Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Pramodkumari Sadhvi
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय समन्वयवादी ऋषियों की वाणी का प्रस्तोता अद्भुत प्राकृत ग्रंथ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन लेखक साध्वी प्रमोदकुमारजी सम्पादन एवं मार्गदर्शन प्रो. सागरमल जैन प्रकाशक : प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) For Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पूज्य गुरुवर्या श्री रत्नकुँवरजी म.सा. के चरणों में सादरसमपित For Private ergo al Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय समन्वयवादी ऋषियों की वाणी का प्रस्तोता अद्भुत प्राकृत ग्रंथ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन लेखक डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी सम्पादक एवं मार्गदर्शन प्रो. सागरमल जैन प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म. प्र. ) पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-5 2009 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला ऋविभाषित का दार्शनिक अध्ययन (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा Ph.D हेतु स्वीकृत शोध प्रबन्ध) लेखक - डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारी जी मार्गदर्शक एवं सम्पादक - प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन प्रकाशक - * प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडारोड़,शाजपुर (म.प्र.) दूरभाष-07364-222218 email - sagarmal.jain@gmail.com पार्श्वनाथ विद्यापीठ, ITIरोड़, करोंदी पोस्ट-B.H.U., वाराणसी-221005 प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य - 90 रुपये मुद्रक - . आकृति ऑफसेट 5, नईपेठ, उज्जैन (म.प्र.) फोन : 0734-2561720 मोबा. : 98276-77780, 98272-42489 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन प्राक्कथन भारतीय दार्शनिक चिन्तन का विकास औपनिषदिक, जैन और बौद्ध परंपराओं से ही हुआ। जैन धर्म के प्रारंभिक चिन्तन का रूप हमें उसके आगम साहित्य में मिलता है। जैन आगम साहित्य प्राकृत भाषा में रचित है। जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि ग्रन्थ आते हैं। इन ग्रन्थों में भी ऋषिभाषित जैन परम्परा में मान्य तो रहा, किन्तु उसके अध्ययन की उपेक्षा होती रही। उसका कारण यह था कि उसमें न केवल जैन परम्परा के, अपितु औपनिषदिक एवं बौद्ध परम्पराओं के ऋषियों के विचार भी संकलित थे। अतः इस ग्रंथ के अध्ययन पर परवर्ती जैन आचार्यों ने भी विशेष बल नहीं दिया। फलत: जैन भण्डारों में इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ भी बहुलता से उपलब्ध नहीं होती हैं। अपने शोध विषय के चयन के लिए जब मैंने डॉ. सागरमल जैन से चर्चा की तो उन्होंने मुझे इस ग्रन्थ के दार्शनिक पक्ष के अध्ययन का सुझाव दिया। उनकी दृष्टि में यह ऐसा ग्रंथ है, जो जैन परंपरा और प्राकृत भाषा का प्राचीन ग्रंथ होकर भी सभी भारतीय परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही प्राचीन काल में जैन परंपरा की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का परिचायक भी है। आज जब धार्मिक उन्माद, भारतीय राष्ट्र की अस्मिता के लिए चुनौती बन गया है, तब इस प्रकार के उदार एवं सहिष्णुवादी दृष्टि के समर्थक ग्रंथों के अध्ययन की उपयोगिता एवं सार्थकता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। प्रश्न है । सर्वप्रथम इसके मुद्रित 3 प्रस्तुत अध्ययन का वैशिष्ट्य जैन भण्डारों में ऋषिभाषित की हस्तप्रतियाँ बहुत ही कम उपलब्ध होती है। डॉ. शुब्रिंग को भी इसकी मात्र दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई थी, जिसके आधार पर उन्होंने इस ग्रन्थ को प्रकाशित किया था। जिनरत्नकोष (पृ. 59 ) के अनुसार इसकी हस्त प्रतियाँ कुछ शास्त्र भण्डारों में प्राप्त होती है । जहाँ तक इसके प्रकाशित संस्करणों का संस्करण इंदौर, आगरा एवं छाणी से प्रकाशित हुए थे। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी .. सर्वप्रथम विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ इसका प्रकाशन शुबिंग ने किया। शुब्रिग ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने इस ग्रंथ के संदर्भ में विशिष्ट अध्ययन किया था। यद्यपि उनकी भूमिका मात्र बारह पृष्ठ की है, किन्तु उसमें उनकी व्यापक तुलनात्मक दृष्टि और तलस्पर्शी विद्वत्ता परिलक्षित होती है। उनकी इस जर्मन भाषा में लिखी गई भूमिका का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ है और जो मूल ग्रंथ के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसमें मूलग्रंथ, संस्कृत टिप्पण और शुब्रिग की भूमिका का अंग्रेजी अनुवाद समाहित है। इसके पश्चात ऋषिभाषित अपने हिन्दी अनुवाद के साथ बम्बई से प्रकाशित हुआ था। यह हिन्दी अनुवाद मुनि श्री विनयचन्द जी ने किया है। यद्यपि इस हिन्दी अनुवाद में मूलग्रंथ की विवरणात्मक व्याख्या तो है, किन्तु उसमें तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से कुछ भी नहीं लिखा गया है। हिन्दी और अंग्रेजी अनुवादों के साथ ऋषिभाषित का प्रकाशन राजस्थान प्राकृत भारती के द्वारा सन् 1988 में हुआ है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि जहाँ इसमें हिन्दी और अंग्रेजी मूलानुसारी अनुवाद है, वहीं इसके प्रारंभ में लगभग एक सौ पृष्ठों में डॉ. सागरमल जैन की हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में एक विस्तृत और तुलनात्मक भूमिका है। डॉ. सागरमल जैन ने अपनी इस भूमिका में ग्रंथ का स्वरूप, जैन परंपरा में, उसका स्थान, उसका रचनाकाल एवं भाषा आदि के साथ-साथ उसके विभिन्न ऋषियों के संबंध में तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया है। यद्यपि ग्रंथ के ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से यह भूमिका विशिष्ट ही है, किन्तु भूमिका के पृष्ठों की सीमा को देखते हुए उसमें ऋषिभाषित में प्रतिपादित दार्शनिक विचारों का मात्र संकेत ही किया गया है। उस संबंध में विशेष विवरणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन उसमें प्रस्तुत नहीं किया गया है। यद्यपि दर्शन के विद्वान् डॉ. सागरमल जैन भूमिका की सीमा और मर्यादा को देखते हुए वे इसके दार्शनिक पक्ष पर अधिक प्रकाश नहीं डाल सके। प्रस्तुत अध्ययन में मैंने उनसे ही सहयोग और मार्गदर्शन को प्राप्त करते हुए ग्रंथ के इस दार्शनिक पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस शोधप्रबन्ध में मैंने मुख्य रूप से ऋषिभाषित की ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा और नीतिशास्त्र संबंधी पक्षों को अपनी बुद्धि के अनुरूप प्रस्तुत करने का एक प्रयत्न किया है। उसमें भी प्रथम कठिनाई तो यही रही कि ज्ञानमीमांसीय दार्शनिक चर्चा का ऋषिभाषित में प्रायः अभाव ही पाया गया। मात्र ज्ञान का महत्त्व साधना में उसकी उपयोगिता आदि कुछ विवरण ही हमें उसमें उपलब्ध हुए हैं। अतः प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का ज्ञानमीमांसा से संबंधित अध्याय अत्यंत संक्षिप्त और मात्र विवरणात्मक ही है। जहाँ तक तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं का प्रश्न है वे भी ऋषिभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में मात्र संकेत रूप में ही उपलब्ध होती है। उनके विस्तृत विवरणों अथवा समालोचनात्मक विवेचनाओं का भी ऋषिभाषित में प्राय: अभाव ही है। उसका कारण यह है कि ऋषिभाषित एक प्राचीन और दार्शनिक चिन्तन के प्रारंभिक युग का ग्रंथ है, इसलिए इन तत्त्वमीमांसीय सिद्धांतों के संबंध में उसमें तार्किक और समीक्षात्मक विवेचन का प्रस्तुतीकरण संभव नहीं हो सका, फिर भी उसमें अनेक तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत बीज रूप में उपस्थित है। ऋषिभाषित में जिन तत्त्वमीमांसीय सिद्धांतों का विवेचन उपलब्ध होता है उनमें पंचमहाभूतवाद, आत्म कर्तृत्त्ववाद, पञ्चस्कन्धवाद, सन्ततिवाद, उच्छेदवाद, शून्यतावाद, पंचास्तिकायवाद आदि प्रमुख है। यद्यपि इसमें शून्यवाद का संकेतमात्र इसी रूप में मिलता है कि कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं है जो सर्वथा सर्वकाल में अस्तित्त्ववान हो। इसलिए ऋषिभाषित का शून्यतावाद, उच्छेदवाद और बौद्धों के विकसित शून्यतावाद के बीच ही एक कड़ी है। 5 यद्यपि ऋषिभाषित में नैतिक, और धार्मिक उपदेश तो विपुलता से मिलते है, किन्तु उमनें भी कोई सैद्धांतिक दार्शनिक गंभीर चर्चा उठायी गई हो ऐसा परिलक्षित नहीं होता। यद्यपि उसमें नैतिक और धार्मिक जीवन के लिए आधारभूत कर्म सिद्धांत का अधिक विस्तृत विवेचन हुआ है और उसमें कर्मसन्ततिवाद की चर्चा भी आई है। कर्म सन्ततिवाद के साथ-साथ इस ग्रंथ में जैन कर्म सिद्धांत में उल्लेखित अष्टकर्म ग्रंथियों और कर्म की कुछ अवस्थाओं जैसे बद्ध, स्पृष्ट आदि की भी चर्चा करता है । जहाँ तक नैतिक दार्शनिक सिद्धांतों का प्रश्न है, ऋषिभाषित उनका कोई विशेष उल्लेख न करके मात्र उपदेशात्मक शैली में नैतिक उपदेश उपस्थित करता है। चूँकि ग्रंथ दर्शनकाल का ग्रंथ न होकर औपनिषदिक युग का एक ग्रंथ है और इसलिए ग्रंथ में उपलब्ध सामग्री को ध्यान में रखते हुए हमारे लिए भी अधिक गहराई से दार्शनिक समस्याओं में प्रवेश करना संभव नहीं हो सका है, क्योंकि ऐसा करने हेतु हमें ग्रंथ के प्रतिपाद्य मन्तव्यों से इधर-उधर ही भागना होता। कुछ ग्रंथ की सीमाएँ और कुछ मेरी अपनी सीमाएँ थी, जिसके कारण प्रस्तुत शोध प्रबंध में बहुत अधिक दार्शनिक गहराइयों का दावा नहीं किया जा सकता, किन्तु जो कोई भी संकेत सूत्र हमें उपलब्ध हुए हैं, उन्हें प्रस्तुत करने का प्रयत्न अवश्य किया गया है। विद्वानों से संकेत या सूचनाएँ प्राप्त होने पर हम भविश्य में इसे और अधिक विकसित कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध नौ अध्यायों में विभक्त है। विषय प्रवेश नामक प्रथम अध्याय में मैंने ग्रंथ परिचय के साथ-साथ इसके ऋषियों का भी परिचय दिया है। इस परिचय को यथासंभव तुलनात्मक और समीक्षात्मक बनाया गया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन द्वितीय अध्याय में प्रस्तुत ग्रंथ में उपलब्ध ज्ञानमीमांसीय चिन्तन को विवेचित करने का निर्णय लिया था, किन्तु जैसाकि मैं पूर्व में कह चुकी हूँ कि ऋषिभाषित में ज्ञानमीमांसा से संबंधित दार्शनिक चिंतन का प्रायः अभाव ही पाया गया। अतः यह अध्याय मुख्य रूप से जीवन और साधना के क्षेत्र में ज्ञान के महत्त्व और उपयोगिता को ही स्पष्ट करता है। 6 तृतीय अध्याय ऋषिभाषित की तत्त्वमीमांसा से संबंधित है। इस अध्याय को हमनें दो भागों में विभाजित किया है। (1) सृष्टि संबंधी सिद्धांत और (2) तात्त्विक अवधारणाएँ। सृष्टि संबंधी सिद्धांतों में प्रस्तुत ग्रंथ में जल एवं अण्डे से सृष्टि की उत्पत्ति के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। किन्तु ऋषिभाषित का ऋषि इस सिद्धांत को अस्वीकार करता है। साथ ही ऋषिभाषित सृष्टि के माया संबंधी सिद्धांत को भी अस्वीकार करता है । वह सृष्टि को अनादि नित्य और शाश्वत मानता है । तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं में पंच महाभूतवाद, देहात्मवाद, स्कन्धवाद, सन्ततिवाद, शून्यवाद, आत्मकूटस्थतावाद, पंचास्तिकायवाद, आदि की चर्चा उपलब्ध होती है। यद्यपि ये सभी सिद्धांत मूल ग्रंथ में अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही पाये जाते हैं। इन सिद्धांतों की दार्शनिक समीक्षा का भी उसमें अभाव है। चतुर्थ अध्याय कर्म सिद्धांत से संबंधित है। इसमें न केवल कर्म के शुभाशुभ प्रकारों की चर्चा की गई है, अपितु बंधन के कारणों तथा कर्म की विविध अवस्थाओं का भी उल्लेख किया गया है। पाँचवाँ अध्याय मुख्य रूप से ऋषिभाषित के मनोवैज्ञानिक तथ्यों का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें मानव मन की जटिलता, व्यक्तित्त्व के दोहरेपन, इन्द्रियदमन का तात्पर्य और क्रोधादि कषायों की चर्चा की गई है। प्रस्तुत शोध प्रबंध का छठा अध्याय ऋषिभाषित के नैतिक दर्शन से संबंधित है। इसमें नैतिकता की पूर्वमान्यता के रूप में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की चर्चा की गई है। साथ ही नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन के सिद्धांतों पर भी प्रकाश डाला गया। प्रस्तुत शोध प्रबंध का सप्तम अध्याय ऋषिभाषित के साधना मार्ग से संबंधित है। इस अध्याय में हमने ऋषिभाषित के पैंतालिस ही ऋषियों के साधना मार्ग की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की है। यद्यपि इसके अनेक ऋषियों के साधना मार्ग संबंधी उपदेशों में शाब्दिक अंतर को छोड़कर मुख्य रूप से समानता ही पाई जाती है। क्योंकि सभी ऋषि निवृत्तिमार्गी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसलिए संन्यास, वैराग्य और संयम को ही महत्त्व देते हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन प्रस्तुत शोध निबंध का आठवाँ अध्याय सामाजिक चिन्तन से संबंधित है। इसमें सर्वप्रथम व्यक्ति के संस्कार से समाज के संस्कार की ऋषिभाषित की अवधारणा पर प्रकाश डाला गया है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित व्यक्तिवादी जीवन दर्शन का प्रस्तोता है। इसी अध्याय में हमने स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों और पारिवारिक संबंधों की भी चर्चा की है। इसमें ऋषिभाषित का दृष्टिकोण मुख्य रूप से निवृत्तिप्रधान ही दृष्टिगत होता है। इसी अध्याय में वर्ण व्यवस्था और पुरुषार्थ चतुष्टय की भी चर्चा की गई है। अंतिम अध्याय उपसंहार रूप है। जिसमें प्रत्येक अध्याय के संदर्भ में हमने अपने निष्कर्षों का उल्लेख किया है। इस प्रकार इस शोध प्रबंध में ऋषिभाषित के दार्शनिक पक्षों की एक समग्र चर्चा प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रयास में किस सीमा तक सफल हुई हूँ यह निर्णय करना तो विद्वानों का कार्य है। प्रस्तुत शोध प्रबंध के पूर्णाहूति के अवसर पर सर्वप्रथम पूज्य गुरुदेव अध्यात्म मार्ग उपदेष्टा एवं पथप्रदर्शक, श्रद्धेय आचार्य श्री आनंदऋषिजी एवं दीक्षा-दात्री स्व. गुरुवर्या श्रद्धेया श्री रतनकुंवरजी के चरणों में सादर वंदन करती हूँ। जिनकी असीम कृपा एवं आशीर्वाद से यह ग्रंथ संपूर्ण हो सका है। प्रस्तुत शोध प्रबंध को पूर्ण कराने में मुझे डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. उमेशचन्द्र का जो वात्सल्य एवं विद्वतापूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है, उसके लिए मैं उनकी चिरकृतज्ञ हूँ। सच तो यह है कि ज्ञान के क्षेत्र में मेरा जो कुछ भी विकास हुआ है, उसमें डॉ. सागरमल जैन का सदैव योगदान रहा है। इस शोध कार्य में भी मेरा आधार ऋषिभाषित की उनकी भूमिका ही रही है, जिसका मैंने अनेकशः उल्लेख किया है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार के डॉ. श्री प्रकाश पाण्डे, डॉ. अशोकसिंह, डॉ. शिवप्रसाद, श्री दीनानाथ शर्मा, डॉ. रज्जनकुमार, डॉ. इन्द्रेश सिंह और पुस्तकालय अधिकारी महेंद्र यादव आदि की भी मैं आभारी हूँ, जिन्होंने समय-समय पर यथोचित सेवाएँ प्रदान कर मुझे सहयोग दिया है। इस अवसर पर संस्थान-मंत्री श्री भूपेंद्रनाथ जी जैन का स्मरण करना भी आवश्यक हैं, जिनके पूज्य पिता श्री द्वारा निर्मित इस संस्थान के नीरव, किन्तु सुविधायुक्त परिवेश में रहकर मैं इस शोध प्रबंध को पूर्ण कर सकी। संस्थान ने मेरी सुख-सुविधा की जो व्यवस्था की और कानपुर श्री संघ ने उसमें जो सहयोग प्रदान किया अतः उनका भी आभार व्यक्त करती हूँ और संस्थान के विकास की मंगल कामना करती हूँ। ___ मैं सहवर्ती साध्वीवृन्द की भी अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने तन-मन से सेवा करके मेरे अध्ययन कार्य में सहयोग दिया और मुझे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त रखा। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी इस संबंध में गुरुभगिनी श्री कुशलकुँवर जी एवं श्री पुष्पकुंवरजी का सहयोग और साध्वी श्री चेतनाजी, वंदनाजी और प्रेक्षाजी की सेवा विशेष रूप से स्मरणीय है। इसी संदर्भ में स्थानीय श्रीसंघ, घोड़नदी के मित्र-मण्डल और श्री मदनलालजी, तेजकुमारजी, देवेंद्रकुमारजी, बहन सुभद्रा, इन्दु, कमलाबाई, वीणाबाई आदि श्रावक-श्राविकाओं की सेवा एवं सद्भाव भी स्मरणीय है और सभी के मंगल की शुभकामना करती हूँ। मेरे लिए आज यह प्रसन्नता का विषय है कि दीर्घकालिक प्रतीक्षा के पश्चात् यह शोधग्रंथ डॉ. सागरमलजी जैन के प्रयत्नों और श्री गुजराती बीसा पोरवाड़ धार्मिक एवं पारमार्थिक न्यास, शुजालपुर एवं मुथा परिवार, उज्जैन के अर्थ सहयोग से प्राच्यविद्यापीठ द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इस अवसर पर डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक संस्था प्राच्यविद्यापीठ एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ तथा प्रुफ संशोधक डॉ. श्री तेजसिंहजी गौड़ मुद्रक आकृति ऑफसेट आदि सभी के प्रति मंगलकामना करती हूँ। - साध्वी प्रमोदकुमारी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन प्राक्कथन प्रथम अध्याय विषय प्रवेश ऋषिभाषित का रचनाकाल ऋषिभाषित की विषय वस्तु ऋषिभाषित के ऋषियों की परंपरा ऋषिभाषित के ऋषियों का काल ऋषिभाषित के ऋषियों के उपदेशों के मुख्य विषय (1) नारदऋषि (2) वज्जियपुत्र (3) असितदेवल (4) अंगिरस (5) पुष्पशालपुत्र (6) वल्कलचीरी (7) कुम्भापुत्र (8) केतलीपुत्र ( 9 ) महाकाश्यप (10) तेतलीपुत्र (11) मंखलिपुत्र विषय सूची (12) जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) (13) मेतेज्जभयाली (14) बाहुक (15) मधुरायण (16) शोर्यायण (17) विदुर (18) वारिषेणकृष्ण (19) आरियायण (20) उक्कल (21) गाथपतिपुत्रतरुण (22) गद्दभिल्ल 9 पृष्ठ संख्या 3 2 2 2 2 2 2 2 2 2313153 17 20 21 23 24 27 29 30 31 34 36 37 38 39 40 42 43 44 45 46 46 47 48 48 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी (23) रामपुत्त (24) हरिगिरि (25) अम्बड परिव्राजक (26) मातङ्ग (27) वारत्तक (28) आर्द्रक (29) वर्द्धमान (30) वायु (31) पार्श्व (32) पिंग (33) महाशालपुत्र अरुण (34) ऋषिगिरि (35) उद्दालक (36) नारायण (तारायण) (37) श्रीगिरि (38) सारिपुत्त (39) संजय (वेलट्ठीपुत्त) (40) दीवायण (द्वैपायन) (41) इन्द्रनाग (42) सोम (43) यम (44) वरुण (45) वैश्रमण द्वितीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित ज्ञानवाद (1) ज्ञान का महत्त्व (2) भाषा-विवेक (3) ज्ञानमीमांसा का अभाव (4) ज्ञानदान का महत्त्व (5) ऋषिभाषित में कुछ ज्ञानमीमांसीय शब्द (अ) सर्वज्ञ (ब) विज्ञान (स) बुद्धि मति और मेधा। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 77 04 84 R4 Xh 86 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन तृतीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित तत्त्वमीमांसा (1) ऋषिभाषित में प्रतिपादित सृष्टि मीमांसा (2) सृष्टि का मूल तत्त्व (3) लोकसृष्टा का प्रश्न (4) सृष्टि ब्रह्म की माया नहीं (5) विश्व अनादि अनन्त (6) ऋषिभाषित में सृष्टि के अनादि अनंत होने का तात्पर्य (7) विश्व के मूल तत्त्व का स्वरूप (8) सृष्टि के स्वरूप के संबंध में पार्श्व का दृष्टिकोण (9) सृष्टि के संबंध में श्रीगिरि का दृष्टिकोण (10) सृष्टि के संबंध में उत्कलवादियों के विचार (अ) सृष्टि का भौतिकवादी दृष्टिकोण (1) भौतिकवाद (2) जीवशरीरवाद (3) सन्ततिवाद (4) शून्यवाद (5) स्कन्धवाद (6) आत्म-अकर्तावाद (7) पंचास्तिकायवाद (11) ऋषिभाषित में वर्णित गति का सिद्धान्त चतुर्थ अध्याय ऋषिभाषित में वर्णित कर्मसिद्धान्त (1) कर्मसिद्धान्त : नैतिकता की पूर्वमान्यता (2) कर्मस्वतः फलप्रदाता (3) कर्म परम्परा की अनादिता (4) कर्मफल-विपाक स्वकृत या परकृत (5) कर्मफल संविभाग (6) कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का आधार (7) कर्म के शुभाशुभत्व का आधार संकल्प (8) शुभाशुभ का अतिक्रमण (9) पुण्य (शुभ) की मूल्यवत्ता (10) कर्मबन्धन के कारण (11) अष्टविध कर्म ग्रन्थि (12) कर्म का स्वरूप (13) कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ 06 96 97 98 99 100 102 103 104 105 106 107 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी (14) कर्म और कर्मफल का संबंध 108 (15) कर्म से मुक्ति। 109 पंचम अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादिता मनोविज्ञान (1) मानव मन की जटिलता 110 (2) व्यक्तित्त्व का दोहरापन 110 (3) व्यक्तित्त्व के द्वैत की समाप्ति कैसे? 111 (4) इन्द्रियाँ और उनके विषय 112 (5) इन्द्रिय दमन का तात्पर्य 113 (6) सुख-दुःख प्राणीय अनुभूति के केंद्र 114 (7) दु:ख का स्वरूप 115 (8) दुःख विमुक्ति का उपाय 116 (9) अप्रमत्त दशा का स्वरूप । 119 (10) कषाय और उसका स्वरूप 121 (11) कषायों की संहारक शक्ति। 123 षष्ठ अध्याय ऋषिभाषित का नैतिक दर्शन (1) ऋषिभाषित की आध्यात्मिक जीवन दृष्टि 125 (2) नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समन्वय 126 (3) ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद । 129 (4) ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद का समर्थन (5) ऋषिभाषित का निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन 130 (6) नैतिक मानदण्ड 133 (7) नैतिक मूल्यांकन का आधार-बाह्य घटना और मनोवृत्ति। 136 सप्तम अध्याय ऋषिभाषित का साधना मार्ग (अ) ऋषिभाषित के ऋषियों का साधना मार्ग 139 (1) नारद ऋषि द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 140 (2) वज्जियपुत्त द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 140 (3) असितदेवल द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 140 (4) अंगिरस द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 140 (5) पुष्पशाल ऋषि का साधना मार्ग 141 (6) वल्कलचीरी का साधना मार्ग 141 (7) कुर्मापुत्र द्वारा उपदिष्ट साधना मार्ग 141 (8) केतकीपुत्र द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 142 (9) महाकाश्यप द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 142 (10) तेतलीपुत्र का साधना मार्ग 143 129 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 143 143 144 144 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन (11) मंखलीपुत्र द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग (12) याज्ञवल्क्य का साधना मार्ग (13) भयाली द्वारा उपदिष्ट साधना मार्ग (14) बाहुक द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 144 (15) मधुरायण द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 144 (16) सोरियायण का साधना मार्ग (17) विदुर द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 145 (18) वारिषेण द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग 145 (19) आर्यायण का समन्वित मोक्ष मार्ग 145 (20) उत्कटवादियाँ का निर्वाण संबंधी दृष्टिकोण 145 (21) गाथापति-तरुण का ज्ञान मार्ग 146 (22) गर्दभाली का ध्यान मार्ग 146 (23) रामपुत्र का चतुर्विध साधना मार्ग 147 (24) हिरिगिरि का कर्म विमुक्ति मार्ग 147 (25) अम्बड का संयम साधना मार्ग 148 (26) मातंग ऋषि का अध्यात्म मार्ग 148 (27) वारत्तक ऋषि का ध्यान एवं स्वाध्याय का साधना मार्ग 149 (28) आर्द्रक का संयम मार्ग 149 (29) वर्धमान का पाप-वारण का मार्ग 149 (30) वायु द्वारा प्रस्तुत शुभाचरण का संदेश 150 (31) पार्श्व का चातुर्याम 151 (32) पिंग ऋषि द्वारा प्रस्तुत आध्यात्मिक कृषि 151 (33) अरुण ऋषि द्वारा प्रस्तुत साधना मार्ग (34) ऋषिगिरी का संयम साधना मार्ग 152 (35) उद्दालक का कषाय-जय का साधना मार्ग 153 (36) नारायण ऋषि की क्रोध-विजय की साधना पद्धति 154 (37) श्री गिरि का आचार मार्ग (38) सारिपुत्र का मध्यम मार्ग 155 (39) संजय द्वारा प्रस्तुत आत्म शोधन की पद्धति 156 (40) द्वैपायन की इच्छा जय की साधना पद्धति 157 (41) इन्द्रनाग का इन्द्रिय संयम का साधना मार्ग 157 (42) सोम की अहिंसक जीवन दृष्टि 158 (43) यमऋषि की समत्व की साधना पद्धति 158 (44) वरुण की वीतरागता की साधना विधि 159 152 155 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 (45) वैश्रमण की आत्मार्थ की साधना (ब) ऋषिभाषित में साधना की आचार संहिता (1) चातुर्याम और पंच महाव्रत (2) पंचसमिति एवं भिक्षा विधि (3) त्रिगुप्ति (4) बाईस परिषह (5) सच्चे श्रमण का स्वरूप (6) सच्चे ब्राह्मण का लक्षण । अष्टम अध्याय ऋषिभाषित में वर्णित सामाजिक दर्शन और चिन्तन (1) व्यक्ति संस्कार से समाज संस्कार (2) सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का द्वैत (3) ऋषिभाषित और नारी समाज (4) ऋषिभाषित और पारिवारिक संबंध (5) ऋषिभाषित और वर्णव्यवस्था (6) ऋषिभाषित और पुरुषार्थ चतुष्टय नवम अध्याय - उपसंहार -0 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी 159 159 162 168 170 173 174 176 177 178 179 180 183 184 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 15 प्रथम अध्याय विषय प्रवेश ऋषिभाषित-ग्रन्थ परिचय ऋषिभाषित प्राकृत भाषा में रचित जैन परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण प्राचीनतम आगम ग्रंथ है। जैन परंपरा में आगम ग्रन्थों का वही स्थान है जो बौद्धों में त्रिपिटक का, हिन्दू धर्म में वेदों का, इसाईयों में बाइबिल का और इस्लाम में कुरान का है। जैन परंपरा में इन आगम ग्रंथों को अंग और अंगबाह्य में वर्गीकृत किया जाता है। दिगम्बर परंपरा में बारह अंग और चौदह अंगबाह्य ग्रंथों का उल्लेख मिलता है, किन्तु तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं और धवला आदि में इन अंग और अंगबाह्य ग्रंथों के जो नाम मिलते हैं उनमें ऋषिभाषित का कहीं भी उल्लेख नहीं श्वेताम्बर परंपरा अपने अंग आगमों को वर्तमान में 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेद सूत्र, 4 मूलसूत्र, 2 चूलिका सूत्र, और 10 प्रकीर्णकों में विभाजित करती है। वर्तमान में इन नामों के सभी ग्रंथ मिलते हैं। किन्तु उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेखन नहीं हैं। किन्तु जब हम जैन आगम साहित्य संबंधी प्राचीन उल्लेखों की ओर जाते हैं तो नंदीसूत्र (ई. सन् पाँचवीं शती) और पाक्षिक सूत्र में अंगबाह्यों में कालिक सूत्रों के जो नाम दिये गये हैं, उनमें, और उमास्वाति के स्वोपज्ञ तत्त्वार्थ भाष्य में भी, जो 1. अ- अत्याहियारो दुविहो-अंगबाहिरो अंगपइटको वेदि। तत्थ अंगबाहिरस्स चोद्दस अत्थाहियारा। तंजहा-1 समझाइये 2 वउवीसत्थओ 3 वंदणा 4 पडिक्कमण 5 वेणइर्य 6 किदियम्मं 7 दसवेयालियं 8 उत्तरज्झयणं १ कप्पववहारो 10 कप्पाकप्पियं 11 महाकप्पियं 12 पुंडरीयं 13 महापुंडरीयं, 14 निसीहियं चेदि। धवला, पृ.96 ब- द्विभेदमंगबाह्यत्वादंगरूपत्वतः श्रुतम्। अनेकभेदम्बैकं काल्किोत्कालिकादिकम्।।-तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक, 1/20/14 2. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 1 भूमिका, पृ. 37 पंडित दलसुख मालवणिया। 3. अ- से किं तं कालियं? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तंजहा-1 उत्तरज्झयणाई, 2 दसाओ, 3 कप्पो, 4 ववहारो, 5 निसीहं, 6 महानिसीहं, 7 इसिभासियाई, 8 जंबूदीवपण्णत्ती, 9 दीवसागरपण्णत्ती। "नन्दीसूत्र"-43 ब- नमो तेसिं खमासमाणं जेहिं इमं वाइअं अंगबाहिरं कालिअं भगवतं। तंजहा-1 उत्तरल्झयणाई, 2 दसाओ, 3 कप्पो, 4 ववहारो, 5 इसिभास्यिाइं, 6 निसीहं, 7 महानिसीहं 4- पक्खियसुत्त-पृ 79 (देवनन्द लालभाई पुस्तकोद्वार फण्ड सिरीज क्रमांक 99) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अंगबाह्य सूत्रों की सूची दी गई है, उसमें ऋषिभाषित का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार प्राचीन उल्लेखों में ऋषिभाषित अंगबाह्य कालिक आगम में परिगणित किया गया है । आवश्यक नियुक्ति में जिन दस ग्रंथों पर नियुक्तिकार ने नियुक्ति लिखने का संकल्प किया है उनमें से ऋषिभाषित भी एक है। किन्तु इसके पूर्व भी हमें 'स्थानांगसूत्र' ' में प्रश्नव्याकरण दशा के जिन 10 अध्यायों का नाम निर्देश मिलता है उसमें भी एक का नाम ऋषिभाषित है ।" इसी प्रकार समवायांगसूत्र के 44 वें समवाय में भी ऋषिभाषित के 44 अध्ययनों के होने का उल्लेख है।' इन सब आधारों पर यह निश्चित होता है कि प्राचीन काल में जैन परंपरा में ऋषिभाषित को एक आगम ग्रंथ के रूप में मान्य किय जाता था, किन्तु इसके बाद इस ग्रन्थ की उपेक्षा होने लगी। प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में इसका अंग आगमों में महत्त्वपूर्ण स्थान था, किन्तु इसे उससे अलग कर दिया गया, कुछ समय तक इसे अंगबाह्य या प्रकीर्णकों के अंतर्गत, मान्यता दी गई, किन्तु वहाँ से भी धीरे-धीरे इसका स्थान गौण होता गया । यही कारण है कि वर्तमान में जिन 10 प्रकीर्णकों के उल्लेख मिलते हैं उनमें ऋषिभाषित का नाम नहीं है। किन्तु जैन परंपरा में परवर्ती काल में परिस्थितिवश इस ग्रंथ की जो उपेक्षा हुई, उससे इस ग्रंथ का महत्त्व एवं मूल्य कम नहीं हो जाता है। क्योंकि जैन परंपरा और संपूर्ण प्राकृत साहित्य में यही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो जैन धर्म की उदारता और सहिष्णुता का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जा सकता है। 16 ऋषिभाषित का जो महत्त्व है उसके अनेक कारण है । सर्वप्रथम तो यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जो सर्वधर्म समभाव का परिचायक है क्योंकि इस ग्रंथ में न केवल जैन परंपरा के अपितु बौद्ध, वैदिक और अन्य श्रामणिक परंपराओं के ऋषियों के उपदेश 5. 6. बाह्यमनेकविधम्। तद्यथा--1 सामायिकं, 2 चतुर्विशति स्तवः, 3 वंदनं, 4 प्रतिक्रमणं, 5 कायव्युत्सर्गः 6 प्रत्याख्यानं, 7 दशवैकालिंक, 8 उत्तराध्यायाः, 9 दशा, 10 कल्पव्यवहारौ, 11 निशीथं, 12 ऋषिभाषितानीत्येवमादि। तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य ) 1/20 (देवचन्द लालभाई पुस्कोद्वार फण्ड, क्रम संख्या 57 ) श्रीमद् रायचन्द्र आश्रम अगास, पृ. 42 अ- कालियसुयं च इसिभासियाई तइओ य सूरपण्णत्ती । ब सव्वो य दिट्टिवाओ चउत्थओ होई अणुओगो ||12411 (भू.भा.) तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि “तृतीयश्चकालानुयोग : " आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति, पृ. 206 आवस्सस्स दसवालिअस्स तह उत्तरज्झयणमायारे। सूयगडे निज्जुतिं वुच्छामि तहा दसाणं च ।। कप्परस य निज्जुतिं ववहारस्सेव परभणिउणस्स । सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इस्भिासिआणं च।। - आवश्यक निर्युक्ति 84-85 7. पहावगरणदसाणं दस अज्झयणा पन्ता, तंजहा 1 उवमा, 2 संखा, 3 इसि भासियाई, 4 आयरियभासिताई, 5 महावीरभासिताइं, 6 खोमपसिणाई, 7 कोमलपसिणाई, 8 अद्यागपसिणाई, 9 अंगुट्ठकपसिणाई, 10 बाहुपसिणा । ठाणं सुत्ते, दसमं अज्झयाणं दस ठाणं (महावीर जैन विद्यालय संस्करण, पृ. 311 ) 8 चोवालीस अज्झणा इसिभासिया दियलोगवुया भागसिया पण्णत्ता । - समवायांगसूत्र- 44 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन संकलित हैं। भारत की सभी श्रमण और ब्राह्मण परंपराओं के ऋषियों के वचनों का एक स्थान पर संकलन यदि किसी ग्रंथ में उपलब्ध होता है तो वह 'ऋषिभाषित' ही है। दूसरी विशेषता यह है कि इसमें सभी परंपराओं के ऋषियों को अर्हत् ऋषि जैसे सम्मानपूर्ण विशेषण से संबोधित किया गया है। अतः वर्तमान युग में हम जिस धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म सम्भाव की बात करना चाहते हैं उसका यह एक प्रतिनिधि ग्रंथ कहा जा सकता है। वस्तुतः यह एक ऐसा ग्रंथ है जो वर्तमान संदर्भ में अपनी उपयोगिता को सार्थक कर रहा है। सम्प्रदाय निरपेक्ष तथा सभी परंपराओं को समान महत्त्व देने वाले इस ग्रंथ की महत्ता निर्विवाद है। मात्र यही नहीं अपनी भाषा शैली की प्राचीनता और विषय वस्तु की प्रामाणिकता की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है। ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी और उसके पहले भारत के सभी परंपराओं के ऋषि-महर्षियों के उपदेशों का प्राकृत भाषा में यही एकमात्र संकलन है। दूसरे शब्दों में कहे तो यह एक ऐसा ग्रंथ रहा है जो इन ऋषियों के उपदेशों को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत करता है। इसके साथ-साथ इस ग्रंथ की प्राचीनता भी इसके महत्त्व को सुस्पष्ट करती है। ग्रंथ में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे सब ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्व के हैं। इसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों के उपदेश संकलित हैं जो इसकी प्राचीनता और इसके महत्त्व को प्रस्तुत करते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, अरूण, आरूणी-उद्दालक आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख इसके महत्त्व और मूल्य को स्पष्ट कर देते हैं। ऋषिभाषित का रचना काल ऋषिभाषित में हमें न तो उसके रचयिता के नाम का उल्लेख प्राप्त होता है और न उसके रचनाकाल का ही कोई उल्लेख मिलता है, किन्तु इस ग्रंथ में जिन ऋषियों के नामों का उल्लेख है उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद हुआ हो, इसलिए इस ग्रंथ की पूर्व कालिक अवधि ईसा पूर्व छठी शताब्दी हो सकती है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम निर्देश 'स्थानांगसूत्र' में मिलता है। स्थानांग का रचनाकाल वीर निर्वाण के लगभग छ: सौ वर्ष पश्चात् माना जाता है, अतः ऋषिभाषित ईसा पूर्व की पाँचवीं शती से ईसा की दूसरी शती के बीच कभी निर्मित हुआ होगा। ऋषिभाषित के रचनाकाल के संदर्भ में डॉ. सागरमल जैन ने ऋषिभाषित की भूमिका में विस्तारपूर्वक चर्चा की। उनके अनुसार "यह ग्रंथ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर संपूर्ण प्राकृत जैन आगम साहित्य एवं पालि त्रिपिटक साहित्य से प्राचीन है। उन्होंने इसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के संदर्भ में मुख्यरूप से भाषागत और विषयवस्तुगत तर्क दिये हैं। वे लिखते हैं कि यह एक सुनिश्चित सत्य है कि यह ग्रंथ जैन धर्म और संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रंथ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से यह प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था ।..... यदि हम जैन धर्म साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो 'भगवती सूत्र' के मंखली गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की उपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा, क्योंकि उसमें मंखली गोशालक के चरित्र का निम्नस्तरीय चित्रण है। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग, भगवती तथा पालित्रिपिटक के अनेक ग्रंथ मैखली गोशालक का नियतिवाद के प्रस्तोता के रूप में न केवल उल्लेख करते हैं, अपितु उसका खण्डन भी करते हैं । फिर भी जैन आगम ग्रंथों की अपेक्षा 'सुत्तनिपात' में मैखली गोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है, किन्तु पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रंथ 'सूत्तनिपात' की अपेक्षा भी ऋषिभाषित में उसे अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। अतः धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालित्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है । ९ 18 यदि हम इसी दृष्टि से सुत्तनिपात पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि जितनी उदारता ऋषिभाषित में हैं उतनी उदारता सुत्तनिपात में भी नहीं है । सुत्तनिपात में भी ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों के उल्लेख मिलते हैं जैसे नारद, असितदेवल, पिंग, मंखलीपुत्र, संजय वेलट्ठीपुत्त आदि किन्तु उसमें इन सभी ऋषियों को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है। अतः यह सिद्ध होता है कि ऋषिभाषित ही पालि और प्राकृत साहित्य में एक ऐसा ग्रंथ है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूरी तरह मुक्त है । यदि हम भारतीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन करते हैं तो स्पष्टरूप से यह पाते हैं, कि धार्मिक संप्रदायों के प्रति आग्रहों का विकास एक परवर्ती काल की घटना है। मात्र यही नहीं प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय में भी धार्मिक आग्रह क्रमशः ही दृढभूत होते हैं। अतः यह सुनिश्चित है कि जैन ओर बौद्ध सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त ग्रंथों की अपेक्षा साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त ऋषिभाषित प्राचीन है। यदि हम ऋषिभाषित की भाषा और शैली की दृष्टि से भी विचार करें तो यह पाते हैं कि उसकी भाषा, छन्द, योजना, आदि आचारांग एवं सूत्रकृतांग तथा 'सुत्तनिपात' के अधिक निकट है। भाषा की दृष्टि से ऋषिभाषित अर्धमागधी की रचना है। पुनः इसकी अर्धमागधी, वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य की अपेक्षा प्राचीन स्तर की है। इसमें महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव नगण्य है। यदि हम सुत्तनिपात्त और ऋषिभाषित की भाषा को समानान्तर रूप से परखें तो बहुत अधिक निकटता प्रतीत होती है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की छन्द योजना भी सुत्तनिपात के अधिक निकट है। ऋषिभाषित और सुत्तनिपात के शब्द - रूप संस्कृत शब्दों के जितने निकट हैं उतनी निकटता न तो अर्धमागधी आगम साहित्य के अन्य ग्रंथों के शब्दरूपों में 'इसिभासियाई' भूमिका- डॉ. सागरमल जैन, पृ 4-6 9. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन है और न पालित्रिपिटक में। 'शुबिंग' ने इसके शब्द रूपों और शब्द योजना की समीक्षा करके यही माना है कि अपेक्षाकृत रूप से यह एक प्राचीन ग्रंथ है। ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आत्म' शब्द का प्रयोग हुआ है जो कि प्राचीन है जबकि इससे परवर्ती जैन आगम साहित्य के ग्रंथों में आचारांग को छोड़कर अन्यत्र आत्म शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता है। इसके स्थान पर उनमें 'अत्ता' 'अप्पा' 'आता' 'आदा' आदि शब्द-रूप प्रयुक्त हुए हैं, जो कि परवर्ती है। जहाँ ऋषिभाषित में 'तश्रुति' की प्रधानता है वहाँ अन्य आगम साहित्य में इसके लोप को तथा 'य' श्रुति की प्रवृत्ति पायी जाती है, अतः भाषा की दृष्टि से भी ऋषिभाषित आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर अन्य आगम साहित्य की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। रूपकों की दृष्टि से विचार करने पर भी हम यह पाते हैं कि 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' तथा 'पालिसुत्तनिपात' के अनेक रूपक और गाथाओं के चरण ऋषिभाषित में पाये जाते हैं। इनके विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ये रूपक और गाथाओं के चरण ऋषिभाषित से ही इन जैन और बौद्ध ग्रंथों में गए हैं क्योकि जहाँ ऋषिभाषित में ये रूपक सामान्य रूप से प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ उत्तराध्ययन, सुत्तनिपात आदि में ये रूपक या तो बुद्ध के साथ जोड़े गए हैं या किसी कथानक के साथ जोड़कर प्रस्तुत किए गए हैं।