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जैनधर्म पर अजैन विद्वान्
दमें पाश्राचार्य र महात्मा गाँ
[जैनधर्मके विषयमें देश के खास खास विद्वानोंने समय समय पर बड़ेदी सुन्दर हृदयोद्गार व्यक्त किये है, जो सर्वसाधारणके जानने योग्य हैं। ये विचार इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। मेरा विचार इन्हें इस स्तम्भ के नीचे संकलित करनेका है। प्राशा है अनेकान्तके पाठक इन विचारों परसे अच्छी शिक्षा ग्रहण करते हुए सहज हीमें यह मालूम कर सकेंगे कि देशके चुने चुने विद्वान जैनधर्मको किस दृष्टि से देख रहे हैं और उसके विषयमें कैसे ऊँचे विचार रख रहे हैं।
भारतके प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और महात्मा गाँधी ने विजय प्राप्त की है!आत्माको भूलकर और अनाके दाहिने हाथ-श्री प्राचार्य काका कालेलकरने अह- त्माको बढाकरके सूक्ष्म प्राचारोंका पालन किया तो मदाबादमें पयूषण पर्वमें संयोजित की गई व्याख्यान
क्या और नहीं पालन किया तो क्या, आजका दिवस
तो हृदय शुद्धि करनेका है । जो आत्माका बफादार माला १९३१ ई० में कहा है
है, अात्माकी उन्नतिके लिये जीता है और अनात्माके "टोला धर्म (माम्प्रदायिकता-पक्षपात) जन्मसे मोहजालमें नहीं फँस जाता वही जैन है और बाकी जाति मानने वाले सनातनियों में हो तो माना भी जा सव जैनेतर हैं सकता है, यहूदियों में भी वह चल सकता है, परन्तु
इम शुद्धदृष्टिसे क्या अपन मबजनेतर नहीं हैं ? जैन धर्म में यह कैसे हो सकता है ? फिर भी जैनियों में भी यह टोला धर्मका संक्रामक रोग लगा है।
"आत्मपरायण कौन है और कौन नहीं, यह तो सनातनी दुसरोंको अपने धर्ममें आमंत्रित नहीं करते
गनुप्यकी अन्तरात्मा ही उमसे कह सकती है। मगर हैं, पारसी भी आमंत्रित नहीं करते हैं और यहदी भी
वाहा जीवन परसे मालूम होता है कि मैं भी जैनेतर आमंत्रित नहीं करते हैं। परन्तु जिनको मोक्षका मार्ग
हैं और आप भी सब जैनेतर हैं। फिर भी यदि इम दिखाई दिया है निर्वाण अर्थान कैवल्यके मार्गको सभामें कोई जैन हो तो उसे मेरा नमस्कार हो।" जिन्होंने समझा है वे सभीको आमंत्रित करते हैं भारतके सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता श्रीसरदार वल्लभभाई पटेल उनके यहाँ सभीक लिय माग खुला होना चाहिये। इस धर्मकी दीक्षा मिलनेके बाद ही वास्तवमं मनुष्य
"जैनधर्म पीले कपड़े पहननेसे नहीं आता। जो उस धर्मका कहा जा सकता है। जहां सबकेलिये स्थान इन्द्रियोंको जीत समझता है वही सच्चा जैन हो है वहाँ अस्पृश्यताको स्थान नहीं हो सकता । मुसलमान
सकता है।" अहिंसा वीर पुरुषोंका धर्म है कायरोंका और बौद्धोंमें अस्पृश्यता नहीं है जैनोंमें भी नहीं हो
नहीं। जैनोंको अभिमान होना चाहिये कि भारत-स्वासकती है। परन्तु हमें देखनेसे मालूम होता है कि
तन्त्र्यके लिये काँग्रेस उनके मुख्य सिद्धान्तका अमल सनातन धर्मकी गंदगी जैनियोंमें भी घुस गई है।".
समस्त भारतवासियोंसे करा रही है। जैनोंको झगदने "वास्तव में जैनियोंको यह उच्च-नीच-भाव और
की जरूरत नहीं । जैनोंको निर्भय होकर त्यागका अस्पृश्यता अपनी समाजमें प्रविष्ट नहीं होने देना
अभ्यास करना चाहिये।" चाहिये थी! मेरी समझमें तो जो अश्पृश्यता मानता
भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति बायू राजेन्द्र प्रसादजीहै वह जातिसे भले ही जैन हो परन्तु वास्तवमें वह "मैं अपनेको धन्य मानता हूँ कि मुझे महावीर जैनेतर ही है। मोक्ष धर्ममें अस्पृश्यता कैसी" स्वामी के प्रदेश में रहनेका मौभाग्य मिलाअहिमा
“एक वार मैं राम टेकके मन्दिरमें जाने लगा तो जैनोंकी विशेष सम्पत्ति है। जगतके अन्य किसी भी मुझे शखधारी पहरेदारोंने जानेसे रोक दिया। मैंने धर्ममें अहिंसा सिद्धान्त का प्रतिपादन इतनी मूक्ष्मता विचार किया कि अन्तमें जैनधर्म पर भी टोला धर्म और सफलतासे नहीं मिलता।"