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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन मनीषी प्राणायाम से सम्यक् प्रकार से परिचित थे।
महर्षि पतञ्जलि ने प्रत्याहार की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'अपने विषयों के संबन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकर- सा हो जाना प्रत्याहार है।'15 जैन परंपरा में निरुपित प्रतिसलिनता को प्रत्याहार के समकक्ष रखा जा सकता है। प्रतिसंलीनता जैन वाड्.मय का अपना पारिभाषिक शब्द है इसका अर्थ है- अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना।
धारणा, ध्यान, समाधि- ये योग के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। पातञ्जल व जैन- दोनों योग परंपराओं में ये नाम समान रुप में प्राप्त होते हैं। धारणा के अर्थ में एकाग्रमनः सन्निवेशना शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। नाभि, चित्त, नासिकाग्र, नेत्र, ललाट आदि धारणा के स्थलों का वर्णन प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त तालु, कपाल, मुख, भृकुटी, कान आदि को भी धारणा के लिए उपयुक्त बताया गया है।” महर्षि पतञ्जलि ने शरीर के बाहर आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि शरीर के भीतर नाभिचक्र, हत्कमल आदि में से किसी एक देश में चित्तवृत्ति लगाने को धारणा कहा है। ध्येय वस्तु में वृत्ति की एकतानता अर्थात् उसी वस्तु में चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान है। जब केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति हो तथा चित्त का अपना स्वरूप शून्य जैसा हो जाए, तब वह ध्यान समाधि हो जाता है। योग की परिभाषा के रुप में भी आचार्य ध्यान को ही योग कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है'उत्तम संहनन का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एकाग्र चिन्ता निरोध ध्यान है। यहाँ एकाग्रचिन्ता एवं चिन्तानिरोध को प्रमुख माना है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार छन्दस्थ की मानसिक स्थिरता
और केवली की कायिक स्थिरता ध्यान है। ध्यान के चार भेद किए गए हैं- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान आर्त एवं रौद्र ध्यान को अप्रशस्त, धर्म को प्रशस्त तथा शुक्लध्यान को शुद्ध कहा गया है। आर्त एवं रौद्रध्यान संसार के हेतु तथा शेष दो को मोक्ष का हेतु कहा गया है। शुक्लध्यान के चार भेद किए गए हैं- (1)पृथ्क्त्व वितर्कसविचार (2) एकत्ववितर्कनिर्विचार (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति (4) व्युपरतक्रियानिवृत्ति। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में सवितर्कसमापत्ति का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्ववितर्कसविचार शुक्ल ध्यान से तुलनीय है। वहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण मिलित समापत्ति-समाधि को सवितर्क-समापत्ति कहा है। महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित निर्वितर्क-समापत्ति एकत्वविचारावितर्क से तुलनीय है। पतञ्जलि लिखते हैं कि जब स्मृति परीशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का, ध्येय मात्र का निर्भास कराने वाली, ध्येयमात्र के स्वरुप को प्रत्यक्ष कराने वाली हो, स्वयं स्वरुप शून्य की तरह बन जाती है, तब वैसी स्थिति निर्वितर्क समापत्ति के नाम से अभिहित होती है। सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति-साधक जब शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं का पूर्णत: निरोध करता है तथा स्थूलकाय योग का निरोध करके सूक्ष्मकाय योग (श्रवासोच्छ्वास की क्रिया) में शेष रहता है। व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान से सूक्ष्मक्रिया भी निरुद्ध हो जाती है अतः इसे अविच्छिन्न क्रिया कहते हैं। इसके पश्चात् विदेह मुक्ति से पतन की संभावना नहीं रहती। इस ध्यान की स्थिति में आत्मा पूर्णत: स्थिर