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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
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जैसे-जैसे कल्पवृक्ष लुप्त होते गये लोगों के समक्ष आजीविका की समस्या खड़ी होने लगी। " असि-शस्त्रतलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना मसि-लिखकर आजीविका करना, विद्या, वाणिज्य और शिल्प हस्त की कुशलता से जीविका करना ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण है भगवान ऋषभदेव जी ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति करने का उपदेश दिया था। अतः कहना अनुपयुक्त होगा कि आध्यात्म प्रधान जैन शिक्षा व्यवस्था लौकिक ज्ञान, कला व कौशलों की उपेक्षा करती है। इस आधार पर शिक्षा के दो रूप उभरते है
1. जीवन निर्वाहकारिणी शिक्षा 2. जीवन निर्मात्री शिक्षा
जो लौकिक ज्ञान, कला-कौशलों द्वारा जीविकोपार्जन के साधन जुटाने में सहायक हो, वह जीवन निर्वाहकारिणी शिक्षा है। यहां स्पष्ट कर लेना आवश्यक है कि यह जीवन का प्राथमिक उद्देश्य तो हो सकती है परन्तु इसे ही शिक्षा की 'अथ' व इति' मान लेना उचित नहीं । वास्तव में सच्ची शिक्षा तो वह है जो व्यक्ति को बंधन मुक्त कर उसमें ऐसी क्षमता तथा योग्यता विकसित करे कि वह दूसरों को भी बंधन मुक्त करने में सहायक बन सके, यही जीवन निर्मात्री शिक्षा कही जाती है। इसी सम्बन्ध में 'समणसुत्तं' में कहा गया है कि -
" नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं।
सुआणि अ अहिज्जित्ता, रओ सुअसमाहिए।" अर्थात् अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है वह स्वयं भी धर्म में स्थिर होता है तथा दूसरों को भी करता है। इन्हीं भावों को स्पष्ट करते हुए 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है
"मुझे श्रुतज्ञान प्राप्त होगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए। मैं एकाग्रचित्त रहूंगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए ।
धर्म में स्थिरता होगी इसलिए अधययन करना चाहिए। मैं धर्म में स्थिर होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूंगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए।"
निश्चित ही, ऐसी विराट धारणा को लिए हुए है जैन शिक्षा दर्शन, जिसका सम्बन्ध मात्र साक्षर होने से ही नहीं है क्योंकि अक्षरों का हाथ थामकर चलना तो यात्रा की शुरूआत है परन्तु अक्षरों के माध्यम से जो कुछ भी कहा जाता है वह जीवन या आचरण में नहीं उतरता है तो शिक्षा की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। इस हेतु 'ज़िभाजित सूत्र' में कहा गया है कि -
“सा विज्जा दुक्खमोयणी " अर्थात् विद्या वही है जो दुःखों से विमुक्ति प्रदान करे, यहां विमुक्ति से तात्पर्य मानवीय तनावों से मुक्ति, अहंकार व आसक्तियों से मुक्ति, राग-द्वेष व तुष्णा से विमुक्ति