१ । यदि हम दार्शनिक विकास की दृष्टि से भी विचार करें तो हमें ऋषिभाषित जैन और बोद्ध धर्म-दर्शन संबंधी अन्य ग्रंथें की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता हैं क्योंकि इसमें 'पैचास्तिकाय', 'अष्टविध कर्म', आत्मा और पुद्गल की गति आदि के संदर्भ में जो सिद्धान्त प्रस्त किये गये हैं वे अपने प्राथमिक रूप में ही है। ऋषिभाषित में बौद्ध परंपरा के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्त आदि के जो सिद्धांत मिलते हैं उनमें मात्र सन्ततिवाद और क्षणिकवाद का उल्लेख है। परवर्ती बौद्ध सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद आदि के उल्लेख भी इसमें नहीं हैं। 10. See- Isibhasyaim page 8-9 Introduction by Walther Schubring, L.D.Institute, Ahemadabad, 9, 1974 11. अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवण्हिणो। मा कुले गन्धण होमो, संजमं निहुओ चर।। -उत्तराध्ययन 22/44 पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउं दुरासयं। नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अंगधणे।। -दशवैकालिक 2/6 अन्यले कुल जातो, जधा नागो महाविसो। मुंचिता सविसं भूतो, पियन्तो जाती लाघवं।। -इसिभासियाई 45/40 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ऋषिभाषित में जिन ऐतिहासिक ऋषियों का उल्लेख मिलता है उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो महावीर और बुद्ध से परवर्ती हो। जिनवज्जीपुत्त का उल्लेख ऋषिभाषित में हैं वे भी पालित्रिपिटक के आधार पर बुद्ध के लघुसमवयस्क ही सिद्ध होते हैं। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित एक प्राचीन ग्रंथ है। अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख और उनके उपदेशों की उपनिषदों में वर्णित उपदेशों से समानता भी यही सिद्ध करती है कि यह प्राकृत ग्रंथ औपनिषदिक साहित्य का समसामयिक है या उससे किचित् ही परवर्ती है। डॉ सागर मल जैन ने इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ई. पूर्व पाँचवीं शती और अंतिम सीमा ईसवी पूर्व 3री शताब्दी के मध्य निश्चित की है। वे लिखते हैं कि "मेरी दृष्टि में इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा पूर्व पाँचवीं शती और अन्तिम सीमा ईसा पूर्व तीसरी शती के बीच ही है। मुझे अन्तः और बाह्य साक्ष्यों में कोई भी ऐसा संकेत नहीं मिला जो इसे इस कालावधि से परवर्ती सिद्ध करें।"१२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित एक प्राचीनतम ग्रन्थ है और वह हमारे सामने संपूर्ण भारतीय ऋषि परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। अतः जो लोग इसे मात्र जैन परंपरा का एक ग्रंथ मानकर उपेक्षित कर देते हैं वे एक बहुत बड़ी गलती करते हैं। वस्तुतः यह सम्प्रदाय निरपेक्ष और संपूर्ण भारत की ऋषि परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका ऐतिहासिक दृष्टि से भी अपना महत्त्व है। क्योकि इसमें अनेक ऐसे ऋषियों के और उनकी मान्यताओं के संदर्भ प्रस्तुत हैं जो अन्यत्र कहीं भी हमें उपलब्ध नहीं होते हैं। अतः दर्शन और धर्म के इतिहास और भारत की सहिष्णुतावादी उदार धार्मिक दृष्टि से इसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है। ऋषिभाषित की विषयवस्तु जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं-ऋषिभाषित में ब्राह्मण, जैन, बौद्ध और अन्य श्रमण परंपराओं के 45 ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। जहाँ तक इनके उपदेशों की विषयवस्तु का प्रश्न है, उनमें मुख्यरूप से तत्त्व-दर्शन एवं आचार संबंधी विवेचना पाया जाता है। आचार मार्ग संबंधी उपदेश ही ऋषिभाषित का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। जहाँ तक ऋषिभाषित के तत्त्वमीमांसा संबंधी विवेचनों का प्रश्न है इसमें भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दोनों ही दृष्टिकोणों का प्रस्तुतिकरण पाया जाता है। तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में प्रतिपादित विचार मुख्यरूप से चार्वाक, जैन और बौद्ध दार्शनिक परंपराओं से संबंधित हैं। यद्यपि इसमें अनेक ब्राह्मण ऋषियों के उपदेश भी संकलित हैं। उनके मुख्य विवेच्य विषय आचारमीमांसा या सदाचार के उपदेश ही हैं। सर्वप्रथम हम ऋषिभाषित में वर्णित ऋषियों के नामों का उल्लेख करेंगे और उनकी परंपराओं का निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे। 12. 'इसिभासियाई' भूमिका-डॉ. सागरमल जैन, पृ. 9 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ऋषिभाषित के ऋषियों की परंपरा ऋषिभाषित के निम्न 45 अध्यायों में 45 ऋषियों के उपदेशों का प्रस्तुतिकरण हुआ है।१३ मात्र 20 वें उत्कटवादी नामक अध्याय में प्रस्तोता किसी ऋषि के नाम का उल्लेख नहीं है। इस अध्याय में भौतिकवादी विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है। ___ 1-नारद (नारद) 2-वज्जियपुत्त (वात्सीय पुत्र) 3- दविल (असित देवल) 4- अंगरिसि (अंगिरस भारद्वाज), 5- पुप्फसाल (पुष्पशालपुत्र) 6- वक्कलवीरि (वक्कलचीरी), 7-कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र), 8-केतलिपुत्त (केतलीपुत्र), 9-महाकासव (महाकाश्यप), 10-तेतलीपुत्त (तेतलीपुत्र),11- मंखलिपुत्त (मंखलिपुत्र), 12जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य), 13- भयालि (भयालि), 14- बाहुक (बाहुक), 15मधुरायण (मधुरायण), 16- सोरियायण (शोर्यायण), 17- विदुर (विदुर), 18वरिसव (वारिषेण कृष्ण), 19-आरियायण (आरियायण), 20- उक्कल (उत्कट), 21- गाहावई (गाथापति पुत्र तरूण), 22- गद्दभ (गर्दभाल), 23- रामपुत्त (रामपुत्र), 24- हरिगिरि (हरिगिरि), 25- अंबड़ (अंबड़ परिव्राजक), 26-मातंग (मातङ्ग), 27-वारत्तय (वारजक), 28- अद्द (आर्द्रक), 29- वद्धमाण (वर्द्धमान), 30- वोउ (वायु), 31- पास (पार्श्व)32- पिंग (पिंग), 33- अरूण (महाशालपुत्र अरूण), 34- इसिगिरि (ऋषिगिरि), 35- अद्दालअ (उद्दालक), 36- तारायण (नारायण), 37- सिरिगिरि (श्रीगिरि), 38- साईपुत्त (सारिपुत्र), 39- संजइ (संजय), 40- दीवायण (द्वैपायन), 41- इन्दनाग (इन्द्रनाग), 42- सोम (सोम), 43- जम (यम), 44-वरूण (वरूण) और 45- वेसमणिज्ज (वैश्रमण)। इन ऋषियों को किसी परंपरा विशेष में बांधना एक कठिन कार्य हैं. क्योंकि इनमें कुछ ऋषि तो ऐसे हैं जिनके नामोल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परंपराओं में मिलते हैं। अत: उन्हें किस परंपरा का माना जाय यह निश्चित करना एक कठिन कार्य है। इसी प्रकार इसमें कुछ ऋषि ऐसे भी हैं जिनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है, अतः वे किस परंपरा विशेष से संबद्ध रहे होंगे यह आज नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि ऋषिभाषित के उपर्युक्त ऋषियों की परंपरा का निर्धारण करने का एक प्रयत्न प्रो. शुबिंग ने अपनी 'इसिभासियाई' की भूमिका 13 - A. Isibhasyaim page -3 Introduction by Walther Schubring, L.D.Institute, Ahemadabad, 9 नारद-वज्जिय-पुत्ते, असिते अंगरिसि-पुष्फसाले या वक्कलकुम्मा केयलि, कासव तह तेतलिपुत्ते या।2।। मंखलिजण्णभयालि, बाहुय महुसोरियायण विदू। वरिसेकण्है आरिय, उक्कल गाहावई तरुणे।।3।। गद्दभ रामेय तहा, हरिगिरि अम्बड़ मयंग वारत्ता। तत्तो य अद्दए वद्धमाण वाऊ य तीसतिमे।।4।। पासे पिंगे अरुणे, इसिगिरि अदालए य वित्ते य सिरिगिरि सातियपुत्ते, संजय दीवायणे चेव।।5। तत्तो य इंदणागे, सोम यमे चेव होई वरुणे य। वेसमणे य महप्पा, चत्ता पंचेव अक्खाए। 1; -'इसिभासियाई' प्रथम संग्रहणी गाभा.. . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में किया है। उनके अनुसार- याज्ञवल्क्य, बाहुक अरुण, महाशालपुत्र, और उद्दालक, स्पष्ट रूप से औपनिषदिक परंपरा के ऋषि हैं। क्योंकि इनके नामों का निर्देश उपनिषदों में हुआ है। इनके अतिरिक्त नारद असितदेवल आंगिरस विदुर और भारद्वाज के उल्लेख भी हमें औपनिषदिक साहित्य में मिल जाते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त दस ऋषि स्पष्टतया औपनिषदिक परंपरा के हैं। इसके अतिरिक्त पिंग ऋषिगिरि और श्रीगिरि के नामों के साथ ब्राह्मण परिव्राजक ऐसा स्पष्ट विशेषण हुआ है । अतः ये तीनों भी ब्राह्मण परंपरा से ही संबंधित प्रतीत होते हैं। इनके अतिरिक्त अम्बा को भी परिव्राजक कहा गया है, जैन कथा स्रोतों से हमें यह ज्ञात होता है कि अम्बड पहले परिव्राजक था बाद में वह निर्ग्रन्थ परंपरा का अनुयायी बन गया, अतः उसे इन दोनों परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ मानना होगा। 'अम्बड' नामक अध्ययन में ही यौगन्धरायण का भी उल्लेख हुआ है। ऋषिभाषित में अम्बड से इनका संवाद उल्लिखित है। अतः ये भी ब्राह्मण परंपरा के ही ऋषि हैं। यद्यपि मधुरायण, आर्यायण और नारायण (तारायण) के नामों के साथ कोई विशिष्ट विशेषण नहीं लगा हुआ है, मात्र इन्हें अर्हन ऋषि कहा गया है। किन्तु हमारी दृष्टि में ये भी ब्राह्मण परंपरा से ही संबंधित प्रतीत होते हैं। नारायण और मधुरायण का उल्लेख ब्राह्मण परंपरा में कहीं नहीं हुआ हैं। यद्यपि हमें उसका संदर्भ प्राप्त नहीं हो सका है। शुबिंग " एवं प्रो. सी. एस. उपासक'" ने महाकाश्यप सारिपुत्त और वात्सीय पुत्र को स्पष्टतया बौद्ध परंपरा का बताया है। उनकी यह मान्यता समुचित भी है। अन्य कुछ विचारकों की दृष्टि में इंद्रनाग भी बौद्ध परंपरा से संबंधित है। इस संबंध में उनका आधार क्या है यह हमें ज्ञात नहीं होता है, पुनः उनके उपदेशों के आधार पर यह निर्धारण करना कठिन है। कि वे किस परंपरा के हैं। इसी प्रकार वर्धमान और पार्श्व को हम स्पष्टरूप से निर्ग्रन्थ परंपरा के साथ जोड़ सकते हैं। आर्द्रक का उल्लेख भी जैन परंपरा में स्पष्टतया मिलता है, अत: उन्हें भी निर्ग्रन्थ परंपरा का ऋषि मानने में कोई आपत्ति नहीं है । १७ जहाँ तक मंखलिपुत्र का प्रश्न है, वे स्पष्टरूप से आजीविक परंपरा के हैं। इसी प्रकार संजय, जिनका उल्लेख संजयवेल्लट्ठीपुत्त के रूप में बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों के रूप में हुआ हैं, को भी हम स्वतंत्र श्रमण परंपरा का ऋषि मान सकते हैं। यही स्थिति रामपुत्त की भी है। इनके अतिरिक्त पुष्पशालपुत्त, केतलीपुत्त, गाथापति पुत्त, हरिगिरि, मातंग और वायु के नाम के साथ किसी स्पष्ट संकेत के अभाव में किसी भी परंपरा 14. I.B.K.D., p.3-7 15. I.B.K.D., p.3-7 16. Aspects of Jaionology, Edited by Prof. M.A. Dhaky and Dr. Sagarmal Jain, page G.S. Upasak Isibhasyaim and Buddhist Text Page. 17. 'इसिभासियाई' भूमिका- डॉ. सागरमल जैन, पृ. 20 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन से जोड़ा नहीं जा सकता है। इन ऋषियों की परंपरा के निर्धारण करने में स्वयं शुबिंग ने भी असमर्थता व्यक्त की है।१८ ऋषिभाषित के ऋषियों का काल जहाँ तक इन ऋषियों के काल का प्रश्न है निश्चित रूप से उसका निर्धारण करना कठिन कार्य है। यद्यपि जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा में तथा इसीमण्डल में इन ऋषियों में से प्रथम 20 को अरिष्टनेमि के काल का, उसके पश्चात 15 को पार्श्व के काल का और शेष 10 को महावीर के काल का बताया है। किन्तु उनकी यह मान्यता निर्विवाद नहीं कहीं जा सकती, क्योंकि ऐसी स्थिति में उनतीसवें क्रम पर स्थित वर्धमान को पार्श्व के युग का और 40 वें क्रम पर स्थित द्वैपायन को महावीर के काल का मानना होगा। इसी तरह बारहवें क्रम पर स्थित मंखलिगोशाल अरिष्टनेमि के काल के ऋषि होंगे। जब कि वास्तविकता यह है कि द्वैयापन अरिष्टनेमि के काल के ऋषि है वहीं मंखलिगोशाल महावीर के समकालीन हैं। वर्धमान तो स्वयं महावीर हैं ही, अतः परवर्ती जैन आचार्यों द्वारा किया गया इन ऋषियों के कालक्रम का यह निर्धारण युक्तिसंगत नहीं है। इन ऋषियों के काल-निर्धारण के संबंध में शुबिंग ने भी अपनी भूमिका में कोई प्रयत्न नहीं किया है। अतः इन ऋषियों का कालक्रम निर्धारण करना अभी भी एक कठिन समस्या ही बनी हुई है। यद्यपि इनमें से कुछ ऋषि ऐसे हैं जिनके काल निर्धारण की कोई समस्या नहीं है, जैसे पार्श्व (ईसा पूर्व 8 वीं शती) वर्धमान (ईसा पूर्व छठी शती) मंखलिगोशाल (ईसा पूर्व छठी शती), संजय (ईसा पूर्व छठी शती) रामपुत्त (ईसा पूर्व 7 वीं शती का उत्तरार्ध) अम्बड, वज्जियपुत्त, सारिपुत्त और महाकाश्यप (सभी ईसा पूर्व छठी शती) जहाँ तक औपनिषदिक ऋषियों यथा-याज्ञवल्क्य, अरूण, उद्दालक, अंगिरस, भारद्वाज आदि एवं ब्राह्मण परंपरा के अन्य ऋषियों के काल का प्रश्न है उनका निश्चित काल तो नहीं बताया जा सकता, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे सभी ईसा पूर्व छठी शती के पहले हुए हैं। इसमें विदुर, नारद, द्वैपायन आदि अनेक ऋषि महाभारत काल से संबंधित हैं। ___ जहाँ तक ऋषिभाषित में उल्लिखित ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न है उनमें से कुछ की ऐतिहासिकता तो सुनिश्चित है, जैसे-नारद, वज्जियपुत्त, असितदेवल, अंगिरस, महाकाश्यप, मंखलिपुत्त, याज्ञवल्क्य, भगाली, बाहुक, विदुर, रामपुत्त, अम्बड, वर्धमान, पार्श्व, उद्दालक, अरुण, सारिपुत्त, संजय (वेल्लट्ठीपुत्त), द्वैपायन 18. Isibhasyaim p.-4 Introduction by Walther Schubring, L.D.Institute, Ahemadabad, 9, 19- पत्तेयबुद्धमिसिणो, वीसं तीत्थे अरिट्ठणेमिस्स। पासस्स य पण्णर दस वीरस्स विलीणमोहस्स।।1।। .. -'इसिभासियाई सूत्ताई' प्रथम संग्रहणी गाथा। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी आदि । यद्यपि ये सभी ईसवी पूर्व छठी शती से पहले के हैं । जैन, बौद्ध अथवा ब्राह्मण परंपरा में इनके जो उल्लेख मिलते हैं, उससे ऐतिहासिकता की पुष्टि हो जाती है। वल्कलचिरि, गर्दभिल्ल, मातंग, आर्द्रक, पिंग और इन्द्रनाग के भी उल्लेख जैन और बौद्ध परंपरा में उपलब्ध है, अतः इनकी ऐतिहासिकता में संदेह नहीं किया जा सकता । किन्तु जहाँ तक सौरियायण, वारिषेण, आरियायण, हरिगिरि, वारत्तक, ऋषिगिरि, तारायण, सिरिगिरि आदि का प्रश्न है, इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित करने का हमारे पास ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य को विकल्प नहीं रह गया है। फिर भी यह कहना भी उचित नहीं होगा कि ये काल्पनिक व्यक्ति हैं। वास्तविकता यह है कि ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में हम न तो इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित कर सकते हैं और न यही कह सकते हैं कि ये काल्पनिक व्यक्ति हैं। वायु, सोम, वरुण, यम और वैश्रमण इन पाँच ऋषियों में से चार अर्थात् सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, जैन, बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा में लोकपाल के रूप में मान्य रहे अतः इनकी ऐतिहासिकता को सुनिश्चित करना एक कठिन कार्य है, जहाँ तक वायु का प्रश्न है। जैन परंपरा में वायुभूति नामक गणधर का और महाभारत में वायु नामक ऋषि का उल्लेख तो मिलता है किन्तु ये वहीं हैं ऐसा कहना कठिन है । यम और वरूण के उपदेशों के संकलन भी उपषिदों में उपलब्ध हैं किन्तु सामान्यतया इन्हें देव ही माना गया है। अतः इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति कहना कठिन है। संभवत: ब्राह्मण परंपरा का अनुसरण करते हुए ऋषिभाषित में भी इन चार लोकपालों के उपदेशों को संकलित किया है। किन्तु इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन नामों वाले कोई ऋषि भी हुए हों । ऋषिभाषित के ऋषियों के उपदेशों के मुख्य विषय ऋषिभाषित में वर्णित विषयों को हम मुख्यरूप से तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं - (1) दार्शनिक अवधारणाएँ (2) धार्मिक उपदेश और (3) नैतिक मान्यताएँ। जहाँ तक ऋषिभाषित में प्रस्तुत दार्शनिक अवधारणाओं का प्रश्न है वे मुख्य रूप से हमें उत्कल नामक 20वें अध्याय में तथा पार्श्व नामक 31 वें अध्याय सिरिगिरी नामक 37 वें अध्याय में मिलती है। इनमें उत्कल अध्ययन में चार्वाकों के भौतिकवाद का, पार्श्व अध्ययन में जैनों के पंचास्तिकायवाद का तथा श्रीगिरि नामक अध्ययन में विश्व की शाश्वत्ता का उल्लेख मिलता है। किन्तु इसके अतिरिक्त सन्ततिवाद की अवधारणा वज्जियपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में तथा महाकाश्यप नामक 9वें अध्याय में तथा सारिपुत्त नामक 3रे अध्याय में विस्तार से मिलती है। इसके अतिरिक्त ऋषिभाषित में कर्म सिद्धांत का भी विभिन्न अध्यायों में उल्लेख पाया जाता है। यदि हम तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से विचार करें तो हमें ऋषिभाषित में भौतिकवाद, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 25 पंचमहाभूतवाद, पंचास्तिकायवाद तथा सन्ततिवाद के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य को सूचित करते हैं कि ऋषिभाषित में चार्वाक, जैन और बौद्ध इन तीनों ही श्रमण परंपराओं के दार्शनिक अवधारणाओं के बीज उपस्थित हैं। यह भी सुस्पष्ट है कि जिस प्रकार वैदिक परंपरा में ईश्वर की अवधारणा मीमांसा और सांख्य को छोड़कर सभी दर्शनों का केंद्रीय तत्त्व रही है, उसी तरह से कर्म सिद्धांत श्रमण परंपराओं का केंद्रीय तत्त्व है। ऋषिभाषित के अधिकांश अध्यायों में किसी न किसी रूप में कर्मसिद्धांत का निरूपण पाया जाता है, उसमें कर्म को ही बंधन का मुख्य आधार बताया गया है और यह माना गया है कि वही परिणामों के सुख-दुःख का आधार है। उसमें कर्म बन्धन से मुक्ति को ही जीवन का लक्ष्य या चरम पुरुषार्थ निरूपित किया गया है। जहाँ तक ऋषिभाषित में वर्णित धार्मिक उपदेशों का प्रश्न हैं वे स्पष्टरूप से व्यक्ति के आध्यात्मिक विशुद्धिकरण से संबंधित हैं। ऋषिभाषित के 37वें श्रीगिरि अध्ययन को छोड़कर किसी भी अध्याय में हमें धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रतिपादन संबंधित कोई उल्लेख नहीं मिलता है। श्रीगिरि अध्ययन में अग्निहोत्र का प्रतिपादन है। फिर भी इसके अधिकांश ऋषियों के दृष्टिकोणों के आधार पर ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित कर्मकाण्डीय धर्म का समर्थक न होकर के उस धर्म का समर्थक है जो आध्यात्मिक विशुद्धि की दशा में आगे ले जाता है। वासना और कषायों का विगलन, राग और द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर समभाव या अनासक्ति की साधना यही ऋषिभाषित का मूलभूत लक्ष्य है और इसे हम ऋषिभाषित के प्रत्येक अध्याय में किसी न किसी रूप में उपस्थित पाते हैं। धार्मिक साधना के रूप में यदि कोई प्रतिपादन हमें ऋषिभाषित में मिलता है तो वह मात्र ध्यान का है। उसमें उसके गर्दभिल्ल नामक अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर में सिर प्रधान है या वृक्ष के लिए मूल प्रधान है उसी प्रकार सभी साधु कर्मों में ध्यान की प्रधानता है। यह भी स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में सर्वत्र निर्वृत्तिमार्गी या सन्यासमार्गी परंपरा का ही समर्थन देखा जाता है। उसकी इसी विशेषता के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित मुख्यतः आध्यात्मिक निवृत्तिमार्गी श्रमण परंपरा का ग्रंथ है। नैतिक उपदेशों की दृष्टि से ऋषिभाषित यह मानकर चलता है कि व्यक्ति जैसा कार्य करता है उसे तदनुरूप ही फल मिलता है और परिणामतः शुभ कर्मों का 20. सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स या सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।।16।। -इसिभासियाई 22वाँ अध्ययन गाथा। 14 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल दु:ख रूप होता है। यद्यपि अपनी निवृत्तिमार्गी दृष्टि के आधार पर वह यह मानता है कि संसार में जो सुखदायक कर्म हैं वे अन्ततः दुःखदायी ही होते हैं।२२ जहाँ तक ऋषिभाषित के नैतिक उपदेशों की विषयवस्तु का प्रश्न है, वह लगभग वहीं है जो कि सामान्यतया सभी भारतीय धर्म-दर्शनों में पाई जाती है। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रतिपादन पाया जाता है और वह असत्यभाषण, प्राणहिंसा, और निंदनीय कर्म से दूर रहने का निर्देश देता है। उसमें आत्मवत् व्यवहार का मूलभूत नैतिक सिद्धांत भी प्रतिपादित हुआ।२३ स्वार्थ, परार्थ और आत्मार्थ के नैतिक प्रश्नों को लेकर ऋषिभाषित सदैव ही आत्मार्थ को ही श्रेष्ठतम मानता है। यह विचार उसके 35वें अध्याय में पर्याप्त विस्तार के साथ प्रतिपादित किया गया है। इसी अध्याय में नैतिक जीवन के लिए अप्रमत्त होना आवश्यक माना गया है। उसमें कहा गया है कि जो श्रमण सजग है उससे दोष उसी तरह दूर भाग जाते हैं, जैसे कि पशु दूर भाग जाते हैं।२५ ऐन्द्रिक विषयों में आसक्त होने पर मनुष्य की क्या गति होती है, इसका सौदाहरण विवेचन ऋषिभाषित के इंद्र नाग नामक 41 वें अध्याय में विस्तार से किया गया है। इसके 45 वें वैश्रमण नामक अध्याय में मुख्यरूप से विस्तारपूर्वक पाप से दूर रहने का उपदेश उपलब्ध होता है। -इसिभासियाई 30वाँ अध्ययन गाथा। 5 21. कल्लाणा लभति कल्लाणं, पावं पावा तु पावति। हिंसं लभति हन्तारं, जइत्ताय पराजय।। मण्णन्ति भदका भदकाइं.मधरं मधरं ति माणति। कडुयं कडुयंभणियं ति, फस्सं फरुसं ति माणति।। 22. जं सुहेण सुहं लद्धं, उच्चन्तसुखमेव तं। जं सुखेण दुहं लद्धं, मा मे तेण समागमो।। -इसिभासियाई 30 वाँ अध्ययन गाथा। 7 - इसिभासियाई 38 वाँ अध्ययन गाथा। 1 23. आतं परं च जाणेज्जा, सव्वभावेण सव्वधा। आयटुं च परटें च, पियं जाणे तहेव य।।13।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 13 24. आतट्ठो णिज्जरायन्तो, परट्ठो कम्मबन्धणं। अत्ता समाहिकरणं, अप्पणो य परस्स या।17।। आतट्टे जागरो होहि, मा परट्ठाहि-धारए। आतट्ठो हायए तस्स, जो परट्ठाहि-धारए।।15।। आतं परं च जाणेज्जा, सव्व-भावेण सव्वधा। आयलैं चपरटें च, पियं जाणे तहेव य।।13।। सए गेहे पलित्तम्मि, किं धावसि परातक। सयं गेहं णिरित्ताणं, ततो गच्छे परातक।।14।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 17-15-13-14 25. जागरन्तं मुणिं वीरं, दोमा वजेन्ति दूरओ।। जलन्तं जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो।।24।। -इसिभासियाई 35 वाँ अध्ययन गाथा। 24 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में दार्शनिक विवेचना के साथ ही साथ धार्मिक और नैतिक उपदेशों का ही प्राधान्य है। इसमें तत्त्वमीमांसा का केवल उसी दृष्टि से प्रस्तुतिकरण किया गया है, जिसके आधार पर अनासक्ति और निवृत्ति का उपदेश दिया जा सके और इस दृष्टि से कर्मसिद्धान्त को केन्द्रीय स्थान दिया गया है। हम पाते हैं कि इसमें आत्मवादी और अनात्मवादी दोनों ही प्रकार के दर्शन कर्मसिद्धांत को आधारभूत मानकर चलते हैं। ग्रंथ में ईश्वर और उसके सृष्टि कर्तृत्त्व का कहीं भी समर्थन नहीं हुआ है। इसी प्रकार इसमें कुछ अध्यायों में ज्ञान की प्रधानता और आत्मसाधना में उसके महत्त्व को तो स्वीकार किया गया है, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से किसी ज्ञान मीमांसीय समस्या की चर्चा इसमें नहीं देखी जाती है। इसमें तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं को भी उसी सीमा तक उठाया गया है जहाँ तक कि वे धर्म और नैतिकता के लिए आवश्यक है। अतः हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित मुख्यतया एक धार्मिक और नैतिक उपदेश प्रधान ग्रंथ है। __ ऋषिभाषित के पैतालिस अध्यायों के प्रवक्ताओं और उनकी विषयवस्तु के संबंध में भी संक्षेप में इतना जान लेना आवश्यक है। इस संबंध में विस्तृत विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में किया है। हम उसी आधार पर यहाँ एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि इन ऋषियों की ऐतिहासिकता तथा इनकी दार्शनिक मान्यताओं को समझने में सुविधा हो। १. नारद ऋषि ऋषिभाषित का प्रथम अध्ययन नारद ऋषि या देव नारद से संबंधित है। नारद का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक-इन तीनों ही परम्पराओं में हुआ है। जैन परंपरा में नारद ऋषि का उललेख न केवल ऋषिभाषित में हुआ है, अपितु समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, ऋषिमण्डल और आवश्यकचूर्णि में भी इनका उल्लेख मिलता है। समवायांग में उन्हें आगामीकाल में होने वाला तीर्थंकर माना गया हैं ज्ञाता धर्मकथा और ऋषिमण्डल में ऋषिभाषित के देवनारद को कल्छुल नारद कहा गया है। ज्ञाता के नारद अरिष्टनेमि और कृष्ण के समकालीन माने गए। ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा भी इन्हें अरिष्टनेमि के काल में होने वाला प्रत्येक बुद्ध मानती है। ज्ञाताधर्मकथा में नारद के व्यक्तित्व को विरोधात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक ओर उन्हें भद्र और अनेक विधाओं का जानकर कहकर सम्मानित किया गया, वहीं दूसरी ओर उन्हें कलुषित और कलहप्रिय जैसे कठोर शब्दों से अवमानित भी किया गया है।२८ औपपातिक में इन्हें ब्राह्मण परिव्राजक के रूप में उल्लेखित किया गया 26. समवायांगसूत्र प्रकीर्ण समवाय 252/3, जैन विश्व भारती (लाडनूं) 27. ज्ञाताधर्मकथा-16/139-142 28. वही, 16/139-142 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है। साथ ही साथ दोनों ग्रंथों में इन्हें शोच-धर्म का प्रवक्ता कहा गया है। ऋषिभाषित भी नारद को शौचधम का प्रवर्तक मानता है किन्तु यहाँ उनका शौच (पवित्रता), से तात्पर्य आंतरिक वृत्तियों की शुद्धि .से है जबकि अन्य ग्रंथों में उन्हें बाह्य शौच का प्रवर्तक माना गया है। आवश्यक चूर्णि नारद के ब्राह्मणपुत्र होने का उल्लेख करती है, उसमें इनके माता-पिता का नाम यज्ञदत्त और सोमयशा बताया है, जो कि शोरीपुर के निवासी थे। इस प्रकार उपरोक्त ग्रंथों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन परंपरा में विभिन्न स्थानों में उल्लिखित नारद भिन्न-भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति है। बौद्ध परंपरा में भी नारद का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। बौद्ध परंपरा में चौबीस बुद्धों की अवधारणा में नारद नवें बुद्ध माने गए हैं। थेरगाथा की अट्ठकथा में एक स्थान पर पद्मोत्तर बुद्ध के समकालीन नारद नामक ब्राह्मण का उल्लेख उपलब्ध होता है तो दूसरे स्थान पर अर्थदर्शी बुद्ध के समकालीन एक अन्य नारद ब्राह्मण का उल्लेख भी हुआ है। इसके अतिरिक्त वाराणसी के ब्रह्मदत्त नामक राजा के मंत्री का नाम नारद और मिथिला नगरी के एक राजा का नाम भी नारद माना गया है किन्तु इन सब नारदों से ऋषिभाषित के नारद का कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है।३१ बौद्ध साहित्य में एक काश्यप गोत्रीय नारद का उल्लेख हुआ है, इन्हें ब्राह्मण ऋषि नारद और नारद देवल भी कहा गया है। किन्तु महाभारत के नारद असित देवल के संवाद को देखते हुए ऐसा लगता है कि नारद और देवल समकालीन है, और नारद और देवल ये दो भिन्न व्यक्ति है।३२ जहाँ तक हिन्दू परंपरा का प्रश्न है नारद का उल्लेख अनेक ग्रंथों में हुआ हैं, जैसे ऋग्वेद, अथर्ववेद, छान्दोग्य-उपनिषद, गीता, नारदोपनिषद, नारद परिव्राजकोपनिषद, महाभारत आदि में नारद का वर्णन उपलब्ध है। इन ग्रंथों में नारद का सूक्तों के रचयिता, वेद और अनेक विधाओं का ज्ञाता, मंत्रविद् आदि के रूप में उल्लेख हआ है।३३ ऋषिभाषित में नारद के उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय शौच-धर्म का प्रतिपादन करना रहा है। उनके अनुसार अहिंसा, सत्य, अदत्त, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही शौच अर्थात् आत्म-शुद्धि के लक्षण है। वस्तुतः यहाँ चार शौचों का प्रतिपाद्य परोक्ष 29. औपपातिकसूत्र 38 30. आवश्यकचूर्णि भाग-2, पृ. 194 ऋषभदेव-केशरीमल, रतलाम, 1928 31. (अ) थेरगाथा अट्ठकथा भाग 1, पृ. 268 (ब) वही, पृ. 269 (स) जातक कथा, तृतीय भाग, सर्वजातक वर्ग, पृ. 306 (द) वही, चतुर्थ भाग, पृ. 567 32. जातक कथा, पंचम भाग, पृ. 476 33. छान्दोग्य उपनिषद,7/1/1 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 29 रूप से पार्श्व परंपरा के चातुर्याम का प्रतिपादन है। नारद ऋषि को अन्य वैदिक और हिन्दू ग्रंथों में भी शौच धर्म का संस्थापक माना गया है। किन्तु ऋषिभाषित में प्रतिपादित शौच धर्म से तात्पर्य आंतरिक वृत्तियों की पवित्रता या शुद्धि से है जबकि अन्य ग्रंथों में शौच का तात्पर्य बाह्य शुद्धि से माना गया है। २. वज्जियपुत्त ऋषिभाषित का दूसरा अध्ययन वज्जियपुत्त का है। वज्जियपुत्त का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही परंपराओं में हुआ है।३४ जैन परंपरा में वज्जीयपुत्त का उल्लेख मात्र ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध परंपरा में वज्जीयपुत्त का उल्लेख अनेक स्थानों में हुआ है। बौद्ध परंपरा में वज्जीयपुत्त के नाम से एक पृथक संप्रदाय था, जिसका अस्तित्त्व ईसा पूर्व 3-4 शताब्दी में माना गया था। भिक्षु-नियमों की कुछ बातों में इसका मतभेद था।३५ प्रो. शुब्रिग और सी उपासक ने वज्जियपुत्त का संबंध विशेष रूप से बौद्ध सम्प्रदाय से माना है। थेरगाथा अट्टकथा में इन्हें वैशाली का निवासी लिच्छिवि राजकुमार कहा गया है। ये बुद्ध से प्रभावित होकर प्रव्रजित हुए थे और वैशाली के जंगलों में साधना की थी।२८ वज्जियपुत्तीय श्रमणों को सुविधावादी माना जाता था। औपनिषदिक परंपरा में मात्र इनका नामोल्लेख हुआ है। उनके उपदेश आदि का विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। इस आधार पर केवल इतना कहा जा सकता है कि ये औपनिषदिक काल के कोई ऋषि हैं। इस अध्याय में उन्होंने मुख्यरूप से कर्मसिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इसमें कहा गया है कि जिस प्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की परंपरा चलती रहती है उसी प्रकार कर्म और उसके फल या विपाक की परंपरा चलती रहती है। इसमें कर्म और दुःख का मूल कारण मोह बताया गया है, और मोह के नाश होने पर कर्म परंपरा या भव परंपरा का नाश उसी प्रकार हो जाता है जैसे की जड़ के काट देने पर फूल, फल, पत्ते नष्ट हो जाते हैं। इसमें कर्म सन्ततिवाद का उल्लेख बौद्ध दर्शन के प्रभाव का सूचक है। वज्जियपुत्त के संबंध में यह स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त यथार्थ में किस परंपरा के थे? क्योंकि इनका उल्लेख उपनिषद्, जैन एवं बौद्ध तीनों परंपराओं में हुआ है। ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त और 34. देखें--'इसिभासियाई' की भूमिका, डॉ सागरमल जैन 35. थेरगाथा अट्ठकथा, भाग 1, पृ. 206, 238 36. इसिभासियाई .2 Introduction P. 4 L.D.Institute of Indology, Ahemadabad, 1974, 37. वही 38. थेरगाथा अट्ठकथा, भाग। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी बौद्ध परंपरा के वज्जियपुत्त में समानता परिलक्षित होती है। किन्तु जैन परंपरा की अपेक्षा बौद्ध परंपरा में इनकी स्थिति अधिक सुदृढ़ है। बौद्ध धर्म में पृथक सम्प्रदाय का होना यह प्रमाणित करता है कि वे बौद्ध श्रमण ही थे। ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त नामक अध्ययन में जिस कर्म सन्ततिवाद की चर्चा हुई है उसकी समानता उत्तराध्ययन के तीसवें अध्ययन में देखी जा सकती है। ३. असित देवल ___ असित देवल का ऋषिभाषित के ऋषियों में तीसरा स्थान है। इनका उल्लेख श्रमण और ब्राह्मण धारा दोनों परंपराओं में हुआ है। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी हुआ है। किन्तु शीलांक ने अपनी सूत्रकृतांग की टीका में "असिते दविले" के आधार पर असित और दविल ऐसे दो व्यक्ति होने की संभावना व्यक्त की है। किन्तु 13वीं 14वीं शताब्दी में विरचित ऋषिमण्डल की वृत्ति से यह संभावना समाप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें इनके पूरे जीवन का वर्णन है। उसमें यह बताया गया है कि ये अपनी पुत्री अर्धशंकासा के प्रति कामवासना से आकर्षित हुए, किन्तु उसी समय अंतर जागरण से विषय वासना से निवृत्त हो गए थे। बौद्ध परंपरा में सुत्तनिपात में असितदेवल एक ऋषि के रूप में उल्लिखित हुए हैं। उसी प्रकार मज्झिमनिकाय के आसलायनसूत्र में भी इनका उल्लेख हुआ है। उसमें यह बताया गया है कि 'ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है' इस अवधारणा का असितदेवल ने विरोध किया था इसलिए 7 ब्राह्मण विद्वानों ने इन्हें श्राप दिया था, किन्तु उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और अन्तत्तोगत्वा ब्रह्मर्षि इनके अनुयायी हुए। उसी प्रकार 'महावंस' में असितदेवल का बोधिसत्व के रूप में उल्लेख हुआ है, किन्तु इन्द्रिय जातक में कालदेवल के रूप में इनका उल्लेख हुआ है और इसमें इन्हें नारद का बड़ा भाई कहा गया है। हिन्दू परंपरा में महाभारत के आदिपर्व, सत्तापर्व, शल्यपर्व, शांतिपर्व और अनुशासन पर्व में असित देवल का उल्लेख हुआ है। शल्यपर्व में असित देवल को एक गृहस्थ रूप में साधना करता हुआ माना गया है। इसी अध्याय में असित और जौगीशव्य की चर्चा का भी उल्लेख हुआ है तथा यह कहा गया है कि जैगीशव्य के प्रभाव से संन्यास धर्म का पालन करने लगे थे। इसके अतिरिक्त गीता, माठरवृत्ति, 39. सूत्रकृतांगसूत्र1/1/3/42 40. ऋषिमंडल वृत्ति 41. (अ) महावंश 11, 785 (ब) इन्द्रिय जातक, पृ. 463 (गीता प्रेस संस्करण) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ब्रह्मसूत्र भाष्य और याज्ञवल्क्य की स्मृति की अपरादित्य टीका में असितदेवल का है । ४२ उल्लेख हुआ इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय पापों से निवृत्त होकर मोक्ष प्राप्त करना है। इसमें हिंसा, झूठ, चोरी आदि को लेप कहा गया है और वस्तुत: वे ही बंधन है जो चतुर्गति संसार में परिभ्रमण कराते हैं। इसमें यह कहा गया है कि जो इनसे मुक्त होता है वह अजर, अमर, अव्याबाध मोक्ष पद को प्राप्त करता है। अतः समत्व की साधना पर बल देते हैं। इस प्रकार असितदेवल का उल्लेख तीनों ही परंपराओं में हुआ है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि वे एक ऐतिहासिक पुरुष है। जहाँ तक उनके उपदेशों का प्रश्न है वे मुख्यरूप से समत्व, इन्द्रिय संयम का उपदेश देते हैं। महाभारत में असितदेवल के संवाद में पंचमहाभूत, काल, भाव, अभाव आदि आठ नित्य तत्त्वों की स्थापना की गई है। ४. अंगिरस ऋषिभाषित का चतुर्थ अध्ययन अंगिरस ऋषि से संबंधित है। अंगिरस का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परंपराओं में हुआ है। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित में तो हुआ ही है किन्तु इसके अतिरिक्त आवश्यकचूर्णि ४३, आवश्यकभाष्य" और ऋषिमण्डल ४५ में भी हुआ है। वहाँ इन्हें तापस कौशिक का शिष्य कहा गया है। बौद्ध परंपरा के अनेक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर आंगिरस का उल्लेख हुआ हे।४६ किन्तु वहाँ इन्हें अंगिरस वैदिक ऋषि भारद्वाज के रूप में उल्लिखित किया गया है। जातक में ब्रह्मलोक निवासी ग्यारह संन्यासियों में भी आंगिरस का उल्लेख हुआ है, जबकि सुत्तनिपात्त में इनका उल्लेख ऋषि भारद्वाज और सुंदरिक भारद्वाज के रूप में मिलता है । ४७ ऐसा लगता है कि अंगिरस के पीछे लगा भारद्वाज शब्द गोत्र का परिचायक है। क्योंकि सुत्तनिपात के वासट्कसुत्त में वशिष्ठ और भारद्वाज में ब्राह्मण के विषय में यह चर्चा हुई है कि ब्राह्मणत्व का मुख्य आधार शील सदाचार है या जन्म? समाधान के रूप में यह माना गया है कि ब्राह्मणत्व का आधार जन्म नहीं, 42. (अ) गीता 10/13 (ब) माठर वृत्ति 71 - " सांख्य दर्शन और विज्ञानभिक्षु-उर्मिला चतुर्वेदी । (स) ब्रह्मसूत्र भाष्य (द) याज्ञवल्क्य की स्मृति की अपरादित्य टीका 43. आवश्यक चूर्णि भाग 2, पृ. 79, 193 44. आवश्यकभाष्य, पृ. 782 45. ऋषिमण्डल, गाथा 123 46. देखें-'ईसिभासियाई' की भूमिका, डॉ सागरमल जैन 47. 'सुत्तनिपात', प्रथम खण्ड, पृ. 196 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अपितु आंतरिक पवित्रता है। वासेट्ठसुत्त की इस चर्चा में और ऋषिभाषित में वर्णित भारद्वाज के उपदेशों में समानता परिलक्षित होती है। अतः अंगिरस और भारद्वाज नाम के दो व्यक्ति रहे होंगे। ____ इसके अतिरिक्त अंगिरस का वर्णन थेरगाथा की अट्ठकथा में भी उपलब्ध होता है। वेणिथेगाथा में इन्हें महामुनि के नाम से संबोधित किया गया और इनकी तुलना चंद्रमा से की है जबकि चूलपंथ की थेरगाथा में इन्हें सूर्य के समान तेजस्वी कहा गया है। इस चर्चा के प्रसंग में चंपानगरी का भी वर्णन हआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध साहित्य में लगभग पाँच, सात एवं बारह अंगिरस का उल्लेख हुआ है। किन्तु जहाँ तक ऋषिभाषित में उल्लिखित अंगिरस की परंपरा और बौद्ध परंपरा में उल्लिखित अंगिरस से समानता का प्रश्न है, सुत्तनिपात्त में 10 ऋषियों में उल्लिखित अंगिरस को ही ऋषिभाषित का अंगिरस माना जा सकता है। ब्राह्मण परंपरा में भी अंगिरस का उल्लेख कई स्थानों में हुआ है।८ सर्वप्रथम छान्दोग्य उपनिषद में घोर अंगिरस का उल्लेख हुआ है और उन्हें कृष्ण का उपदेष्टा माना गया है। महाभारत में भी अंगिरस ऋषि का उल्लेख हुआ है, जिनके आठ पुत्रों में एक का नाम घोर था। हो सकता है कि यही छन्दोग्य का घोर अंगिरस हो। ऋषिभाषित के अंगिरस ऋषि के उपदेशों में मुख्यरूप से मानवी-प्रकृति का मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म वर्णन मिलता हैं उसमें कहा गया है कि दीवार पर चित्र को जान पाना आसान है किन्तु छद्म युक्त जीवन जीने वाले व्यक्ति को जानना सुगम नहीं है। साथ ही साथ यह भी कहा गया है कि चाहे बाह्य रूप से जनमानस संत की निंदा करते हों और चोर की प्रशंसा करते हों, परंतु श्रमणत्व और चोरत्व की मुख्य कसौटी बाह्य प्रशंसा और निंदा न होकर आंतरिक वृत्ति ही है। बौद्ध और जैन परंपरा में वर्णित इनके उपदेशों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे बाह्य घटना को महत्त्व प्रदान नहीं करते हैं, अपितु वृत्ति को ही प्रधानता देते हैं। इस प्रकार हम संक्षेप में यह कह सकते हैं कि जैन, बौद्ध और हिन्दू परंपरा में वर्णित अंगिरस एक ही व्यक्ति होना चाहिये न कि भिन्न-भिन्न। ५. पुष्पशालपुत्र ऋषिभाषित के पंचम अध्ययन में पुष्पशाल ऋषि और उनके उपदेशों का वर्णन हुआ है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त पुष्पशाल का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकभाष्य में भी हुआ है। आवश्यकचूर्णि दो पुष्पशालों का उल्लेख करती हैं। उसमें एक को गोबर ग्राम का निवासी और दूसरे को 48. (अ) छान्दोग्य उपनिषद् 1/2/10 (ब) आदिपर्व, 122/51 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन बसंतपुर का रहने वाला बताया गया है और उनके संगीतज्ञ होने का भी उल्लेख हुआ है । ४९ आचारांग की टीका में भी इनका उल्लेख हुआ है।" ऋषिभाषित के पुष्पशाल की समानता गोबर ग्राम के पुष्पशाल से की जा सकती है। क्योंकि उन्हें वहाँ सेवाधर्म का प्रवर्त्तक माना गया है और ऋषिभाषित के पुष्पशाल को विनय धर्म का प्रवक्ता कहा गया है। बौद्ध परंपरा में पुष्पशाल का पुस्सथेर (पुष्पस्थविर) के रूप में उल्लेख हुआ है । थेरगाथा की अट्ठकथा में भी इनका उल्लेख हुआ है। पालि साहित्य में इनका उल्लेख सदाचार के प्रति बल देने वाले के रूप में हुआ है। ऋषिभाषित में वर्णित पुष्पशाल का उपदेश मुख्यरूप से विनय धर्म पर प्रकाश डालता है। वे कहते हैं कि नमन् करने वाला अर्थात् विनयवान सदा शांति या समत्व और आगमिक ज्ञान में तल्लीन रहता है। वस्तुतः काषायिक भावों से रहित आत्मा समस्त पर्यायों का ज्ञाता • होता है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि हिंसा, असत्य, मैथुन, अदत्तादान और परिग्रह से दूर रहने का संकेत करते हैं। ऋषिभाषित में वर्णित पुष्पशाल के उपदेशों की तुलना बौद्ध साहित्य में वर्णित उपदेशों से करने पर दोनों में समानता परिलक्षित होती है। पालि साहित्य के पुष्पशाल सिद्धान्तानुकूल सदाचार पर बल देते हैं, तो ऋषिभाषित के पुष्पशाल विनय - धर्म पर अधिक बल देते हुए प्रतीत होते हैं। ६. वल्कलचीरी ऋषिभाषित के ऋषियों की श्रृंखला में वल्कलचीरी का षष्ठम स्थान है। इस अध्ययन में इनके उपदेश वर्णित है । वल्कलचीरी का उल्लेख जैन और बौद्ध परंपरा में उपलब्ध होता है, किन्तु वैदिक परंपरा में इनका उल्लेख नहीं मिलता हैं । जैन परंपरा में ऋषिभाषित के सिवाय औपपातिक भगवतीसूत्र, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है। आवश्यकचूर्णि में वल्कलचीरी से संबंधित दो कथाएँ मिलती हैं। एक कथा में इनको पोतनपुर का राजकुमार कहा है । उसमें इनके पिता का नाम राजा सोमचंद्र और भाई का नाम प्रसन्नचंद्र बताया गया है । ५१ जैन परंपरानुसार प्रसन्न चंद्र राजर्षि को महावीर का समकालीन माना गया। इस दृष्टि से वल्कलचीरी को भी महावीर का समकालीन कहा जा सकता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इनके पिता दिशापोषक उपासक थे। इन तापसों का उल्लेख औपपातिक सूत्र में भी हुआ 49. (अ) आवश्यक नियुक्ति, पृ. 