ्जलि भी यमों को महाव्रत शब्द से अभिहित करते हैं जो कि जैन परंपरा से तुलनीय है। योगसूत्र के व्यासभाष्य में इसका तलस्पर्शी विवेचन हुआ है।
यमों के पश्चात् नियम आते हैं। समवायांग सूत्र के बत्तीसवें समवाय में योगसंग्रह के नाम से बत्तीस नियमों का उल्लेख मिलता है जबकि पातञ्जल नियमों की संख्या पाँच ही है। योगसंग्रह में एक ही बात को विस्तार से अनेक शब्दों में कहा गया है। इसका कारण यह है कि जैन आगमों में दो प्रकार के अध्येता बहुत थोड़े में बहुत कुछ समझ लेना चाहते हैं और विस्तार-रुचि अध्येता प्रत्येक बात को विस्तार के साथ सुनना समझना चाहते हैं। जैन परंपरा में नियमों की यह बत्तीस संख्या विस्तार रुचि वाले अध्येताओं के लिए समुचित प्रतीत होती है। योगसंग्रह के ये बत्तीस भेद विस्तार-रुचि सापेक्ष निरुपण शैली के अनुपम उदाहरण हैं।
__ आसन के संबन्ध में हेमचन्द्र ने एक विशेष बात कही है- 'जिस-जिस आसन के प्रयोग से साधक का मन स्थिर बने, उसी आसन का ध्यान के समय उपयोग किया जाना चाहिए। पातञ्जल योगदर्शन में भी 'स्थिरसुखमासनम्” इसी ओर संकेत किया है।
जैन साधना पद्धति में प्राणायाम का उल्लेख तो मिलता है किन्तु उसे मुक्ति की साधना में आवश्यक नहीं माना गया है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने प्राणायाम का निषेध किया है, क्योंकि प्राणायाम से वायुकाय जीवों की हिंसा की संभावना रहती है।' इसी तरह आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में तथा उपाध्याय यशोविजय जी ने भी 'जैनदृष्ट्या परीक्षितं पातंजलि योगदर्शनम्।। नामक ग्रंथ में प्राणायाम को मुक्ति की साधना के रुप में अस्वीकार किया है। उनके अनुसार प्राणायाम से मन शांत नहीं होता, अपितु विलुप्त हो जाता है। प्राणायाम की शारीरिक दृष्टि से उपयोगिता है मानसिक दृष्टि से नहीं। दूसरी ओर 'मन्दं मन्दं क्षिपेद् वायु मन्दं मन्दं विनिक्षिपेत्' कहकर आचार्य सोमदेव ने 'यशस्तिलक चम्पू12 में प्राणायाम की महत्ता को स्वीकार किया है। आचार्य भद्रबाहु ने दैवसिक कायोत्सर्ग में 100 उच्छ्वास, रात्रिक कायोत्सर्ग में 50, पाक्षिक में 300, चातुर्मासिक में 500 और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग में 1008 उच्छ्वास का विधान किया है। श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म प्रक्रियाओं की जैन साहित्य में जो स्वीकृति है। इस दृष्टि से जैन परंपरा में भी प्राणायाम स्वीकार किया गया है। जैन साधना जो कायोत्सर्ग की साधना है वह प्राणायाम से युक्त है। जैन आगमों में दृष्टिवाद जो बारहवाँ अंग है, उसमें एक विभग पूर्व है। पूर्व का बारहवां विभाग प्राणायुपूर्व है। कषायपाहुड' में उस पूर्व का नाम प्राणवायु पूर्व है जिसमें प्राण और अपान का विभाग विस्तार से निरूपित है। प्राणायु या प्राणवायुपूर्व के विषय वर्णन