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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
करणीय कर्मों 'षट्कर्मो' का विधान है- सामयिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान। 1. सामायिक - पापमूलक प्रवृत्तियों की निवृत्ति एवं साम्यता की स्थिति। 2. चतुर्विशतिस्तव - चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति। 3. वन्दन - गुरुजनों तथा संतों के लिए आदर प्रकट करना। 4. प्रतिक्रमण - सदोष आचार का प्रायश्चित। 5. कायोत्सर्ग - शरीर का त्याग - विसर्जन। पर जीते जी शरीर का त्याग कैसे संभव है? यहाँ शरीर के त्याग का अर्थ है- शरीर की चंचलता का विसर्जन, ध्यान करते समय शरीर का शिथिलीकरण, शारीरिक ममत्व का विसर्जन इत्यादि। कायोत्सर्ग के प्रसंग में जैन आगमों में विशेष प्रतिमाओं का उल्लेख है। प्रतिमा अभ्यास की एक विशेष दशा है। भद्रा प्रतिमा, महाभद्रा प्रतिमा, सर्वतोभद्रा प्रतिमा तथा महाप्रतिमा कायोत्सर्ग की इन विशेष दशाओं में स्थिति होकर भगवान् महावीर ने ध्यान किया था, जिनका आगमों में उल्लेख है। यद्यपि यह परंपरा प्रायः लुप्त होती प्रतीत होती है पुनरपि यह पातञ्जलयोग दर्शन के आसन योग से भृशं साम्य रखती है। 6. प्रत्याख्यान - पापकर्मों से निवृत्ति, आहारादि का कुछ समय के लिए त्याग।
ये षट्कर्म जैन परंपरा में ठीक उसी प्रकार निर्दिष्ट हैं मोनो ये सार्वभौम महाव्रत ही हों। मुख्यतया जैन धर्म आचार पर आधारित है। 'आचारः परमो धर्माः' का सिद्धान्त जैनधर्म में सर्वोच्च सिद्धांत है।
महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगदर्शन में अष्टांगयोग का विधान क्रिया है। जैन परंपरा में भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं जिनकी समता अष्टांगयोग से की जा सकती है। यम
महाव्रत नियम
योगसंग्रह आसन
स्थान, कायक्लेश प्राणायाम
भावप्राणायाम प्रत्याहार
प्रतिसंलीनता धारणा
धारणा ध्यान
ध्यान
समाधि स्थानांग, समवायांग, आवश्यक, आवश्यक नियुक्ति में महाव्रतों के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश प्राप्त होते हैं। महाव्रतों के वही पांच नाम हैं जो यमों के हैं अर्थात् जैन परंपरा में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यो पांचों यम ही पांच महाव्रत कहे जाते हैं। परिपालन की दृष्टि से इन्हें दो नाम दिए गए हैं- महाव्रत और अणुव्रत। अहिंसा आदि का निरपवाद रुप में संपूर्ण परिपालन महाव्रत है, जिसका अनुसरण श्रमणों के लिए अनिवार्य है। जब उन्हीं का परिपालन कुछ सीमाओं या अपवादों के साथ किया जाता है
समाधि