398 33 (ब) आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 529-30 (स) विशेषावश्यक भाष्य, पृ. 787 50. आचारांग शीलांक वृत्ति, पृ. 154 51. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 455-460 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी हैं।५२ वल्कलचीरी के संबंध में यह कहा जाता है कि पिता के धर्मोपकरण का प्रमार्जन करते हुए इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। इनके संबंध में यह भी कहा जाता है कि इन्हें स्त्री-पुरूष, मृग, अश्व आदि का भेद-ज्ञान भी नहीं था। बौद्ध परंपरा में वल्कली थेर के रूप में इनका उल्लेख हुआ है। इसमें इनको श्रावस्ती निवासी ब्राह्मण पुत्र और त्रिवेदज्ञ कहा है। पालि साहित्य के अनुसार ये बौद्ध संघ में दीक्षित हुए थे। इन्होंने गृध्रकूट पर्वत पर साधना की, ऐसा उल्लेख भी उपलब्ध होता है। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि स्वयं बुद्ध ने उनकी आस्था की प्रशंसा की थी।५३ जहाँ तक इनके उपदेश और सिद्धांत का प्रश्न है, वे ब्रह्मचर्य पर अधिक बल देते हैं। वे ऋषिभाषित के छठे अध्ययन में स्पष्ट रूप से पुरुष को संबोधित करते हुए कहते हैं कि स्त्री के प्रति आसक्ति मत रखो, जितना संभव हो सके उससे दूर रहने का प्रयत्न करों, क्योंकि ऐसा नहीं करने से तुम स्वयं अपने ही शत्रु बनोगे और साधना मार्ग से च्युत हो जाआगे। __इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में इनका उपदेश सांसारिक वृत्तियों से अनासक्त होने की प्रेरणा देता है। किन्तु बौद्ध परंपरा में मात्र इनके दीक्षित होने और साधना करने का उल्लेख हुआ है। उपदेशों या किसी सिद्धांत का वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। ७. कुम्मापुत्त ___ ऋषिभाषित का सप्तम अध्ययन कुम्मापुत्त से संबंधित है। कुर्मापुत्र का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन परंपरा के अन्य ग्रंथ विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूर्णि, हरिभद्र द्वारा विरचित 'विशेषवती' में भी मिलता हैं।५४ प्राचीन जैन साहित्य में इनको वामन या बौना भी कहा गया है। किन्तु इनका जीवन वृत्तान्त 'कुम्मापुत्रचरियम्' और ऋषिमण्डल की वृत्ति में विस्तार से उपलब्ध होता हैं इन दोनों ग्रंथों का रचनाकाल 12वीं शताब्दी के पश्चात माना गया है। इनके संबंध में यह भी कहा जाता है कि कुम्मापुत्र ने गृहस्थाश्रम में ही कैवल्य प्राप्त कर लिया था। 52. औपपातिक 38 (आगमोदय समिति) 53. थेरगाथा अटठकथा खण्ड 1, पृ. 420 (पालिटेक्स्ट सोसायटी) 54. (अ) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 3169 (ब) आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ. 583 (स) विशेषवती, द्वारा-हरिभद्र, गाथा 38-44 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन बौद्ध परंपरा में कुम्मापुत्त थेर का वर्णन उपलब्ध होता है। अपदान की अट्ठकथा में इनके जीवन से संबंधित कथानक का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है। उसमें यह कहा गया है कि इन्होंने पूर्व जन्म में विपस्सी बुद्ध के पैर मालिश के लिए तेल दान दिया था। परिणामस्वरूप वैलुत्कण्टक नामक शहर के श्रेष्ठ गृहपति के गृह में जन्म लिया था। इनके संबंध में यह भी कहा गया है कि ये सारिपुत्त के प्रवचन से प्रभावित होकर प्रव्रजित हुए और कर्मस्थान के संबंध में विपश्यना करते हुए अर्हत् अवस्था को प्राप्त हुए। कुर्मापुत्र को सत्यथेर का निकटस्थ व्यक्ति माना गया है। ऋषिभाषित में वर्णित कुर्मापुत्र का मुख्य उपदेश निष्कामता या अनासक्ति पर प्रकाश डालता है। उनके अनुसार आकांक्षा या इच्छा ही दु:ख का मूल कारण है। अनुत्सुकता के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए वे कहते हैं कि जो प्रमाद या आलस्यवश भी इच्छा की ओर नहीं बढ़ता, तो वह सुखी होता है और यदि वह स्वेच्छा से इस दिशा में प्रेरित हो तो वह कितना सुखी हो सकता है, यह वह खुद ही अनुभूत कर सकता है। अतः कामनाओं (इच्छाओं) पर नियंत्रण कर जीवन व्यतीत करें यही उनका मुख्य निर्देश है। कुर्मापुत्र के इस उपदेश को गीता में वर्णित अनासक्त योग से तुलना की जा सकती है। 'कुम्मापुत्त' का नामकरण वस्तुतः उनकी माता के आधार पर हुआ है। इस संबंध में जैन और बौद्ध दोनों परंपराएँ एक मत हैं। ये मुख्यरूप से अनासक्ति और चित्तशुद्धि पर बल देते हैं। ये संभवतः महावीर या बुद्ध के समकालीन रहे होंगे। ८. केतलीपुत्त ऋषिभाषित का आठवां अध्ययन केतलीपुत्र से संबंधित है। इस अध्याय में केतली पुत्र के उपदेश संकलित है। जैन परंपरा में भी इनका उल्लेख मात्र ऋषिभाषित में ही उपलब्ध होता हैं। जैन परंपरा का अन्य साहित्य एवं बौद्ध और वैदिक परंपराएँ भी इनके व्यक्तित्त्व और उपदेश के संबंध में किसी प्रकार की कोई सूचना नहीं देती है। जैन परंपरा में 'तैतलीपुत्र' का उल्लेख ज्ञाता और सूत्रकृतांगचूर्णि में हुआ है।५ किन्तु ऋषिभाषित केतलीपुत्र और तेतलीपुत्र का अलग-अलग उल्लेख करता है। वस्तुतः दोनों नामों में एक अक्षर का ही फर्क हैं। इसलिए यह भी संभव है कि ऋषिभाषित के केतलीपुत्र और तेतलीपुत्र दो भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति रहे होंगे। __ ऋषिभाषित में इनके उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मुक्त और बद्ध या सिद्ध और संसारी आत्मा के स्वरूप का चित्रण करना रहा है। वे कहते हैं कि मुक्त आत्मा में मात्र ज्ञान गुण और संसारी आत्मा में ज्ञान और चारित्र- ये दो गुण हैं या - 55. ज्ञाताधर्मकथा, 1/24 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी संसारी आत्मा राग और द्वेष रूपी पाश से आबद्ध हैं। पुनः वे मुक्त आत्मा के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार रेशम का कीड़ा स्वनिर्मित तन्तुजाल को काटकर मुक्त हो जाता है उसी प्रकार संयमी एवं त्यागी आत्मा भी अपने राग-द्वेष रूपी जाल को काटकर सदैव के लिए मुक्त हो जाता है।५६ ९. महाकाश्यप ऋषिभाषित का नवां अध्ययन महाकाश्यप से संबंधित है। इसमें इनके उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त महाकाश्यप का उल्लेख भगवती एवं उत्तराध्ययनचूर्णि में भी हुआ है।५७ जहाँ भगवती एक काश्यप नामक स्थविर का उल्लेख करती है, वहाँ उत्तराध्ययनचूर्णि कपिल ब्राह्मण के पिता के रूप में एक अन्य काश्यप का उल्लेख करती है। किन्तु ऋषिभाषित के महाकाश्यप से इनका कोई संबंध रहा होगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता। 'काश्यप' शब्द का प्रयोग जैन परंपरा में कई बार ऋषभ और महावीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु यहाँ काश्यप शब्द गोत्र वाचक है न कि व्यक्ति वाचक। जहाँ तक बौद्ध परपरा का प्रश्न है महाकाश्यप का उल्लेख एक विशेष भिक्षु के रूप में हुआ है।५८ बौद्ध परंपरा में इनकी गणना बुद्ध के श्रेष्ठ शिष्यों में की गई है। प्रो. शुब्रिग और डॉ. सागरमल जैन महाकाश्यप का संबंध बौद्ध परंपरा से जोड़ते हैं। उनकी दृष्टि में ऋषिभाषित के महाकाश्यप बौद्ध परंपरा के महाकाश्यप ही हैं। क्योंकि ऋषिभाषित में वर्णित उनका संततिवाद भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। हिन्दू परंपरा के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में एक मंत्रवेत्ता काश्यप ब्राह्मण का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में भी इनका उल्लेख हुआ है।५९ यदि हम इनका संबंध ऋषिभाषित के महाकाश्यप से जोड़ने का साहस करते हैं तो इन्हें स्पष्टरूप से महावीर युगीन मानना होगा। जबकि ये महाभारत युग से संबंधित है। महाकाश्यप के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय संततिवाद है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार अंजलि का जल धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है उसी प्रकार बद्ध, स्पृष्ट, निद्धत कर्म-संस्कार भी क्षय होते हैं। इसी अध्याय में संवर निर्जरा, पुण्य-पाप 56. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ.28 57. (अ) भगवती सूत्र, 550 (ब) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. 168 58. अंगुत्तरनिकाय खण्ड 1, पृ. 23 59. महाभारत-आदिपर्व, 42/43 ... Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जो की चर्चा करते हुए मोक्ष के स्वरूप की तुलना दीपक के उदाहरण द्वारा करते हैं, कि स्पष्ट रूप से उनके बौद्ध परंपरा के ऋषि होने का सूचक है। १०. तेतलीपुत्र ऋषिभाषित का दसवां अध्ययन तेतलीपुत्र से संबंधित है। इसमें तेतलीपुत्र के उपदेश संकलित हैं। तेलीपुत्र का उल्लेख न केवल ऋषिभाषित में हुआ है अपितु जैन परंपरा के ज्ञाताधर्मकथा, विपाकसूत्र, सूत्रकृतांगचूर्णि अदि ग्रंथों में भी मिलता है । " ज्ञाताधर्मकथा में इनका उल्लेख कनकरथ राजा के मंत्री के रूप में हुआ है, जो कि तैतलीपुर के निवासी थे। ज्ञाता में कनकरथ राजा के संबंध में यहा कहा गया है कि ये अपनी संतान को विकलांग कर देते थे। क्योंकि उन्हें यह भय था कि कहीं मुझे सत्ताच्युत न होना पड़े। परंतु कनकराजा की पत्नी पद्मावती के लिए यह असह्य था। एक दिन अवसर पाकर रानी ने आद्योपान्त समस्या अमात्य तेतलीपुत्र के सम्मुख प्रस्तुत कर दी। संयोगवश रानी पद्मावती पुत्र को जन्म देती है और अमात्य पत्नी पोटिल्ला मृत कन्या को जन्म देती है । तेतलीपुत्र मृत कन्या को महारानी को सौंपकर उनके पुत्र को घर ले आते हैं और पुत्र महोत्सव करते हैं। पोटिल्ला साध्वियों से प्रतिबुद्ध होकर जैन दीक्षा अंगीकार करती है। कनकरथ की मृत्यु के पश्चात तेतलीपुत्र के द्वारा पोषित कुमार सिंहासन पर बैठता है और वह भी अमात्य को पूर्ण सम्मान देता है । कथानुसार पोटिल्ला देव बनती हे और राजा को अमात्य के विरूद्ध कर देती है। परिणाम स्वरूप तेतलीपुत्र अत्यन्त दुःखी और अपमानित होकर आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं । किन्तु अपने प्रयत्नों में असफल रहते हैं। फलस्वरूप उनके जीवन में अश्रद्धा, अविश्वास और अशान्ति का साम्राज्य छा जाता है। अनुकूल अवसर को जानकर पत्नी पोटिल्ल देवता के रूप में तेतलीपुत्र को संन्यास की ओर प्रेरित करती है। अमात्य तेतलीपुत्र प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा धारण करते हैं और तप-संयम की उत्कृष्ट साधना से मुक्ति को वरण करते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से जो ज्ञात होता है कि वही भाव और समान कथा ऋषिभाषित में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उल्लिखित हुई है। बौद्ध और हिंदू परंपरा में तेतलीपुत्र का उल्लेख हमें उपलब्ध नहीं होता है। 60. 37 (अ) ज्ञाताधर्मकथा 1/14 (ब) विपाकसूत्र 32 (स) सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 28 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ११, मंखलिपुत्त ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्ययन में मंखलिपुत्र के उपदेश संकलित है। इन्हें मंखलिगोशाल भी कहा जाता है। मेखलिगोशाल का उल्लेख जैन, बौद्ध और हिन्दू इन तीनों परंपराओं में मिलत है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त मंखलिगोशाल का उल्लेख भगवतीसूत्र, उपासकदशा, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि आदि अनेक ग्रंथों में हुआ है।६१ भगवती में मंखलिगोशाल का जीवन वृत्तान्त और उनकी दार्शनिक मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है।६२ इनके संबंध में यह कहा गया है कि महावीर की दीक्षा के पश्चात दूसरे चातुर्मास में इनकी भेंट महावीर से हुई और छह वर्ष तक उनके साथ-साथ विचरण किया, किन्तु नियतिवाद के प्रश्न को लेकर दोनों में वैचारिक मतभेद हो गया। फलतः मंखलि महावीर से पृथक् हो गए। भगवती में यह कहा गया है कि महावीर की दीक्षा के चौबीस वर्ष बाद उन्होंने अपने आपको तीर्थंकर घोषित किया या दार्शनिक दृष्टि से यह कहना अधिक उचित होगा कि उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय स्थापना की थी, जो आजीविक नाम से विख्यात हुआ था। बौद्ध परंपरा में भी मंखलिगोशाल का उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है। दीर्घनिकाय में इन्हें बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों में से एक बताया गया है। थेरगाथा में इनका उल्लेख गोसालथेर के रूप में हुआ है। गोशाल के संबंध में जैन और बौद्ध परंपरा में यद्यपि मतैक्य नहीं है, फिर भी दोनों परंपराओं में इनका उल्लेख होने से इनके संबंध में यह तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ये एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। दोनों परंपराएँ इन्हें नियतिवाद का समर्थक मानती हैं। वस्तुतः नियतिवादी वह विचारधारा है जो पुरुषार्थ की अपेक्षा नियति पर अर्थात् संसार की स्वाभाविक व्यवस्था पर अधिक बल देती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार मंखलिगोशाल के दार्शनिक चिंतन या विचारों का परवर्ती जैन और बौद्ध ग्रंथों में, जो प्रस्तुतिकरण हुआ है, उसे मात्र दार्शनिक विचार-विकृति ही कहा जा सकता है।६४ ___ जहाँ तक हिन्दू परंपरा का प्रश्न है महाभारत में हमें मंकीगीता के नाम से मंकी ऋषि के उपदेश उपलब्ध होते हैं। इस संबंध में डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि 61. (इ) भगवती सूत्र, 550 (ई) उपासक दशा, 6/20, 21, 28 (उ) विशेषावश्यक भाष्य-गाथा 1928 (ऊ) आवश्यक नियुक्ति, गाथा 474 62. भगवती 15वॉ शतक 63. (अ) दीघनिकाय, पृ. 53 (ब) थेरगाथा 23 64. ऋषिभाषित की भूमिका-डॉ. सागरमल जैन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 39 मंकीगीता भी नियतिवाद का प्रतिवादन करती है इसलिए उनके अनुसार महाभारत के मंकीऋषि निश्चितरूप से ऋषिभाषित के मंखलिपुत्र ही है।५ मंकीगीता में नियतिवाद का समर्थन करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कुछ भी होता है वह व्यक्ति पुरुषार्थ या प्रयत्न के आधार पर नहीं बल्कि दैवलीला या भाग्य से होता है। ऋषिभाषित में उल्लिखित मंखलिगोशाल के उपदेशों में भी परोक्ष रूप से नियतिवाद की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि, जो व्यक्ति संसार की परिणति को देखकर स्पन्दित या क्षुभित नहीं होते हैं। वस्तुतः वे ही व्यक्ति त्यागी आत्मरक्षक और अनासक्त होते हैं।६ कहने का तात्पर्य यह है कि विश्व की प्रत्येक घटना अपने क्रम में घटित होती है। व्यक्ति के चाहने और न चाहने पर भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का नियमन नहीं होता। वस्तुतः सांसारिक घटनाओं को सांयोगिक जानकर साक्षीभाव या अनासक्त भाव से रहने वाला ही सच्चा त्यागी या नियतिवादी होता है वस्तुतः नियतिवादी विचारधारा प्रकृति के नियमानुसार घटित होने वाली घटनाओं पर बल देती हैं। वस्तुतः नियतिवाद का उपदेश अनासक्त जीवन-दृष्टि के विकास करने की प्रेरणा प्रदान करती है। वास्तव में मंखलिगोशाल का यही आध्यात्मिक नियतिवाद का संदेश है। गीता भी आसक्ति तोड़ने के लिए नियतिवाद का उपदेश देती है। उपर्युक्त आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित, भगवती के मंखलिगौशाल और महाभारत के मंकीऋषि भिन्न-भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति हैं। क्योंकि तीनों परंपराएँ इन्हे नियतिवाद का समर्थक और संस्थापक मानती है। इतना ही नहीं अभिलेखीय प्रमाण भी यही सिद्ध करते हैं कि मंखलिगोशाल आजीविक परंपरा के श्रेष्ठ आचार्य थे, जिनके नेतृत्व में आजीविक सम्प्रदाय विकसित विस्तृत हुआ। जैनागम का ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रंथ है, जो मंखलिगोशाल को "अर्हत् ऋषि" कहकर सम्मान प्रदान करता है और उनके उपदेशों को "प्रत्येकबुद्ध भाषित प्रवचन" कहकर प्रामाणिकता की मोहर लगा देता है। १२. जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) ऋषिभाषित के बारहवें अध्ययन में याज्ञवल्क्य ऋषि का उल्लेख हुआ है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों परंपराओं में इनका उल्लेख प्राप्त होता है। जैन परंपरा में 65. ऋषिभाषित की भूमिका - डॉ. सागरमल जैन 66. से एजति वेयति खुन्मति घट्टति फन्दति चलति उदीरेति, तं तं भावं परिणमति ण से ताती।।2।। -'इसिभासियाई' 11/गद्यभाग Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्यत्र इनका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । उसी प्रकार बौद्ध परम्परा के किसी भी ग्रंथ में इनकी उपस्थिति की सूचना नहीं मिलती है। वस्तुत: याज्ञवल्क्य कौन थे? इनकी क्या मान्यता थी? आदि प्रश्नों के समाधान के लिए हमें वैदिक एवं औपनिषदिक परंपरा की ही शरण लेनी पड़ती है। 40 वैदिक परंपरा में याज्ञवल्क्य का उल्लेख शतपथब्राह्मण, शंखायन, आरण्यक, बृहदारण्यक उपनिषद् और महाभारत में उपलब्ध होता है।" बृहदारण्यक उपनिषद् इनके संबंध में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करता है । विद्वान् ओल्डनेबर्ग ने बृहदारण्यक के आधार पर याज्ञवल्क्य को विदेह निवासी और जनक से संबंधित बताया है। वैदिक कोश में सूर्यकांत ने इनके विदेह निवासी होने में शंका उपस्थित की है । १८ जहाँ तक ऋषिभाषित में वर्णित याज्ञवल्क्य के उपदेश का प्रश्न है वे स्पष्टरूप से एषणाओं का पारस्परिक संबंध बताते हुए कहते हैं कि जब तक लोकेषणा की चाह है तब तक वित्तेषणा का अस्तित्व है। और जब तक वित्तैषणा का अस्तित्व तब तक लौकेषणा का अस्तित्व है । ९ ऋषिभाषित के याज्ञवल्क्य के उपदेश की तुलना बृहदारण्यक के उपदेश से की जा सकती है। वृहदारण्यक में वे कहते हैं कि आत्मा के स्वरूप को जानकर ब्राह्मण पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लौकेषणा का त्यागकर भिक्षावृत्ति पर जीवन निर्वाह करे। ऋषिभाषित में भी वे यही कहते हैं कि एषणाओं का सर्वथा परित्याग करके गौपथ से जाए महापथ से नही । यहाँ महापथ से और गौपथ से याज्ञवल्क्य का तात्पर्य प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग से रहा होगा। शांतिपर्व में इन्हें जनक का उपदेष्टा कहा गया है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये जनक के समकालीन ऋषि रहे होंगे वे ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा के अनुसार अरिष्टनेमि अर्थात् महाभारत के समकालीन नहीं है। १३. मेत्तेज्ज भयाली ऋषिभाषित के तेरहवें अध्ययन में मेत्तेज्ज भयाली के उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त इनका उल्लेख समवायांग में हुआ है और स्थानांग७१ में अन्तकृत्दशा का सातवां अध्ययन भयाली से संबंधित रहा है, किन्तु 67. (अ) शतपथ ब्राह्मण 9/7 वैदिक कोश, पृ. 428 (ब) शंखायन आरण्यक 13/1 वही पृ. 428 (स) बृहदारण्यक उपनिषद् 68. ऋषिभाषित की भूमिका, डॉ. सागरमल जैन | 69. जावताव लोएसणा तावताव वित्तेसणा, जावताव वित्तेसणा तावताव लोएसणा । 70. समवायांग सूत्र 11/4 71. स्थानांगसूत्र 157, 236 -' इसि भासियाई' 12 / गद्यभाग Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन वर्तमान में यह अध्ययन अन्तकृत में अनुपलब्ध है। भयाली के दो अन्य प्राकृत रूप भग्गई और भगालि भी उपलब्ध होते हैं। औपातिक७२, सूत्र में भगगई परिव्राजक और उनके शिष्य-समुदाय का वर्णन उपलब्ध होता है। ऐसा लगता है कि भयालि के शिष्य ही भग्गई नाम से प्रचलित रहे होंगे। बौद्ध परंपरा में मगध के ब्राह्मण परिवार से संबंधित मेत्तज थेर का उल्लेख उपलब्ध होता है।७३ इनके संबंध में यह कहा गया है कि ये आरण्यवासी भिक्षु के रूप में साधना करते थे, किन्तु बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षु बने और अन्तः अर्हत् पद को प्राप्त किया। बौद्ध परंपरा में दो अन्य मेत्तगू और मैत्तिय थेर का भी वर्णन मिलता है। मैत्तिय थेर के संबंध में यह माना गया है कि ये छब्बगीय नामक एक भिक्षु वर्ग के नेता थे। इनके बारे में यह भी कहा गया है कि ये आगामी काल में बुद्ध होंगे। सुत्तनिपात में एक अन्य अर्हत् मेत्तेय का उल्लेख हुआ है, जो कि तिस्स के मित्र थे।७६ ऋषिभाषित के भयालि से उपरोक्त वर्णित थेरों का क्या संबंध रहा होगा? निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। महावीर के दसवें गणधर का नाम मेत्तेज्ज था, किन्तु ऋषिभाषित के मेत्तेज भयाली से गणधर मेत्तेज्ज भिन्न व्यक्ति थे, ऐसा प्रतीत होता है। ऋषिभाषित में उनके उपदेशों में विद्यमान अविद्यमान कर्म की चर्चा है। इसमें वे यह भी कहते हैं कि जड़ के सिंचन से फल की उत्पत्ति होती है और जड़ नाश से फल-फूल सब कुछ नष्ट हो जाते हैं। इसी अध्ययन में ये भी कहते हैं कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। वस्तुतः यह उपदेश सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद से समानता रखता है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भयालि के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय तो आत्म विमुक्ति है। "मेत्तेज्ज भयालि" इस नाम पर विचार करें कि नाम के आगे लगा मेत्तेज्ज शब्द व्यक्ति बोधाक है या विशेषण है? क्योंकि महावीर के दसवें गणधर का नाम मेत्तेज्ज कहा गया है। किन्तु डॉ सागरमल की दृष्टि में मेत्तेज्ज भयालि गणधार मेत्तेज्ज से भिन्न है। 72. औपपातिक सूत्र 73. थेरगाथा 84 74. ऋषिभाषित को भूमिका (डॉ सागरमल जैन) 75. वही 76. वही 77. मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं। फलस्थी सिंचती मूलं, फलघातीण सिंचती। 78. सन्तस्स करणं णत्थि, णासतो करणं भवे। बहधा दिळं इमं सट्ठ, णासतो भवसंकरो।। -'इसिभासियाई' 13/6 -वही, 13/4 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १४. बाहुक ऋषिभाषित का चौदहवाँ अध्ययन बाहुक से संबंधित है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त इनका उल्लेख सूत्रकृतांग और सूत्रकृतांग की चूर्णि में भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग में असितदेवल, पाराशर, नारायण, बाहुक, नमी आदि ऋषियों का उल्लेख प्राप्त होता है। किन्तु बाहुक के संबंध में यह भी सूचना प्राप्त होती है कि इन्होंने सचित्त वस्तुओं एवं जल का उपभोग करते हुए भी मोक्ष को प्राप्त किया था। सूत्रकृतांगचूर्णि भी बाहुक के संबंध में यही विचार व्यक्त करती है। स्थानांग में वर्णित प्रश्नव्याकरण की दस दशाओं में भी इनका उल्लेख है, किन्तु आज यह अध्ययन उपलब्ध नहीं है। उपर्युक्त सभी ग्रंथ इनके जीवनवृत्त के संबंध में कोई प्रकाश नहीं डालते हैं। बौद्ध परंपरा में स्पष्टरूप से 'बाहुक' नाम से कोई वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु एक वाह्नीक नामक व्यक्ति का उल्लेख हुआ है, जो बुद्ध के शिष्य अनुयायी के रूप में उल्लिखित है। जहाँ तक हिन्दू परम्परा का प्रश्न है महाभारत में ये वृष्णि-वीर के रूप में उल्लिखित हुए हैं। राजा नल का भी एक नाम बाहुक बताया गया है। वैदिक परंपरा में बाहुवक्त का उल्लेख हुआ है, जो कि ऋग्वेद के सूक्त के रचयिता थे। किन्तु जहाँ तक ऋषिभाषित के बाहुक से इनकी समानता का प्रश्न है इनमें कोई साम्यता दृष्टिगोचर नही होती है। ऋषिभाषित में बाहुक के उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है युक्त और अयुक्त। आगे वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक नृप और श्रेष्ठि के लिए अपने प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होती,५ वह स्वयं ही पहचाना जाता है। ठीक उसी प्रकार साधक की बाह्य साधना आंतरिक शुद्धता से युक्त होकर ही फलवती होती है। इस प्रकार की साधना साधक को मुक्ति की ओर ले जाती है। 79. सूत्रकृतांग, 1/3/4/2 80. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 121 81. पालि प्रापर नेम्स-जिल्द 2 पृ. 281, 283 82. महाभारत की नामानुक्रमणिका, पृ. 216 83. वैदिक कोश, पृ. 334 84. जुत्तं अनुतजोगंण पमाण मिति बाहुकेण अरहता इसिणा बुइत। -'इसिभासियाई' 14/1 गद्यभाग 85. अप्पणिया खलु भो! अप्पाणं समुक्कसिय ण भवति। बद्धचिन्धे णरवती, अप्पणिया खलु भो य अप्पाणं .... गमे णो वि रण्णे। --'इसिभासियाइयं' 14/गद्यभाग पृ. 53 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 43 १५. मधुरायण ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्ययन में मधुरायण के उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा में ऋषिभषित को छोड़कर अन्य ग्रंथों में हमें इनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। ऋषिभाषित में मधुरायण के उपदेश का प्रतिपाद्य विषय क्या है, इस विषय पर विचार करने के पूर्व हमें इस अध्ययन में उनके द्वारा विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को समझना अधिक उचित होगा। स्वयं ऋषिभाषित के टीकाकार ने भी इन शब्दों के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया है। यद्यपि शुब्रिग ने इस दिशा में प्रयत्न अवश्य किया हैं। किन्तु वे भी इसे स्पष्ट नहीं कर सके हैं। इस अध्ययन में मुख्यरूप से तीन शब्दों का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में हुआ है। डॉ. सागरमल जैन इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- "इस अध्याय में मुख्यतः तीन शब्द 'साता दुक्ख' 'दुक्ख' और 'संत' ये तीन शब्द ऐसे हैं जो अपने अर्थ का स्पष्टीकरण चाहते हैं। जहाँ तक "साता दुक्ख" के अर्थ का प्रश्न है संस्कृत टीकाकार और अन्य सभी ने उसे सुख से उत्पन्न दुःख माना है। वस्तुतः सुख का तात्पर्य यहाँ सुख की आकांक्षा ही लेना होगा। अतः "साता दुक्ख" का तात्पर्य है सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दु:ख। दूसरे शब्दों में सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए जिस व्यक्ति में आकांक्षाएँ जागृत हो, वह व्यक्ति साता दुक्ख अभिभूत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में सुख की आकांक्षा ही साता दुःख है। इसके विपरीत अशाता दुःख से अभिभूत व्यक्ति का दुःख है। निराकांक्ष होने के कारण स्वाभाविक रूप से प्राप्त सांसारिक दुःख ही साता दुःख है- ऐसा अर्थ करने पर प्रथम प्रश्न और उसका उत्तर इस प्रकार बनता है- क्या सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दुःख से अभिभूत व्यक्ति दु:ख को प्रेरित करता है? या निमंत्रित करता है? इसका उत्तर यह दिया गया है कि सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दु:खों से अर्थात् सांसारिक वासना के पीछे पागल व्यक्ति ही दुःखों को आमंत्रित करता है अर्थात् कर्मबन्ध करता। वस्तुतः सुख की आकांक्षा करना ही दुःखों को निमंत्रण देना है। सुख की आकांक्षा से दुःखी बना व्यक्ति ही दुखों को निमंत्रित करता है, न कि कष्टजन्य दु:खों से घिरा व्यक्ति। इस प्रकार मधुरायण सांसारिक सुखों को आकांक्षा में ही दु:खों का मूल देखते हैं। पनः 'संत' शब्द 'शान्त' के अर्थ में न होकर सत्ता के अर्थ में होता। "संत दुक्खी" का अर्थ यहाँ होगा दु:खी होकर। पुनः यहाँ दु:खी होने का अर्थ कामना या आकांक्षा से युक्त होना ही है। अतः "संत दुक्खी दुक्ख उदीरेइ" से अभिप्राय दु:खी होकर ही दु:ख को निमंत्रण दिया जाता है अर्थात् साकांक्ष व्यक्ति ही दु:ख का प्रेरक होता है। इसी प्रकार "नो असंत दुक्खी दुक्ख उदेरई" दुक्ख से दु:खित न होकर दुःख Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी को निमंत्रण नहीं दिया जाता अर्थात् जो व्यक्ति निराकांक्ष है वह दुःख का प्रेरक नहीं होता है। १६. शोर्यायण ऋषिभाषित का सोलहवां अध्ययन शोर्यायण (सोरयायण) से संबंधित है। इसमें इनके उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त स्थानांग सूत्र में हुआ है ।" उसमें कर्मविपाक (दुःखविपाक) दशा के अध्ययनों का उल्लेख हुआ है और उसके सातवें अध्ययन का नाम सोरिय कहा गया है। वर्तमान में कर्मविपाकदशा के दस अध्ययन मिलते हैं, उसमें अष्टम अध्ययन में सोरियदत्त का उल्लेख मिलता है जिसे एक मछुआरे के पुत्र के रूप में उल्लिखित किया गया है। साथ ही उस कथा में यह भी बताया गया है कि मछली का कांटा इनके गले में फंस जाने के फलस्वरूप इन्हें काफी कष्ट झेलना पड़ा था। जैन परंपरा के अतिरिक्त बौद्ध परंपरा में सोरिय का उल्लेख सोरेय्य के रूप में मिलता है ।" इस परंपरा में इनके जीवन के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। जैन और बौद्ध परंपरा के अतिरिक्त वैदिक परंपरा में महाभारत के द्रोणपर्व में भी इनका उल्लेख हुआ है।" किन्तु उसमें इनका नाम शौरी उल्लिखित है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इनके कुटुम्ब का संबंध कृष्णपिता वासुदेव से बताया गया है। ऋषिभाषित में इनके उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है इन्द्रिय आवेगों पर सम्यक् नियंत्रण। सम्यक् नियंत्रण से उनका ये उद्देश्य कदापि नहीं है कि उनका दमन किया जाय, अपितु वे उसमें स्पष्टरूप से कहते हैं कि इन्द्रियाँ है तो वे अवश्य ही अपने-अपने विषयों से जुड़ेंगी या उनका उनसे संपर्क होगा। यहाँ तक मनुष्य विवश है या यूँ कहें कि यह उसकी नियति है । किन्तु उसका कर्तव्य यह है कि मनोज्ञ या अमनोज्ञ अथवा अनुकूल या प्रतिकूल रूपादि पदार्थों की अनुभूति होने पर भी उसमें अनासक्त दृष्टि रखें अर्थात् राग-द्वेष नहीं करें, आसक्त न हो यही व्यक्ति के अधिकार की सीमा में है । प्रस्तुत अध्याय के प्रवक्ता का भी यही आशय है। " जहाँ तक ऋषिभाषित के शोर्यायण का प्रश्न है बौद्ध और वैदिक परंपरा में क्रमशः वर्णित सोरेय्य और शौरी से इनका कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है। 86. स्थानांगसूत्र 155 87. धम्मपद अट्ठकथा, भाग 1, पृ. 324 88. महाभारत- द्रोणपर्व 144/7 89. मणुण्णेसु सद्देसु...... णो दूसेज्जा । -' इसिभासियाई' 16 / गद्यभाग Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन १७. विदुर ऋषिभाषित का सत्रहवां अध्ययन 'विदुर' से संबंधित है। जैन साहित्य में ऋषिभाषित के अतिरिक्त ज्ञाताधर्मकथा में भी अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि व्यक्तियों के साथ विदुर का भी उल्लेख हुआ है। बौद्ध परंपरा में 'विदुर' का उल्लेख 'विधुर' नाम से उपलब्ध होता है। " मिलिन्द - प्रश्न" में यह बताया गया है कि बोधिसत्व का ही किसी जन्म का नाम विदुर था । " जहाँ तक वैदिक परम्परा का प्रश्न है, महाभारत इन्हें वर्णशंकर के रूप में उल्लिखित करता है। इनके पिता व्यास और माता अम्बिका ( दासी) मानी गयी है। महाभारत के स्त्रीपर्व में इनके उपदेश संकलित है। १२ 45 ऋषिभाषित में विदुर अपने उपदेशों में विद्या, महाविद्या का वर्णन करते हुए विद्या की श्रेष्ठता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि वस्तुतः वही विद्या महाविद्या की कोटि में आती है जो सांसारिक संपूर्ण दुःखों का नाश कर आत्मभाव या मोक्ष को उपलब्ध कराती है। उसे दुःख विमोचनी भी कहा गया है। इतना ही नहीं उसमें ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादन करते हुए यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार स्वास्थ्य लाभ या निरोगता के लिए सर्व प्रथम रोग या रुग्णता की अनुभूति, उसका निदान और औषधि का सम्यक् सेवन आवश्यक है, उसी प्रकार मुक्ति के लिए ज्ञान अपरिहार्य या आवश्यक है। इसी अध्याय में स्वाध्याय एवं ध्यान पर बल देते हुए निरवद्य आवरण का निर्देश भी दिया गया है । ९४ इस प्रकार तीनों जैन, बौद्ध और वेदिक परंपराओं में वर्णित विदुर के उपदेशों पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऋषिभाषित के विदुर की महाभारत के विदुर से साम्यता देखी जा सकती है। क्योंकि ऋषिभाषित में वर्णित विदुर का विद्या, महाविद्या का उपदेश वस्तुतः प्रकारान्तर से औपनिषदिक “सा विद्या या विमुक्तये" का स्मरण कराता है। किन्तु जहाँ तक ऋषिभाषित के विदुर और बौद्ध परंपरा में विदुर की समानता का प्रश्न है, डॉ सागरमल जैन ने उनमें कोई संबंध नहीं माना है। 90. ज्ञाताधर्मकथा, सूत्र 117 91. पालिप्रापर नेम्स - खण्ड 2, पृ. 882 92. महाभारत - स्त्रीपर्व, अध्याय 2-7 93. इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा । जं विज्जं साहइत्ताणं, सव्वदुक्खाण मुच्चती । जेण बंधं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागतिं। आया- भावं च जाणाति, सा विज्जा दुक्खमोयणी | 94. सज्झायज्झाणोवगतो जितप्पा....... समाहरेज्जा । -' इसिभासियाई' 17/1, 2 - वही, 17/8 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १८. वारिषेण कृष्ण ___ऋषिभाषित का अठारहवां अध्ययन वारिषेण कृष्ण (वारिसवकण्ह) के उपदेशों से संबंधित है। वारिषेण का उल्लेख ऋषिभाषित, स्थानांग एवं समवायांग में हुआ है। समवायांग चार जिनेन्द्र प्रतिमाओं के साथ चंद्रानन और वारिषेण का भी उल्लेख करता है और उसमें यह भी कहा गया है कि ऐरावत क्षेत्र के चंद्रानन प्रथम और वारिषेण अंतिम तीर्थकर होंगे। स्थानांग काश्यप गोत्र की एक शाखा 'वारिसकण्हा' का भी उल्लेख करता है। ___बौद्ध परंपरा में दीघनिकाय के अम्बट्ठसुत्त में कृष्ण ऋषि का उल्लेख उपलब्ध होता है। जहाँ तक वैदिक परंपरा का प्रश्न है महाभारत में कृष्ण को वाष्णय कहा गया है। संभवतः इनका वार्ष्णेय नाम वृष्णि वंश का द्योतक है। वारिषेण के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय पाप से निवृत्ति है। इसमें स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जैसे शकुनी (पक्षी) अपनी तेज चोंच से फल का छेदन-भेदन कर देता है, शत्रु-राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर देता है वैसे ही विशुद्धात्मा सर्वपापों का नाश कर जल कमलवत रहता है।८ १९. आरियायण ऋषिभाषित के उन्नीसवें अध्ययन में आरियायण के उपदेश संकलित हैं। इनके व्यक्तित्व और जीवन के संबंध में बौद्ध और वैदिक परंपराएँ कुछ भी जानकारी प्रस्तुत नहीं करती है। जैन परंपरा में भी मात्र ऋषिभाषित में ही इनका उल्लेख हुआ है। इसमें भी 'आयरियायण' मात्र उपदेशक के रूप में ही हमारे समक्ष आते हैं। ऋषिभाषित में आर्यायण आर्य-अनार्य का प्रतिपादन करते हुए 'आरियायण' आर्यत्व को प्राप्त करने का निर्देश देते हैं। वे इस अध्याय में आर्यत्व की गरिमा का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि पूर्व में केवल आर्य ही थे इसलिए अनार्यत्व का परित्याग करके श्रेष्ठ या आर्यज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करनी चाहिये। 95- (अ) स्थानांगसूत्र 143 (ब) समवायांगसूत्र 169 96- दीर्घनिकाय अम्बट्ठसुत्त 97- महाभारत, भीष्मपर्व 2736 98- सकुणी संकुप्पघातं च.......विभागम्मि विहावए। 99- (अ) वज्जेज्जऽणारियं भावं, कम्मं चेव अणारियां अणारियाणि य मित्ताणि, आयरियत्तमुवट्ठिए।। (ब) आरियं णाणं साहू, आरियं साहू दंसण। आरियं चरणं साहू, तम्हा सेवय आरिय।। -'इसिभासियाई' 18/2 - -'इसिभासियाई', 19/1, 6 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन वस्तुतः ये पौराणिक पुरुष है या औपनिषदिक ऋषि, निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। २०. उक्कल ऋषिभषित के बीसवें 'उक्कल' नामक अध्ययन की विषयवस्तु या उपदेश जानने के पूर्व दो बातें जानना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि इस अध्याय में किसी प्रवक्ता ऋषि का उल्लेख नहीं हुआ है और दूसरे इस अध्ययन में प्रयुक्त उक्कल (उत्कट) शब्द अपने आप में अनेक अर्थ समेटे हुए हैं, जैसे-बड़ा, ताकतवर, भीषण, मदमत्त, विषम, मदिरासेवी, उन्मत्त आदि। संपूर्ण अध्याय में भौतिकवादी दृष्टिकोण का या भौतिकवाद का प्रतिपादन हुआ है, जिसे लोकायतवाद, चार्वाक, यदृच्छावाद भी कह सकते हैं। वस्तुतः इस संदर्भ में उत्कट शब्द का अर्थ विषय-भाग लिया जाये तो प्रस्तुत उपदेश में संगति बैठ सकती है। क्योंकि इस अध्ययन में भौतिकवादी दृष्टिकोण की प्रस्तुति हुई है, जो कि भारतीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण की विरोधी थी, दूसरे शब्दों में, यह भी कह सकते हैं कि अध्यात्मवाद से प्रतिकूल आचरण करने वाले भौतिकवादी या उत्कलवादी हैं। __इस अध्याय में पाँच प्रकार के उत्कलवादियों का उल्लेख हुआ है।०० (1) - दण्डोत्कल (2) रज्जूत्कल (3) स्तेनोत्कल (4) देशोत्कील और (5) सर्वोत्कल। (1) दण्डोत्कल से तात्पर्य यह है कि जैसे दण्ड का आदि, मध्य और अन्तभाग अलग-अलग नहीं है मात्र समुदाय है वैसे ही शरीर से पृथक् कोई आत्मा नहीं है। रज्जोत्कल यानी रस्सी तन्तुओं के समुदाय से पृथक् कुछ नहीं है, उसी तरह पंचभूतों से पृथक आत्मा या जीव नाम का कोई पृथक् तत्त्व नहीं है। पंचभूतों के नाश से जीव का भी उच्छेद या नाश हो जाता है। स्तेनोत्कलवादी वे हैं जो दूसरों के शास्त्रों से अपने सिद्धान्त का मण्डन करके उसे ही सत्य मानते हैं। (4) देशोत्कलवादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करके भी आत्मा के अकर्तृत्त्व, अभोक्तृत्त्व में विश्वास करते हैं। सर्वोत्कलवाद से तात्पर्य सर्वोच्छेदवाद या उसके समर्थक है अथवा यूँ कहें कि सर्वोत्कलवादी वे दार्शनिक हैं, जिनकी दृष्टि में किसी त्रैकालिक नित्य 100. पंच उक्कल पन्नत्ता, तंजहा: दण्डुक्कले 1. रज्जुक्कले 2. तेणुक्कले 3. देसुक्कले 4. सव्वुक्कले 5. -'इसिभासियाई 20/गद्यभाग Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी सत्ता का अस्तित्व नहीं है। वस्तुतः इनके अनुसार कोई नित्य या शाश्वत तत्त्व ही नहीं है। इस प्रकार उपरोक्त पांच प्रकार के उत्कलवाद ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य किसी जैन ग्रंथ में उपलब्ध नहीं होते हैं। यद्यपि भौतिकवादी विचारधारा का उल्लेख जैन परंपरा के सूत्रकृतांग और बौद्ध परंपरा के पयासीवृत्त में उपलब्ध होता है। भौतिकवादी विचारधारा का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है- शरीर से अलग किसी आत्मा का अस्तिव नहीं है। २१. गाथापतिपुत्त - तरुण ऋषिभाषित के इक्कीसवें अध्ययन में गाथापति पुत्र तरुण के उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में मात्र ऋषिभाषित को छोड़कर अन्य किसी ग्रन्थ में इनका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। जैन परंपरा के अतिरिक्त बौद्ध और वैदिक परंपराएँ भी इनके जीवन और सिद्धान्त के संबंध में हमें किसी प्रकार की कोई सूचना नहीं देती है। तरुण के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय अज्ञान का निवारण और ज्ञान की उपलब्धि करना रहा है। उनके अनुसार अज्ञान ही जीवन का सबसे बड़ा दुःख है और अज्ञान के वशीभूत आत्मा संसार में भ्रमण करता है। वे स्वयं इस अध्याय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'अज्ञान के कारण मेरी जानने, देखने की ज्ञानात्मक क्रियाएँ कुण्ठित हो गई थी किन्तु अब ज्ञान के सद्भाव में सम्यक् प्रकार से जानता हूँ, समझाता हूँ।' आगे इसी अध्याय में ज्ञान की सर्वोच्चता और अज्ञान की निष्कृष्टता पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं कि अज्ञान से मूढ़ आत्मा खून के संबंध को भी भूल जाता है जैसा कि इस अध्याय की आठवीं गाथा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि माता भद्रा शोकाकुल होकर अपनी पुत्री सुप्रिया का भक्षण करती है । १०१ इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि तरूण ऋषि की दृष्टि में अज्ञान ही जीवन का नाशक तत्त्व है। २२. गर्दभाल ऋषिभाषित का बाइसवां अध्ययन गर्दभाल या दगमाल से संबंधित है। जैन परंपरा में गर्दभाल का उल्लेख ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन में हुआ है, किन्तु 101. (अ) अण्णणं परमं दुक्खं विवहो सव्वदेहिणं । (ब) अण्णाणमूलकं खलु भो पूव्वं, न जाणामि न पासामि, नाणमूलकं खलु भो इयाणिं जाणामि पासामि . (स) सुप्पियं तणयं भद्दा........चेव खादति । -' इसि भासियाई' 21 / गद्यभाग/21/10 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन उत्तराध्ययन इनका उल्लेख संजय के गुरु के रूप में करता है।१०२ साथ ही इन्हें विद्या पारंगत कहकर इनकी ऐतिहासिकता और महत्ता पर प्रकाश डालता है। जैन परंपरा के अतिरिक्त वैदिक परंपरा में भी इनका उल्लेख महाभारत में अनुशासन पर्व में हुआ है। किन्तु वहाँ इन्हें विश्वामित्र का ब्रह्मवादी पुत्र कहा गया. है।०३ इससे यह ज्ञात होता है कि गर्दभाल उस युग के एक प्रभावशाली पुरुष रहे होंगे। बौद्ध परंपरा में इनका कही पर भी उल्लेख नहीं मिलता है। जहाँ तक इनके उपदेशों का प्रश्न है ये मुख्य रूप से पुरुष की श्रेष्ठता का और स्त्री की निम्नता का प्रतिादन करते हैं। इस विचारधारा की समानता जैन परंपरा में वर्णित दस कल्पों में पुरुष ज्येष्ठ कल्प से के साथ की जा सकती है। वे इस अध्याय में नारी की आलोचना करते हुए कहते हैं कि नारी सिंह युक्त स्वर्णगुफा, विषयुक्त पुष्पमाला और भंवर से युक्त नदी के समान है और साथ ही वे नारी के वश में रहनेवाले पुरुष को भी धिक्कार देते हैं।१०४ इस विवेचन को देखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि गर्दभाल ऋषि ने नारी के उदात्त पक्ष पर समुचित ढंग से चिन्तन न करके मात्र उसके विकृत रूप पर अधिक बल दिया है। यद्यपि एक गाथा में उनहोंने नारी की प्रशंसा में दिव्यकुल की गाथा, प्रफुल्लित कमलिनी आदि शब्द कहे हैं, किन्तु इसे भी निंदा युक्त प्रशंसा ही कहा जा सकता है।१०५ जहाँ तक ऋषिभाषित और महाभारत क गर्दभाल की एकता का प्रश्न है किसी सक्षम प्रमाण के अभाव में यह कहना मुश्किल है कि ये एक ही व्यक्ति रहे होंगे। २३. रामपुत्त रामपुत्त ऋषि का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक परंपराओं में उपलब्ध होता है। ऋषिभाषित के तेइसवें अध्याय में इनके उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा के स्थानांग और अनुत्तरोपपातिक ग्रंथों में इनका उल्लेख हुआ है। स्थानांग में वर्णित अन्तकृतदशा की अध्यायों की विषय सूचि में एक रामपुत्त नामक अध्ययन का उल्लेख था, किन्तु०६ वर्तमान में यह अध्ययन उपलब्ध नहीं है। अनुत्तरोपपातिक इन्हें 102. उत्तराध्ययन सूत्र 18/19, 22 103. महाभारत-अनुशासन पर्व 4/1 104. हेमा गुहा ससीहा वा, माला वा वज्झकप्पिता। सविसा गन्धजुत्ती वा, अन्तो दुट्ठा व वाहिणी।। 105. गाहाकुला सुदिव्वा व, भावका मधुरोदका। फुल्ला व पउमिणी रम्भा, वालक्कन्ता व मालवी।। 106. स्थानांगसूत्र 755 -'इसिभासियाई' 22/5 -वही- 22/4 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी साकेत निवासी महावीर के युग के व्यक्ति के रूप में उल्लिखित करता है।०७ इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी नमि, नारायण, बाहुक ऋषि के साथ इनका उल्लेख हुआ है और यह कहा गया है कि सचित्त आहार का सेवन करते हुए भी इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था।१०८ बौद्ध परंपरा में पालित्रिपिटक में इन्हें उदक रामपुत्त कहा गया है, जो कि बुद्ध से उम्र में बड़े थे। इतना ही नहीं पालित्रिपिटक इनकी शिष्य संपदा और साधना-पद्धति पर भी प्रकाश डालता है।१०९ जहाँ तक रामपुत्त के उपदेश का प्रश्न है वे इस अध्याय में सुख-मृत्यु और दुःख मृत्यु का उल्लेख करते हैं। ऐसा ही वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में समाधिमरण और असमाधिमरण के रूप में हुआ है।११° वस्तुतः जिसे सुख, मृत्यु, और दुःख मृत्यु का विकसित रूप कहा जा सकता है। जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा में वर्णित रामपुत्त की तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित के रामपुत्त और पालित्रिपिटक के रामपुत्त एक ही व्यक्ति रहे होंगे। २४. हरिगिरि - ऋषिभाषित का चौबीसवां अध्ययन हरिगिरि से संबंधित है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित को छोड़कर अन्य ग्रंथों में इनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध परंपरा में हरित थेर का उल्लेख मिलता है। १११ इसमें इनको अर्हत् कहा गया है, किन्तु ऋषिभाषित के हरिगिरि हारित थेर ही हैं, यह कहना कठिन है। वैदिक परंपरा में बृहदारण्यक उपनिषद् में आचार्यों की सूची में हारित काश्यप का उल्लेख मिलता है।११२ परंतु ठोस प्रमाण के अभाव में यह कह पाना कठिन है कि ऋषिभाषित के हरिगिरि और वैदिक परंपरा के हारित एक ही व्यक्ति होंगे। __ ऋषिभाषित में वर्णित इनके उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य नियतिवाद और कर्म सिद्धांत है। कर्म सिद्धांत की चर्चा ऋषिभाषित के अन्य अध्यायों में भी विस्तार से 107. अनुत्तरोपपातिक 3/6 108. सूत्रकृतांग शीलाङकवृत्ति खण्ड 2, पृ. 73 अभुंजिया नमी विदेही, रामगुत्ते य भुजिआ.....बीयाणि हरियाणि य 109. जातक खण्ड 1, पृ. 6681 विस्तार के लिए देखें-पालि प्रापर नेम्स 110. एयं अकाम-मरणं, बालाणं तु पवेइयं। एत्तो सकाम-मरणं, पण्डियाणं सुणेह मे।। 111. देखें----डिक्शनरी ऑफ पालि प्रापर नेम्स 1323-24 112. बृहदारण्यकोपनिषद् 61/41/33 -'उत्तराध्ययनसूत्र' 5/17 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 51 प्राप्त होती है। इस अध्याय में वे कहते हैं कि पहले यहाँ सब कुछ भव्य यानी नियत या होनहार था परंतु वर्तमान में सब कुछ अभव्य यानी अनियत है।११३ भव्य-अभव्य अथवा नियत-अनियत शब्दों को स्पष्ट करते हुए डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि--"जब तक व्यक्ति अज्ञान में है तब तक उसका वर्तमान उसके पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप या नियत ही होता है, किन्तु ज्ञान के होने पर वह अपने भविष्य का निर्माता बनता है। अतः उसका भविष्य उसके पुरुषार्थ पर निर्भर रहता है अर्थात् अनियत होता है। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति का अतीत नियत होता है क्योंकि उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं होते हैं, किन्तु व्यक्ति का भविष्य अनियत होता है। क्योंकि मनुष्य अपने भविष्य का निर्माता होता है। यदि वह मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको तटस्थ रख ले तो उसका भावी उसके भूत और वर्तमान से भिन्न होगा। कर्म सिद्धांत के अनुसार पूर्व कर्म संस्कार पर मुनष्य का वश नहीं चलता है किन्तु वर्तमान सदैव उसके हाथ में है, और उसके द्वारा मनुष्य अपने भविष्य को चाहे जैसा रूप दे सकता है। व्यक्ति जितना ज्ञानी या जागरूक होता है वह उतना ही अपने भविष्य को सम्यक् दिशा की ओर मोड़ता है। पारंपरिक शब्दावली में कहें तो ज्ञानी अशुभ संस्कारों का क्षय करता है और शुभ संस्कारों का निर्माण करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हरिगिरि प्रस्तुत अध्याय में व्यक्ति को अपने भविष्य के निर्माण की प्रेरणा देते हैं। २५. अम्बड़ परिव्राजक ऋषिभाषित का पच्चीसवाँ अध्ययन अम्बड़ परिव्राजक से संबंधित है। जैन परंपरा के आगम ग्रंथों यथा-भगवती, स्थानांग और औपपातिक आदि में इनका वर्णन उपलब्ध होता है।११४ भगवती सूत्र में इन्हें श्रावस्ती निवासी एक परिव्राजक कहा गया है। ये महावीर के प्रति अत्यंत आस्थावान होते हुए भी अपनी परंपरा के नेता थे। स्थानांग में अन्तकृत् दशा की जिन दस दशाओं या अध्यायों का उल्लेख हुआ है।९१५ उसमें दसवीं दशा अम्बड़ से संबंधित थी, किन्तु वर्तमान अन्तकृत में यह दशा उपलब्ध नहीं है। औपपातिक में अम्बड़ परिव्राजकों की आचार परंपरा का भी विस्तार से वर्णन उपलब्धा होता हैं।११६ इस अध्याय में अंबड़ परिव्राजक की आचार के नियमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पर प्रकाश डालते हुए यह भी कहा गया है कि अपने नियम के पालनार्थ इन्होंने प्राणों की बाजी तक लगा दी थी। 113. सव्वमिणं पुरा भव्वं, इदाणिं पुण अभव्वं। -इसिभासियाई 24/गद्यभाग प्रारंभ 114. (अ) भगवती सूत्र 529-530 (ब) स्थानांग सूत्र 692 (स) औपपातिक सूत्र 38-40 115. स्थानांग सूत्र 692 116. औपपातिक 38-40. - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी बौद्ध परंपरा में अम्बड़ परिव्राजक का अम्बुद माणवक के रूप में उल्लेख उपलब्ध होता है।११७ ये ब्राह्मण को श्रेष्ठ और ज्येष्ठ मानते थे। इस संदर्भ में बौद्ध से भी उनका वाद-विवाद हुआ था। किन्तु बुद्ध के अनुसार श्रेष्ठता की कसौटी या आधार आचरण है न कि जाति। इस संदर्भ में यह स्मरणीय तथ्य है कि अम्बट्ठ के कृष्ण की परंपरा का होने के नाते काष्र्णायन कहा गया है। औपपातिक में वर्णित परिव्राजकों की एक शाखा का नाम 'कण्ह' था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या बौद्ध परंपरा के कृष्ण और ऋषिभाषित के 'वारिसव' एक व्यक्ति है? वैदिक परंपरा में हमें अम्बड़ के व्यक्तित्व, जीवन और सिद्धांत के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। जहाँ तक अम्बड़ ऋषि के उपदेश का प्रश्न है इसमें चार कषायों का त्याग, पाँच महाव्रतों का पालन, चार विकथा वर्जन, पंच इन्द्रिय संयम, सात भय निवारण, आठ मद त्याग आदि का उल्लेख हुआ है।११८ संक्षेप में इस अध्याय में जैन परंपरा की एक नहीं अपितु अनेक अवधारणाओं का उल्लेख हुआ है, जबकि ऋषिभाषित के अन्य अध्यायों में ऐसा देखने को नहीं मिलता है। २६. मातङ्ग मातङ्ग अर्हत् ऋषि के उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में हुआ है। मातङ्ग ऋषि का उल्लेख जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में उपलब्ध होता है।११९ यह एक अलग प्रश्न है कि तीनों परंपराओं के मातङग एक ही व्यक्ति है या पृथक्-पृथक्। जैन परंपरा में मातङ्ग का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध परंपरा में इनका उल्लेख प्रत्येक बुद्ध के रूप में हुआ है, जो कि राजगृह के निवासी थे।१२० किन्तु मातङ्ग जातक इन्हें चाण्डाल कुलोत्पन्न कहता है। ये ब्राह्मण जाति के अहंकार को नष्ट करने में सफल हुए थे। ये यह प्रतिपादित करते थे कि सच्चे ब्राह्मणत्व का आधार आचरण है न कि कुल। वैदिक परंपरा में महाभारत में उद्योग पर्व में मातङग का उल्लेख मिलता है।१२१ महाभारत के मातङग के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यह है कि वीर पुरुष 117. दीघनिकाय खण्ड 1, पृ. 87 118. ववगय चउक्कसायाचउविकहविवन्जिता पंचमहव्व तिगुत्ता पचिंदियसंवुडा-छज्जीवणिकाय सट्ठणिरता सतभयविप्पमुक्का अट्ठमयट्ठाण जढा। -'इसिभासियाई' 25/12 गद्यभाग 119. देखें--ऋषिभषित की भूमिका (डॉ. सागरमल जैन) 120. जातक खण्ड 4,375-90(इडी.फसबाल) 121. महाभारत, उद्योगपर्व 129/1921 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .53 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन को अपने पुरुषार्थ में विश्वास रखना चाहिये और किसी के समक्ष अपनी हार न मानते हुए प्रयत्नशील रहना चाहिये। वस्तुतः वही वीर कहलाने योग्य है जो अपने चारित्र की रक्षा में स्वयं को बलि चढ़ा देते हैं। ऋषिभाषित में मातङ्ग ऋषि सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो इन्द्रिय संयम, शील और सदाचार का पालन करता है वही सच्चा माहण अर्थात् ब्राह्मण होता है।१२२ आगे इसी अध्याय में अपने-अपने कुलधर्म और पद के अनुरूप कार्य करने का निर्देश देते हुए कहते हैं कि यदि क्षत्रिय और वैश्य यज्ञ करें, ब्राह्मण शस्त्र धारण करें तो इनका आचरण ठीक वैसा ही है जैसे दो अन्धे विपरीत दिशा से गमन करते हुए भी टकरा जाते हैं।१२३ पुनः इस अध्याय में वे आध्यात्मिक कृषि का वर्णन करते हैं और इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार अध्यात्म भावों से ओत प्रोत खेती चाहे ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र और क्षत्रिय कोई भी करें वह विशुद्धि को उपलब्ध करता है।१२४ तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऋषिभाषित में मातङ्ग द्वारा उपदिष्ट सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप की तुलना उत्तराध्ययन के 25वें अध्ययन और बौद्ध ग्रंथ धम्मपद से की जा सकती है। अंतर केवल विस्तार और संक्षेप का है विषय-वस्तु का नहीं। इसी प्रकार आध्यात्मिक कृषि की तुलना ऋषिभाषित के बत्तीसवें अध्याय से और सुत्तनिपात के कसिभारद्वाजसुत्त के उरग वर्ग से की जा सकती है। उपयुक्त वर्णन के अनुसार इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये महावीर और बुद्ध के पूर्वगामी कोई अध्यात्म के पथ प्रदर्शक संत रहे होंगे। २७. वारत्तक जैन परंपरा में वारत्तक का उल्लेख न केवल ऋषिभाषित में उपलब्ध होता है, अपितु आवश्यक चूर्णि और अन्तकृतदशा में भी उपलब्ध होता हैं।१२५ आवश्यक चूर्णि इन्हे राजा अभयसेन के अमात्य के रूप में उल्लिखित करती है, जो कि वारत्तपुर नगर के निवासी थे और उसमें यह भी कहा गया है कि ये धर्मघोष आचार्य के पास दीक्षित हुए थे। अन्तकृत् दशा इन्हें राजगृह के एक व्यापारी के रूप में उल्लिखित करती है। जबकि ऋषिमण्डल वृत्ति में इन्हें नैमित्तिक मुनि का रूप प्रदत्त है।१२६ 122. सव्विदिएहिं गुत्तेहिं, सच्चप्पेही समाहणे। - सीलंगेहिं णिउत्तेहिं, सीलप्पेही स माहणे। -इसिभासियाई 26/6 123. रायाणो वणिया? जागे, माहणासत्थ जीविणो। अन्धेण जुगेणद्वे, विपल्लत्थे उत्तराधरे।। -वही, 26/2 124. इसिभासियाई, 26/15, . 125. (अ) आवश्यक. चूर्णि भाग 2, पृ. 199 (ब) अन्तकृतदशा, वर्ग 6/9 अध्ययन 126. ऋषिमण्डलवृत्ति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी बौद्ध परंपरा में वारत्तक का उल्लेख वारणथेर के रूप में उपलब्ध होता है। किन्तु यह कहना मुश्किल है कि वारत्तक और वारणथेर एक ही व्यक्ति होंगे। इस परंपरा के अनुसार ये जंगल निवासी किसी भिक्षु की प्रेरणा से प्रव्रजित हुए थे। वैदिक परंपरा इनके संबंध में मौन है। अतः प्रमाणाभाव में यह कहना आसान नहीं है कि वस्तुतः ये पौराणिक पुरुष है या ऐतिहासिक। वारत्तक अर्हत् ऋषि ने ऋषिभाषित के सत्ताइसवें अध्याय में सच्चे श्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि श्रमण को सांसारिक व्यक्ति के संपर्क से दूर रहकर स्नेह का परित्याग कर स्वाध्याय ध्यान में रमण करना चाहिये।१२७ पुनः सच्चे श्रमणत्व की पुष्टि करते हुए यह भी कहा गया है कि श्रमण को कौतूहल, लक्षण, स्वप्न आदि के मनोरंजन से अलग रहना चाहिये। उपर्युक्त उपदेश की तुलना उत्तराध्ययन के सत्रहवें "पाप श्रमण" नामक अध्याय से की जा सकती है। शाब्दिक भिन्नता होते हुए भी विषय वस्तु का एकत्व स्पष्ट रूप से द्रष्टव्य है। २८. आर्द्रक ___ऋषिभाषित के अटठाइसवें अध्ययन में आर्द्रक ऋषि के उपदेश संकलित है। ऋषिभाषित के साथ-साथ इनका उल्लेख सूत्रकृतांग एवं सूत्रकृतांगचूर्णि में भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग चूर्णि में आर्द्रक के जीवन से संबंधित दो कथाएँ उल्लिखित हैं, एक वर्तमान जीवन पर प्रकाश डालती है तो दूसरी अतीत जीवन की स्थिति को स्पष्ट करती है। सूत्रकृतांग चूर्णि इन्हें राजपुत्र के रूप में उल्लिखित करती है और यह बताती है कि अभयकुमार द्वारा प्रेषित ऋषभ की प्रतिमा के निमित्त से इन्हें वैराग्य की उपलब्धि हुई थी। बसन्तपुर की एक लड़की इन्हें खेल-खेल में अपना पति स्वीकार कर लेती है। अन्ततोगत्वा ये उस लड़की से शादी कर लेते हैं किन्तु कुछ समय के पश्चात पुनः विरक्त हो जाते हैं। कथानकों से इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि ये बुद्ध और महावीर युगीन कोई ऐतिहासिक ऋषि रहे होंगे। जहाँ तक बौद्ध और वैदिक परंपरा का प्रश्न है, उनमें इनका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए इन्हें ब्राह्मण परंपरा के ऋषि कहना कठिन है, अपितु मात्र जैन ग्रंथों में इनका उल्लेख होने से ऐसा लगता है कि इनका संबंध जैन श्रमण परंपरा से रहा होगा। 127. न चिरं जणे संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वड्ढती। भिक्खुस्स अणिच्चचारिणो, अत्तट्टे कम्मा दुहायती।। -इसिभासियाई 27/1 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ऋषिभाषित में उल्लिखित आर्द्रक ऋषि का मुख्य उपदेश कामभोगों से विरक्ति का संदेश देता है। उनके अनुसार मनुष्य के दुःख का कारण काम-वासना है। कामवासना को अनेक शब्दों से संबोधित करते हुए कहते हैं कि काम ही शल्य, विष, आशीविष सर्प और प्रचण्ड वासना है।१२८ काम की व्यापकता और क्षेत्र विस्तार का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि देव, गंधर्व पशु-पक्षी और मानव सभी काम-रूपी पिंजरे में आबद्ध होकर नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव करते हैं।१२९ साथ ही वे इस ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं कि वही व्यक्ति धन्यवाद के पात्र हैं, जो धीर, जितेन्द्रिय और कामरूपी पिशाच से मुक्त हो गए हैं।१३० २९. वर्द्धमान ऋषिभाषित का उन्तीसवाँ अध्ययन वर्द्धमान से संबंधित है। वर्द्धमान नाम सामने आते ही हमारा ध्यान सहज ही उस ओर आकर्षित होता है कि क्या प्रस्तुत वर्द्धमान जैन परंपरा में प्रचलित चौबीसवें तीर्थंकर हैं या कोई अन्य परंपरा के ऋषि है? इस संदर्भ में डॉ. सागरमल जैन ने 'इसिभासियाई' की भूमिका में प्रमाण सहित जो विचार व्यक्त किये हैं वे बिल्कुल युक्ति संगत प्रतीत होते हैं। उनके अनुसार "ये वर्द्धमान जैन परंपरा के तीर्थंकर ही हैं, क्योंकि थेरगाथा की अट्ठकथा में भी वर्द्धमान थेर को वैशाली का लिच्छवी वंशीय राजकुमार कहा गया है, जिनकी संगति वर्द्धमान महावीर के साथ बैठती है।" साथ ही वे तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस तथ्य को भी स्पष्ट करते हैं कि थेरगाथा के सभी थेर बौद्ध परंपरा के ही नहीं हैं, उसमें बुद्ध से पूर्ववर्ती अनेक श्रेष्ठ श्रमणों के उद्गार भी सम्मिलित हैं। किन्तु साम्प्रदायिक अभिनिवेश में उन्हें बौद्ध परंपरा के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है।१३१ पालि बौद्ध साहित्य में वर्द्धमान का उल्लेख निग्गंठ नातपुत्त के रूप में हुआ जैन परंपरा में वर्द्धमान का जीवन-चरित्रज्ञाचारांग सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र आदि में विस्तार से उपलब्ध होता है।१३३ ऋषिभाषित में वर्णित उपदेशों से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, कि वर्द्धमान जैन परंपरा के तीर्थंकर हैं। क्योंकि अध्ययन के प्रारंभ में ही यह कहा गया 128. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। बहुसाधारणा कामा, कामा संसार वड्ढणा।। -इसिभासियाई, 28/4 129. सदेवोरगगन्धव्वं सतिरिक्खं समाणुसं। कामपंजरसंबद्धं, किस्सते विविहं जग।। -इसिभासियाई, 28/17 130. कामग्गहविणिमुक्का, धण्णा धीरा जितिन्दिया। वितरन्ति मेइणिं रम्मं, सुद्धप्पा सुद्धवादिणो।। - वही, 28/18 131. देखें "ऋषिभाषित की भूमिका'' (डॉ. सागरमल जैन) 132. दीघनिकाय, सामजपलसुत्त Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है कि चारों ओर स्रोत प्रवाह रहे हुए हैं इन्हें किस प्रकार रोका जा सकता है?१३४ समाधान के रूप में आगे गाथा में स्पष्ट किया गया है कि वस्तुतः जो पांच इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों पर राग-द्वेष नहीं करता है या आसक्त नहीं होता है वह सुगमता से बहते हुए स्रोतों पर रोक लगा सकता है।१३५ इस अध्याय के उपदेश की तुलना उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्याय में और आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के 'भावना' नामक अध्याय से की जा सकती है। ३०. वायु तीसवें वायु ऋषि का उल्लेख जैन परंपरा में हमें ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि महावीर के तीसरे गणधर का नाम 'वायुभूति' है, फिर भी यह कहना कठिन है कि वायु ऋषि और वायुभूति एक ही व्यक्ति हैं? __बौद्ध परंपरा में वायु का उल्लेख एक देवता के रूप में हुआ है। किन्तु वैदिक परंपरा में और महाभारत के शांतिपर्व में इनका उल्लेख एक ऋषि के रूप में इनका उल्लेख है। वायु ऋषि के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय भी कर्मसिद्धांत है। ऋषिभाषित के तीसवें अध्ययन में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो जैसा बीज बोता है, वो वैसा ही फल पाता है। इंग्लिश में प्रचलित मुहावरा "As you sow, so shall you reap" से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। आगे वे इसी अध्याय में कर्म की सबलता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि कोई भी कर्म कभी निष्फल नहीं होता उसका फल कर्ता को अवश्य मिलता है चाहे वह शुभ हो या अशुभ हो। ३१. पार्श्व ऋषिभाषित का इकतीसवां अध्ययन पार्श्व नामक अर्हत ऋषि से संबंधित है। यह तो एक स्पष्ट और सत्य तथ्य है कि जैन परंपरा के चौबीस तीर्थंकरों में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व माने गए हैं। परंतु इस संदर्भ में मुख्य प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ऋषिभाषित के अर्हत् पार्श्व ही तेईसवें तीर्थंकर पार्व है या पार्श्व नाम के कोई अन्य ऋषि हैं? जैन दार्शनिकों की मान्यतानुसार प्रस्तुत अर्हत् पार्श्व तीर्थंकर पार्श्व के समय में होने वाले प्रत्येक बुद्ध हैं, जो कि तीर्थंकर पार्श्व से पृथक् हैं।. परंतु विद्वत मण्डल - 133. (अ) सूत्रकृतांग सूत्र 1/6 (ब) कल्पसूत्र 4/145 134. सवन्ति सव्वतो साता, किं ण सोतोणिवारणं? . पुढे मुणी आइक्खे, कहं सोते पहिज्जति? 135. 29/4, 6, 8, 10, 12 -इसिभासियाई 29/1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन . के अनुसार "अर्हत पार्श्व की स्वयं पार्श्व तीर्थंकर है। ऋषिभाषित में इनका चातुर्याम" का उपदेश इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि "पार्श्व ऋषि" ही वस्तुतः तीर्थंकर पार्श्व हैं। जैन परंपरा में पार्श्व का उल्लेख सूत्रकृतांग, भगवती, कल्पसूत्र, निरियावलिका आदि ग्रंथों में उपलब्ध हाता है।१३६ इन ग्रंथों में न केवल पार्श्व का नामोल्लेख मिलता है अपितु उनके जीवन दर्शन, परंपरा, आचार, विचार आदि का एक विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययन एवं भगवती में महावीर और पार्श्व की आचारगत और विचारगत मान्यताओं का अंतर भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। पार्वापत्य श्रमण प्रायः सुविधावादी या भोगवादी माने गए हैं। इसीलिए उनके लिए 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत प्रसंग में 'पासत्थ' शब्द शिथिलाचार का प्रतीक है। पाश्र्वापत्य श्रमण जब महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए तब उनके साथ अनेक शिथिलताएँ भी उसमें प्रविष्ट हुई। जहाँ तक बौद्ध और वैदिक परंपराओं का प्रश्न है पार्श्व के संबंध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। किन्तु बौद्ध परंपरा में "निग्गंठ जातपुत्त" के नाम से जिस चातुर्याम का उल्लेख मिलता है, वस्तुतः वह तीर्थकर पार्श्व का ही चातुर्याम है। उपर्युक्त चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि पार्श्व एक ऐतिहासिक पुरुष हैं। इस संबंध में सभी विद्वान भी एकमत हैं। ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व के उपदेश में जैन मान्यताओं के प्राचीन रूप दृष्टिगत होते हैं। इस अध्याय में पार्श्व के दर्शन और आचारगत मान्यताओं का स्पष्टरूप से प्रतिपादन हुआ है। अध्याय के प्रारंभ में ही लोक, और गति के प्रकार, स्वरूप और अर्थ का विवेचन हुआ है। साथ ही जीव एवं पुद्गल की गति-प्रक्रिया का भी उल्लेख हुआ है। स्मरणीय तथ्य तो यह है कि लोक की शाश्वतता स्वीकार करते हुए भी वे उसे न तो बौद्धों की तरह मात्र परिणामी ही मानते हैं और न कूटस्थ नित्य ही, अपितु परिणामी-नित्य कहकर जैन परंपरा की दार्शनिक अवधारणा का ही पोषण करते हैं। पुनः इस अध्याय में चातुर्याम, कषाय, प्राणातिपात अर्थात् हिंसा से निवृत्ति, अचित पदार्थों का आहार आदि की चर्चा हुई है जो स्पष्टतः जैनावार का ही पौषक 136. (अ) सूत्रकृतांगसूत्र 2/7/8 (ब) भगवती सूत्र 1/9/423 (स) निरियावलिका 3/1 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी निष्कर्म रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत अध्याय में वर्णित दार्शनिक और आचार संबंधी पार्श्व के विचार भगवती में वर्णित उनके विचारों से समानता रखते हैं। इससे स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के पार्श्व तीर्थंकर पार्श्व ही हैं। ३२. पिंग ऋषिभाषित का बत्तीसवां अध्ययन पिंग ऋषि से संबंधित है। इसमें इनको ब्राह्मण-परिव्राजक अर्हत् ऋषि के रूप में उल्लिखित किया गया है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्यत्र इनका जीवन चरित्र या उपदेश उपलब्ध नहीं होता हैं। जैन परंपरा के अतिरिक्त बौद्ध परंपरा अंगुत्तर निकाय में एक पिंगयानी ब्राह्मण का उल्लेख अवश्य मिलता है, जो कि वैशाली निवासी थे एवं बुद्ध के अनुयायी थे।१३७ सुत्तनिपात में बाबरी के सोलह शिष्यों का उल्लेख हुआ है। उसमें एक शिष्य का नाम पिंगी है। इन्हें ध्यानी, गणी, संस्कारी आदि विशेषणों से संबोधित किया गया है।१३८ सुत्तनिपात के पारायण वग्ग में यह भी उल्लेख उपलब्ध होता है कि पिंगी ऋषि बुद्ध के समक्ष अपनी वृद्धावस्था की स्थिति का वर्णन करते हैं और बुद्ध इन्हें अतृष्णा, अप्रमत्तता की प्रेरणा देते हैं।१३९ उपर्युक्त वर्णन से तो ऐसा लगता है कि पिंगी बुद्ध युगीन ऋषि रहे होंगे और आयु में बुद्ध से बड़े थे। किन्तु प्रो. सी एम उपासक की दृष्टि में ऋषिभाषित के पिंग एक प्राचीन ऋषि हैं और इन्हीं से पिंगीय परंपरा का विकास हुआ होगा। अतः उनकी दृष्टि में सुत्तनिपात के पिंग और ऋषिभाषित के पिंग ऋषि भिन्न-भिन्न व्यक्ति होने चाहिये।१४० वैदिक परंपरा के महाभारत में पिंगल नाम के ऋषि का उल्लेख उपलब्ध होता है।१४१ परंतु ऋषिभाषित के पिंग से इनकी समानता स्थापित करना मुश्किल है, क्योंकि दोनों की एकता का कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। ऋषिभाषित के प्रस्तुत अध्याय का मुख्य उपदेश अध्यात्म कृषि का प्रतिपादन है। अध्ययन के प्रारंभ में ही यह प्रश्न पूछा गया है कि आर्य! तुम्हारा खेल कौन सा है? कौन से बीजों की खेती होती है और खेती करने के साधनभूत बैल और हल कौन से हैं?१४२ इस प्रश्न के उत्तर में आध्यात्मिक कृषि के साधनों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि वस्तुतः आत्मा रूपी खेत में तप रूप बीज वपन किया जाता है और संयम रूपी हल से और अहिंसा रूप बैलों से खेत की जुताई की जाती 137. Dictionary of pali proper Names, Vol.II, P.998&200 138. Ibid 139. Ibid 140. 'इसिभासियाई' एण्ड पालि बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स -ए स्टडी 141. महाभारत नामानुक्रमणिका, प्र. 197 142. कतो छेत्तं? कतो बीयं? कतो ते जुगणंगला? गोणा वि ते ण पस्सामि, अज्जो. का णाम ते किसी? -इसिभासियाई 32/2 - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन है । १४३ साथ ही इसमें यह भी कहा गया है कि ऐसी आध्यात्मिक कृषि करने वाला व्यक्ति चाहे ब्राह्मण हो, शुद्र हो, क्षत्रिय हो, या वैश्य उसे उसका लाभ अवश्य मिलता है । १४४ वह विशुद्धि को उपलब्ध होता है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के प्रस्तुत अध्याय और मातङ्ग नामक छब्बीसवें अध्याय के अतिरिक्त अध्याय- - कृषि का वर्णन अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता है किन्तु बौद्ध परंपरा में अध्यात्म कृषि का वर्णन उपलब्ध होता है । सुत्तनिपात्त के कसभारद्वाज नामक वर्ग में वे स्वयं एक कृषक के रूप में अध्यात्म कृषि के साधनों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि " श्रद्धा मेरा बीज, तपवृष्टि, प्रज्ञा नंगल, मनजोत, स्मृतिकाल और निर्वाण की दिशा में प्रयत्नशील मेरी शक्तियाँ वीर्य ही मेरे बैल हैं । १४५ पुनः बुद्ध आध्यात्मिक कृषि की फलवत्ता का प्रतिपादन करते हुए यह कहते हैं कि यह खेती कभी निरर्थक नहीं होती। इससे दुःख मुक्ति रूप फल उपलब्ध होता है । १४६ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित की सुत्तनिपात में वर्जित आध्यात्मिक कृषि के विवरणों में समानता है । ३३. महाशालपुत्र अरुण ऋषिभाषित के तैतीसवें अध्ययन में महाशालपुत्र अरुण के उपदेश संकलित है। ऋषिभाषित को छोड़कर जैन परंपरा में अन्यत्र इनका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध परंपरा में अरुण नामक पांच व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। 147 किन्तु बौद्ध परंपरा के अरुण और ऋषिभाषित के अरुण में एकत्व मानने का कोई आधार हमें नही मिला है। 59 यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ऋषिभाषित में उल्लिखित अरुण ऋषि कौन है ? क्या ये वही है जो उपनिषदों में महाशाल अरुण के नाम से उल्लिखित है? ब्रिंग इनका संबंध औपनिषदिक ऋषि आरुणि के साथ जोड़ते हैं ? १४८ किन्तु डॉ. सागरमल जैन के अनुसार उनकी यह मान्यता समुचित नहीं है, क्योंकि आरुणि का 143. आता छेत्तं तवो बीयं, संजमो जुगणंगला । अहिंसा समिती जोज्जा, एसा धम्मन्तरा किसी ।। 144. एयं किसिं कसित्ताणं, सव्यसत्तदयावहं । माहणे खत्तिए वेस्से, सुद्दे वा वि य सिज्झती ।। 145. देखें - पिंग के समस्त विवरण के लिए-पालि प्रापर नेम्स भाग 2, पृ. 198-200 146. एसा किसी सोभतरा, अलुद्दस्स वियाहिता । एसा बहुसई होइ, परलोकसुहावहा ।। 147. Dictionary of pali proper Names, Vol.I, P. 182-84 148. "इसिभासियाई" इन्ट्रोडक्शन, पृ. 4 - इसि भासियाई 32/3 -वही 32/5 - इसिभासियाई 32/3 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी दूसरा नाम उद्दालक भी है। उद्दालक नाम से ऋषिभाषित में एक स्वतंत्र अध्याय हैं। अतः अरुण और आरुणि अलग-अलग हैं। महाशाल अरुण आरुणि या उद्दालक के पिता या गुरु होने चाहिये। 60. अरुण वैदिक कोश में आरुणि उद्दालक को एक ही व्यक्ति के रूप में उल्लिखित किया गया हैं और महाशाल अरुण का इनके पिता के रूप में उल्लेख करता है । १४९ शतपथ ब्राह्मण इनका पूरा नाम अरुण औपवेशि गौतम बताता है । १५० के साथ लगा हुआ 'महाशाल' शब्द उनके अश्वपति से शिक्षित होने का प्रतीक है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद में यह कहा गया है कि अश्वपति से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति महाशाल कहे जाते थे। इनके नाम के साथ लगा हुआ गौतम शब्द गोत्र का प्रतीक है। उपर्युक्त वर्णन के अनुसार ऋषिभाषित के महाशाल अरुण औपनिषदिक ऋषि अरुण औपवेशि गौतम ही हैं जो कि आरुणि- उद्दालक के पिता और गुरु हैं। ऋषिभाषित में वर्णित अरुण से उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य मनुष्य की वाणी की शिष्टता है। महाशाल ऋषि के अनुसार मनुष्य के ज्ञान या मूर्ख होने के आधार पर उसकी वाणी है।९५१ इस अध्याय में संगति के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मनुष्य को प्रज्ञाशील ज्ञानी पुरुष से संपर्क रखना चाहिये और अज्ञानी के साथ न तो संसर्ग करें और न उसके साथ तत्त्व-चर्चा ही करें१५२ क्योंकि संपर्क या संसर्ग से ही दोष और गुणों का प्रादुर्भाव होता है। इनके उपदेश की तुलना संस्कृत सूक्ति " संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति" से की जा सकती है। अंग्रेजी में प्रसिद्ध उक्ति Man is known by his company and tree is known by it's fruit से इसी तथ्य की पुष्टि होती है। ३४. ऋषिगिरि ऋषिभाषित के चौतीसवें अध्ययन में इन्हें ब्राह्मण परिव्राजक के रूप में संबोधित किया गया है। जैनागम और जैन साहित्य में इनका उल्लेख ऋषिभाषित को छोड़कर अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। जहाँ तक बौद्ध और वैदिक परंपरा का प्रश्न है उसमें कहीं पर भी ऋषिगिरि नामक ब्राह्मण परिव्राजक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। 149. वैदिककोश, पृ. 56 150. वही, पृ. 23 151. वही, 33/1-4 152. णेव बालेहिं संसग्गिं णेव बालेहिं संथवं । धम्माधम्मं च बालेहिं णेव कुज्जा कदायि वि।। - इसि भासियाई 33/6 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन .61 ऋषिभषित में ऋषिगिरि सहनशीलता का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई मूर्ख परोक्ष में निंदा करें तो यह समझना कि यह कम से कम प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं कर रहा है।१५३ इसी प्रकार कोई शरीर को चोंट पहुँचाए तो यह विचार करें कि यह मेरे प्राणों को तो नाश नहीं कर रहा है।१५४ आगे इसी अध्याय में भिक्षु को निर्देश देते हुए कहा गया है कि वह जितेन्द्रिय, उपसर्ग रहित जीवन यापन करें।१५५ ऋषिभाषित के उपदेश की तुलना पालि साहित्य में बुद्ध और एक भिक्षु के बीच हुए संवाद से की जा सकती है। उसमें बुद्ध भिक्षु से प्रश्न करते हैं कि यदि तुम्हारी कोई आलोचना, निंदा करें तो तुम्हारे मन में क्या विचार आयेगा? प्रत्युन्तर में भिक्षु इतना ही कहता है कि मात्र आलोचना ही तो कर रहा है, मार तो नहीं रहा है। यद्यपि पालिसाहित्य और ऋषिभाषित की विषयवस्तु और भाव में कोई अंतर नहीं है, मात्र फर्क इतना है कि ऋषिभाषित में यह उपदेश के रूप में व्यक्त हुआ है, जबकि पालि साहित्य में बुद्ध के वार्तालाप के रूप में समक्ष आता है। ३५. (उद्दालक) उद्दालअ ऋषिभाषित का पैतीसवां अध्ययन उद्दालक और उनके उपदेशों से संबंधित है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य साहित्य में इनके जीवन चरित्र के संबंध में काई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। बौद्ध परंपरा के जातक के अनुसार उद्दालक दासी से उत्पन्न पुरोहित पुत्र थे।२५६ इनके पिता बनारस के राजा के पुरोहित थे। उसमें यह भी कहा गया है कि इन्होंने तक्षशिला में उच्चशिक्षा प्राप्त की और सन्यासियों के आचार्य बन गए, किन्तु यह आचार्यत्व अधिक समय तक गुप्त न रह सका, क्योंकि एक पुरोहित ने इनकी यथार्थता से अवगत होकर इन्हें सन्यासी वेश छोड़ने के लिए विवश किया और इन्हें अपने अधिकार में पुरोहित बनाकर रखा। जहाँ तक वैदिक परंपरा का प्रश्न है इन्हें अपने पिता अरुण भद्रवासी, पतंचलकाप्य का शिष्य कहा गया है। इनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्योपनिषद आदि में हुआ है।५७ अरुण औपवेशिक गौतक के पुत्र होने के नाते इन्हें उद्दालक आरुणि भी कहा जाता है। -वही 34/1गद्यभाग -इसिभासियाई 34/4 गद्यभाग -वही 34/6 153. बाले खलु पण्डित. . . . . .णो पच्चक्खं। 154. बाले य पण्डियं.....णोजीवितातो ववरोवेति। 155. पंच महव्वयजुत्ते, अकसाए जितिन्दिए। सेहु दंते सुहं सुयति, णिरुवसग्गे य जीवति।। 156. (अ) जातक सं. 487 (a) Dictionary of pali proper Names, Vol.I, P.389 157. देखें-वैदिक कोश, पृ. 56 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक उद्दालक ऋषि के उपदेश का प्रश्न है, ये भी अन्य श्रमण परंपरा के ऋषियों की तरह निवृत्ति का ही उपदेश देते हैं। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि जीव क्रोधादि काषयिक परिणामों से युक्त होकर पापकर्म करता है और संसार परिभ्रमण करता है किन्तु इनसे मुक्त या विरत होन के लिए त्रिगुप्ति से गुप्त, पंचेन्द्रिय संयम, और शल्य रहित होना आवश्यक है।१५८ प्रस्तुत अध्याय में जैन परंपरा में प्रचलित अवधारणाओं का उल्लेख और जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग अधिक दृष्टिगोचर होता है। ३६. (नारायण) तारायण नारायण ऋषि का उल्लेख जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में वर्णित बाहुल, नाभि, असित देवल आदि के साथ भी हुआ है। 159 इसके अतिरिक्त जैनों में नौ वासुदेव, नौ बलदेव के नाम उल्लिखित हैं उसमें नवें वासुदेव का नाम नारायण कहा गया है। बौद्ध परंपरा में "नारायण ऋषि" के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती है। नारायण ऋषि का तालमेल हिन्दू परंपरा के साथ अधिक बैठता है। क्योंकि सामान्यतया वर्तमान में हिंदू परंपरा में नारायण शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए होता है। उसमें ईश्वर और नारायण पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। नारद ऋषि का सुविश्रुत मंत्र "नारायण नारायण" आज भी प्रचलित ही है। महाभारत में नर-नारायण नामक ऋषियुगल का उल्लेख है।१६० इनके संबंध में यह भी कहा गया है कि इन्होंने बद्रिकाश्रम में रहकर तपाराधना की थी और यह भी माना गया है कि नारद के साथ इनका संवाद हुआ था। इनके उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय क्रोधाग्नि की प्रचण्डता का प्रतिपादन करना है। वे क्रोधाग्नि की बाहरी अग्नि से तुलना करते हुए कहते हैं कि बाहर की आग को पानी से बुझाया जा सकता है किन्तु क्रोधरूप अग्नि को संपूर्ण जल से भी बुझाना असंभव है।१६१ नारायण ऋषि की दृष्टि में अग्नि या कोप ही अंधकार, मृत्यु, विष, व्याधि, मोह एवं पराजय है।१६२ उनके अनुसार बन्धन और जन्म मरण का मूल भी क्रोध ही है। -'इसिभासियाई' 35/ गद्य भाग प्रारंभ 158. चउहि ठाणेहि. . . .. पंचसमिते पंचेन्द्रियसंवुडे। 159. सूत्रकृतांगसूत्र 1/3/4/2 160. महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ. 175 161. सक्का वण्ही णिवारेतुं, वारिणा जलितो बहि। सव्वोदहिजलेणावि, कोवग्गी दुण्णिवारओ। 162. वही, 36/1 -इसिभासियाई 36/5 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 63 प्रस्तुत नारायण ऋषि के संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से विचार करना चाहें तो प्रथम प्रश्न यह सामने आता है कि क्या इनका संबंध जैन परंपरा में अन्यत्र उल्लिखित आठवें वासुदेव से हैं१६३ जिनका नाम नारायण है जिन्हें लक्ष्मण भी कहा गया है। अथवा क्या वैदिक परंपरा के नारायण (ईश्वर) से इनका कोई संबंध है? ऐसा कोई प्रामाणिक आधार नहीं है, जिससे इन्हें वासुदेव नारायण कहा जा सके। परन्तु इनका संबंध हिन्दू परंपरा के नारायण नामक ऋषि से जोड़ा जा सकता है। ३७. श्रीगिरि ऋषिभाषित का सैतीसवां अध्ययन श्रीगिरि के उपदेशों से संबंधित है। इन्हें ब्राह्मण परिव्राजक कहा गया है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त इनका उल्लेख अन्य जैन अर्वाचीन प्राचीन साहित्य में कही भी उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध और वैदिक परंपरा भी इनके संबंध में मौन है। इसलिए इनके जीवन और व्यक्तित्त्व के संबंध में हमें कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, मात्र उनका उपदेश ही हमारे लिए एक विकल्प है। (1) (2) श्रीगिरि के उपदेशों में सृष्टि संबंधी तीन अवधारणाएँ उपलब्ध होती है । १६४ प्रथम अवधारणा के अनुसार सर्वप्रथम सृष्टि पर जल ही था, फिर उसमें से अण्डे का प्रस्फुटन हुआ और सृष्टि उत्पन्न हुई। किन्तु श्रीगिरि इस मान्यता को निरस्त कर देते हैं । १६५ दूसरी अवधारणानुसार सृष्टि माया से उद्भुत मानी गई है । १६६ किन्तु श्री गिरि इससे भी सहमत नहीं है। (3) तीसरी अवधारणानुसार सृष्टि शाश्वत है। इसकी पुष्टि करते हुए वे कहते हैं कि विश्व नहीं था, ऐसा नहीं है, विश्व नहीं है और न ही रहेगा ऐसा भी नहीं है । ९६७ इसका तात्पर्य यह है कि सृष्टि शाश्वत एवं अनंत है। परंतु यह स्मरणीय है कि यहाँ शाश्वतता से श्रीगिरि का तात्पर्य कूटस्थ नित्यता से कदापि नहीं है। वस्तुतः यही अवधारणा पार्श्व की भी थी, जिसका उल्लेख भगवती एवं ऋषिभाषित में हुआ है । १६८ महावीर भी इसी विचारधारा के समर्थक हैं। 163. " जैन तत्त्व प्रकाश" पृ. 97 (पूज्य. अमोलक ऋषि) 164. 'इसिभासियाई' 37 / 1, 2, 3 गद्यभाग 165. एत्थ अण्डे संतत्ते, एत्थ लोए संभूते, एत्थ सासासे, इयं णे वरुण-विहाणे । 16 166. 'मायातु तु प्रकृतिं विद्यात मायिनं तु महेश्वरम् " 167. ण वि माया, ण कदाति, णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य। 168. (अ) भगवतीसूत्र 5/9 (ब) ' इसि भासियाई' 37/3 गद्यभाग -' इसि भासियाई 37/1 - श्वेताश्वतर उपनिषद् 4 / 10 - वही 'इसिभासियाई' 37 / 1 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी .. आगे इसी अध्याय में सूर्योदय के पश्चात् ही गमन करने की बात कही गई है। जैन परंपरा में इन विचारों की पुष्टि दशाश्रुतस्कन्ध और दशवैकालिक से भी होती ३८. सारिपुत्त (सातिपुत्त) ऋषिभाषित के अडतीसवें अध्ययन में अर्हत् बुद्ध उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित में प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त चम्पा निवासी एक ब्राह्मण का नाम भी साइदत्त कहा गया है और यह भी माना गया है कि महावीर ने उनकी शाला में चातुर्मास किया था। परंतु इनका संबंध ऋषिभाषित के सातिपुत्र से जोड़ना मुश्किल है अपितु इनका संबंध बुद्ध परंपरा के सारिपुत्र से अधिक निकटस्थ का है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार ये बुद्ध परंपरा के सारिपुत्र ही ऋषिभाषित के सातिपुत्र हैं।१७० बौद्ध परंपरा में सारिपुत्र का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है। इस परंपरा में सारिपुत्र की गणना बुद्ध के अग्रणी श्रावकों में हुई हैं। इनका उल्लेख नालक ग्राम निवासी ब्राह्मण वगन्त पुत्र के रूप में हुआ है। बुद्ध इन्हें महाप्रज्ञावान और धर्म-सेनापति के रूप में संबोधित करते थे।१७१ ।। ऋषिभाषित में सारिपुत्र के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य आत्यान्तिक सुख को उपलब्ध करना है। उनके अनुसार जिस सुख से सुख की प्राप्ति हो वस्तुतः वही आत्यातिक सुख है।१७२ उसमें यह भी कहा गया है कि मनोज्ञ भोजन और मनोज्ञ शययासन का उपभोग कर भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता है और इसके विपरीत अमनोज्ञ या अरुचिकर भोजन अरुचिकर शय्यासन का उपभोग कर भिक्षु दुःखपूर्वक ध्यान करता है।१७३ उपर्युक्त भावों से ऐसा लगता है कि सारिपुत्र को उस युग में प्रचलित देह-दण्डन की अवधारणा का विरोध करते हैं। इसीलिए उन्होंने मनोज्ञ और रुचिकर भोजन से समाधिपूर्वक ध्यान की बात कही है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उन्होंने त्याग-मार्ग की उपेक्षा और भोग मार्ग की पुष्टि की है। संक्षेप में कहना चाहें तो यही कहेंगे कि उनकी दृष्टि में बाह्य साधन की अपेक्षा आंतरिक चित्तवृत्ति का अधिक महत्त्व है, जो कि बौद्ध दर्शन का केंद्र और मध्यम मार्ग का प्रतीक है। 169. (अ) दशाश्रुतस्कन्ध 5/6-8 (ब) दशवैकालिक 8/28 170. 'ऋषिभाषित' की भूमिका (डॉ. सागरमल जैन) 171. पालि प्रापर नेम्स, खण्ड 2, पृ. 1108-18 172. जं सुहेण सुहं लद्धं, उच्चन्तसुखमेव तं। जं सुखेण दुहं लद्धं, मा मे तेण समागमो।। -- 'इसिभासियाई 38/1 173. वही, 38/2,3 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन उपरोक्त आधार पर यह तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत सातिपुत्र बौद्ध सारिपुत्र है, जो कि बुद्ध के मध्यम मार्ग में समर्थक हैं। ३९. संजय ___ऋषिभाषित के उनतालीसवें अध्ययन में 'संजय' अर्हत् ऋषि के उपदेश संकलित हैं। उत्तराध्ययन में 'संजय' के नाम से एक पृथक अध्ययन भी है।१७४ जैन परंपरा में संजय नाम के अनेक व्यक्तियों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, किन्तु ऋषिभाषित के संजय से उनका संबंध स्थापित करना कठिन है। परंतु उत्तराध्ययन के संजय और ऋषिभाषित के संजय में एकरूपता स्पष्टतः प्रतीत होती है। उत्तराध्ययन के कथानुसार वे कम्पिलपुर के राजा हैं और जंगल में मृग का शिकार करते हैं। किन्तु यह ऋषिमृग है, इस भय से वे ध्यानस्थ गर्द्रभिल्ल नामक आचार्य से क्षमायाचना करते हैं कि कहीं मुनि शाप न दें। साथ ही वे उनके उपदेश से प्रभावित होकर शिष्य बन जाते हैं। ऋषिभाषित की गाथा से भी यही भाव स्पष्ट होते हैं, जिसमें वे कहते हैं कि मुझे स्वादिष्ट भोजन से कोई प्रयोजन नहीं, जिसके कारण संजय को जंगल में मृग का वध करना पड़ता है।१७५ जहाँ तक बौद्ध परंपरा का प्रश्न है उसमें संजय नामक सात व्यक्तियों का उल्लेख हुआ है।१७६ बौद्ध परंपरा में सारिपुत्र के पूर्व गुरु और संजय वेलट्ठीकेपुत्त थे, जो कि संजय के नाम से प्रसिद्ध थे। अब केवल विचारणीय तथ्य यह है कि क्या संजय वेलट्ठीपुत्र ही ऋषिभाषित के संजय हैं। __प्रस्तुत अध्याय के संजय महावीर के समकालीन है और सारिपुत्र के पूर्व गुरु 'संजय' भी महावीर कालीन हैं। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्याय के प्रवक्ता संजय और सारिपुत्र के गुरु संजय एक ही व्यक्ति होने चाहिये। वैदिक परंपरा में महाभारत की नामानुक्रमणिका में धृतराष्ट्र के मंत्री संजय का उल्लेख उपलब्ध होता है।१७७ किन्तु इनकी प्रस्तुत संजय से एकरूपता सिद्ध करना कठिन है। ऋषिभाषित में वर्णित संजय का उपदेश मुख्य रूप से पाप नहीं करने का निर्देश देता है। इसी अध्याय में यह भी कहा गया है कि यदि पापावरण हो भी जाय तो उसकी आलोचना करें।१७८ -'इसिभासियाई' 39/6 174. उत्तराध्ययन 18/ 175. णवि अस्थि रसेहिं भद्दएहिं संवासेण य भद्दएण य। जत्थ मिए काण्णोसिते, उवणामेति वहाए संजए।। 176. Dictionary of pali proper Names, Vol.II, P.998-1000 177. महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ. 364-365 178. सिया पावं सई कुज्जा; तणकुज्जा पुणो पुणो। णाणि कम्मं च णं कुष्जा, साधु कम्मं वियाणिया।। -'इसिभासियाई' 39/3 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी यद्यपि बौद्ध साहित्य में संजय को संशयवादी कहा गया है क्योंकि वे तात्त्विक प्रश्नों का निश्चयात्मक उत्तर नहीं देते थे। दूसरे शब्दों में वे निश्चयात्मक शब्दावली का प्रयोग नहीं करते थे। ऋषिभाषित के उपदेशों के आधार पर स्पष्टरूप से संजय को संशयवादी नहीं कहा जा सकता, किन्तु गांथा में प्रयुक्त द्रव्य, क्षेत्र आदि पारिभाषिक शब्द ऐकान्तिक निश्चयात्मकता के निषेधक कहे जा सकते हैं।१७९ ४०. दीवायण (द्वैपायन) ऋषिभाषित का चालीसवां अध्ययन द्वैपायन ऋषि से संबंधित हैं। इसमें इनके उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त समवायांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक चूर्णि आदि ग्रंथों में हुआ है।१८० सूत्रकृतांग में द्वैपायन का उल्लेख असित, नारायण, पाराशर ऋषियों के साथ हुआ है। उसमें यह भी कहा गया है कि इन्होंने सचित फलाहार और जल का सेवन करते हुए मोक्ष को प्राप्त किया। समवायांग इनके लिए आगामी तीर्थकर होने की घोषणा करता है। अन्तकृतदशा में द्वैपायन और यादवों से संबंधित एक कथानक का उल्लेख हुआ है।१८१ उसमें यह बताया गया है कि यादव कुमारों ने इन्हें बहुत सताया और साधना में बाधा उपस्थित की थी। फलस्वरूप इन्होंने द्वारिका के विनाश का दृढ़ निश्चय किया, जिसे जैन परंपरा में निदान कहा जाता है। संकल्पानुसार अग्निकुमार देव बनकर द्वारिका का विनाश किया। इनके संदर्भ में यह भी स्मरणीय है कि जैन परंपरा में इन्हें जैनेतर ऋषि के रूप में उल्लेखित किया गया है। बौद्ध परंपरा के जातक में 'कण्ह दीपायण' के संबंध में दो कथानक उपलब्ध होते हैं।१८२ प्रथम कथानक के कण्ह की ऋषिभाषित के द्वैपायन से कोई समानता दिखाई नहीं देती है किन्तु दूसरा कथानक कण्ह को वासुदेव के विनाशक के रूप में चित्रित करता है। इससे ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित के द्वैपायन और जातक के कण्ह एक व्यक्ति रहे होंगे। प्रायः यह कथानक. तीनों परंपराओं में उल्लिखित है। जिसमें विषयवस्तु की समरूपता है। मात्र शाब्दिक अंतर दृष्टि गोचर होता है। वैदिक परंपरा के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में इनका जीवन वृत्तान्त और उपदेश विस्तार से उपलब्ध होते हैं।१८३ उसमें इन्हें व्यास या वेदव्यास कहा गया है। उसमें यह भी कहा गया है कि भीष्म के आदेश से इन्होंने विचित्रवीर्य आदि की पत्नियों से तीन 179. रहस्से खलु. . . . . . . जहत्थं आलोएज्जा। -'इसिभासियाई' 39/ गद्यभाग पृ. 177 180. (अ) समवायांगसूत्र 159 (ब) सूत्रकृतांगसूत्र 1/3/4/3 (स) दशवैकालिक चूर्णि पृ. 120 181. अन्तकृतदशा पृ. 71, 72 (मुनि प्यारचंद जी म.ब्यावर) 182. Dictionary of pali proper Names, Vol.I, P.501-503 183. महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ.87, 162 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन पुत्रोत्पत्ति की थी, जिन्हें धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के रूप में जाना जाता है । द्वैपायन को पाराशर का पुत्र और महाभारत का रचयिता भी कहा है। ऋषिभाषित में इनके उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य अनिच्छा से इच्छा पर विजय प्राप्त करना है । इनके अनुसार इच्छा या आकांक्षा ही क्लेश या दुःख का कारण है। 184 वे स्पष्टरूप से इसमें कहते हैं कि इच्छा के वशीभूत हुआ मानव माता-पिता, गुरु, राजा आदि का अपमान कर देता है । १८५ इतना ही नहीं, आगे इच्छा को जन्म-मरण का मूल कारण कहा गया है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में इनका उल्लेख होने से यह कहा जा सकता है कि द्वैपायन प्राक् ऐतिहासिक काल के कोई ऋषि रहे होंगे। ४१. इन्दनाग (इन्द्रनाग ) इन्द्रनाग का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन परंपरा के विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति आदि अनेक ग्रंथों में उपलब्ध होता है। १८६ इन्हें जीर्णपुर का निवासी माना गया तथा ये बाल तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध थे। जैन ग्रंथों के अनुसार ये महावीर युगीन ऋषि थे। बौद्ध और वैदिक परंपरा में हमें इनके व्यक्तित्व और जीवन के संबंध में किसी प्रकार की काई सूचना नहीं मिलती है। ऋषिभाषित में वर्णित इन्द्रनाम अपने उपदेश में कहते हैं कि आजीविका के निमित्त किया हुआ तप और सुकृत व्यर्थ है । १८७ आगे इसी में मुनि को लक्ष्य करके कहते हैं कि कुछ ज्ञान और चारित्रिक क्रिया से जीवन जीते हैं, इसके विपरीत कुछ मुनिवेष को जीविका का साधन बनाते हैं, वे वस्तुतः दोषपूर्ण जीवन यापन करते हैं । १८८ आगे इसी अध्याय में मुनि के जीवनयापन की पद्धति पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि मुनि को मंत्र, तंत्र, विद्या भविष्यवाणी, दूतिक-कर्म आदि नहीं करना चाहिये । १८९ ४२. सोम 67 ऋषिभाषित को बयालीसवां अध्याय सोम अर्हत् ऋषि से संबंधित है। इनके व्यक्तित्व, जीवन और ऐतिहासिकता के संबंध में हमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा 184. इच्छा बहुविधा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति । तम्हा इच्छमणिच्छाए, जिणित्ता सुमेधती ।। 185. इच्छाभिभूया न जाणन्ति मातरं पितरं गुरुं । अधिक्खिवन्ति साधू य, रायाणो देवयाणिय ।। 186. (अ) विशेषावश्यक भाष्य 3290 (ब) आवश्यक नियुक्ति 847 (स) आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति पृ. 347 187. "इसिभासियाइ" 41 / 1, 2 188. णाणमेवोव जीवन्तो, चरितं करणं तहा। लिंगं च जीवणट्ठाए, अविसुद्धंतु जीवति ।। 189. वही 41/11 - 'इसिभासियाइ' 40/2 - इसिभासियाई 40 / 3 - इसि भासियाइ 41/9 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। जैन परंपरा में यह कहा गया है कि 'सोम' नाम के ब्राह्मण 'पाश्र्व' के संप्रदाय में दीक्षित हुए थे और मृत्यु के पश्चात शुक्र के रूप में उत्पन्न हुए । ' १९० ऋषिभाषित में उपदेश भी इतना संक्षिप्त है कि उसके आधार पर यह कहना मुश्किल है कि यही इनका मुख्य सिद्धांत होगा । प्रस्तुत अध्याय में मात्र यही कहा गया है कि व्यक्ति किसी भी पद या अवस्था में रहे, अधिक प्राप्ति का प्रयास नहीं करें। ४३. यम इनके संबंध में जैन परंपरा में अन्यत्र कोई जानकारी नहीं मिलती है। मात्र इनके उपदेश में यह कहा गया है कि लाभ में प्रसन्न और अलाभ में नाराज न हो। दोनों परिस्थितियों में तटस्थ रहने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ है । १९१ उपनिषदों में यम- नचिकेता का संवाद मिलता है। १९२ ४४. वरुण ऋषिभाषित के चवालीसवें अध्याय में वरुण ऋषि का उपदेश मिलता है। कर्मबंध के दो अंग या कारण- राग और द्वेष हैं। जो इनसे उत्पीड़ित नहीं होता वही वस्तुतः सम्यक् प्रकार से जीवन जीता है । १९३ उत्तराध्ययनसूत्र में भी राग-द्वेष को कर्मबन्ध के दो अंग के या बीज के रूप में व्याख्यायित किया गया है । १९४ ४५. वैश्रमण ऋषिभाषित का पैतालीसवां अध्ययन वैश्रमण से संबंधित है। इनके उपदेश सोम, यम और वरूण की अपेक्षा विस्तृत हैं। इस अध्ययन के प्रारंभ में काम से निवृत्त होने का निर्देश किया है, जो कि संसार चक्र का मूल है। इस अध्याय में तेल, पात्र, सर्प आदि के उदाहरण आये हैं। ये जैन परंपरा के अन्य ग्रंथों में भी उपलब्ध होते हैं । १९५ उपर्युक्त ऋषिभाषित के चार अंतिम अर्हत् ऋषि सामान्यतया जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा में लोकपाल के रूप में स्वीकार किये गये हैं । १९६ अंतर केवल नाम में है। जहाँ जैन परंपरा सोम, यम, वरुण, वेश्रमण का उल्लेख करती है वहाँ वैदिक परंपरा में इंद्र, अग्नि, यम और वरुण ये चार नाम स्वीकार किये गए हैं। वस्तुतः इन चारों को पौराणिक व्यक्ति माना गया है न कि ऐतिहासिक । -0 190. See - Prakrit Proper Names, Vol. 11, p. 864 191. लाभम्मि जेण सुमणो, अलाभे णेव दुम्मणो । से हु सेट्ठे मणुस्साणं, देवाणं व सयक्कऊ ।। 192. कठ - उपनिषद् 193. रागंगे य विदोसे य से हु सम्मं नियच्छती । 194 उत्तराध्ययन सूत्र 32/7 195. अहं च भोगरायस्स. .अंधगवण्हिणो। 196. (अ) Prakrit proper Naines, Vol. 11, p.657. (ब) महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ. 291 - इसिभासियाइ 43/1 - इसि भासियाई 44 / गद्यभाग पृ. 188 - दशवैकालिक सूत्र 2/8 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन द्वितीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा ज्ञान का महत्त्व ऋषिभाषित में ज्ञान और अज्ञान की चर्चा गाथापति पुत्र तरुण के उपदेशों में संकलित है। यह स्पष्ट है कि तरुण ऋषि के अनुसार अज्ञान ही समस्त बंधन और दुःख का कारण है। जन्म-मरण की परंपरा, शोक, मान-अपमान आदि सभी अज्ञान के कारण है।' वे ज्ञान का महत्व बताते हुए, स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि "अज्ञान के कारण पहले में न जानता था, न देखता था, न समझता था, और न अवबोध ही रखता था। अब ज्ञानवान होने पर मैं जानता हूँ, देखता हूँ, समझता हूँ और अवबोध रखता हूँ"" पूर्व में अज्ञान के वशीभूत मैंने अनेक पाप किये, अब ज्ञान संपन्न होने पर मैं जातना हूँ कि वासनाओं के वशीभूत होकर किये गये कर्म अनैतिक हैं। इस प्रकार गाथापति पुत्र तरुण ज्ञान के महत्त्व और जीवन मे उसकी उपयोगिता को स्पष्ट करते हैं, किन्तु ऋषिभाषित में ज्ञान के स्वरूप, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन आदि की कोई चर्चा हमें उपलब्ध नहीं होती है। मात्र नैतिक जीवन और साधना के क्षेत्र में ज्ञान का क्या स्थान या महत्त्व है, यही स्पष्ट किया गया है। ऋषिभाषित के इस अध्याय में ज्ञान की चर्चा के संदर्भ में निम्न चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। 2. 69 जानना (जानामि ), देखना (पासामि), समझना (अभिसमावेमि), और अवबोध करना (अभिसंबुज्झामि ) । यहाँ इन शब्दों के अर्थ के संदर्भ में और ज्ञान प्रक्रिया में इनके स्थान के संदर्भ में विचार करना आवश्यक है। जैन आगमों में और 1. मंजरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती ।। -' इसिभासियाइ' 21/5 मूलं खलु भो पूव्वं न जाणामि न पासामि नोऽभिसमावेमि, नोऽभिसंबुझज्झामि नाणमूलाकं खलु भो ! इयाणिं जाणामि पासामि अभिसमावेमि अभिसंबुज्झामि । - वही, 21 / गद्यभाग पृ. 76 3. अण्णामूलयं खलु मम कामेहिं किच्चं करणिज्जं, णाणमूलं खलु मम कामेहिं अकिच्चं अकरणिज्जं । - वही, 21 / गद्यभाग पृ. 76 . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विशेष रूप से आचारांग जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में जानना और देखना (जानामि-पासामि) का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। इन्हीं दो शब्दों के आधार पर आगे चलकर जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की स्वतंत्र अवधारणाओं का विकास हुआ। यह स्पष्ट किया है कि ज्ञान-प्रक्रिया में दर्शन के बाद ही ज्ञान को स्थान दिया गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सत्य है कि सर्वप्रथम ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ होती है और उसके बाद ज्ञान होता है। श्रमण परंपरा में इस ऐन्द्रिक अनुभूति को दर्शन कहा जाता है। ऋषिभाषित में इसी प्रक्रिया को पश्यता कहा गया है। इसके लिए ऋषिभाषित में 'पास' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका संस्कृत शब्द रूप 'पश्य' है। सामान्यतया पश्य से चाक्षुष ज्ञान को ही समझा जाता है, किन्तु उसके अंतर्गत समस्त ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ समाविष्ट हैं। इसकी पुष्टि परवर्ती जैन दार्शिनिक ग्रंथों से होती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसे हम संवेदना कह सकते हैं। संवेदना के पश्चात् वस्तु के गुण का जो ज्ञान होता है उसे ही सामान्यतया ज्ञान कहा जाता है। जैन परंपरा में, वस्तु की विशेषताओं सहित होने वाले ज्ञान को ही ज्ञान की कोटि में माना जाता है। जैन आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द के प्रयोग हुए हैं। ऋषिभाषित में भी इसी रूप में इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऋषिभाषित में यद्यपि 'जानामि' के पश्चात् 'पासामि' शब्द रखा गया है किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तथा ज्ञान की प्रक्रिया की दृष्टि से पहले 'पासामि' और उसके बाद 'जानामि' को रखना होगा। क्योंकि वस्तु की ऐन्द्रिक अनुभूति के पश्चात ही उसका विशेषरूप से ज्ञान होता है। ऋषिभाषित यहाँ 'अभिसमावेमि' और 'अमिसंबुज्झामि' इन दो शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग करता है। अतः हमें इनके अर्थों को भी सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिये। 'पाइसद्दमहण्णवो' में 'अभिसमा' का अर्थ ठीक ठीक जानना या निर्णय करना है।" वस्तुतः किसी वस्तु के स्वरूप का व्यवस्थित रूप से या ठीक-ठीक प्रकार से जानना ही अभिसमागम है। अतः हम यह कह सकते हैं कि अभिसमागम जानने की प्रक्रिया का एक आगे बढ़ा हुआ कदम है। इसी प्रकार अभिसंबुज्झ भी ज्ञान की पूर्णता का सूचक है। अत: हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में ऐन्द्रिक अनुभूति से प्रारंभ करके अभिसंबोध तक ज्ञान की एक विशिष्ट प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। यद्यपि मूलग्रंथ में इन शब्दों का प्रयोग के अतिरिक्त हमें अन्य कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। इस संबंध में जैन परंपरा की ज्ञान प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना होगा। - 4. विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणई पासइ। आचारांगसूत्र 1/2/2 5. (अ) स उपयोगो द्विविधः साकारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगधेत्यर्थः।-तत्वार्थभाष्य पृ 82 (ब) सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणज्ञानम्। तदात्मक स्वरूप ग्रहणं, दर्शनमिति सिद्धम।। -षट्खण्डागम पर धवला टीका, 1, 1,4 6. 'इसिभासियाइ" 21/गद्यभाग 7. "पाइसद्दमहण्णवो" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जैन परंपरा में ज्ञान प्रक्रिया के चार अंग माने गये हैं-(1) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय और (4) धारणा। क्या ऋषिभाषित के पासामि, जानामि, अभिसमावेमि और अभिसंबुज्झाामि को इनसे जोड़ा जा सकता है। विद्वानों के लिए यह विचारणीय है। मेरी दृष्टि में पासामि को अवग्रह, जानामि को ईहा, अभिसमावेमि को अवाय और अभिसंबुज्झामि को धारणा कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें कुछ समानता है। ____ ऋषिभाषित मुख्यतः एक उपदेशपरक ग्रंथ है। अतः उसमें ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से किसी भी प्रकार की चर्चा उपलब्ध नहीं है, फिर भी हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि उसमें उल्लेखित पासामि और जानामि शब्द जैन परंपरा में विकसित होने वाले ज्ञान और दर्शन के सिद्धांतों के पूर्व रूप अवश्य है। भाषा विचार ____ऋषिभाषित के तैतीसवें 'अरुण नामक' अध्ययन में यह बताया गया है कि भाषा का सम्यक् प्रयोग ही करना चाहिये। इस अध्याय में दुर्भाषा और सुभाषा की अवधारणा का संकेत अवश्य उपलब्ध होता है, किन्तु इसमें दुर्भाषा और सुभाषा शब्दों का प्रयोग नैतिक आचरण की दृष्टि से ही हुआ है, न कि ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से। ज्ञानमीमांसा का अभाव __ ऋषिभाषित ज्ञान, अज्ञान, सुभाषा, दुर्भाषा आदि ज्ञानमीमांसीय शब्दावली का प्रयोग तो करता है, किन्तु उसमें किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत का अभाव है। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की अनुपस्थिति का हमारी दृष्टि में कारण यह है कि संभवतः ई.पू. पांचवीं छठी शताब्दी में नैतिक और धार्मिक साधना पर ही विशेष बल दिया जाता था। यही कारण है कि ऋषिभाषित में जितने स्पष्ट रूप से नैतिक और धार्मिक आचार-विचार की चर्चा है, उतने स्पष्ट रूप में किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की चर्चा नहीं है। ज्ञानदान का महत्त्व तैतीसवें अध्ययन में अन्य दानों की अपेक्षा ज्ञान दान के महत्त्व को स्थापित करते हुए कहा गया है कि धन संपत्ति के अर्जन और दान का प्रभाव यह सीमित समय तक ही रहता है, किन्तु सद्धर्ममय वाणी का दान तो अक्षय और अमृत होता -तत्वार्थ सूत्र 1/15 8. 9. अवग्रहेहाऽपायधारणा:। दुभासियाए भासाए, दुक्कडेण य कम्मुणा। बालमत्तं वियाणेज्जा, कज्जाकज्ज विणिच्छए।। सुभासियाए भासाए, सुक्कडेण य कम्मुणा। पण्डितं वियाणेज्जा, धम्माधम्माविणिच्छय।। -'इसिभासियाइ' 33/2,3 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है। अरुण ऋषि के उपर्युक्त कथन से हम इतना तो कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि ज्ञान के महत्त्व को स्थापित कर रहे थे। ऋषिभाषित के पैतालीसवें अध्याय में भी मात्र ज्ञान की महिमा का निरूपण हुआ है। उसमें कहा गया है कि सर्वज्ञ शासन को प्राप्त करके विज्ञान (आत्म-ज्ञान) उसी प्रकार विकसित होता है जैसे हिमालय के सान्निध्य को प्राप्त वृक्षों में सुंदरता का प्रादुर्भाव होता है। जो सर्वज्ञ शासन को प्राप्त करता है उसमें सत्व-बुद्धि, मति, मेधा और गाम्भीर्य की उसी प्रकार वृद्धि होती है जैसे औषधि के सेवन से तेज बल और वीर्य की वृद्धि होती है।११ ऋषिभाषित के कुछ ज्ञानमीमांसीय शब्द ऋषिभाषित में हमें कुछ ज्ञान मीमांसीय शब्द उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे सर्वज्ञ, विज्ञान, बुद्धि, मति, मेधा आदि। (अ) सर्वज्ञ- ऋषिभाषित में सर्वज्ञ शब्द का प्रयोग तो देखा जाता है।१२ किन्तु सर्वज्ञ से उनका क्या तात्पर्य रहा है यह स्पष्ट नहीं होता है। यद्यपि यह सत्य है कि परवर्ती जैन दर्शन में सर्वज्ञ शब्द का अर्थ संसार की समस्त वस्तुओं के त्रैकालिक पर्यायों का ज्ञान माना गया है।१३ किन्तु जैन विद्वानों की दृष्टि में सर्वज्ञ शब्द का यह अर्थ परवर्ती है। सर्वज्ञ शब्द के अर्थ को लेकर पंडित सुखलालजी ने गंभीरता से विचार किया है, उनकी दृष्टि में "प्राचीन स्तर के जैन आगमों में सर्वज्ञ शब्द का जो प्रयोग है, उसका वह अर्थ नहीं है, जो सामान्यतया दार्शनिक युग में समझा जाता है।" पण्डित सुखलाल जी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के संदर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा, जगत एवं साधना मार्ग संबंधी दार्शनिक ज्ञान की पूर्णता ही उस युग में सर्वज्ञता मानी जाती थी, न कि त्रैकालिक ज्ञान को। जैन परंपरा में सर्वज्ञता संबंधी दृष्टिकोण केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समान 10. खइणं पमाणं वत्तं च, देज्जा अज्जेति जो धणं। सद्धम्मवक्कदाणं तु, अक्खयं अमतं मत।। --'इसिभासियाइ33/10 11. सव्वाण्णुसासणं पप्प, विण्णाणं पवियते। हिमवन्तं गिरि पप्पा, तरूणं चारु वागमो।। -वही, 45/33 12. सतं बुद्धि मती मेधा, गंभीरत्तं च वड्ढती। ओसधं वा सुयक्कन्तं, जुन्जए बलवीरिय।। --'इसिभासियाइ' 45/34 13. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्या 30 भाष्य-"सर्वद्रव्यपर्यायेषु च केवल्ज्ञानस्य विषयनिबन्धो भवति। तद्धति सर्वभावग्राहकं संभिन्न लोकालीक विषयम्।" -'सभाष्यतत्वार्थाधिगम्मसूत्रम' Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन भाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है। जैन परंपरा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक ज्ञान की पूर्णता को ही प्रकट करता है न कि त्रैकालिक ज्ञान को। केवल शब्द सांख्य दर्शन में भी प्रकृति-पुरुष के विवेक के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। यदि यह शब्द सांख्य परंपरा से जैन परंपरा में आया, यह माना जाय तो इस आधार पर भी केवल ज्ञान का अर्थतत्व यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा, न कि त्रैकालिक ज्ञान। आचारांग का यह वचन कि जो एक आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है। इसी तथ्य का पोषक है अतः "जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ" का अर्थ आत्मा ज्ञान और आत्मा पर्याय का ज्ञान ही हे न कि त्रैकालिक सर्वज्ञता। सर्वज्ञ के संबंध में आगम का यह वचन कि "सिय जाणइ सिय ण जाणइ" (भगवती) भी यही बताता है कि केवल ज्ञान त्रैकालिक सर्वज्ञता नहीं है, वरन् विशुद्ध आध्यात्मिक और दार्शनिक ज्ञान है।"१४ ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परंपरा के आचार्य कुन्दकुन्द और श्वेताम्बर परंपरा के आचार्य हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी परंपरागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की थी। कुन्दकुन्द ने कहा था कि "व्यवहार नय से ही यह कहा जाता है कि सर्वज्ञ लोकालोक की सभी आत्मेतर वस्तुओं को जनता है, किन्तु निश्चय नय से सर्वज्ञ स्वात्मा को ही जानता है।५ इन सब कथनों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभषित में जो 'सव्वण्णु' (सर्वज्ञ) शब्द आया है, उसका अर्थ आत्म-ज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक ही है। (ब) विज्ञान- इसी प्रकार ऋषिभाषित में 'विण्णाण' (विज्ञान) शब्द का प्रयोग हुआ है। वह वस्तुत: आज के अर्थ में प्रयुक्त विज्ञान शब्द से भिन्न है। विज्ञान शब्द का प्रयोग प्राचीन स्तर के जैन आगमों और पालि साहित्य में एक भिन्न अर्थ मं ही हुआ है। वहाँ इसका अर्थ मनोदशाओं का ज्ञान है। ज्ञातव्य है कि इसी विज्ञान शब्द के आधार पर बौद्धों का एक पूरा सम्प्रदाय ही विकसित हुआ है, जिसे विज्ञानवाद कहा जाता है। यहाँ हम उस समग्र चर्चा में न जाकर केवल यह दिखाना चाहते हैं कि ऋषिभाषित में विज्ञान शब्द का प्रयोग मनोदशाओं के ज्ञान के रूप में हुआ है। 14. अप्प्सरूवं पेच्छदि, लोयालोयं ण केवली भगवं। जई कोई भणई एवं, तस्स य किं दूसणं होई।। -नियमसार गाथा 166 पृ. 550 15. जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणए केवली भगवं। केवलणाणि जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाण।। -वही, गाथा 158 16. 'इसिभासियाइ' 45/33 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी (स) बुद्धि, मति और मेधा- इसी प्रकार ऋषिभाषित में प्रयुक्त बुद्धि, मति और मेधा शब्द भी सामान्य रूप से मनुष्य की चिन्तन सामर्थ्य और विवेकशीलता के सूचक हैं।१७ ऋषिभाषित में प्रयुक्त ये तीनों शब्द पर्यायवाची है या भिन्न-भिन्न अर्थों के सूचक हैं-यह स्पष्ट नहीं होता है, किन्तु हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि परवर्ती जैन परंपरा में मति शब्द का प्रयोग ऐन्द्रिक ज्ञान के अर्थ में हुआ है। तत्त्वार्थ-सत्र में इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहा है।१८ तत्त्वार्थ सूत्र में मति, संज्ञा, स्मृति चिन्ता, अभिनिबोध आदि को पर्यायवाची कहा गया किन्तु मति शब्द बुद्धि की अपेक्षा व्यापक अर्थ में ग्रहित है। बुद्धि से सामान्यतया व्यक्ति की मानसिक चिन्तन सामर्थ्य को ही ग्रहित किया जाता है। अतः मति की उपेक्षा बुद्धि शब्द का क्षेत्र सीमित होता है। पुनः मति की अपेक्षा बुद्धि शब्द का क्षेत्र सीमित होता हैं। पुनः मेधा शब्द और भी सीमित अर्थ का सूचक है, वह केवल विशिष्ट बौद्धिकता को ही सूचित करता है। बुद्धिमानों में भी जो श्रेष्ठ होता है उसे ही मेधावी कहा जाता है। अतः हम इन तीन शब्दों में अर्थ की दृष्टि से कुछ अंतर कर सकते हैं। किन्तु जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है, वह मात्र इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करता है, किन्तु इनका विशेष अर्थ स्पष्ट नहीं करता है। दुर्भाग्य से ऋषिभाषित की प्राचीन व्याख्याएँ और टीकाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। ऋषिभषित पर भद्रबाहु ने जिस नियुक्ति की रचना करने की प्रतिज्ञा की थी, वह या तो लिखी ही नहीं गई या फिर आज उपलब्ध नहीं है। अतः ऋषिभाषित में उल्लेखित ज्ञानमीमांसीय पारिभाषिक शब्दों का अर्थ निर्धारण करना भी कठिन है। यदि ऋषिभाषित की ज्ञानमीमांसा पर अधिक प्रकाश डाला जाना संभव होता। किन्तु वर्तमान स्थिति में हम उसमें उपलब्ध ज्ञान मीमांसा के पारिभाषिक शब्दों की अपनी दृष्टि से की गई इन व्याख्याओं के अतिरिक्त अधिकारिक रूप में कुछ भी नहीं कह सकते हैं। -0 17. "इसिभासियाई" 45/34 18. "तदिन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तम्" तत्वार्थसूत्रम् 1/15 19. "मतिः स्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थातरम्' -तत्त्वार्थसूत्रम 1/13 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 75 तृतीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित तत्त्वमीमांसा तत्त्वमीमांसा दार्शनिक चिंतन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। तत्त्वमीमांसा में हम मुख्यतया सत्ता के संबंध में विचार करते हैं। यह जो हमारा अनुभूति का जगत है उसका मूलतत्त्व क्या है? वह जड़ है या चेतन, एक है या अनेक? उससे यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ, सृष्टि का मूलतत्त्व एवं कारण क्या है? यदि सृष्टि के मूल में एक से अधिक सत्ताएँ (तत्त्व) हैं, तो उनका पारम्परिक संबंध क्या है? ये ऐसे प्रश्न है जो तत्त्वमीमांसा के अंतर्गत आते हैं। ऋषिभाषित में प्रतिपादित सृष्टिमीमांसा तत्त्वमीमांसा की ही एक शाखा सृष्टि मीमांसा कहलाती है जो सृष्टि के उत्पत्ति के संबंध में विचार करती है। ऋषिभाषित के 37 वें श्री गिरि नामक अध्ययन में तथा 31 वें पार्श्व नामक अध्ययन में जगत और उसकी सृष्टि के स्वरूप के संबंध में कुछ प्रश्न उठायें गये हैं।' __ ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में सृष्टि और गति से संबंधित निम्न 9 प्रश्न उठाये गये हैं, उसमें पांच प्रश्न लोक से संबंधित है और चार प्रश्न गति से संबंधित है। लोक से संबंधित पांच प्रश्न निम्न है-- 1- यह लोक क्या है? अर्थात् लोक का स्वरूप क्या है? 2- लोक कितने प्रकार का है? 3- लोक किसका है अर्थात् इसका स्वामी कौन है? 4- लोक भाव क्या है अर्थात् लोक का स्वरूप किस प्रकार का है- वह सादि है या अनादि, वह सान्त है या अनन्त, वह पारिणामिक है या अपरिवर्तनशील? 1- (1) केऽयं लोए? (2) कइविधे लोए? (3) कस्स वा लोए? (4) के वा लोयभावे? (5) के वा अढेण लोए पवुच्चइ? -इसिभासियाई 31/1 गद्यभाग पृ. 132 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ऋषिभाषित में चार प्रश्न उपस्थित किये गए हैं 1- गति क्या है? 2- गति किसकी होती है ? 3- गतिभावं अर्थात् गति का स्वरूप क्या है ? वह सान्त है या अनन्त उसका प्रारंभ है अथवा नहीं? 4- उसे गति क्यों कहा जाता है? ऋषिभाषित में लोक और गति से संबंधित इन नौ प्रश्नों के जो संक्षिप्त उत्तर दिये गये हैं, उनसे ऋषिभाषित का और विशेष रूप से पार्श्व की तत्त्वमीमांसा का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। 2. सृष्टि का मूलतत्त्व तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से लोक का मूल तत्त्व क्या है? वह जड़ है या चेतन ? यह एक मूलभूत प्रश्न रहा है आध्यात्मवादी दार्शनिक संसार के मूल में मात्र चेतन तत्त्व का अस्तिव स्वीकार करते हैं, उनके अनुसार आत्मा या चित्त ही मूलतत्त्व है और यह समस्त जगत उसी की अभिव्यक्ति है। आत्मा या चित्त को ही मूलतत्त्व मानने संबंधी यह दृष्टिकोण हमें उपनिषदों में उपलब्ध होता है जहाँ ब्रह्म को ही संसार का मूलतत्त्व माना गया है। संसार में जो कुछ है, वह ब्रहूम ही है - यह आध्यात्मवाद का मुख्य दर्शन है। जैन आगमों में सूत्र कृतांग में हमें इस प्रकार का दृष्टिकोण उपलब्ध होता है, उसमें कहा गया है कि विज्ञाता ही विविध रूपों में दिखाई देता है। यही दृष्टिकोण हमें बौद्ध विज्ञानवादियों का भी प्रतीत होता है।" जो चित्त या विज्ञान को ही समस्त सृष्टि का आधार मानते हैं। इसके विपरीत भौतिकवादी जड़ तत्त्व को सृष्टि का मूल आधार मानते हैं। वे चार अथवा पांच भूतों को ही संसार का मूल उपादान मानते हैं और उसी से चेतना की उत्पत्ति बताते हैं। स्वयं ऋषिभाषित के ही 20 वें 3. 5- उसे किस कारण से लोक कहा जाता है? ऋषिभाषित में गति से संबंधित दार्शनिक समस्या को प्रस्तुत करते हुए 4. 5. डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी (1) का गती? (2) कस्स वा गती? (3) के वा गतिभावे? (4) केण अटठेण गती पवुच्च तिं? -" इसि भासियाइ" 31 / 1 गद्यभाग पृ. 132 (अ) सर्ववैखलु इदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन । आरामं तस्य पश्यन्ति, न त पश्यति कश्चन ।। (ब) ब्रह्म एव इदं विश्वम् जहा य पुढवीथूमे, एगे नाणहि दीसईं एवं भो! कसिणे लोए, विस्सू नाणहि दीसई " भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, पृ. 97 विज्ञानवाद -" छान्दोग्य उपनिषद " 3/14/1 -"मुण्डक उपनिषद " 2/2/11 -" सूत्रकृतांग" 1/1/9 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 77 उत्कल नामक अध्याय में पंच महाभूतों से आत्मा या चेतना के उत्पन्न होने का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी पंचमहाभूतवादियों का सिद्धांत विस्तार से उपलब्ध है। किन्तु ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन की विशेषता यह है कि उसमें संसार के मूलतत्त्व के रूप में जड़ और चेतन दोनों को ही सृष्टि का आधार माना गया है।" ___ इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित में जहाँ एक ओर सृष्टि के मूलतत्त्व के संदर्भ में विशुद्ध रूप से भौतिकवादी दृष्टिकोण उपलब्ध है, जो यह मानता है कि जड़ से ही चित्त जगत की सृष्टि होती है, वहीं दूसरी ओर उसमें वह दृष्टिकोण भी उपलब्ध है। जिसमें जड़ और चेतन दोनों को ही सृष्टि का मूलतत्त्व माना गया है। यद्यपि यह आश्चर्य का विषय है कि इसमें सृष्टि के मूलतत्त्व के संदर्भ में विशुद्ध रूप से अध्यात्मवादी दृष्टिकोण उपलब्ध नहीं होता है, यद्यपि सिरिगिरि नामक 37वें अध्याय में यह अवश्य कहा गया है कि यह जगत अण्डे से उत्पन्न हुआ है। इस अध्याय के अनुसार अण्डा सन्तप्त हुआ और फूटा। फलतः लोक उत्पन्न हुआ और वह श्वसित हुआ। किन्तु इसे अध्यात्मवादी दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता है। अतः तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से हमें ऋषिभाषित में दो प्रकार के दृष्टिकोण ही उपलब्ध होते (1) सृष्टि का मूलतत्त्व भौतिक या जड़ है और (2) यह कि सृष्टि के मूलतत्त्व जड़ और चेतन दोनों ही है। लोकसृष्टा का प्रश्न सष्टि किसी के द्वारा उत्पन्न की गई है अथवा वह स्वय ही अस्तिववान है, यह प्रश्न भी तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ऋषिभाषित में 37 वें अध्याय में एक स्थान पर यह अवश्य कहा गया है कि कुछ लोगों की यह मान्यता है कि 6. से किं सं 'रज्जुक्कले'? रज्जुक्कले णामं जे णं रज्जुदिट्ठन्तेणं समुद्रयमेत्तपण्णवणाए पंचमहब्भूतखन्धमत्ता भिधाणाई संसारसंसति वोच्छदंवदति। से सं रज्जुक्कले। -'इसिभासियाई' 20 वां अध्ययन-गद्यभाग 2।।3।। 7. संति पंच महब्भूया, इह मेगेसिमाहिया। पुढवी आउ तेऊ, वा वाउ आगासंपचंमा।।7।। पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया।। अह तेसिं विणासेण, विणासो होई देहिणे।।8।। -'सूत्रकृतांग' 1-1-17, 8 गाथाएँ 8. अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वत्तिं पडुच्च जीवाणं चेव अजीवाणं चेव। -'इसिभासियाई' 31वां अध्ययन-गद्यभाग 3 9. से किं तं "दण्डुक्कले"? दण्डुक्कले नाम जेणं दण्डुट्टितेणं आदिल्लमन्झवसाणाणं पण्णवणाए "समुदयमेत्ता" भिधाणाइं"णत्थि सरीरातो परं जीवो" त्ति भगवति वोच्छेयं वदति। से तं दण्डुक्कले। -'इसिभासियाई' 20 वां अध्ययन. गद्यभाग। 10. अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वत्तिं पड़च्च जीवाणं चेव आजीवाणं चेव। -वही, 31वां अध्ययन, गद्यभाग 3 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी यह सृष्टि वरुण के द्वारा निर्मित है, किन्तु सिरिगिरि स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि यह सृष्टि वरुण का विधान नहीं है।" इस प्रकार ऋषिभाषित में सृष्टि के किसी के द्वारा उत्पन्न किये जाने के संदर्भ में निषेधात्मक दृष्टिकोण ही उपलब्ध होता है। सृष्टि ब्रह्म की माया नहीं 78 १३ ऋषिभाषित यह भी नहीं मानता है कि यह सृष्टि ब्रह्म या ईश्वर की माया है, बल्कि वह सृष्टि के शाश्वत होने की अवधारणा की पुष्टि करता है । सिरिगिरि कहते हैं कि यह विश्व माया नहीं ।" ऐसा भी नहीं है कि यह जगत कभी नही था । अर्थात् जगत की सृष्टि किसी काल विशेष में नहीं हुई है। सृष्टि किसी काल विशेष में उत्पन्न हुई है-ऐसा मत उन्हें स्वीकार नहीं है। मात्र यही नहीं, वे इससे भी एक कदम बढ़कर कहते हैं कि ऐसा भी कभी नहीं होगा कि यह संसार नहीं रहेगा। वस्तुतः कुछ औपनिषदिक चिन्तक जगत को ब्रह्म या इन्द्र की माया के रूप में स्वीकार करते थे किन्तु ऋषिभाषित में किसी भी ऋषि द्वारा इस सिद्धांत का समर्थन नहीं देखा जाता है। यद्यपि परवर्ती काल में विशेष रूप में शंकर के अद्वेत वेदान्त में मायावाद सृष्टि का मूलभूत सिद्धांत बन गया था । १५ विश्व अनादि-अनन्त ऋषिभाषित में पार्श्व और श्रीगिरि नामक अध्यायों में कहा गया है कि यह विश्व शाश्वत है, अनादि और अनन्त है।" इस प्रकार ऋषिभाषित सृष्टि के अनादि और अनंत होने की अवधारणा को सवीकार करता है। इस तथ्य का समर्थन करते हुए पार्श्व नामक अध्याय में भी कहा गया है कि "यह लोक न तो कभी नष्ट होता है और न कभी उत्पन्न होता है, यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है। यह लोक कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है, और यह लोक कभी नही रहेगा ऐसा भी नही है। यह लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। क्योंकि यह लोक ध्रुव है, 11. एत्थ अण्डे संत्तते, एत्थं लोए संभूते, एत्थे सासासे, इयं णे वरुण-विहाणे । 12. 15. 16. वि माया, ण कदाति णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति या - इसि भासियाई, 37वाँ अध्ययन, गद्यभाग । 13. ण कदाति णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति या 14. (अ) इन्द्रो मायाभिः पुरुषरूप ईयते - वृ. 2/5/19 (ब) माया तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्वरम् । " भारतीय दर्शन" - दत्त एवं चटर्जी (अ) ण कदाति णासि कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य। (ब) " अणादीए अणिहणे परिणामिए लोकभावे " । - इसिभासियाई 37वाँ अध्ययन, गद्यभाग - वही -" भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, पृ. 230 - वही, 4 / 10, पृ. 230 - शंकर का अद्वैतवाद, पृ. 230-31 - इसि भासियाइ 37वां अध्ययन, गद्यभाग-3 -वही 31 वां अध्ययन, गद्यभग-4 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है और नित्य अवस्थित है।"१७ मात्र यही नहीं पार्श्व नामक अध्याय में यह भी कहा गया है कि "जगत के मूल घटक जिन्हें पंचास्ति काय कहा जाता है वे भी किसी के द्वारा सृष्ट नहीं है। वे न तो किसी के द्वारा उत्पन्न किये हुए हैं और न कभी उत्पन्न ही होते हैं अर्थात् जगत के मूल घटक भी जगत के समान ही नित्य ही हैं।१८ लोक के संदर्भ में यह अनादि अनन्त होने की अवधारणा जैन आगम भगवती सूत्र में भी पाई जाती है। उसमें यह बताया गया है कि यह जगत अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेगा।९ पार्श्व की, जगत के अनादि, अनन्त और असृष्ट होने की, जो अवधारणा थी, उसे भगवती सूत्र में न केवल स्वीकार किया गया है अपितु महावीर ने यह कह कर मैं भी यही मानता हूँ, उस पर अपनी सम्पुष्टि की मोहर भी लगायी है। इस प्रकार ऋषिभाषित में हमें सृष्टि के अनादिकाल से होने और अनन्त काल तक बने रहने की अवधारणा का उल्लेख उपलब्ध होता है। वस्तुतः श्रमण परंपरा के वे सभी ऋषि, जो ईश्वर को सृष्टि कर्तृत्त्व के दायित्व से मुक्त रखना चाहते थे, उन्होंने यही दृष्टिकोण अपनाना अधिक उचित समझा कि यह लोक अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। मात्र यही नहीं इस जगत के मूल घटक भी जिन्हें जैन परंपरा पंचास्तिकाय के नाम से जानती है, अनादि और अनन्त है, क्योंकि सृष्टि के मूल घटकों को अनादि और अनन्त न मानने पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होगा कि वे कहाँ से आये? वस्तुतः वे सृष्टि और सृष्टि के मूल तवों का किसी को सृष्टा नहीं मानना चाहते थे। क्योकि यदि हम किसी सृष्टा की अवधारणा को सवीकार करेंगे, तो उससे जुड़े हुए अनेक दार्शनिक प्रश्न उपस्थित होंगे यथा-(1) जगत के सृष्टा ने इस सृष्टि को स्वयं अपने से बनाया या किन्हीं अन्य तत्त्वों से? (2) यदि अन्य तत्त्वों से बनया तो वे अन्य तत्त्व किसके द्वारा बनाये गए? (3) यदि वे 17. लोए ण कताई णासी ण कताइ ण भवति ण कताइ ण भविस्सति भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे। -इसिभासियाई.31 वां अध्ययन, गद्यभाग, Y 138 18. से जहा णामते पंच अस्थिकाया ण कयाति णासी जाव णिच्चा एवामेव लोकेऽवि ण कयाति णासी जाव णिच्चा.... - इसिभासियाई (वही) 31 वां अध्ययन, गद्यभाग 19. किं सते लोए? अणंते लोए? अय मेयारूवे अज्झिात्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-किं सअंते लोए? अणते लोए?-तस्स वि य णं अयमठेएवं खलु मए खंदया। चउव्विहे लोए पण्णत्ते, सं जहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। -भगवती सूत्र 212, सूत्र 27-30 20. भगवती सूत्र Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी सृष्टि के मूलभूत तत्त्व अनादि और अनन्त है तो फिर ईश्वर ने किसकी सृष्टि की? (4) क्या वह मात्र उनके संयोगों का कर्ता है? (5) पुन: यदि यह भी मानें कि वह उन मूलभूत घटकों से ही सृष्टि की रचना करता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सृष्टि की रचना में उसका क्या प्रयोजन है? (6) यदि सृष्टि की रचना में उसका कोई प्रयोजन है तो वह आप्तकाम नहीं हो सकता और यदि वह आप्तकाम नहीं है तो ईश्वर नहीं है। (7) पुनः यदि वह अपनी लीला के लिए सृष्टि की रचना करता है तो भी यह प्रश्न तो अपनी जगह खड़ा ही रहता है कि उसकी यह लीला की इच्छा क्यों है, क्यों वह दूसरे प्राणियों को सुख-दुख की पीड़ाओं में डालकर अपना मनोरंजन करना चाहता है। ये सब ऐसे प्रश्न है जिनका सम्यक् समाधान कर पाना संभव नहीं है। यही कारण है कि ऋषिभाषित के किसी भी ऋषि द्वारा इस प्रकार का दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं किया गया, जिसमें ईश्वर द्वारा जगत के सृष्टि करने का सिद्धांत स्वीकार किया गया हो। पुनः यदि ईश्वर किन्हीं मूलतत्त्वों को लेकर जगत की सृष्टि करता है अथवा प्राणियों के पुण्य पाप के आधार पर जगत की सृष्टि करता है तो इससे उसके सर्वशक्तिमान होने के संबंध में प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है? क्योंकि यदि वह जगत की सृष्टि करने में अन्य तत्त्वों पर निर्भर रहता है अथवा प्राणियों के पुण्य पाप पर निर्भर करता है तो वह सर्वशक्तिमान और स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। इसलिए ऋषिभाषित के ऋषियों ने संभवतः यही उचित समझा होगा, कि सृष्टि को अनादि-अनन्त मान कर सृष्टि कर्तृत्त्य की दार्शनिक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त कर ली जाये। ऋषिभाषित में सृष्टि के अनादि-अनन्त होने का तात्पर्य ऋषिभाषित में सृष्टि के अनादि और अनन्त मानने का यह अर्थ नहीं है कि उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं होता है। ऋषिभषित में सृष्टि को जो अनादि, अनन्त और नित्य कहा गया है, उसका तात्पर्य मात्र यही है कि वह न तो किसी काल विशेष में उत्पन्न हुई थी और न वह किसी काल विशेष में समाप्त ही हो जोयगी। उसके अनादि-अनन्त होने का तात्पर्य सृष्टि प्रक्रिया के अनादि-अनन्त होने से है, क्योंकि यदि जगत या सृष्टि में परिवर्तनशीलता को अस्वीकार किया जायेगा, तो फिर सृष्टि शब्द का ही कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। वस्तुतः सृष्टि का तात्पर्य यह है उत्पत्ति और विनाश की एक अविच्छिन्न धारा। सृष्टि के अनादि-अनंत होने का अर्थ उत्पाद और व्यय की धारा का अनादि-अनंत होना है। अत: ऋषिभाषित के पार्श्व और श्रीगिरि के द्वारा जो सृष्टि की नित्यता का प्रतिपादन किया गया है वह कूटस्थ नित्यता न होकर पणिामी नित्यता है। 21. 'स्याद्वादमन्जरी' कारिका-6, पृ. 28-29 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन विश्व के मूलतत्त्व का स्वरूप सृष्टि के स्वरूप को लेकर मुख्यरूप से तीन प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं-एक दृष्टिकोण उन अद्वेतवादियों का है जो सृष्टि का मूलतत्त्व अद्वय निर्विकार आत्मा को मानते हैं। उनके अनुसार यह परिवर्तनशील जगत मात्र प्रतीति है, सत् नहीं। वे उसे माया या विवर्त ही मानते हैं।२२ द्वैतवादी दार्शनिकों में सांख्य दार्शनिक सृष्टि के मूल में पुरुष और प्रकृति ऐसे दो तत्त्व मानते हैं। उनके अनुसार पुरुष निर्विकार कूटस्थ नित्य है, जबकि प्रकृति परिणामी नित्य है वे सृष्टि के समस्त परिवर्तनों को प्रकृति के परिवर्तनों के रूप में स्वीकार करते हैं।२३ बौद्ध दार्शनिक चित्त और पदार्थ-दोनों को ही परिवर्तनशील मानते हैं। उनके अनुसार सत्ता उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् परिणामी और अनित्य है। यद्यपि सैद्धांतिक दृष्टि से परिवर्तन की सतत प्रक्रिया को वे स्वीकार करते हैं, किन्तु उसमें किसी नित्य तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करते।२४ _सृष्टि प्रक्रिया के संदर्भ में जैनों का दृष्टिकोण औपनिषदिक अद्वैत-वादियों से इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ औपनिषदिक अद्वैतवादी सृष्टि को और उसमें घटित परिवर्तनों को माया कहते हैं वहाँ जैन दार्शनिक उसे सत् मानते हैं। सांख्यों से उनका दृष्टिकोण इस अर्थ में भिन्न है कि जहाँ सांख्य आत्मा को अपरिणामी और प्रकृति को परिणामी मानते हैं, वहाँ जैन दार्शनिक आत्मा और जड़ सत्ता (प्रकृति) दोनों को ही परिणामी नित्य मानते हैं।२५ सृष्टि के संबंध में जैन दृष्टिकोण बौद्ध दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि वे जड़ और चेतन दोनों को परिणामी मानते हुए भी नित्य मानते हैं, जबकि बौद्ध उन्हें परिणामी तो मानते हैं किन्तु नित्य नहीं।२६ जैन परंपरा का सृष्टि संबंधी दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 'पार्श्व' नामक अध्ययन में हमें विस्तारपूर्वक मिलता है। सृष्टि के स्वरूप के संबंध में पार्श्व का दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 31वें पार्श्व नामक अध्ययन में लोक का स्वरूप निम्न रूप में प्रतिपादित है२७22. "भारतीय दर्शन''-दत्त एवं चटर्जी शंकर का अद्वैतवाद, पृ. 231 32 23. वही, सांख्य दर्शन, पृ. 169, 70, 65 24. वही, पृ. 87, 88, 89 25. 'तत्त्वार्थसूत्र' उत्पाद् व्ययध्रोव्युक्तं सत्"5/29 26. "भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, सांख्य दर्शन, पृ. 88-89 27. (1) केऽयं लोए? कईविधे लोए? कस्स वा लोए? के वा लोयभावे? के वा अद्रेण लोए? पवुच्चई? (2) चउविहे लोए वियाहिते-दव्वतो लोए, खेत्तओ लोए, कालओ लोए, भावओ लोए। (3) अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वतिं पडुच्च जीवाणं चेव अजीवाण चेव। (4) अणादीए, अणिहणे, परिणामिए लोकभावे। (5) लोकातीति लोको। -इसिभासियाई 31/गद्यभाग Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी लोक क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए इसमें बताया गया है कि लोक जीव और अजीव रूप है। इस प्रकार वहाँ सृष्टि के मूलतत्त्व को न तो केवल चेतन माना गया है और न केवल जड़, अपितु यह माना गया है कि यह सृष्टि जड़ और चेतन दोनों ही प्रकार की सत्ताओं से निर्मित है। इस प्रकार सृष्टि के स्वरूप संबंधी यह दृष्टिकोण वेदान्तियों और विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों से इस अर्थ में भिन्न है, कि वे समस्त सृष्टि को चेतना का ही विकार मानते हैं। वहाँ भौतिकवादियों से इस अर्थ में भिन्न है कि भौतिकवादियों की दृष्टि में जगत का मूलतत्त्व मात्र जड़ है। भौतिवादियों का सृष्टि संबंधी दृष्टिकोण हमें ऋषिभाषित के उत्कलवादी नामक 20 वें अध्याय में प्राप्त होता है। जबकि पार्श्व की दृष्टि में यह जगत जड़-चेतन उभय रूप है। 82 पुनः जगत या लोक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसे द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक- ऐसे चार प्रकारों में विभक्त किया गया है। दूसरे शब्दों में पार्श्व के अनुसार जगत की व्याख्या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार आयामों से की जा सकती है? इस प्रकार पार्श्व सृष्टि के चार आयाम मानते हैं। लोक की स्वतंत्र सत्ता एवं उपयोग के संदर्भ में चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि यह लोक आत्मभाव में है अर्थात् लोक की प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी निज सत्ता रखती है। प्रत्येक का अस्तित्व स्वतंत्र है, फिर भी स्वामित्व एवं उपभोग की अपेक्षा से यह माना गया है कि यह लोक जीव या आत्मा के लिए है, क्योंकि सृष्टि का उपभोक्ता चेतन तत्त्व जीव ही है। जड़ तत्त्व में भोक्ता भाव का अभाव है। अतः जीव को लोक का स्वामी कहा गया है। किन्तु जहाँ तक सृष्टि के रचना घटको का प्रश्न है, पार्श्व यह मानते हैं कि यह सृष्टि जीव और अजीव अर्थात् जड़ और चेतन उभय से निर्मित है। पुन: लोकभाव की चर्चा करते हुए यह माना गया है कि यह सृष्टि अनादि और अनिधन होते हुए भी पारिणामिक है। सृष्टि की पारिणामिक नित्यता की यह अवधारणा जैन परंपरा में पार्श्व के काल से लेकर आधुनिक युग तक स्वीकृत रही है। इस संबंध में हम पूर्व में भी चर्चा कर चुके हैं। जैनों का यह दृष्टिकोण सृष्टि की यथार्थता को स्वीकार करने के साथ-साथ उसकी परिवर्तनशीलता को भी स्वीकार करता है। परिवर्तनों मेंअनुस्यूत नित्य तत्त्व की स्वीकृति जैनों की अपनी विशिष्टता है, जो प्रस्तुत वृत्ति में भी स्वीकार की गई है। जगत की यह परिवर्तनशीलात जीव और पुद्गल में किससे संबंधित है यह प्रश्न भी सृष्टि के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण है । जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं सांख्य आत्मा को अपरिवर्तशील मानता है२८ और प्रकृति को परिवर्तनशील मानता है, जबकि सामान्य रूप से जैन दार्शनिक और विशेष 28. "" भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, सांख्य दर्शन पृ. 169 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन रूप से पार्श्व जी व और पुद्गल दोनों को ही गतिशील या परिवर्तनशील मानते हैं२९ वे यह भी मानते हैं कि इस गतिशीलता या परिवर्तनशीलता के भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार आयाम है अर्थात् परिवर्तन भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों में ही घटित होता है। लोक के साथ-साथ लोक की इस परिवर्तनशीलता को भी अनादि अनिधन माना गया है अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता है कि लोक की यह परिवर्तनशीलता की प्रक्रिया कब से है और कब तक रहेगी। परिवर्तन की प्रक्रिया अनादिकाल से घटित हो रही है और अनन्त काल तक घटित होती रहेगी। पुनः जीव और पुद्गल दोनों की गतिशीलता को स्वीकार करते हुए भी पार्श्व ने स्पष्ट रूप से यह बताया है कि यहाँ जीव या चेतन तत्त्व स्वभावतः ऊर्ध्वगामी होता है वहाँ पुद्गल या जड़तत्त्व स्वभावतः अधोगामी होता है। दूसरे शब्दों में जहाँ जीव विकासोन्मुख है, वहाँ पुद्गल या जड़ में विकासोन्मुखता का अभाव है। इसीलिए जैनों की यह मान्यता है कि आत्मा पर कर्म का आवरण जितना घनीभूत होता है उतना ही आत्मा का विकास अवरूद्ध हो जाता है। पार्श्व यह भी स्पष्ट करते है कि पुद्गल की जो परिवर्तनशीलता है वह उसके स्वभाव में ही अनुस्यूत है किन्तु जीव में जो विकार और परिवर्तन घटित होते हैं वे मुख्यतया जीव या आत्मा के कर्म-संकल्प के परिणाम स्वरूप होते हैं। दूसरे शब्दों में जड़ तत्त्व की परिवर्तनशीलता स्वतः प्रसूत है, चेतन त्तव की परिवर्तनशीलता स्वतः प्रसूत न होकर वह जड़ तत्त्व अथवा कर्म के निमित्त से होती है। जीव में जो भी परिवर्तन घटित होते हैं, उनका निमित्त कारण तो पुद्गल का परिणाम ही है।३० व्याख्या की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि जीव में दो प्रकार के परिवर्तन घटित होते हैं-(1) अनुभूतिगत या ज्ञानगत और (2) संकल्पगत। बद्ध जीवों या संसारी जीवों में ये दोनों ही प्रकार के परिवर्तन होते हैं, जबकि मुक्तात्मा में केवल ज्ञानगत परिवर्तन होते हैं, किन्तु उनका निमित्त भी पौदगलिक परिवर्तन ही है इस प्रकार पार्श्व जीव या आत्मा में परिवर्तनशीलता को स्वीकार करके भी, उसे स्वतः परिवर्तनशील नहीं मानते, उसमें घटित परिवर्तनों का दायित्व भी पुद्गल में घटित परिवर्तन को ही मानते हैं। ___अन्त में पार्श्व यह कहते हैं कि जो इस परिवर्तनशील जगत के प्रपन को देखे हुए भी उसमें अनासक्त रहता है, वह संसार का अर्थात् भवभ्रमण का नाश कर 29. वही, पृ. 165, 66, 76 30. (अ) उद्धगामी जीवा अहेगामी पोग्गला। (ब) कम्मप्पभवा जीवा, परिणामप्पभवा पोग्गला। -'इसिभासियाई' 31/9(अ), पृ. 134 -वही, 31/9 (ब) पृ. 134 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी देता है और भवभ्रमणजन्य वेदना का भी नाश कर देता है और पुनः इस संसार में नहीं फंसता है।३१ सृष्टि के संबंध में श्री गिरि का दृष्टिकोण ___ 'ऋषिभाषित' के 37वें श्री गिरि नामक अध्ययन श्रीगिरि के सृष्टि संबंधी विचारों का प्रतिपादन निम्नरूप से हुआ है श्रीगिरि कहते हैं कि सबसे पहले जल था। उसमे अण्डा सन्तप्त हुआ अर्थात् अण्डा फूला। उससे यह लोक उत्पन्न हुआ और स्वसित हुआ अर्थात् चेतन सृष्टि उत्पन्न हुई-यह कुछ लोगों की मान्यता है। किन्तु श्री गिरि इस मान्यता से सहमत नहीं है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि यह जगत वरुण अर्थात् जल देवता का विधान नहीं है अर्थात् उससे निर्मित नहीं है। दूसरे शब्दों में, श्रीगिरि सृष्टि के जल से उत्पन्न होने अथवा वरुण के द्वारा सृष्ट होने के सिद्धांत से सहमत नहीं है। वे उस सिद्धांत से भी सहमत नहीं है, जो यह मानता है कि यह विश्व 'माया' है। दूसरे शब्दों में, श्री गिरि न तो यह सृष्टि को किसी देव विशेष द्वारा सृष्ट हुई ऐसा मानते हैं और न वे इसे माया से उत्पन्न नहीं मानते हैं। वस्तुतः वे सृष्टि के काल विशेष में सृष्ट होने के सिद्धान्त को नहीं मानते हैं। विश्व कभी नहीं था, ऐसा भी नहीं है। कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है और यह कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है अर्थात् यह विश्व अनादि से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस प्रकार वे सृष्टि के काल विशेष में निर्मित होने के सिद्धांत का खण्डन करते हैं। फिर भी इस अध्याय में हमें पार्श्व नामक अध्याय के समान यह चर्चा उपलब्ध नहीं होती है कि इस जगत के मूलतत्त्व क्या है? जगत के मूलतत्त्व और उसके स्वरूप के संबंध में इस अध्याय से हमें कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। सृष्टि के संबंध में उत्कलवादियों के विचार (अ) सृष्टि का भौतिकवादी दृष्टिकोण ऋषिभाषित के 20वें उत्कलवादी नामक अध्ययन में भौतिकवादियों के सृष्टि संबंधी विचारों को निम्न रूप से प्रस्तुत किया गया है-- ___ 'उत्कलवादी' नामक ऋषिभाषित के 20वें अध्याय में यद्यपि स्पष्टरूप से सृष्टि के उत्पत्ति और विनाश की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु इसमें यह कहा गया है कि-'पंचभूतों' का स्कन्ध होना ही संसार है और इनका पृथक-पृथक् हो जाना ही संसार परंपरा का उच्छेद है अर्थात् पंचमहाभूतों के समुदाय (स्कन्ध) से सृष्टि या 31. णिटिठतकरणिज्जे सन्ते संसारमग्गा मड़ाई णियण्ठे णिरूद्धपवंचे वोच्छिण्णसंसारे वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे ___ पहीणसंसारे पहीणसंसारवैयणिज्जे णो पुणरवि इच्चभं हव्वमागच्छति। -'इसिभासियाई' 31/3 गद्यभाग (इ) पृ. 135 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन विशेष रूप से चित्त सृष्टि उत्पन्न होती है और उन महाभूतों के पृथक् हो जाने पर सृष्टि का विनाश हो जाता हैं। इस प्रकार इस उत्कलवादी नामक अध्याय में सृष्टि के मूलतत्त्व के रूप में पांच महाभूतों की सत्ता का उल्लेख किया गया है और उन्हें ही सृष्टि का मूलभूत घटक माना गया है। (ब) उपर्युक्त भौतिकवादी दृष्टिकोण के अतिरिक्त इस अध्याय में सृष्टि के मूलतत्त्वों के संबंध में हमें एक शून्यवादी दृष्टिकोण भी उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि “समस्त उत्पन्न होने वाली सत्ताएँ तथ्य ( Real) नहीं है, अर्थात् यथार्थ नहीं है। न तो वे उत्पत्ति के पूर्व होती है और न विनाश के बाद ही उनका कोई अस्तित्व रहता है। विश्व में ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है, जो नित्य या शाश्वत हो। यह विचारधारा जगत को एक प्रक्रिया के रूप में तो अवश्य देखती है, किन्तु जगत के मूल में किसी नित्य शाश्वत सत्ता का अस्तित्व स्वीकार नहीं करती है । इस सिद्धांत के अनुसार संसार एक घटना है, उसके पीछे कोई भी मूलभूत नित्य तत्त्व नहीं है। संभवतः यह बौद्ध तत्त्वमीमांसा का प्राचीनतम रूप रहा हो, जिसके आधार पर उसका विकास हुआ हो। " 85 ऋषिभाषित में विविध ऋषियों के विचारों का संकलन होने से उसमें विविध प्रकार की तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएँ उपलब्ध होती है। अतः ऋषिभाषित को किसी एक ही दार्शनिक परंपरा या सिद्धांत का प्रतिपादक नहीं कहा जा सकता । तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से उसमें जो दार्शनिक सिद्धांत उपलब्ध है, उन्हें निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- ९. भौतिकवाद ऋषिभाषित के 20 वें अध्याय में हमें भौतिकवाद का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें संसार को पांच महाभूतों का समूह कहा गया है और यह भी माना गया है कि इन पांच महाभूतों के समुदाय से ही जीव की उत्पत्ति होती है। शरीर से पृथक् जीव या आत्मा नहीं है, अतः शरीर का नाश हो जाने पर संसार अर्थात् जन्म मरण की परंपरा का भी नाश हो जाता है, यद्यपि ये सभी विचार चार्वाकों के भौतिकवाद काही पूर्व रूप है। किन्तु इस भौतिकवाद की एक विशेषता यह है कि वह इन पंच महाभूतों के स्कन्ध और उनसे उत्पन्न शरीर के नष्ट होने पर यह संसार, परंपरा, भवगति या संसार सन्तति के विच्छेद का निर्देश करता है अर्थात् इसमें भी संसार चक्र से मुक्ति को ही चरम आदर्श माना गया है। इस प्रकार यद्यपि यहाँ भौतिकवाद का प्रतिपादित किया गया है किन्तु वह भौतिकवाद संसार के प्रति ममत्व के उन्मूलन के लिए है। उसमें यह माना गया है कि देह के विनाश के साथ ही संसार परंपरा का अन्त हो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जाता है अर्थात् मुक्ति हो जाती है। अतः ऋषिभाषित का यह भौतिकवाद, वह भौतिकवाद है, जो भेग का समर्थक न होकर के त्याग या निवृत्ति मार्ग का समर्थक है। क्योंकि अंत में यह कहा गया है कि पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुःख की संभावना का भी अभाव हो जाता है, पाप कर्मों का अभाव होने से शरीर के नाश होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती और इस प्रकार व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध एवं विरत-पाप होकर इस संसार में पुनः नहीं आता है।४९ २. जीव-शरीरवाद __ऋषिभाषित के 20 वें अध्याय में भौतिकवाद के साथ-साथ देहात्मवाद का भी प्रतिपादन मिलता है। उसमें कहा गया है कि ऊपर से लेकर चरमतल और नीचे से मस्तिष्क के केशाग्र तक इस आत्मा के ही पर्याय है, समस्त शरीर की त्वचापर्यन्त जीव है। इसी शरीर में यह जीव जीवन जीता है। इस प्रकार शरीर ही जीवन है, जिस प्रकार बीज के जल जाने पर फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती है।५१ जीव को पुण्य-पाप स्पर्श भी नहीं करते हैं५२ इस प्रकार यहाँ देहात्मवाद का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु इसके साथ-साथ इसमें जैन परंपरा में विकसित शरीर परिमाण आत्मा की अवधारणा का भी पूर्व रूप हमें मिल जाता है। यद्यपि यहाँ पर परलोक, और शुभाशुभ कर्मो के फल विपाक का निषेध किया गया है और उसके साथ ही साथ प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म) का भी निषेधा किया गया है किन्तु फिर भी इस देहात्मवाद के आधार पर भोगवादी जीवन दष्टि का समर्थन यहाँ नहीं देखा जाता है, संभवतः देहात्मवाद के प्रतिपादन का आशय भी यही था कि व्यक्ति वैराग्य की दिशा में आगे बढ़े। इस प्रकार ऋषिभाषित का भौतिकवाद और देहात्मवाद निवृत्ति मार्गी परंपरा का ही पौषक हैं भोगवाद का नहीं। सन्ततिवाद सन्ततिवाद बौद्ध दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। जो दार्शनिक सत् की व्याख्या परिवर्तनशील तत्त्व के रूप में करते हैं, उनके अनुसार किसी भी नित्य और 49. एवामेव दड्ढे सरीरे तम्हा पुण्णपावऽग्गहण सुहदुक्खसंभवाभावा सरीरदाहे पावकम्माभावा सरीरं डहेत्ता णो पुणो सरीरुप्पती भवति। -'इसिभासियाई'.....20/गद्यभाग पृ. 76 50. उड्ढं पायतला अहे केसग्गमत्थका एस आयाप तयपरितन्ते एस जीवे। एस मडे, णो एतं तं -वही, 20/गद्यभाग पृ76 51. से जहा णामते दड्ढेसु बीएसु, ण पुणो अंकुरुप्पत्ती भवति, एवामेव दड्ढे सरीरेण पुणो सरीरुप्पत्ती भवति। -वही, 20/गद्यभाग 52. णस्थि सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे। -वही, 20/गद्यभाग Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 87 निर्विकार सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। किंतु यदि सत् परिवर्तशील है, तो वह त्रिकाल में एक रूप में नहीं हो सकता और जो त्रिकाल में एक रूप नहीं है, उसे सत् कहलाने का अधिकार भी नहीं है। जो दार्शनिक एकान्त रूप से परिवर्तनशीलता के. समर्थक हैं वे यह मानते हैं कि कोई भी वस्तु नित्य नहीं है, अपितु वह अपने सत्ता काल में नयी वस्तु को जन्म देकर समाप्त हो जाती है। पुनः वह उत्पन्न वस्तु एक नयी वस्तु को जन्म देकर समाप्त हो जाती है। इस प्रकार से केवल संतति प्रवाह बना रहता है। अतः ये विचारक किसी नित्य वस्तु को न मानकर संतति के आधार पर ही जगत की परिवर्तनशीलता की व्याख्या करते हैं जिस प्रकार से संतान परंपरा से कोई वंश चलता रहता है उसी प्रकार संतान परंपरा से यह जगत भी चलता रहता है। वस्तुतः कोई नित्य तत्त्व नहीं है, एक पर्याय दूसरी पर्याय को जन्म देकर विनाश को प्राप्त होती रहती है। इस प्रकार से उत्पत्ति और विनाश का क्रम चलता रहता है। जीवन और जगत के संदर्भ में इस उत्पत्ति और विनाश के क्रम को स्वीकार करना ही संततिवाद है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन में बौद्ध परंपरा में इस संततिवाद की स्थापना हुई है। जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है उसमें संततिवाद की चर्चा वज्जियपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में, महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में, तथा सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में हुई है। महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में कहा गया है कि पूर्वकृत पुण्य और पाप ही संसार संतति का मूल है।५३ जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परंपरा चलती है, उसी प्रकार संसार में संतति प्रवाह चलता है। जिस प्रकार अण्डे और बीज की विविधता के आधार पर विभिन्न प्रकार के पक्षी और धान्य उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार से देहधारियों के विविध कर्मों से नाना प्रकार के वर्ण और संतानों की उत्पत्ति होती है५४ जिस प्रकार तेल और बत्ती के समाप्त होने पर दीपक की संतति या लो परंपरा समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार आदान और बंध का अभाव होने पर भव संतति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार संतति का बना रहना संसार है और संतति का समाप्त हो जाना निर्वाण है। जिसकी चित्त संतति समाप्त हो जाती है, वह निर्वाण को प्राप्त जाता है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ऋषिभाषित में संततिवाद के जो संकेत सूत्र उपस्थित है, वे मुख्यतया कर्म संतति की ही चर्चा करते हैं। कर्म संतति से उनका तात्पर्य यह है कि एक कर्म से दूसरा कर्म और दूसरे से तीसरा इस प्रकार कर्म परंपरा 53. संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं। पुण्ण पाव निरोहाय, सम्मं संपरिव्वए।। -'इसिभासियाई' 9/5 54. जहा अंडे जहा बीए, तहा कम्म सरीरिण। संताणे चेव भोगे य, नाणावण्णत्तमच्छईं। -वही, 9/9 55. णेहवत्तिक्खए दीवो, जहा चयति संतति। आयाणबंधरोहम्मि, तहऽप्पा भवसंतई। -वही, 922 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी चलती रहती है। किंतु तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से संततिवाद वह सिद्धांत है, जो किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार न करें समस्त जगत को एक प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करता है। संततिवाद के अनुसार जगत एक प्रक्रिया है। चित् और अचित् सभी वस्तुतः एक प्रक्रिया मात्र है अतः आत्मा और पदार्थ की भी प्रक्रिया से भिन्न कोई सत्ता नहीं है। संततिवाद जगत की व्याख्या एक कार्य कारण व्यवस्था के रूप में करता है। कार्य कारण की श्रृंखला का सतत रूप से चलते रहना यही संसार है और उसी शृंखला का समाप्त हो जाना यही निर्वाण है। ऋषिभाषित अपनी संततिवाद की विवेचना में मुख्यरूप से तो कर्म संतति की चर्चा करता है, किन्तु कर्म संततिवाद भी अंततोगत्वा तो इसी तत्त्वमीमांसीय निष्कर्ष पर पहुँचता है कि समस्त संसार एक प्रक्रिया या प्रवाह है। वस्तुतः संततिवाद निरपेक्ष अनित्यवावाद के संदर्भ में जगत् को व्याख्यायित करने की एक शैली है। जब हम परिवर्तशीलात को ही सत् का एकमात्र लक्षण मान लते हैं तो हमें यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि यह संसार परिवर्तनशील प्रपंचों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। संसार अनंत धाराओं का एक प्रवाह है और प्रत्येक धारा संतति प्रवाह के रूप में ही प्रवाहित होती रहती है। संसार में न तो ऐसा कुछ है जो नित्य हो और न ऐसा कुछ ही है जो अकारण हो। कार्य कारण की एक श्रृंखला होती है, जिसमें प्रत्येक कारण कार्यरूप में और प्रत्येक कार्य कारण रूप में परिवर्तित होता रहता है। कार्य कारण की इस श्रृंखला को ही हम संततिवाद कह सकते हैं। इसे ही बौद्ध-परंपरा में प्रतीत्यसमुत्पाद भी कहा गया है। दार्शनिक दृष्टि से क्षणिकवाद, कार्य-कारणवाद, प्रतीत्य-समुत्पाद-ये सभी संततिवाद की अवधारणा का विकास है। प्रतीत्यसमुत्पाद और संततिवाद ही आगे चलकर शून्यवाद का रूप ले लेता है। शून्यवाद शून्यवाद बौद्ध दर्शन का एक विकसित सिद्धांत है। शून्यवाद में किसी भी निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता नहीं मानी गई है, इस सिद्धांत के अनुसार समग्र अस्तित्व सापेक्षिक है और कोई भी ऐसी सत्ता नहीं है, जो त्रिकाल में अपरिवर्तित नित्य और शाश्वत हों। ऋषिभाषित में इस प्रकार के शून्यवाद का हमें कोई भी निर्देश प्राप्त नहीं होता, क्योंकि दार्शनिक शून्यवाद एक परवर्ती विकसित सिद्धांत है और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन ग्रंथ में उसकी उपस्थिति संभव भी नहीं है। फिर भी शून्यवाद की अवधारणा का मूल बीज हमें ऋषिभाषित के बीसवें उत्कलवादी नामक अध्याय में मिल जाता है। यहाँ पांच प्रकार के उत्कलवादी उल्लेखित है- (1) दण्डोत्कल, (2) रज्जोत्कल, (3) स्तेनोत्कल, (4) देशोत्कल और (5) सर्वोत्कल।५६ इसमें 56. पंच उक्कला पण्णता तंजहा: दण्डक्कले? रज्जुक्कले 2. तेणुक्कले, 3. देसुक्कले, 4. सव्वुक्कले 5 __ -इसिभासियाई, 20/गद्यभाग Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 89 रज्जूत्कलवादियों का प्रश्न है, वे आत्मा-अकर्तावादी सांख्यों की अवधारणा को ही प्रस्तुत करते हैं, किन्तु सर्वोत्कलवाद हमें शून्यवाद का ही हमें पूर्वरूप लगता है। उसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि सर्वोत्कल किसे कहते हैं, उसके उत्तर में कहा गया है कि "सर्वोत्कलवाद उसे कहते हैं, जो यह मानता है कि समस्त पदार्थ, जो उत्पन्न होते हैं वे तत्त्व नहीं है।" सर्वथा सब प्रकार से सर्वकालों में उनका अस्तित्व नहीं है। सभी उच्छेद स्वभाव वाले हैं।५७ इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी नित्य शाश्वत और सर्वकालिक तत्त्व की सत्ता नहीं। वस्तुतः यह सर्वोच्छेदवाद अर्थात् समस्त पदार्थों को उच्छेद स्वभाव वाला मानना निरपेक्ष-अनित्यतावाद और उसके ही दार्शनिक रूप शून्यवाद का पूर्वरूप है। यह सत्य है कि बौद्धों का जो क्षणिकवाद है, उसी से शून्यवाद का विकास हुआ है और बौद्धों के इस क्षणिकवाद के मूल में भी उच्छेदवाद का तत्त्व समाया हुआ है। यद्यपि स्वयं बुद्ध अपने को उच्छेदवादी नहीं कहते थे-उनका क्षणिकवाद और किसी नित्य सत्ता की अस्वीकृति उन्हें उच्छेदवादियों के निकट तो बैठा ही देती है। ऋषिभाषित इसी उच्छेदवादी शून्यवाद का विवेचन सर्वोत्कलवाद के रूप में करता है। स्कन्धवाद यद्यपि बौद्ध परंपरा में जिस स्कन्धवाद का विवेचन हमें उपलब्ध होता है वह मुख्यरूप से चेतनतत्त्व या व्यक्ति की व्याख्या के रूप में हैं। उसमें व्यक्तित्व को पंचस्कन्धों का समूह बताया गया है। वे पंचस्कन्ध निम्न है।५८ 1- रूप 2- वेदना 3- संज्ञा 4- संस्कार 5- विज्ञान (चेतना) ऋषिभाषित में इस प्रकार के स्कन्धवाद का विवेचन तो हमें उपलब्ध नहीं होता है किन्तु उसमें हमें रज्जोत्क्लवाद की चर्चा करते हए यह बताया गया है कि "जिस प्रकार रज्जू तंतुओं का समुदाय मात्र है उसी प्रकार यह जीव पंचमहाभूतों का स्कन्ध मात्र है।५९" इस पंचमहाभूत रूप स्कन्ध का विनाश होने पर संसार परंपरा का 57. से किं तं सव्वुक्कले? सव्वुक्कले णाणं जे णं सव्वतो सव्वसंभवा भावा णो तच्चं, सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च णत्थि" ति सव्वच्छेदं वदति। से तं सव्वुक्कले। -'इसिभासियाई' 20/5 58. "भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, पृ. 10 59. से किं तं रज्जुक्कले? रज्जुक्कले णाम जे णं रज्जुदिट्ठन्तेणं समुदयमेत पण्णवणाए पंचमहब्भूतखन्धमत्ता भिधाणाई संसारसंसतिवोच्छेयं वदति। से तं रज्जुक्कले। -'इसिभासियाई 202 गद्यभाग Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी भी विनाश हो जाता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में प्रतिपादित स्कन्धवाद बौद्धों के विकसित स्कन्धवाद की अपेक्षा चार्वाकों के पंचमहाभूत रूप शरीर से जीव की उत्पत्ति के सिद्धांत के निकट है, फिर भी इसे बौद्ध परंपरा के स्कन्धवाद का एक पूर्व रूप तो कहा ही जा सकता है। आत्म-अकर्तावाद __ ऋषिभाषित में अन्य जिस दार्शनिक सिद्धान्त का उल्लेख हमें मिलता है वह आत्म अकर्तावाद का सिद्धान्त है। ऋषिभाषित में इसे देशोत्कलवाद के रूप में प्रतिपादित किया गया है। उसमें कहा गया है कि "जो आत्मा के अस्तित्व को मानकर भी उसे अकर्ता कहते हैं वे आत्मा के एकदेश अर्थात् उसके कर्तृत्त्व गुण का उच्छेद मानते हैं।६० वस्तुतः यह सिद्धान्त सांख्यों और वैदान्तियों का ही पूर्वरूप प्रतीत होता है। ऋषिभाषितकार इसे देशोच्छेदवाद (आंशिक उच्छेदवाद) इसलिए कहता है कि इस मान्यता को ग्रहण करने पर बंधन और मुक्ति को स्वीकार करना संभव नहीं होता है। यदि आत्मा अकर्ता है तो फिर बंधन, मोक्ष, पुण्य-पाप आदि नैतिक अवधारणाएँ अर्थ रहित हो जाती है। धर्म और भक्ति का उपदेश भी कोई अर्थ नहीं रखता, संभवतः इसी कारण ऋषिभाषितकार ने उन्हें देशोच्छेदवादी कहा है। पंचास्तिकायवाद ऋषिभाषित में जैन परंपरा का यदि कोई दार्शनिक सिद्धांत हमें उपलब्ध होता है तो वह पंचास्तिकायवाद का सिद्धान्त है। ऋषिभाषित में पंचास्तिकायवाद का सिद्धांत पार्श्व नामक अध्ययन में प्रस्तुत किया गया है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व जैन परंपरा में महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर माने गए हैं। पंचास्तिकायवाद जैन तत्त्वमीमासा का प्रमुख सिद्धांत है। ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्याय मे इस सिद्धांत का प्रतिपादन है। कहा गया है कि "यह लोक पंचास्तिकायों से बना हुआ है और ये पंचास्तिकाय कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होते, इसलिए यह लोक भी नाश को प्राप्त नहीं होता है।"६१ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि पंचास्तिकाय का सिद्धांत पंच महाभूतों के सिद्धांत से पृथक् है। ये पंचास्तिकाय निम्न माने गए हैं 1. धर्मास्तिकाय 2. अर्धास्तिकाय 60. से किं तं "देसुक्कले"? देसुक्कले णाम जे णं "अस्थि न्नेसं" इति सिद्धे जीवस्स अकत्तादिएहिं गाहेहिं देसुच्छेदं वदति। से तं देसुक्कले। -'इसिभासियाई 20/4 गद्यभाग 61. से जहाणामते पंच अस्थि काया ण कयाति णासी जाव णिच्चा एवामेव लोके विण कयाति णासी जाव णिच्चे। -वही, 31/गद्यभाग पृ. 138 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 91 3. आकाशास्तिकाय 4. जीवास्तिकाय 5. पुद्गलस्तिकाय इन्हें अस्तिकाय इसलिए कहा जाता है कि ये प्रसार गुण से युक्त है। जिसे पारम्परिक शब्दावली में बहुप्रदेशत्व होना कहा गया है। यद्यपि पंचास्तिकायों में केवल पुद्गल को मूर्त माना गया है, शेष चारों अमूर्त है। फिर भी यह माना जाता है कि वे प्रसार गुण युक्त हैं क्योंकि यदि जीव को विस्तारवान नहीं माना जायेगा तो वह शरीर को व्याप्त करके नहीं रह सकेगा। जहाँ तक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का प्रश्न है इन्हें क्रमशः गति और स्थिति के सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यदि धर्मस्तिकाय और अधर्मस्तिकाय को लोक में विस्तार युक्त नहीं माना जायेगा, तो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति संभव नहीं होगी। ये दोनों द्रव्य लोकव्यापी माने गए हैं। क्योंकि जीव और पुद्गल भी लोकव्यापी ही है। यदि ये धर्म और अधर्म लोक का अतिक्रमण करके अलोक में व्याप्त होते तो लोक की व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती। आकाश सभी द्रव्यों को स्थान देने वाला माना गया है, इसलिए उसका विस्तार भी आवश्यक है। यदि आकाश विस्तार गुण युक्त नहीं होगा तो वह जीव पुद्गल आदि को कोई स्थान नहीं दे सकेगा। आकाशास्तिकाय का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों माना गया है। क्योंकि लोक भी आकाश में रहा हुआ है इसलिए आकाश लोक के अंदर और लोक के बाहर भी प्रसार युक्त है।. इस प्रकार से ये पाँचों तत्त्व प्रसार गुण युक्त माने गए हैं और ये प्रसार गुण से युक्त होने के कारण ही इन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। ऋषिभाषित मात्र पंचास्तिकाय का निर्देश करता है और यह बताता है कि वे नित्य हैं और उनकी नित्यता ही लोक की नित्यता का आधार है। इससे अधिक वह इनके संबंध में कोई विस्तृत चर्चा नहीं करता। किन्तु परवर्ती जैन साहित्य में हमें इनके संबंध में विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। फिर भी हमारे अध्ययन का विषय ऋषिभाषित तक सीमित होने के कारण हम इनके संबंध में अधिक विस्तार में जाना आवश्यक नहीं समझते हैं। फिर भी इतना सत्य है कि जैन दर्शन में यह सिद्धांत स्पष्टतया उपस्थित है। ग्रंथकार ने पंचास्तिकायों को अविनाशी और नित्य कहा है और यह माना है कि इनके अविनाशी और नित्य होने के कारण यह लोक भी अविनाशी और नित्य है।६२ यदि लोक के घटक अर्थात् पंचास्तिकाय नित्य है तो स्वाभाविक रूप से उनसे निर्मित यह विश्व भी नित्य होगा। फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि इनकी नित्यता का तात्पर्य कूटस्थ नित्यता नहीं है-परिणामी नित्यता है क्योंकि कूटस्थ नित्यता में मानने 62. लोएणकतई णासी कताइण भवति ण कताइ ण भविस्सति। -'इसिभासियाई' 31/गद्यभाग पृ. 138 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पर उन्हें सष्टि प्रक्रिया से नहीं जोड़ा जा सकेगा। जैनों ने इसीलिए इन्हें परिणामी नित्य माना था। यद्यपि इन पांच अस्तिकायों में से जीव और पुद्गल दोनों के गतिशील होने की चर्चा ऋषिभाषित में की गई है।६३ धर्म, अधर्म और आकाश की गतिशीलता की कोई चर्चा ऋषिभाषित में नहीं है। वस्तुतः धर्म, अधर्म और आकाश से सृष्टि प्रक्रिया के निष्क्रिय तत्त्व ही हैं। ये मात्र सृष्टि में निष्क्रिय रूप से ही सहायक होते हैं, जबकि पुद्गल और जीव सक्रिय रूप से सृष्टि प्रक्रिया के भागीदार होते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश में जैनों ने जो परिणमन माना है वह जीव और पुद्गल की गतिशीलता के कारण ही माना है। _ यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित में जीव को ऊर्ध्वगतिवाला और पुद्गल को अधोगतिवाला बताया हैं।६४ जीव जिस सीमा तक पुदगल से आबद्ध होता है उस सीमा तक वह अधोगामी बनता है, और जिस सीमा तक वह पुद्गल की गति का प्रेरक होता है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाता है। अतः जीव में जो अधोगामी गति है वह पुद्गल के कारण है और पुद्गल में जो ऊर्ध्वगामी गति है, वह जीव के कारण है। धर्म, अधर्म और आकाश जो परिवर्तनशीलता देखी जाती है वह पुद्गल और जीव की गति और स्थिति के कारण होती है। जीव और पुद्गल की इस गति और स्थिति के कारण क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है। डॉ. सागरमल जैन ने इन पंचास्तिकायों पर अपने स्वतंत्र लेख में विस्तार से प्रकाश डाला है।५ किन्तु वह समस्त चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। प्रस्तुत विवेचना में इतना बताना ही अपेक्षित है कि ऋषिभाषित के पार्श्व नाम अध्ययन में पंचास्तिकाय की अवधारणा प्रस्तुत है। ऋषिभाषित में वर्णित गति का सिद्धान्त ऋषिभाषित के इकतीसवें पार्श्व नामक अध्याय में गति के सिद्धान्त की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम यह बताया गया है कि जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व गतिशील है। पुनः गति के प्रकारों को स्पष्ट करते हुए पुनः यह कहा गया है कि यह गति दो प्रकार की होती है-- 1. प्रयोग गति और 2. विनसा गति।६ यहाँ हमें प्रयोग गति और विनसा गति का अर्थ समझ लेना चाहिये-वस्तु में जो स्वाभाविक रूप से गति होती है, वह विनसा गति कहलाती है। जबकि अन्य के निमित्त से जो गति होती है वह प्रयोग गति कहलाती है। ऋषिभाषित में पार्श्व ने 63.. जीवा चेव गमण परिणता पोग्गला चेव गमणपरिणता। -वही, 31/6 गद्यभाग 64. उड्ढंगामी जीवा, अधोगामी पोग्गला। -'इसिभासियाई' 31/9 गद्यभाग 65. अस्तिकाय की अवधारणा, दार्शनिक त्रैमासिक, वर्ष अंक 66. दुविधा गती- पयोगगती य विससा गती या -'इसिभासियाई 31/6 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन यह माना है कि जीव और पुद्गल दोनों ही न केवल गति युक्त है, अपितु उनसे दोनों ही प्रकार की अर्थात् प्रयोगगति और विनसा गति पाई जाती है। पुद्गल जीव की प्रयोग गति का कारण होता है और जीव पुद्गल की प्रयोग गति का कारण होता है। प्रयोग गति का तात्पर्य किसी अन्य से प्रेरित होकर गति करना है, न कि स्वभाविक रूप से। जो स्वाभाविक गति होती है, वह विनसा गति कहलाती हैं। जबकि अन्य के निमित्त से जो गति होती है वह प्रयोग गति कहलाती है। ऋषिभाषित में पार्श्व ने यह माना है कि जीव और पुद्गल दोनों ही न केवल गति युक्त है, अपितु उनसे दोनों ही प्रकार की अर्थात् प्रयोग गति और विनसा गति पाई जाती है। पुद्गल जीव की प्रयोग गति का कारण होता है और जीव पुद्गल की प्रयोग गति का कारण होता है। प्रयोग गति का तात्पर्य किसी अन्य से प्रेरित होकर गति करना है न कि स्वभाविक रूप से। यदि हम गहराई से विचार करें तो यह पाते हैं कि इस व्याख्या के माध्यम से पार्श्व ने सृष्टि की गतिशीलता के निमित्त कारण और उपादान कारण की चर्चा भी कर दी है। पुनः गति या परिवर्तनशीलता के इस प्रसंग में यह भी बताया गया है कि जीवों की गति कर्मप्रसूत होती है और पुद्गलों की गति परिणाम प्रसूत होती है। इस गति की प्रक्रिया को पार्श्व ने अनादि और अनंत कहा है।६८ पुनः गति के प्रकारों की चर्चा करते हुए ऋषिभाषित में चार प्रकार की गतियों की चर्चा की गई है९ - 1. द्रव्य गति 2. क्षेत्र गति 3. काल गति और 4. भाव गति वस्तु तत्त्व में जो भी परिवर्तन घटित होता है उसे द्रव्य गति कहते हैं। वस्तु तत्त्व जब कोई स्थान परिवर्तन करता है, तब वह गति क्षेत्रगति कही जाती है। क्षेत्रगति द्रव्य का एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होने का नाम है। कालगति का तात्पर्य समय संबंधी परिवर्तन है। भूत, भविष्य और वर्तमान संबंधी जो कालिक परिवर्तन है, वे कालगति कहे जाते हैं। 67. कम्मप्पभवा जीवा, परिणामप्पभवा पोग्गला। ___-'इसिभासियाई' 31/9 गद्यभाग 68. अणादीए अणिधणे गतिभावे। -'इसिभासियाई'31/8 69. जीवाणं पुग्गलाणं चेव गति दव्वतोगति, खेतओगति, कालओ गती, भावओ गती -वही,31/7 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक भाव गति का प्रश्न है, वस्तु का स्वतः होने वाला पर्याय परिवर्तन भाव गति है। जीव के संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि हमारे मनोभावों और वृत्तियों में जो परिवर्तन होता है, वह भाव गति कहलाती है। पुनः इसी अध्याय में औदयिक और पारिणामिक गति की चर्चा हुई है । ७° और उसे गति भाव कहा गया है। पूर्व संस्कारों के कारण जो विभिन्न अवस्थाएँ होती है, वै औदयिक गति कही जाती है, जबकि वस्तु के स्वाभाविक परिवर्तनशीलता नामक गुण के द्वारा जो परिवर्तन घटित होते हैं, वे परिणामिक गति भाव कहलाते हैं । ७१ इससे यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के अनुसार गतिशीलता स्वाभाविक भी होती है और अन्य निमित्तों से भी होती है। पंचास्तिकायों में जीव और पुद्गल दोनों में स्वाभाविक और नैमित्तिक दोनों प्रकार की गतिशीलता पायी जाती है। जबकि धर्म, अधर्म और आकाश में नैमित्तिक गति पायी जाती है। नैमित्तिक गति की उनमें संभावना होने के कारण ही धर्म, अधर्म और आकाश को परिणामी कहा गया है; क्योंकि चाहे वस्तुतत्त्व में परिवर्तन स्वतः हो या परतः, जहाँ भी परिवर्तन घटित होता है उसे परिवर्तनशील मानना ही होगा। 94 (4) -0 70. उदइय परिणामिए गतिभावे । 71. कम्मं पप्प फल विवाको जीवाणं परिणामं पप्प फलविवाको पोग्गलाण । - इसि भासियाई, 31/8 -वही, 31/9 गद्यभाग (स) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 95 चतुर्थ अध्याय ऋषिभाषित में वर्णित कर्म सिद्धांत कर्म सिद्धान्तः नैतिकता की पूर्वमान्यता कर्म सिद्धांत नैतिकता की एक पूर्वमान्यता है। अतः नैतिता के प्रति आस्था के बनायें रखने के लिए सभी भारतीय चिन्तकों ने प्रकारान्तर से कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। भारत के श्रमण और वैदिक सभी दर्शन कर्म सिद्धांत को स्वीकार करके चलते हैं। यद्यपि यह एक अलग प्रश्न है कि वे कर्म के स्वरूप को चैतसिक मानते हैं या उसे जड़-पुद्गल के रूप में स्वीकार करते हैं अथवा वे कर्म में स्वयं फल प्रदान करने की शक्ति को स्वीकार करते हैं अथवा यह मानते हैं कि कर्म के अनुसार फल प्रदान करने का कार्य ईश्वर का है। कर्म स्वतः फलप्रदाता जहाँ तक भारतीय श्रमण परंपराओं का प्रश्न है वे सभी कर्म में स्वयं फल देने की सामर्थ्य को स्वीकार करती हैं और कर्म ने फल प्रदान का दायित्व ईश्वर पर नहीं डालती है। जिन श्रमण परंपराओं ने साधना के आदर्श के रूप में ईश्वर को स्वीकार भी किया उन्होंने भी कर्म फल प्रदान करने का दायित्व ईश्वर पर नहीं डाला। इस संदर्भ में यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि वैदिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन भी कर्म में स्वतः फल प्रदान करने की शक्ति को स्वीकार करता है। जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है वह मुख्यतया श्रमण परंपरा के इसी दृष्टिकोण का अनुगमन करता है कि कर्म अपनी शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार स्वतः ही शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। ऋषिभाषित के दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति स्वभावतः भागता है उसी प्रकार जीव कर्म का अनुगमन करता है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार भय के साथ पलायन की प्रवृत्ति जुड़ी हुई है उसी प्रकार जीवों की शुभाशुभा प्रवृत्ति उनके पूर्व कर्मों का अनुगमन करती है। इसी 1. जम्मं जरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा। अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती।। -'इसिभासियाई' 21/5 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अध्याय में आगे यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कर्म से युक्त व्यक्ति ही अपने स्वकृत कर्मों के आधार पर जन्म मरण करता रहता है। कर्म परंपरा की अनादिता पुनः कर्म की यह शृंखला किस प्रकार चलती रहती है इस प्रश्न को लेकर ऋषिभाषित में पर्याप्त गहराई से चिंतन किया गया है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार बीज से अंकुर उत्पन्न होता है और अंकुर से पुनः बीज बनता है उसी प्रकार बीज भूतपूर्व कर्म संस्कार नवीन कर्मों को जन्म देते है और वे नवीन कर्म पुनः कर्म संस्कार के रूप में परिणित होकर भविष्य में कर्म प्रवृत्तियों का कारण बनते हैं। जिस प्रकार बीज और अंकुर की यह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है उसी प्रकार कर्म की यह प्रक्रिया भी सतत रूप से चलती रहती है। पुराने कर्म संस्कार अपने फल विपाक के रूप में नवीन-नवीन शुभाशुभ कर्म प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं और वे शुभाशुभ कर्म प्रवृत्तियाँ कर्म संस्कार का रूप लेकर पुनः भावी कर्म प्रवृत्तियों की कारण बनती है। वस्तुत: कर्म और उनके फल विपाक की यह सतत प्रक्रिया ही संसार का कारण होती है। ऋषिभाषित में कहा गया है कि अनादि संसार में कर्म ही बीज के समान है और उन कर्म बीजों से मोहग्रस्त चित्त वाले प्राणियों की कर्म संतति अर्थात् कर्म परंपरा सतत रूप से चलती रहती है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह कर्म परंपरा यदि सतत रूप से चलती ही रहती है तो फिर व्यक्ति संसार से परिनिर्वाण को कैसे प्राप्त हो सकता है? यदि पूर्व काल के कर्म संस्कार अपरिहार्य रूप से नवीन कर्मों को जन्म देते हैं और वे नवीन कर्म पुनः कर्म संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी शुभाशुभ कर्मों का कारण बनते रहते है, तो ऐसी स्थिति में यह कर्म प्रक्रिया या कर्म संतति समाप्त नहीं हो सकती। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में इस प्रश्न को उठाया गया है। विशेष रूप से दूसरे अध्याय की छठी गाथा में, तेरहवें अध्याय की चौथी गाथा में, पंद्रहवें अध्याय की सातवीं गाथा में और पच्चीसवें अध्याय की पहली गाथा में इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार मूल (जड़) का सिंचन करने से फल उत्पन्न होता है किन्तु मूल को नष्ट कर देने -'इसिभासियाई' 2/1 1. जस्स भीता पलायन्ति, जीवाकम्माणुगामिणो। तमेवाऽऽदाय गच्छन्ति, किच्चा दिन्नं व वाहिणी।। 2 गच्छति कम्मेहि सेऽणबढे पणरवि आयाति से सयंकडेण। जम्मण-मरणाई अटे, पुणरवि आयाइ से सकम्मसित्ते।। 3. बीया अंकुरणिप्फत्ती, अंकुरातो पुणो बीय। बीए संबुज्झमणम्मि, अंकुरस्सेव संपदा।। 4. बीयभूताणि कम्माणि, संसारम्मि अणादिए। मोहमोहितचित्तस्स, तत्तो कम्पाणं संतति।। -वही, 2/3 -वही, 2/4 -इसिभासियाई 2/5 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 97 पर फल भी नष्ट हो जाता है । " वस्तुतः फल का अभिलाषी ही मूल को सिंचता है, किन्तु जिसे फल की आकांक्षा नहीं है वह मूल को नहीं सींचता है।" इसका तात्पर्य यह है कि जब तक फलाकांक्षा बनी रहती है तबतक कर्म और उनके विपाक की यह परंपरा सतत रूप से चलती रहती है। किन्तु जब कर्म से फलाकांक्षा निकल जाती है तो वे कर्म निष्फल होकर कर्म परंपरा को आगे बढ़ाने में असमर्थ हो जाते हैं, जिस प्रकार जड़ का छेदन कर देने से वृक्ष और उससे उत्पन्न होने वाली बीज और अंकुरों की परंपरा ही समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार कर्म की मूल फलाकांक्षा को समाप्त कर देने पर कर्म प्रक्रिया भी स्वतः समाप्त हो जाती है। ऋषिभाषित में इस फलाकांक्षा के कारण भी विचार किया गया है और कहा गया है कि संसार में सभी प्राणियों के अनिर्वाण का कारण मोह है समस्त दुःख और जन्म-मरण की समस्त प्रक्रिया मोहमूलक है। " वस्तुतः मोह या अज्ञान के वशीभूत होकर जीव फलाकांक्षा से कर्म करता है और वे फलाकांक्षा से किये गये कर्म ही उसके संसार परिभ्रमण पर्व दुःख का कारण बनते हैं, अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि " वह कर्म को अर्थात् कर्म की फलाकांक्षा को समूल रूप से नष्ट कर दें। "" कर्म फल- विपाकः स्वकृत या परकृत व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल या विपाक को प्राप्त करता है अथवा परकृत कर्म के फल के विपाक को प्राप्त करता है यह प्रश्न कर्म सिद्धान्त के संदर्भ में अति महत्त्वपूर्ण है। ऋषिभाषित के दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्ययन में तथा इक्कीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में इस प्रश्न पर विचार किया गया हैं। उसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जीव पुनः पुनः शुभाशुभ कर्मों को करके उन स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के फल को भोक्ता है किन्तु परकृत अर्थात दूसरों के द्वारा किये गये कर्म के फल को नहीं भोगता है।" इसी प्रकार दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्याय में भी कहा गया है, कि व्यक्ति स्वकृत कर्म या कर्मों से अनुबद्ध एवं प्रतिबद्ध होकर चलता है । स्वकृत कर्मों के द्वारा ही पुन: इस संसार में आता है। स्वकृत कर्मों से सिंचित जन्म और मृत्यु आदि के दुःखों को पुनः पुनः प्राप्त करता है और संसार में परिभ्रमण करता है।" इस 5. 6. 7. 2. 9. मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलाघाते हतं फलं । फलत्थी सिंचती मूलं, फलघाती ण सिंचती ।। 'इसिभासियाई' 2/6 मोहमूलमणिव्वाणं, संसारे सव्वदेहिणं । मोहमूलाणि दुक्खाणि, मोहमूलं च जम्मणं । दुःखमूलं च संसारे, अण्णाणेण समज्जितं। मिगारि व्व सरुप्पत्ती, हणे कम्माणि मूलतो ।। कष्पं पष्प फलविवाको जीवाणं, परिणामं पप्प फलविता को पोग्गलाण | 10. गच्छन्ति कहिं ....... से सकम्मसित्ते । - 'इसिभासियाई' 2/6 -वही, 2/7 - वही, 2/8 -वही, 31/9 गद्यभाग (स) - वही, 2/3 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित स्पष्टरूप से इस मान्यता को स्थापित करता है कि व्यक्ति स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के ही फल को प्राप्त करता है। __ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में भी स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि “जीव आत्मकृत कर्मों का ही भोग करता है। परकृत कर्मों के फल का भोग नहीं करता है।"११ जैन आगम भगवती सूत्र में प्राणी किन कर्मों के फल का भोग करता है इस संदर्भ में एक त्रिभंगी प्रस्तुत की गई है।१२ 1-जीव स्वकृत कर्मों के फल का भोग करता है 2-जीव परकृत कर्मों के फल का भोग करता है। 3-जीव स्वकृत और परकृत दोनों ही प्रकार के कर्मों का भोग करता है। उपर्युक्त तीनों विकल्पों में से जहाँ ऋषिभाषित एवं जैन दर्शन मात्र प्रथम विकल्प को स्वीकार करता है।१३ वहीं शून्यवादी बौद्ध दर्शन उपर्युक्त तीनों विकल्पों में से अपने अनात्मवादी और क्षणिकवादी दृष्टिकोण को आधार पर चतुर्थ विकल्प स्वीकार करता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट लगता है कि परवर्ती जैन दर्शन में भी ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व के इस दृष्टिकोण का ही प्रभाव देखा जाता है कि जीव स्वकृत कर्म के शुभाशुभ फल को भोगता है, परकृत कर्म के फल को नहीं भोगता है। जबकि बौद्ध दर्शन स्वकृत अशुभ और स्व-परकृत शुभ फल को भोगता है, ऐसा माना गया है। जहाँ तक हिंदू परंपरा का प्रश्न है उसमें स्व-परकृत शुभाशुभ कर्म का भोग मानता है। कर्मफल संविभाग इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ एक प्रश्न कर्मफल के संविभाग से संबंधित भी है। इस संबंध में हमें भारतीय धर्म एवं दर्शनों में तीन प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं-इन तीनों दृष्टिकोणों का विस्तृत विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ "जैन बौद्ध और गीता के आचार दशनों का तुलनात्मक अध्ययन" में किया है, उनके अनुसार "जहाँ हिंदू परंपरा में व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का प्रभाव अपनी संतान अथवा अपने परिजनों पर भी पड़ता है यह माना गया है। साथ ही हिन्दू धर्म स्पष्टरूप से यह भी कहा गया है कि संतान के अपवित्र कर्म जहाँ पितरों को स्वर्ग से भी गिरा 11. कम्मं पप्प फलविवाको जीवाणं, परिणामं पप्प फलविवाको पोग्गलाण। -'इसिभासियाई', 31/9 गद्यभाग (स) 12. सा भते किं अत्तकडा कज्जइ? परकडा कज्जइ? तदुभथ कडाकज्जइ गोयमा। अत्तकडाकज्जइ, नो परकडाकज्जइ, मो तदुभयकडा कज्ज। -भगवई प्रथम शतक षष्ठउद्देशक 179 13. अत्तकडा जीवा णो परकडा किच्चा वेदेन्ति। --'इसिभासियाइ' 31/9 (गद्यभाग 'इ') 14. संयुत्तनिकाय 12/17-उद्धृत आगम युग का जैन दर्शन (पं. दलसुख मालवणिया) पृ.48 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन देते हैं वहीं उनके शुभ कर्म पितरों का उद्धार भी कर देते हैं। इस प्रकार हिन्दू धर्म के अनुसार व्यक्ति के शुभाशुभ कर्म पूर्वजों और संतानों को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों के फल का संविभाग हो सकता है। इस संबंध में लोकमान्य तिलक ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में भी चर्चा की हैं। इसके विपरीत डॉ. जैन के अनुसार बौद्ध धर्म यह कहता है कि व्यक्ति अपने शुभ कर्मों में दूसरों को भागीदार बना सकता हैं किन्तु अशुभ कर्मों में दूसरा व्यक्ति भागीदार नहीं बन सकता। हम अपने पुण्यों का फल दूसरों को दे सकते हैं, किन्तु अपने पाप के फल में दूसरों को भागीदार नहीं बना सकते। दूसरे शब्दों में, बौद्ध धर्म के अनुसार पुण्य का संविभाग हो सकता है। पाप का संविभाग नहीं हो सकता।'५ तीसरा दृष्टिकोण जैन धर्म का है जिसके अनुसार व्यक्ति अपने शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों के प्रतिफल में अन्य किसी को भागीदार नहीं बना सकता है। न तो पुण्य का ही संविभाग हो सकता है और न पाप का। जो जैसा कर्म करता है, उसे अपने कर्म का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मफल विभाग के प्रश्न पर जैनों का दृष्टिकोण ऋषिभाषित में पार्श्व नामक अध्ययन में वर्णित इस सिद्धांत का ही विकास है कि जीव स्वकृत कर्मों के शुभाशुभ फल को भोगता है परकृत कर्म को नहीं।६ ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा स्वयं ही कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही उसके कर्मों को फल का भोग करता है। इसलिए जो आत्मा के कल्याण का इच्छुक है, वह पाप कर्मों से विमुख हो। कर्म के शुभत्व एवं अशुभत्व का आधार ऋषिभाषित में पाप-पुण्य अथवा शुभ-अशुभ के रूप में कर्मों को विवेचन किया गया है। सुकृत एवं दुष्कृत और कल्याणकर एवं पापकर के रूप में भी कर्मों का वर्गीकरण उपलब्ध होता है।८ सुकृत और दुष्कृत कर्मों को ही क्रमशः कल्याणकारी कर्म और पापकारी कर्म अथवा शुभ कर्म और अशुभ कर्म कहा जाता है। इन्हें हम पुण्य कर्म और पाप कर्म भी कह सकते है। -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 317 -'इसिभासियाई' 31/9 'स' -'इसिभासियाई' 15/21 15. "जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" 16. कम्म पप्प फलविवाको......! आता-कडाण कम्माणं, आता भंजति जं फलं। तम्हा आतस्स अट्ठाए, पावमादाय वज्जए। सकडं दुक्कडं वा वि, अप्पणो यावि जाणति। ण य णं अण्णो विजाणाति, सुक्कडं व दुक्कडं णरं कल्लाणकारिं पि, पावकारि ति बाहिरा। पावकारिं पिते बुया, सीलमंतो ति बाहिरा। -वही 4/13, 14 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कर्म के शुभाशुभत्त्व का आधार संकल्प ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से कहा गया है कि पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में संकल्पों के द्वारा जो अनेक अच्छे या बुरे कार्य किये जाते हैं वे कर्ता का अनुगमन करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने शुभाशुभ संकल्पों के द्वारा जो अच्छे या बुरे कर्म करता है, वे कर्म उन संकल्पों के आधार पर अपना अच्छा और बुरा फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस गाथा में ऋषिभाषितकार यह स्पष्ट कर देता है कि कर्म की शुभाशुभता उसके संकल्प पर निर्भर होती है। कर्म के दो पक्ष माने गये हैं-(1) कर्म का संकल्प और कर्म की परिणति, ऋषिभाषित के अंगिरस नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि कर्म के दो पक्ष माने गये हैं-(1) कर्म का संकल्प और कर्म की परिणति ऋषिभाषित के अंगिरस नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि कर्म के शुभाशुभ होने का आधार कर्म का बाह्य रूप में घटित होना नहीं, अपितु कर्त्ता का संकल्प होता है। कर्म की शुभाशुभता का निर्णय कर्म के परिणामों के आधार पर नहीं अपितु कर्ता के संकल्प के आधार पर ही किया जाना चाहिये। उदाहरण के रूप में हम यह कह सकते हैं कि एक डॉक्टर किसी रोगी को बचाने के लिए आपरेशन करता है, यह हो सकता है कि उस आपरेशन के दौरान रोगी की मृत्यु हो जाए, फिर भी डॉक्टर पाप का बंध न करके पुण्य का ही बंध करेगा क्योंकि उसका संकल्प मारने का न होकर बचाने का था। इस प्रकार ऋषिभाषित कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय के प्रसंग में कर्म परिणाम पर विचार न करके कर्ता के संकल्प को ही प्रमुखता देता है। पाश्चात्य नीतिशास्त्र में कर्म की शुभाशुभता के संदर्भ में उसके प्रेरक और उसके अभिप्राय को लेकर एक विवाद देखा जाता हैं। ऋषिभाषित में इस संदर्भ में जिस कर्म संकल्प को नैतिक मूल्य का आधार बनाया गया हैं वह अपने में कर्म के प्रेरकतत्त्व और कर्ता के अभिप्राय दोनों को ही समाहित कर लेता है। क्योंकि संकल्प में प्रेरकतत्त्व और अभिप्राय दोनों निहित है, इतना स्पष्ट है कि ऋषिभाषितकार की दृष्टि में कर्म की शुभाशुभता का मूल्यांकन कर्म के बाह्य घटित परिणाम के आधार पर नहीं, अपितु कर्ता के संकल्प के आधार पर होना चाहिये।२२ 19. पुव्वरत्तावरत्तम्मि संकप्पेण बहुं कडं। सुकडं दुक्कडं वा वि, कत्तारमणुगच्छइ।। -इसिभासियाई, 4/12 20. भुंजित्तुच्चावए भोए, संकप्पे कडमाण से। आदाणरक्खी पुरिसे, परं किंचि ण जाणति।। -वही,4/8 21. देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन -(डॉ. सागर मल जैन), भाग 1, पृ. 82-94 22. भुंजितुच्चावए. . . . . . .ण जाणति। -'इसिभासियाई' 4/8 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 101 कर्म की शुभाशुभता का मूल्यांकन करने के लिए हमें अनेक प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं, कछ लोग यह मानते हैं कि वे कर्म ही शुभ कहे जा सकते है, जो व्यक्ति के आत्म कल्याण में साधक है, किन्तु इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि वे कर्म शुभ माने जाने चाहिये जिनसे लोक कल्याण या लोक मंगल होता है। सामान्यतया जो कर्म स्वार्थवश किये जाते हैं वे अनैतिक या पापकर्म कहलाते हैं और जो परार्थ हेतु किये जाते हैं, वे पुण्य कर्म कहलाते हैं। आगे हम इस प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करेंगे। ऋषिभाषित में किसी कर्म के सुकृत या दुष्कृत होने के निर्णय का आधार आत्मा को ही माना गया है। उनमें कहा गया है कि "व्यक्ति स्वयं" ही अपने सुकृत या दुष्कृत कर्म को जानता है, किन्तु अन्य व्यक्ति किसी दूसरे के अच्छे या बुरे कर्म को नहीं जान सकता है। क्योंकि बाहरी लोग तो कल्याणकारी को पापकारी और पापकारी को कल्याणकारी कह देते हैं।२३ इसका तात्पर्य यह है कि पुण्य और पाप का आधार व्यक्ति की अंतरात्मा ही है। कर्म का बाह्य रूप उसका आधार नहीं हो सकता, बाह्य जनों के द्वारा किसी कर्म की निंदा और प्रशंसा कोई अर्थ नहीं रखती है। उसी में कहा गया है कि "उलूक जिसकी प्रशंसा करें और कौवे जिसकी निंदा करें, वह निंदा और प्रशंसा दोनों ही वायु जाल की तरह निरर्थक होती है।४ आगे और भी स्पष्ट कहा गया है कि किसी अन्य व्यक्ति के कहने से कोई चोर नहीं बन जाता और किसी दूसरे के कहने से कोई मुनि भी नहीं बन जाता। वह मुनि है या चोर है यह तो स्वयं वहीं जानता है।५ इस प्रकार ऋषिभाषित में कर्म का शुभाशुभत्व का आधार व्यक्ति की अपनी अंतरात्मा को माना गया है। निष्कर्ष यह है कि कार्य का पुण्य रूप अथवा पापरूप होना इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि वह कर्म किस रूप में संपादित हुआ है। अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि उस कर्म का प्रेरकतत्त्व या संकल्प क्या था? पाश्चात्यदर्शन की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में पुण्य और पाप की कसौटी व्यक्ति की अंतरात्मा को ही माना गया है। पुनः कौनसा कर्म व्यक्ति के लिए बंधन कारक होता है और कौन सा कर्म उसे मुक्ति की दिशा में ले जाता है, यह प्रश्न भी कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ऋषिभाषित के 14वें बाहुक नामक अध्ययन में इस संबंध में बहुत ही स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। उसमें कहा गया है कि जो कामना सहित प्रव्रजित 23. -'इसिभासियाई', 4/12, 13 24. जंउलका पसंसन्ति, जंवा णिन्दन्ति वायसा। णिन्दा वा सा पसंसा वा, वायु जाले व्व गच्छति।। 25. णऽण्णस्स वयणाऽचोरे, णऽण्णस्स वयणाऽमुणी। अप्पं अप्पा वियाणाति, जे वा उत्तमणाणिणो।। -वही, 4/19 -वही, 4/16 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी होता है और कामना सहित तप करता है वह कामना सहित मृत्यु को प्राप्त होकर नर्क को प्राप्त करता हैं।२६ इसका तात्पर्य यह है कि जो सकाम भाव से व्रत तपादि भी करता है वह मुक्ति का अधिकारी नहीं बन पाता। मुक्ति का अधिकारी तो वही होता है जो निष्काम भाव से प्रव्रजित होता है और निष्काम भाव से तप करता है। अंत में वह अपनी उस निष्कामता के कारण सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के अनुसार कामनायुक्त कर्म बंधन कारक है और निष्काम कर्म मुक्ति का मार्ग है। यहाँ हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में वर्णित बाहुक का यह दृष्टिकोण प्रकारान्तर से गीता के अनासक्ति योग का ही विवेचन करता है। शुभाशुभ का अतिक्रमण यद्यपि ऋषिभाषित कमों का शुभ और अशुभ के रूप में वर्गीकरण करता है, किन्तु ऋषिभाषित में वर्णित साधना का मुख्य लक्ष्य तो शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का अतिक्रमण करना है। ऋषिभाषित के महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि पूर्वकृत पुण्य-पाप ही संसार परंपरा के मल हैं। पुण्य और पाप का निरोध करने के लिए ही साधक सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित हो।७ इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित पुण्य और पाप दोनों को ही बंधन मानता है। उसमें कहा गया है कि स्वकृत पुण्य और पाप से ही प्राणी संसार परंपरा को प्राप्त होता है और इसलिए उसे संवर और निर्जरा के माध्यम से पुण्य और पाप का विनाश करना चाहिये।२८ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि भारतीय ऋषियों का चिंतन मुख्यतया अध्यात्मपरक रहा है और इसलिए वे सामान्यतया पुण्य और पाप दोनों के अतिक्रमण की बात करते हैं। उनकी दृष्टि में सांसारिक बंधन के लिए पाप के समान पुण्य भी बंधन का ही काम करता है। जैन परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में पुण्य 26. सकामए पव्वइए, सकामए चरते तवं सकामए कालगते णरगे पत्ते, सकामए चरते तवं, सकामए कालभते सिद्धिं पत्ते सकामए,..... -'इसिभासियाई', 14/8 गद्यभाग 27. संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं। पुण्ण पावनिरोहाय, सम्म सपरिव्वए।। -वही, 9/5 28. पुण्णपावस्स आयाणे, परिभोगे यावि देहिणं। संतईभोगपाउग्गं, पुरुणं पावं मयं कडं। संवरो जिज्जरा चेव, पुण्णपाव विणासण। संवरं निज्जरं चेव, सव्वहा सम्ममायरे।। -इसिभासियाइ,9/6,7 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 103 और पाप को क्रमशः सोने और लोहे की बेड़ी कहा है।९ पाप लोहे की बेड़ी है, तो पुण्य सोने की बेड़ी। किन्तु बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की वह बांधने का काम तो करती है। पुण्य और पाप का अतिक्रमण जैन, बौद्ध और औपनिषदिक तीनों ही परंपरा में स्वीकृत रहा है। यह ठीक है कि लोहे की अपेक्षा सोने की बेड़ी को बंधन की वस्तु न मानकर अलंकरण माना जाता है, किन्तु यह केवल व्यावहारिक दृष्टि से पुण्य (शुभ) की मूल्यवत्ता व्यावहारिक दृष्टि से तो हमें पाप की अपेक्षा पुण्य की मूल्यवत्ता को भी स्वीकार करना होगा। यह ठीक है कि पुण्य और पाप अथवा शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म बंधन के कारण है, किन्तु पाप की अपेक्षा पुण्य की मूल्यवत्ता बहुत अधिक है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिये। यदि पुण्य और पाप दोनों का अतिक्रमण भी करना हो तो भी पहले पाप से छुटकारा पाने के लिए पुण्य को अपनाना होगा और अंत में पुण्य का भी अतिक्रमण करके शुद्ध की ओर जाना होगा। शुद्ध की यात्रा के लिए पहले शुभ का सहारा लेकर अशुभ को समाप्त किया जाता है और फिर शुभ का भी परित्याग करके शुद्ध को प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार कपड़े पर लगे हुए मल को दूर करने के लिए साबुन का सहारा लिया जाता है किन्तु साबुन भी कपड़े के लिए जो एक प्रकार का मल ही होता है, अतः कपड़े को उसकी शुद्ध अवस्था में लाने के लिए उससे साबुन को भी अलग करना होता है। इसी प्रकार आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिए पहले पुण्य कर्म का शुभ कर्म के माध्यम से अशुभ प्रवृत्तियों से दूर होना होता है, उसके पश्चात् फिर भी शुभ प्रवृत्तियों का परित्याग करके शुभ अवस्था को पाया जाता है। अतः ऋषिभाषित में जो शुभाशुभ के अतिक्रमण की बात कही गई है, वह वस्तुतः समग्र भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि की परिचायक है। शुभ और अशुभ का क्षेत्र नैतिकता का क्षेत्र है। नीति से धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए शुभ और अशुभ का अतिक्रमण आवश्यक माना गया है और ऋषिभाषित उसी तथ्य को सम्पुष्ट करता हैं। ऋषिभाषित के 'सारिपुत्त' नामक 38 वें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है, कि जिस हेतु को लेकर चिकित्सा की जाती है, वहाँ न दुःख है और न सुख है, किन्तु चिकित्सा में संलग्न रोगी को दुःख और सुख हो सकता है। उसी प्रकार मोह का क्षय करने में प्रवृत्त व्यक्ति को दुःख - 29. सोवण्णियं पिणियलं बंधदि, कालाय स पि जह पुरिसी बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्म।। -'समयसार' पुण्यपापाधिकार/146 30. देखें-जैन. बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 1, पृ. 341 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी और सुख हो सकते हैं। किन्तु जिस हेतु अर्थात् निर्वाण के लिए मोह का क्षय करता है यहाँ न तो सुख है और न दुःख है। वस्तुतः ऋषिभाषित में वर्णित साधना का लक्ष्य उस अवस्था को प्राप्त करता है जो शुभ और अशुभ दोनों का ही अतिक्रमण कर देती कर्मबंधन के कारण कर्म का बंधन क्यों होता है इस प्रश्न को लेकर ऋषिभाषित में दो प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते है। सामान्य रूप से चर्चा करते हुए यह माना गया है कि रागात्मकता ही या आसक्ति ही बंधन का कारण है किन्तु विशेष रूप से चर्चा करते हुए ऋषिभाषित में कर्म आदान के निम्न पांच कारण बताये गए हैं 1-मिथ्यात्व, 2-अनिवृत्ति (अवृत्ति), 3-प्रमाद, 4-कषाय और 5-योग। ऋषिभाषित में बंधन के इन पांच कारणों का विवेचन बौद्ध परंपरा के ऋषि महाकाश्यप के उपदेश के रूप में संकलित है। किन्तु हम देखते हैं कि जैन परंपरा में भी सामान्यतया यही बंधन के पांच कारण माने जाते रहे हैं।३३ यद्यपि हम इन पांचों का विस्तृत विवेचन तो नहीं करना चाहेंगे, किन्तु संक्षेप में यहाँ इनकी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा। . १. मिथ्यात्व ऋषिभाषित में मिथ्यात्व का तात्पर्य सामान्यतया अविद्या या मिथ्या दृष्टिकोण रहा हैं। जीवन और जगत के संदर्भ में यथार्थ दृष्टिकोण का अभाव या गलत दृष्टिकोण ही मिथ्यात्व है। २. अनिवृत्ति व्यक्ति में जो आत्म नियंत्रण या संयम की सामर्थ्य है, उसका अभाव ही अनिवृत्ति है। अशुभ कार्यों का या अशुभ प्रवृत्तियों से दूर नहीं होना, यही अविरति का लक्षण। 31. ण दुक्खं ण सुहं वा वि, जहा हेतु तिगिच्छति। तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जति वा सुह। मोहक्खए व जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुह। मोहक्खए जहा-हेऊ न दुक्खं न वि वा सुह।। -इसिभासियाई, 38/89 32. मिच्छत्तं अनियत्ती य, पमाओ यावि णेगहा। कसाया चेव जोगा य. कम्मादाणस्स कारण।। -वही, 9/8 33-मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। -तत्त्वार्थसूत्र 8/1 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ३. प्रमाद है। ऋषिभाषित के उपर्युक्त अध्ययन में प्रमाद को अनेक प्रकार का बताया गया । सामान्यतया प्रमाद शब्द का अर्थ सजगता का अभाव या आलस्य होता है। जैन परंपरा में क्रोधादि कषायों को भी प्रमाद में वर्गीकृत किया जाता है उसका कारण यह है कि उनकी उपस्थिति में आत्मा का विवेक सामार्थ्य कुण्ठित हो जाती है। आत्मा चेतन का सुप्त होना ही प्रमाद है। ४. कषाय कषाय वस्तुतः दूषित आवेगों की सूचक है। क्रोध, मान (अहंकार), माया और लोभ इन चार को जैन परंपरा में कषाय के नाम से जाना जाता है। ५. योग 105 मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को जैन परंपरा में योग कहा गया है। ऋषिभाषित में भी योग का यही तात्पर्य है । हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित और प्राचीन जैन ग्रंथों में योग को बंधन के कारण के रूप में विवेचित किया गया है। यद्यपि हरिभद्रादि परवर्ती जैन आचार्यों ने मुक्ति के साधन के रूप में भी विवेचित किया है, किन्तु यह अर्थ अपेक्षाकृत परवर्ती है। ऋषिभाषित में बंधनों के कारणों की चर्चा करते हुए यह भी कहा गया है कि अनेक प्रकार के संकल्प - विकल्पों के कारण जो पुरुषार्थ की निष्पत्ति होती है वही कर्म का द्वार है। इसका तात्पर्य यह है कि संकल्प पूर्वक जो विभिन्न प्रकार के कर्म किये जाते हैं, वे ही व्यक्ति के लिए बंधन का कारण होते हैं । ३४ अष्टविध कर्म ग्रंथि ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में कर्म की चर्चा के प्रसंग में अष्टविध कर्म ग्रंथि का उल्लेख हुआ है । १५ यद्यपि मूल ग्रंथ में ये अष्टविध कर्म ग्रंथियाँ कौन सी है इसका कोई विवेचन नहीं किया गया है। किन्तु परवर्ती जैन कर्म साहित्य के अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि ये अष्टविध कर्म ग्रंथियाँ कौन सी रही होंगी। जैन कर्म साहित्य में आठ प्रकार के कर्म माने गए हैं - ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अंतराय कर्म। हो सकता है 34. निव्वत्ती वीरियं चेव, संकप्पे य अणेगहा। नाणा वण्णवियक्कस्स, दारमेयं हि कम्पुणो ।। 35. जस्सट्ठाए बिहेति, समुच्छिज्जिस्सति अट्ठा समुच्चिट्ठिस्सति... 36. 'कर्मग्रंथ', भाग 2, पृ. 121 - 'इसिभासियाई', 9/10 - वही, 31/9 गद्यभाग (इ) -उत्तराध्ययन-33/2, 3 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कि ऋषिभाषित में अष्टविध कर्म ग्रंथी से इन्हीं कर्म के अष्ट प्रकारों का संकेत रहा होगा। जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। कर्म सिद्धांत का जो गहन विवेचन जैन परंपरा में उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। किन्तु हम देखते हैं कि जैन कर्म सिद्धान्त की अनेक अवधारणाएँ ऋषिभाषित के 17वें महाकाश्यप नामक अध्ययन में, तेरहवें 'भयाली' नामक अध्ययन में, पंद्रहवें 'मधुरायण' नामक अध्ययन में, इक्कतीसवें 'पार्श्व' नामक अध्ययन में, और अड़तीसवें 'सारिपुत्त' नामक अध्ययन में कर्म सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसमें जैन कर्म सिद्धान्त में सन्निहित सभी प्रमुख तत्त्व उपस्थित पाये जाते हैं। ऐसा लगता है कि इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर आगे जैन कर्म सिद्धान्त का विकास हुआ होगा। जैन विद्वानों की यह भी मान्यता है कि तत्त्वमीमांसा और कर्म सिद्धानत के संदर्भ में महावीर की परंपरा पार्श्व की परंपरा की ऋणी है । ३७ इस कथन में हमें सत्यता प्रतीत होती है। ऋषिभाषित के उपरोक्त अध्ययन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जैन कर्म सिद्धान्त अपने स्वरूप निर्धारण में 'महाकाश्यप', भयाली, पार्श्व आदि का ऋणी है। कर्म का स्वरूप ऋषिभाषित में कर्म 'शब्द' किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह भी विशेष रूप से जानना आवश्यक है। ऋषिभाषित के महाकाश्यप नामक अध्ययन में कर्म के आदान का उल्लेख हुआ । इससे ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित कर्म को मात्र चैतसिक स्थिति या संस्कार न मानकर उसे कोई बाह्य भौतिक तत्त्व के रूप में भी स्वीकार करता है। ऋषिभाषित कर्म के आस्रव, संवर और निर्जरा की चर्चा भी करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित की कर्म संबंधी अवधारणा जैन परंपरा की कर्म संबंधी अवधारणा के समान है या उसका ही पूर्व रूप है। ऋषिभाषित में कहा गया है कि " कर्म के आगमन को रोककर प्रशस्त मार्ग का अनुसरण करने वाला पूर्वार्जित कर्मों का निर्जरा कर निश्चयपूर्वक दुखों का क्षय कर देता है।" जिस प्रकार तेल और बत्ती के क्षय हो जाने पर दीपक लो रूप संतति का क्षय करता है। उसी प्रकार आत्मा कर्मास्रव और बंध का निरोध करके भव परंपरा का क्षय करता है। ३९ ऋषिभाषित में यह भी कहा गया है कि आत्मा सतत रूप से कर्मों का बंध और उनकी 37. अर्हत् पार्श्व और उनकी परंपरा -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 28 38. कम्मायाणेऽवरुद्धाम्मि, सम्मं मग्गाणुसारिणा । पुव्वाउत्ते य णिज्जिणे, खयं दुक्खं णियच्छती । 39. णेहवत्तिक्खए दीवो, जहा चयति संतति । आयाणबंधरोहम्मि, तहऽप्पा भवसंत । - 'इसिभासियाई', 9/25 -' इसिभासियाई', 9/22 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 107 निर्जरा करती रहती है। किन्तु ऐसी निर्जरा का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता विशेष महत्त्व तो तप के द्वारा की गई निर्जरा का ही होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋषिभाषित में कर्म को आत्मा से भिन्न एक बाह्य तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है और इसी आधार पर उसके आस्रव (आदान) बंध, संवर और निर्जरा की चर्चा हुई है। उपलब्ध संकेतों के आधार पर यह माना जा सकता है कि ऋषिभाषित कर्म के भौतिक और चैतसिक दोनों स्वरूप मान्य रहे हैं, कर्म के ये भौतिक और चैतसिक पक्ष ही जैन परंपरा में द्रव्यकर्म और भावकर्म के रूप में जाने जाते हैं। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैन कर्म सिद्धान्त में कर्म की निम्न दस अवस्थाओं को चर्चा है। 1-बंध, 2- संक्रमण, 3- उत्कर्षण 4- अपवर्तन, 5- सत्ता, 6- उदय, 7उदीरणा, 8- उपशमन, 9- निधत्ति और 10-निकाचित। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से तो इस प्रकार कर्म की 10 अवस्थाओं की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु उसमें सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त और उपक्रमति (अनुद्धित) कर्मों का उल्लेख हुआ है और यह कहा गया है कि ये सभी कर्म तप के द्वारा निर्जरित होते हैं। उसमें यह भी कहा गया है कि उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पृष्ट, और निद्धत कर्मों का संक्षोभ एवं क्षय हो सकता है, किन्तु निकाचित कर्मों को तो भोगना ही होता है। इस तथ्य से दो बातें स्पष्ट हो जाती है, प्रथम तो यह कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका फल भोग आवश्यक नहीं होता, तप आदि के माध्यम से उन्हें निर्जरित किया जा सकता है, किन्तु कुछ कर्म अवश्य ही ऐसे होते हैं, उनका भोग करना ही होता है। जैन कर्मसिद्धान्त में इन्हें क्रमशः अनिकाश्चित और निकाश्चित कर्म कहा गया है। इसके साथ ही ऋषिभाषित में बद्ध, स्पृष्ट और निद्धत कर्मों के ही फल विपाक में परिवर्तन की संभावना को स्वीकार किया गया है। ऋषिभाषित में इस तथ्य को इस उदाहरण से स्पष्ट किया गया है, जैसे अंजलि में भरा हुआ जल धीरे-धीरे क्षय हो जाता हैं। किन्तु निदान कृत कर्म अवश्य ही उदय में आते हैं। 40. संततं बंधए कम्म, निन्जरेइ य संतता संसारगोयरो जीवो. विसेसो उ तवोमओ।। - 'इसिभासियाई', 9/13 41. देखें-स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ. 254 42. सोपायाणा निरादाणा, विपाकेयरसंजुया। उवक्कमेण तवसा, निज्जरा जायए सया।। - वही, 9/12 43. उवक्कमो य उक्केरो, संछोभो खवणं तथा। बद्ध पुट्ठनिधत्ताणं, वेयणा तु णिकायिते।। - वही, 9/15 44. उक्कड्ढं तं जधा तोयं, सारिज्जंतं जधा जलं। संखविज्जा, णिदाणे वा, पावं कम्मं उदीरती।। -इसिभासियाई, 9/16 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी कर्मों का फल भोग आवश्यक नहीं होता, कुछ कर्मों को तप और साधना के द्वारा उनका फल भोगे बिना ही नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार ऋषिभाषित एक समग्र कर्म सिद्धान्त का विवेचन करता है, चाहे उसमें वे सूक्ष्मताएँ न आ पाई हों जो कि परवर्ती जैन दर्शन में हमकों मिलती हैं। किन्तु इतना अवश्य ही हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के 9वें, 31वें आदि अध्यायों में कर्म सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, वह अन्य किसी प्राचीन ग्रंथों में नहीं देखा जाता है। कर्म और कर्मफल का संबंध कर्म और कर्मफल के संबंध के प्रश्न पर ऋषिभाषित के 30 वें वायु नामक अध्ययन में, जो विवेचन किया गया है, वह निम्न है-सर्वप्रथम जो भी कर्म किये जाते हैं उनका परलोक में फल तो भोगना ही पड़ता है। जैसे वृक्ष की जड़ों का सिंचन करने पर उसकी शाखओं में फल तो दिखाई देंगे।५ अर्थात् कर्म अपना विपाक या फल तो देते ही हैं। पुनः जिस प्रकार का बीज होता है उसी प्रकार का फल उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है। वैसा ही फल भोगता है। "कल्याणकारी कर्मों से कल्याण प्राप्त होता है। और पापकारी कर्मों से पाप प्राप्त होता हैं। हिंसक कृत्यों को करने वाला हिंसा को प्राप्त होता हैं। (मारा जाता है) और जय को प्राप्त करने वाला पराजित भी होता है। दुःख देने वाले को दुःख भोगना पड़ता है। निंदा करने वाला निन्दित भी होता है। जो आक्रोश करता है उसे आक्रोश को सहन भी करना पड़ता है क्योंकि कोई भी कर्म निरर्थक नहीं होता। संसार में कड़वे को कड़वा, कठोर को कठोर और मधुर को मधुर फल मिलता है। कल्याणकारी कर्मों का परिणाम सदैव कल्याणकारी ही होता है। कल्याण की बात बोलने वाला कल्याण की ही प्रतिध्वनि सुनता है और पाप की बात बोलने वाला पाप की ही प्रतिध्वनि सुनता है अर्थात् व्यक्ति को संसार में अपने कर्मों की 45. इध जं कीरते कम्म, तं परतोवभुज्जइ। मूल सेकेसु रूक्खेसु, फलं साहासु दिस्सति।। -वही, 30/n 46. कल्लाणां लभति कल्लाणं, पावं पावा तु पावति। हिंसं लभति हन्तारं, जइत्ता य पराजय।। सूदणं सूदइत्ताणं, णिन्दित्ता वि य णिन्दणं। अक्कोसइत्ता अक्कोसं, णत्थि कम्मं णिरत्थक।। मण्णन्ति भद्दका भद्दकाइ, मधुरं मधुरं तिमाणति। कडुयं कडुयंभणियं ति, फरूसं फरूसं ति माणति।। -"इसिभासियाइ"30/5,6,7 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 109 ही प्रतिध्वनि सुनाई देती है। अत: व्यक्ति का जैसा शुभाशुभ कर्म होता है उसकी वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। अतः साधक यह समझकर साधक को अशुभ कर्मों का आचरण नहीं करना चाहिये। यही ऋषिभाषित के कर्म सिद्धान्त का सार तत्त्व है। कर्म से मुक्ति कर्म मल से आत्मा किस प्रकार मुक्त हो सकता है इस संदर्भ में ऋषिभाषित के 'महाकाश्यप' नामक अध्ययन में विस्तार से विवेचन किया गया है उसमें कहा गया है कि "साधक शास्त्र के अनुसार सम्यक् आचरण कर और दोषों के आगमन को रोककर पूर्वार्जित विद्या को नियंत्रित कर कर्म व्याधि का नाश करता है। प्रस्तुत अध्याय में यह भी बताया गया हैकि कर्म आदान का निरोध करके ही तथा पूर्वोपार्जित कर्मों को निर्जीर्ण करके ही साधक दु:खों का क्षय करता है। जिस प्रकार मलीन वस्त्र को जल द्वारा शुद्ध किया जाता है वैसे ही सम्यक्त्व वासिन आत्मा ध्यान रूपी जल से अपने को शुद्ध करता है। जैसे सुहागी आदि पदार्थों से स्वर्ण की मलीनता नष्ट हो जाती है वैसे ही तप की माध्यम से अनादि कर्म संतति नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार जल धारा के मध्य में रही हुई नौका अनाकुल होती है वैसे ही कर्म लेप से रहित आत्मा भी अनाकुल होती है।"४८ 20 47. कल्लाणं ति भणन्तस्स, कल्लाणा एपडिस्सुया। __ पावकं ति भणन्तस्स, पावया तेएपडिस्सुया।। - इसिभासियाई,30/8 48. कम्मायाणेऽरुद्धम्मि, सम्मं मग्गाणुसारिणा। पुव्वाउत्ते य णिज्जिण्णे, खयं दुक्खं णियच्छती।। जहा आतवसंततं, वत्थं सुन्झइ वारिणा। सम्मत्तसंजुत्तो अप्पा, तहा झाणेण सुज्झती।। कंचणस्स जहा धाऊजोगेणं मुच्चए मल। अणाईए वि संताणे, तवाओ कम्मसंक।। -वही, 925, 28, 29 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 १. मानवमन की जटिलता ऋषिभाषित यद्यपि मनोविज्ञान का ग्रंथ न होकर नैतिक और धार्मिक उपदेशों का ग्रंथ है, फिर भी उसमें मानव प्रकृति का सूक्ष्म विवेचन हमें उपलब्ध होता है । ऋषिभाषित के चतुर्थ 'अंगिरस' नामक अध्ययन में मनुष्य की जो दोहरी जीवन शैली है, उसके संबंध में पर्याप्त गंभीर रूप से विचार किया गया है। उसमें कहा गया है कि " जिसके द्वारा अपनी आत्मा को पहचाना जा सके और जिसके द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष में आचरित शुभ या अशुभ कर्मों को जाना जा सके वही ज्ञान अचल और शाश्वत है। "" इस कथन का तात्पर्य यही है कि जो ज्ञान हमें अपनी प्रकृति को समझने में सहायक होता है, वहीं ज्ञान यथार्थ होता है। मानव मन का विश्लेषण करते हुए ऋषिभाषित में कहा गया है कि " दीवार और काष्ठ पर चित्रित चित्र को समझना सरल होता हैं । किन्तु मनुष्य के हृदय को समझ पाना अति गहन और दुशक्य है। २. व्यक्ति का दोहरापन 1. जिन व्यक्तियों के मनोभावों में, उनके आचरण में अर्थात् उनकी वाणी और व्यवहार में एकरूपता न हो ऐसे व्यक्ति अत्यन्त जटिल गहन होते हैं। अर्थात उनको समझ पाना अत्यंत कठिन होता है। इसी तथ्य को आगे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि " जो व्यक्ति सभा में अर्थात् प्रकट रूप से कुछ अन्य आचरण करता है और एकान्त में कुछ अन्य आचरण करता है, वह अपने को पाप कर्म से नहीं बच सकता । * 2. 3. पंचम अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित मनोविज्ञान 4. डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जेण जाणामि अप्पाणं, आवी वा जति वा रहे । अज्जयारिं अणज्जं वा, तं गाणं अलं ध्रुवं ॥ | सुयाणि भित्तिए चित्तं, कटठे वा सुणिवेसितं । मणुस्सहिदयं पुणिणं, गहणं दुव्वियाणकं । । अण्णा स मणे होई, अण्णं कुणन्ति कम्मुणा । अण्णमण्णाणि भासन्ते, मणुस्सगहणे हुसे || अदुवा परिसामज्झो, अदुवा वि रहे कडं । ततो णिरिक्ख अप्पाणं, पावकम्मा णिरुम्भति ।। - इसिभासियाई 4/4 - वही, 4/5 - इसिभासियाई 4/6 -वही, 4/9 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 111 किन्तु जो साधक अपनी आत्मा का निरीक्षण कर अपने पाप कर्मों को रोक लेता है। वह साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ जाता है । " वस्तुतः व्यक्ति के पाप और पुण्य को कोई दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सकता है।' व्यक्ति के जीवन में मन, वाणी और आचरण में जो द्वैत रखा हुआ है, उसे वह खुद ही जान सकता है। ऋषिभाषित में अंगिरस कहते हैं कि जो स्वयं के सुप्रचीर्ण कर्म और आचार का निरीक्षण करता है, वही आत्मा धर्म में सुप्रतिष्ठित होता है।" इसका तात्पर्य यह है कि जो कर्म आत्मसाक्षी पूर्वक संपादित किया जाता है वह कर्म ही साधक को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने में सहायक होता है । इसके विपरीत जो अपने दोषों को छिपाते हैं और इन्हें प्रकट नहीं होने देते, वे चाहे यह समझते हैं कि हमारे दोषों को और कोई नहीं जानता, किन्तु ऐसा करके वे अपना ही अहित करते हैं और ऐसे कपट वृत्ति से युक्त दुष्ट हृदय वाले मनुष्य के स्वभाव को जानकर उसके साथ रह पाना किसी के लिए संभव नहीं होता है । " प्रस्तुत विवेचना में हमें दो तथ्यों का विशेष रूप से बोध होता है एक तो यह कि मनुष्य में कपटवृत्ति पाई जाती है और उसके कारण उसके मन, वाणी और आचार में एकरूपता नहीं होती, इस एकरूपता के अभाव के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व दोहरा बन जाता है वह होता कुछ और है और अपने को दिखाना और कुछ चाहता है । यह व्यक्तित्व की द्वैता ही आधुनिक मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है। बाहर से वह सभ्य दिखना चाहता है किन्तु उसके अंदर में उसका पशुत्व कुलाचे मारता है। व्यक्तित्व के द्वैत की समाप्ति कैसे ? ऋषिभाषित न केवल मनुष्य जीवन के इस दोहरेपन को स्पष्ट करता है, अपितु यह भी बताता है कि इस दोहरेपन का निदान कैसे किया जा सकता है। बाह्याचार और मनोवृत्ति का यह जो दोहरापन मानव समाज में पाया जाता है, उसे अपनी अंतरात्मा की साक्षी से ही व्यक्ति समझ सकता है, क्योंकि वह अपने अंतर मानस का द्रष्टा होता है। ऋषिभाषित में कहा गया है कि आत्मसजगता ही ऐक ऐसा मार्ग है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन के इस दोहरेपन को समाप्त कर सकता है, क्योंकि आत्मा आत्मप्रेरित होकर ही शुभत्व को प्राप्त करता है । " 5. दुष्पचिणं सपेहाए, अणायारं च अप्पणो । 6. 7. 8. 9. अणुवट्ठितो सदा धम्मे, सो पच्छा परितप्पति।। सुकडं दुक्कडं वा वि, अप्पणो यावि जाणति । ण णं अण्णो विजाणाति, सुकडं णेव दुक्कडं ॥ सुपपइण्णं सपेहाए, आयारं च अप्पणो । सुपट्ठितो सदा धम्मे, सो पच्छा उ ण तप्पति ।। संवसितुं सक्का, सीलं जाणित्तु माणवा । परमं खलु पडिच्छन्ना, मायाए दुट्ठमाणसा ।। अप्पणा चेव अप्पाणं चोदित्ता सुभमेहती। - इसिभासियाई, 4 / 10 -वही 4/13 -वही 4/11 - इसिभासियाई, 4/2 -वही, 4/25 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 इन्द्रियाँ और उनके विषय ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है अतः उसमें इंद्रियों के नियंत्रण पर विशेष बल दिया गया है। यद्यपि इन्द्रिय संयम और इन्द्रिय नियंत्रण का प्रतिपादन ऋषिभाषित में स्थान-स्थान पर हुआ है, किन्तु इंद्रियाँ और उनके विषय को लेकर ऋषिभाषित के वर्धमान नामक अध्ययन में जो प्रतिपादन में उपलब्ध होता है वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित में वर्धमान ने इन्द्रिय संयम के संबंध में एक विशेष दर्शन प्रस्तुत किया है वह उनके उपदेशों के रूप में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में तथा उत्तराध्ययन के 32वें प्रमाद नामक अध्ययन में भी उपलब्ध होता है। १० ऋषिभाषित के अनुसार वर्धमान ऋषि को जब यह पूछा गया कि सभी ओर से स्रोत बह रहे हैं तो उन स्रोतों के प्रवाह को किस प्रकार रोका जा सकता है? उन स्रोतों का निवारण किस प्रकार संभव है? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि " सुप्त अर्थात प्रमत्त मुनि के पांचों इन्द्रियाँ जागृत रहती हैं और जागृत मुनि की पाँचों इंद्रियाँ सुप्त रहती है । ११ पाँचों इन्द्रियों के सक्रिय होने पर कर्म रज आती है और पांचों इन्द्रियों के निष्क्रिय होने पर कर्मरज का आना निरूद्ध हो जाता है। १२ इस प्रकार ऋषिभाषित के अनुसार साधना की दृष्टि से पांचों इन्द्रियों की सक्रियता और निष्क्रियता एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। उसमें आगे स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि दुर्दमनीय बनी हुई ये इन्द्रियाँ संसार का हेतु बनती है। जबकि सम्यक प्रकार से नियंत्रित होने पर ये ही पांचों इन्द्रियाँ निर्वाण का भी कारण बन जाती हैं क्योंकि अनियन्त्रित इन्द्रियाँ साधक को बलपूर्वक उसी प्रकार कुमार्ग पर ले जाती है जैसे अनियन्त्रित अश्व सारथी को राजमार्ग से हटाकर बीहड़ पथ में ले जाता हैं। १४ इसके विपरीत संयमित इन्द्रियाँ उसी प्रकार सुमार्ग पर आगे ले जाती है जैसे शिक्षित अश्व सारथी को प्रशस्त मार्ग पर ले जाता है । १५ 10. सवन्ति सव्वतो सोता, किं ण सोतोणिवारणं? पुट्ठे मुणि आइक्खे, कहं सोतो पिहिज्जति । 11. पंच जागरओ सुत्ता, पंच सुत्तस्स जागरा | पंचहिं रयमादियति, पंचहिं च रयं ठए । । 12. इसिभासियाई, 29/2 13. दुद्दन्ता इंदिया पंच, संसाराय सरीरिणं । ते चैव नियमिया सम्मं, णेव्वाणाय भवन्ति हि ।। 14. दुद्दन्तेहि दिएहऽप्पा, दुप्पहं हीरए बला। दुद्दन्तेहिं तुरंगेहिं, सारही वा महापहे ।। 15. इन्दिएहिं सुदन्तेहिं ण संचरति गोयरं । विधेयेहिं तुरंगेहिं, सारहि व्वा व संजए।। डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी - इसिभासियाई, 29/1 -वही, 29/2 - वही, 29 / 13 -वही, 29/14 -वही 29/15 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन इन्द्रिय दमन का तात्पर्य यहाँ स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में इन्द्रियों के संयमन पर बल दिया गया है, किन्तु इंद्रिय संयमन का अर्थ उन्हें दमित करना नहीं है। ऋषिभाषित स्पष्ट रूप से इस तथ्य को स्वीकार करता है कि जब तक इन्द्रियाँ है तब तक उनका अपने विषयों से संपर्क होगा ही, अतः इन्द्रिय नियंत्रण का यह अर्थ नहीं है कि इंद्रियों को अपने विषयों से संपर्क स्थापित करने से रोक दिया जाये। यदि चक्षु का विषय रूप है तो चक्षु इन्द्रिय के नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि आँखों को बंद करके चला जाये। ऋषिभाषित स्पष्टरूप से कहता है कि "नेत्रों के द्वारा मनोज्ञ या अमनोज्ञ रूप के ग्रहण करने पर भी न तो सुंदरता के प्रति राग करे और न असुंदरता के प्रति द्वेष करें जो साधक सुंदर पर अनुरक्त नहीं होता है और असुंदर से द्वेष नहीं करता है इस प्रकार वह जागृत रह कर कर्मों के स्रोत को रोक सकता है। किन्तु साधाक को न तो मनोज्ञ शब्दों को सुनकर प्रसन्न होना चाहिय और न अमोज्ञ शब्दों को सुनकर प्रद्वेष ही करना चाहिये, जो साधक मनोज्ञ शब्दों में आसक्त नहीं होता है और अमनोज्ञ शब्दों पर द्वेष नहीं करता है, वही अप्रमत्त माध्यस्थ भाव में रहा हुआ अप्रमत्त साधक कर्म प्रवाह को रोक सकता है।"१६ इसी प्रकार का निर्देश नासिका, रसना और स्पर्शेन्द्रिय के संदर्भ में भी कहा गया है। उपरोक्त कथन का फलितार्थ यह है कि ऋषिभाषित के वर्द्धमान ऋषि की दृष्टि में इन्द्रिय निरोध का तात्पर्य इन्द्रियों को उनके विषय से असम्पृक्त रखना नहीं है। वस्तुतः आँख है, तो रूप दिखेगा ही, कान है, तो शब्द सुनाई देंगे ही, जिह्वा है तो स्वाद आयेगा ही, नासिका है तो गन्ध की अनुभूति होगी ही। मनुष्य के लिए यह असंभव है कि वह अपनी इंद्रियों का उनके विषय से संबंध ही न होने दे। ऋषिभाषित में वर्धमान ऋषि हमें जो उपदेश देते हैं उनका तात्पर्य यह नहीं है कि हम इन्द्रियों को उनके विषयों से पूर्णतया विमुख कर दें, अपितु उसका तात्पर्य इतना ही है कि इन्द्रियों के अपने विषयों से संपर्क होने पर जो मनोज्ञ या अमनोज्ञ अनुभूति की स्थिति निर्मित होती है उसमें रागद्वेष की प्रवृत्ति न की जाय। जब तक आँख है तो हमे उसे खुली तो रखना होगा और आँख के खुली रहने पर यह असंभव है कि सुंदर या असुंदर रूप न दिखाई दे। ऋषिभाषित के अनुसार साधक की साधना का महत्त्व इसी में है कि इन मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुभूतियों की स्थिति में वह मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष न करें। इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का निरोध 16. मणुण्णम्मि अरज्जन्ते, अदुढे इयरम्मि या असुत्ते अविरोधीणं, एव सोए पहिज्जति।। 17. देखें-वही, 29/5-11 -इसिभा 29/4 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी नहीं है, अपितु इन्द्रियों के प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप जो अनुकूल और प्रतिकूल संवेदन होते हैं, उसमें रागद्वेष नहीं करना है। इस प्रकार ऋषिभाषित इन्द्रिय निरोध के संदर्भ में एक बहुत ही सम्यक् और मनोवैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करता है वह इन्द्रियों के अंध दमन की बात नहीं करता, अपितु उनके द्वारा होने वाली अनुकूल और प्रतिकूल अनुभूतियों में अपनी चित्तवृत्ति को सम या तटस्थ बनाए रखने की बात करता है। वे लोग जो इन्द्रिय संयम का अर्थ इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख कर देना मानते हैं, वे भ्रान्ति में है। इन्द्रिय संयम का अर्थ हैं इन्द्रियों के माध्यम से होने वाली अनुकूल और प्रतिकूल अनुभूतियों में माध्यस्थ वृत्ति। ऋषिभाषित का इन्द्रिय संयम का यह अर्थ न केवल जैन परंपरा में अपितु बौद्ध और गीता की परंपरा में भी मान्य रहा है। इस संबंध में जैन, बौद्ध और हिन्दू परंपराओं के दृष्टिकोणों की विस्तृत चर्चा डॉ सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में की है। हमने यहाँ मात्र ऋषिभाषित के संदर्भ में ही इस प्रश्न को विवेचित किया है। सुख-दुख प्राणीय अनुभूति के केंद्र सुख और दुःख प्राणी की अनुभूतिगत अवस्थाएँ है, जो विषय व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों को अनुकूल लगते हैं, उनके संवेदन से व्यक्ति सुख का अनुभव करता है, इसके विपरीत जो विषय व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों के प्रतिकूल होते हैं, उनके संवेदन से व्यक्ति दुःख की अनुभूति करता हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सुख और दु:ख अनुभूतिगत तथ्य हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि सुख और दुःख अनुभूतिगत तथ्य हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि सुख और दुःख अपने विषयों पर आधारित होते हैं, किन्तु सुख-दुख का यह एकमात्र आधार नहीं है। सुख और दुःख केवल वस्तुगत तथ्य नहीं है, अपितु वे मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। दूसरे शब्दों में सुख और दु:ख की अनुभूति आत्मनिष्ठ भी होती है। इन्द्रियगत अथवा शरीरगत समान अनुभूतियों के होने पर भी यदि व्यक्ति की मनोगत भूमिकाएँ भिन्न भिन्न हो तो, उन समान विषयों की अनुभूतियों में भी एक व्यक्ति सुख का अनुभव कर सकता है और दूसरा दुःख का अनुभव कर सकता है। इस तथ्य को ऋषिभाषित के पंद्रहवें मधुरायण नामक अध्ययन में स्पष्ट किया गया है। उस अध्याय मे साता दुःख और असाता दुःख ऐसे दो प्रकार के दुःखों का विवेचन किया गया है। यहाँ यह प्रश्न विचारणीय है कि सातादुःख का क्या तात्पर्य है? जैन परंपरा में सुखद अनुभूतियों के लिए साता और दुःखद अनुभूतियों के लिए असाता का प्रयोग सामान्य रूप से 18. जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 171-76, डॉ. सागरमल जैन 19. साया दुक्खेण अभिभूते..... णो असन्तं दुखी दुक्खं उदीरेति" -इसिभासियाई, 15/1 गाभाग Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 115 प्रचलित रहे हैं। साता दुःख का तात्पर्य यह होगा कि सुखद अनुभूतियों में भी दु:ख की अनुभूति अर्थात् शारीरिक और ऐन्द्रिक दृष्टि से अनुकूल विषयों की अनुभूति होने पर भी मानसिक स्तर पर दु:खी रहना। ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि "जिस प्रकार साता दुःख से अभिभूत दु:खी व्यक्ति दु:ख की उदीरणा करता है और उसकी प्रकार असाता दुःख से अभिभूत दु:खी व्यक्ति भी दुःख की उदीरणा करता हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में जिसकी मानसिकता दुःखी बनी रहती है, वह सुखद संयोगों में भी दुःखी रहता है और दुःखद संयोगों में भी दु:खी रहता है। ऋषिभाषित के अनुसार सुख और दुःख का संवेदन सुख और दु:ख के निमित्त वस्तुगत संयोगों पर निर्भर न होकर व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है अर्थात् जिस व्यक्ति की मानसिकता दु:खी होने की है, वह अनुकूल और प्रतिकूल दोनों संयोगों में दुःखी बना रहता है। इसके विपरीत जिसकी मानसिकता सुख की होती है, वह प्रतिकूल स्थितियों में भी सुख का संवेदन कर लेता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में सुख और दुःख को केवल वस्तुगत तथ्य न मानकर मनोगत तथ्य भी माना गया है और यह बताया गया है कि वस्तुगत और मनोगत तथ्यों में मनोगत तथ्य ही प्रधान होता है, जिसकी मानसिकता दुःखाभिभूत है वह सुखद संयोगों में भी दुःखी रहता है, जबकि जिसकी मानसिकता सुखाभिभूत है वह प्रतिकूल संयोगों में भी हंसता रहता है। अतः सुख और दुःख के संवेदन में मानसिकता ही प्रमुख तथ्य है। इस प्रकार ऋषिभाषित की साता दुःख की अवधारणा हमारे समक्ष एक नयी दृष्टि प्रस्तुत करती हैं। दुःख का स्वरूप ऋषिभाषित के "कूर्मापुत्र" नामक अध्ययन में दुःख के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जो दु:ख प्रदान करता है, वहीं दुःख है। दूसरे शब्दों में, जिन-जिन तथ्यों से दुःख उत्पन्न होता है वे ही दुःख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित दु:ख के कारणों का मनोवैानिक विश्लेषण करके हमें यह बताया गया है कि जो उत्सुकता या आकांक्षा या इच्छा है वहीं दुःख है और इच्छा आकांक्षा या अभिलाषा से युक्त है, वही दु:खी है। दूसरे शब्दों में मन में जो दीन भावना है, चाह या आकांक्षा है वहीं दुःख है। इसलिए दु:ख विमुक्ति का उपाय चित्त को आकांक्षाओं और इच्छाओं से रहित करना है। इस तथ्य को इस रूप में भी कहा जाता है कि जो आकांक्षा और इच्छाओं से युक्त है, वही दु:खी है और जो उससे ऊपर 20. सव्वं दुक्खावह दुक्खं, दुक्खं सऊसुयत्तण। दुक्खी व दुक्करचरियं वसित्ता सव्व दुक्खं खवेति तवसा। तम्हा अदीणमणसो दुक्खी सव्व दुक्खं तितिक्खेन्जासि। -'इसिभासियाई'7/गद्यभाग Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी उठता है वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। ऋषिभाषित में कुर्मापुत्र कहते हैं कि "जो प्रमादवश भी आकांक्षा नहीं करता है, वही सुखी होता है। दु:ख विमुक्ति का उपाय है कामनाओं से ऊपर उठ जाना, वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेना। इस संदर्भ में पुनः कूर्मापुत्र कहते हैं कि काम को अकाम बनाकर साधक आत्मा त्राता होकर विचरण करें, क्योंकि जो कामनाओं से ऊपर उठ सकता है वही अपनी आत्मा का रक्षण कर सकता है। दुःख विमुक्ति का उपाय ___ यदि दुःख का मुख्य कारण बाह्य तथ्य न होकर चैतसिक अवस्था है तो फिर दुःख विमुक्ति तभी संभव होगी जबकि दुःख की चैतसिक कारणों का निराकरण कर दिया जायेगा। ऋषिभाषित में सारिपुत्त कहते हैं कि "व्याधि की जो चिकित्सा की जाती है, वह न सुख है न दुःख है किन्तु चिकित्सा में संलग्न रोगी को सुख और दुःख हो सकता है। मोह का क्षय करने में प्रवृत्त व्यक्ति को सुख और दुःख हो सकते हैं किन्तु जिस हेतु अर्थात् अंतरंग व्याधि का नाश कर मुक्ति प्राप्त करने के लिए मोह का क्षय किया जाता है, वहाँ न सुख है और न दुःख है।"२२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सुख और दुःख दोनों ही स्थितियों से ऊपर उठने के निर्देश करता है। सारिपुत्त कहते हैं कि जितेन्द्रिय वीर पुरुष के लिए अरण्य क्या और आश्रम क्या? जहाँ आंतरिक प्रसन्नता है वह अरण्य ही आश्रम है। रोग मुक्ति व्यक्ति के लिए औषधि की कोई आवश्यकता नहीं और शस्त्र के लिए अभेद्यता का कोई अर्थ नहीं, उसी प्रकार स्वभाव में रमण करने वाली आत्मा के लिए शून्य वन और बस्ती दोनों ही आनन्दकारी होते हैं। जबकि शल्य युक्त हृदय वाले व्यक्ति के लिए ये सभी दुःख का कारण होते हैं। अतः सुख और दुःख, यह तथ्यगत या वस्तुगत न होकर के चित्तगत स्थितियाँ है और इसलिए जो विशुद्ध हृदय है वह सुख और दुःख- दोनों का ही अतिक्रमण कर लेता है। पुनः कहा गया है कि "इच्छा ही जन्म-मरण प्रिय का वियोग धनहानि, बंधुहानि, और समस्त क्लेशों का आधार है। इच्छा चाहने वाले को -'इसिभासियाई' 7/3,5 21. (अ) आलस्सेणावि जे केइ, उस्सुअत्तं ण गच्छति। तेणावि से सुही होइ, किंतु सद्धी परक्कमे।। (ब) कामं अकामकामी, अत्तताए परिव्वए। सावजं णिरक्जेणं परिण्णाए परिव्वएन्जासित्ति ।। त्तिबेमी।। 22. (अ) मोहक्खए ठ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुह। मोहक्खए जहा-हेऊ न दुक्खं न वि वा सुह।। . (ब) णं दुक्ख ण सुहं वा वि, जहा-हेतु तिगिच्छति। तिगिच्छिए सुजुत्तरस, दुक्खं वा जति वा सुह।। 23. दन्तिन्दियस्स वीरस्स, किं रण्णेऽस्समेण वा? जत्थ जत्थेव मोदज्जा, तं रणं सो य अस्समो। 24. वही, 38/1-15 - वही, 38/9 -वही, 38/8 -इसिभासियाई 38/13 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 117 नहीं चाहती है। किन्तु अनिच्छुक को चाहती हैं, अत: इच्छा को अनिच्छा से जीतकर जीव सुख पाता है।२५ ऋषिभाषित के विदुर नामक 17वें अध्याय में भी दुःख विमुक्ति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि "जिस विद्या से बंध मोक्ष जीवों की गति और आगति तथा आत्माभाव का परिज्ञान होता है, वहीं विद्या दु:ख विमोचनी है और इसलिए दुःख विमुक्ति के इच्छुक व्यक्ति को सर्वप्रथम रोग का परिज्ञान होना चाहिये, अर्थात उसे दु:ख और कर्म बंधन को समझ लेना चाहिये, उसके पश्चात रोग का निदान अर्थात् रोग के कारणों को जानना चाहिये। फिर यह निश्चय करना चाहिये कि इस रोग को कौनसी औषधिा उपशान्त कर सकती है और उस औषधि का सेवन करके ही व्यक्ति रोग मुक्त हो सकता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सम्यक् रूप से कर्म अर्थात् दुःख को जान लेता है उसे जानकर उसके कारणों का विश्लेषण करता है और इन कारणों के निराकरण के लिए साधना करता है वह दु:ख विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है।२८ व्यक्ति, जो बंधन और मुक्ति को तथा उसकी फल परंपरा को जान लेता है वहीं कर्मों अर्थात दुःख का नाश करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में बंधन या दु:ख विमुक्ति के उपायों की चर्चा करते हुए प्रथमतः ज्ञान को प्रधानता दी गई है। ऋषिभाषित के इक्कीसवें अध्याय में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अज्ञान ही परम दुःख हैं, अज्ञान से बड़ा भय कोई नहीं है अज्ञान के कारण ही मृग, मत्स्य, पक्षी आदि दु:खी होते हैं। प्राणियों के जन्म, जरा, मृत्यु, शोक आदि अज्ञानमूलक हैं। अज्ञान के कारण औषधि संयोजन, मिश्रण आदि असफल होते हैं किन्तु ज्ञान के कारण औषधि का विन्यास, संयोजन, मिश्रण आदि सफल होते हैं। 25. तम्हा इच्छं अनिच्छाए जिणित्ता सुहमेहती। -इसिभासियाई, 40/5 26. जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागतिं आयाभावं च जाणाति, सा विज्जा दु:क्खमोयणी। -वा, 172 27. सम्म रोगपरिण्णाणं, ततो तस्स विणिच्छत्त। रोगो सह परिण्णाणं, जोगो रोगतिगिच्छित्त।। -वही, 17/3 28. सम्म कम्मपरिण्णाणं, तो तस्स विमोक्खण। कम्ममोक्खपरिण्णाणं, करणं च विमोक्खण।। -वही, 1714 29. अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं। अणाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिण।। मिग बन्झन्ति पासेहि, विहंगा मत्तवारणा। मच्छा गलेहि सासन्ति, अण्णाणं सुहमहब्भयं। जम्मं जरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा। अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती।। विण्णासो ओसहीणं तू, सैजोगाणं व जोयणं। साहणं वा वि विज्जाणं, अण्णाणेण सिज्झति।। विण्णासो ओसहीणं तु. संजोगाणं व जोयण। साहणं वा वि विज्जाणं, णाणजोगेण सिज्झति।। -इसिभासियाई, 21/3, 4, 5, 11, 12 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 . डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी किन्तु उसके साथ-साथ यह भी बताया गया है कि मात्र ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है, जिस प्रकार कोई व्यक्ति रोग और रोग के कारणों को जानकरके भी यदि औषधि का सेवन नहीं करता है तो वह रोग मुक्त नहीं होता है। उसी प्रकार दु:ख और दुःख के कारणों का विश्लेषण करने के पश्चात भी यदि कोई व्यक्ति साधना नहीं करता है, तो वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति दु:ख विमुक्ति की सम्यक् प्रकार से साधना नहीं करता है वह दु:ख विमुक्ति के प्रयत्नों में भी नये दु:खों को आमंत्रित कर लेता है। मधुरायण ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्याय में कहते हैं कि दुःख का अनुभव होने पर दुःखाभिभूत देहधारी दुःख के प्रतिकार का प्रयत्न तो करता है किन्तु सम्यक् प्रयत्न न होने पर वह दुःख के प्रतिकार के प्रयत्न में ही दुःख का उपार्जन कर लेता हैं जैसे खाने की इच्छा वाला मूर्ख व्यक्ति अग्नि और सांप को पकड़कर सुखार्थी होकर भी दुःख को ही प्राप्त करता है। इसी प्रकार दुःखग्रस्त व्यक्ति दु:ख के निराकरण के प्रयत्नों में नये-नये दु:ख के कारणों का संचय कर लेता है। ऋषिभाषित में दुःख के प्रतिकार के प्रयत्न में किस प्रकार की दृष्टि होनी चाहिये इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। उसमें कहा गया है कि पत्थर से आहत क्रौंच पक्षी उसी पत्थर को काटता है, किन्तु सिंह बाण लगने पर बाण पर न झपट कर बाण फेंकने वाले पर झपटता है। आशय यह है कि सिंह दुःख या पीड़ा के कारण पर आघात करता है जबकि क्रौंच पक्षी उस दुःख को ही पकड़ कर दुःखी होता है। दुःखों से मुक्ति वहीं प्राप्त कर सकता है, जो दु:ख के निराकरण का प्रयत्न न करके दु:ख के कारणों के निराकरण का प्रयत्न करता है।३२ ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए एक अन्य उदाहरण भी दिया गया है। जैसे यदि कोई व्यक्ति वृक्ष के मूल को सींचता हैं तो वह उसके फल को प्राप्त करता ही हैं। किन्तु जो मूल को ही नष्ट कर देता है वह फल को प्राप्त नहीं करता है। फलाभिलाषी मूल का सिंचन करता है, किन्तु जिसे फल की अभिलाषा नहीं है। वह मूल का सिंचन नहीं करता।३३ तात्पर्य यह है कि दुःख के कारणों का निराकरण करने पर ही दु:ख से विमुक्त हुआ जा सकता है। जो कारणों का निराकरण नहीं करता है दु:ख के प्रतिकार के कितने ही प्रयत्न क्यों न करें दुःख से विमुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि मूल के -वही, 15/12, 14 30. दुविखतो दुःखघाताय, दुक्खावेत्ता सरीरिणो। पडियारेण दुक्खस्स, दुक्खमण्णं णिबन्धईं। आहारत्थी जहा बालो, वण्हं सप्पं च गेण्हती। तहा मूढो सुहऽत्थी तु, पावमण्णं पकुव्वती।। पत्थरेणाऽऽहतो कीवो, खिणं डसइ पत्थरं। मिगारि ऊ सरं पप्पं, सरुप्पतिं विमग्गति।। 32. वही, 15/24 33. मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलाघाते हतं फलं। फलत्थी सिंचए मूलं, फलघाती, न सिंचति।। -इसिभासियाई, 15/24 -वही, 15/11 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन बने रहने पर फूल पत्ते और फल तो आयेंगे ही। ३४ अतः मुमुक्षु आत्मा को दुःख के मूल को ही समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। जैसे सपेरा सांप को समाप्त न करके सांप के विष को ही समाप्त करता है । ३५ अप्रमत्त दशा का स्वरूप ऋषिभाषित मुख्यतया अध्यात्मविद्या का ग्रंथ है। अतः उसमें सदाचरण या दुराचरण के संदर्भ में आत्मचेतनता को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। जो भी कर्म आत्मविस्मृति या प्रमाद दशा में होता है वह नैतिक नहीं हो सकता । आत्मजागृति या अप्रमत्तचेता होना ही उसमें साधना का मूल लक्ष्य माना गया है। ऋषिभाषित के 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में उद्दालक ऋषि कहते हैं कि " जागरणशील वीर श्रमणं से दोष उसी तरह दूर हो जाते हैं जैसे दाह भीरू प्राणी जलती हुई आग को देखकर दूर भाग जाता है । " जो अपने प्रति सदैव जागृत रहता है वहीं सांसारिक क्लेशों से विमुक्त हो सकता है। जिस प्रकार जागृत रहने वाले व्यक्ति के घर में चोर प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार जो अप्रमत्त चेता और आत्मजागृत होता है उसमें विषय वासना रूपी चोर प्रवेश नहीं कर पाते हैं। ऋषिभाषित में कहा गया है कि “पाँच इन्द्रियाँ, चार संज्ञाएँ, त्रिदण्ड, त्रिशल्य, तीन (गर्व) वाइस परिषह और चार कषाय ये सभी चोर है। इसलिए सदैव जागृत रहो, सोओ मत, धर्माचरण में प्रमाद मत करो, अन्यथा विषय कषाय आदि अनेक चोर तुम्हारे संयम और योग का हरण करने में नहीं चुकेंगे। २७ आगे पुन: कहा गया है कि "ये विषय वासना एवं कषाय रूपी चोर तुम्हारे सत्कर्मों का हरण कर तम्हें दुर्गतिदायक कर्मों की ओर प्रेरित कर देंगे।" जो साधक तो सोकर भी जागता है अर्थात् विषय वासनाओं के प्रति सुप्त होकर के भी वह अपनी आत्मा के प्रति सदैव जागृत रहता है । इसीलिए यह कहा गया है कि जो सोता रहता है अर्थात् प्रमत्त होता है वह सुखी नहीं होता और जो जागृत रहता है वह सुखी होता है । " इसके 34. इसिभासियाई, 15/7 35. तम्हा उ सव्वदुक्खाणं, कुज्जा मूलविणासणं । वालग्गाहि व्व सप्पस्स, विसदोस विणासणं ।। 36. जागरतं मुणिं वीरं, दोसा वज्जेन्ति दूरओ। जलन्तं जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो || 37. पचिन्दियाई सण्णा दण्डा सल्लाइं गारवा तिणि। बावीसं च परीसह, चोरा चत्तारि य कसाया । । गाही मा सुवाही, मा ते धम्मचरणे पमत्तस्स । काहिन्ति बहु चोरा, संजमजोगे हिडाकम्मं ।। 38. जागरह णरा निच्वं, मा भे धम्मचरणे पमत्ताणं । काहिन्ति बहू चोरा, दोग्गतिगमणे हिडाकम्मं ।। 39. जागरह णरा णिच्वं, जागरमाणस्स जागरति सुतं । जे सुवति ण से सुहिते, जागरमाणे सुही होति ॥ 119 - इसि भासियाई, 15/32 - वही, 35/24 -ast, 35/20 - वही, 35/19 -वही, 35/21 -वही, 35/23 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विपरीत जो विषय-वासनाओं के प्रति जागते रहते हैं वे वस्तुतः सोए हुए ही हैं ऐसे व्यक्ति औषधि के महत्त्व को न समझकर घाव से या व्रण से मुक्त नहीं हो पाते। वस्तुत: जो अप्रमत्तचेता नहीं होते वे परमार्थ को नहीं प्राप्त कर सकते। परमार्थ के प्रति जागृत होने का अर्थ अपने प्रति जागृत होना, अपनी विषय वासनाओं और कषायों को देखना है। उद्दालक स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि आत्मार्थ के प्रति सदैव जागृत रहो किन्तु पर के प्रति अर्थात् भौतिक विषयों के प्रति जागृत रहने का प्रयत्न न करो, क्योंकि "जो स्व के प्रति जागृत नहीं रहता है और प्रमत्त होकर पर की प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है वह आत्मार्थ को अर्थात् अपनी आध्यात्मिक शांति या समाधि को खो देता है।''४० अरे! जब स्वयं का घर जल रहा हो तो दूसरों के घर की ओर क्यों दौड़ते हो, स्वयं का घर जल रहा हो तो दूसरों के घर की आग बुझाने का प्रयत्न मत करो। यदि कोई दूसरा पाप का आचरण कर रहा है तो तुझे मौन धारण करने से क्या हानि होगी, अर्थात् दूसरों के अशुभ आचरण को देखकर दुःखी या प्रसन्न होने का तुझे तो कोई लाभ नहीं मिलेगा, अपितु व्यर्थ ही अपने को दुःखी (तनावों से ग्रस्त) बनायेगा। समग्र साधना का सार यही है कि आत्मार्थ के प्रति जागृत रहना, यही मुक्ति का हेतु है और पर पदार्थों के प्रति जागृत रहना यह कर्म बंध का हेतु है। आत्मा के प्रति सजगता स्व और पर दोनों के लिए ही कल्याण कारक है। दूसरों के जागृत रहने से तुझे क्या मिलेगा, स्वयं अपने को जागृत रख, क्योंकि यह संसार चोरों से अर्थात् कषायों से भरा हुआ है।४२ अप्रमत्त जीवन शैली के संदर्भ में ऋषिभाषित में एक बहुत ही सुंदर उदाहरण दिया गया है। उसमें कहा गया है कि "मुनि तैलपात्र धारक के समान एकाग्र मन होकर विचरण करे। जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में भरत के कथानक में तैलपात्र धारक की कथा उपलब्ध होती है। कथा इस प्रकार है-- जब किसी व्यक्ति ने ऋषभ के मुख से यह सुना कि भरत इसी भव में मुक्त होने वाला है तो उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ, उसके मन में विचार आया कि राज्य वैभव में आकण्ठ डूबा हुआ भरत जैसा व्यक्ति कैसे इसी भव से मुक्त हो सकता है। उसकी यह आशंका जब भरत -इसिभासियाई,35/15 40. आतडे जागरो होहि, मा पराहिधारए। आतट्ठो हायए तस्स, जो परट्ठाहिधारए।। 41. सए गेहे पलितम्मि, किं धावसि परातको सयं गेहं णिरित्ताणं, ततो गच्छे परातक।। जइ परो पडिसेवेन्ज, पावियं पडिसेवणं। तुझ मोणं करेन्तस्स, के अढ़े परिहायति।। 42. अण्णातयम्मि अटालकम्मि किं जग्गिएण वीरस्स। णियगम्मि जग्गियव्वं, इमो हु बहुचोरतो गामो।। 43. तम्हा पाणदयट्ठाए, तेल्लपत्तधरो जधा। एग्गयमणीभूतो, दयत्थी विहरे मुणी।। -वही, 35/14, 16 -वही, 35/18 -वही, 45/22 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 121 को ज्ञात हुई तब उन्होंने उसे प्रतिबोध देने के लिए एक योजना तैयार की उसे कहा गया कि तुम्हें तेल से भरा पात्र हाथ में लेकर अयोध्या नगर में घूमना है। किन्तु ध्यान रहे यदि तैल पात्र से एक भी बूंद नीचे गिरी तो तुम्हारा सर धड़ से अलग कर दिया जायेगा। तलवार लेकर दो सिपाही उसके साथ कर दिये गए। उसने अत्यंत सावधानी पूर्वक सजग रहते हुए भ्रमण किया अयोध्या के बाजारों और चौराहों पर क्या देखा यह पूछने पर उस व्यक्ति ने भरत को कहा कि मुझे तेल का कटोरा और मौत के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। भरत ने उसे समझाया कि जिस प्रकार बाजार में घूमते हुए भी तुम उसे नहीं देख पाये, उससे विमुक्त रहे, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मृत्यु को देखता हुआ सांसारिक उपलब्धियों में अप्रमत्त होता है वह संसार में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है। इस कथा का तात्पर्य इतना ही है कि जो व्यक्ति अप्रमत्तचेता होता है, वह संसार में रहकर भी बंधन को प्राप्त नहीं होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में कहा गया है कि शल्य, शस्त्र, विष, यंत्र, मदिरा सर्प और कटुवाणी के परिणामों को समझकर जो उनका त्याग कर देता है वह उनके दोषों से लिप्त नहीं होता है। इसका तात्पर्य यही है कि जो साधक अप्रमत्त चेता होता है, वह दोषों से लिप्त नहीं होता है क्योंकि वह प्रत्येक कार्य के संदर्भ में अपनी दीर्घ दृष्टि से उनके परिणामों को जान लेता है और फल स्वरूप उनके परिणामों का ज्ञाता होकर उनमें लिप्त नहीं होता। कषाय और उसका स्वरूप ऋषिभाषित के 9वें अध्याय में कर्म बंध के कारणों की चर्चा करते हुए कषाय का उल्लेख हुआ है। कषाय शब्द सामान्य रूप से श्रमण परंपरा का और विशेष रूप से जैन परंपरा का एक विशिष्ट शब्द है। यह शब्द सामान्यतया दूषित मनोवृत्तियों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि इस अर्थ में इसके क्वचित् प्रयोग हिन्दू और बौद्ध परंपरा में देखे जाते हैं किन्तु इस अर्थ में इसका विशेष प्रयोग तो जैन परंपरा में ही अधिक पाया जाता है। ऋषिभाषित में 9, 25, 26, 29 तथा 35 एवं 36वें अध्याय में कषाय का उल्लेख किया जाता है। जैन परंपरा में कषाय शब्द का अर्थ है, जो आत्मा को कुश करती है अथवा जो आत्मा को कसती है अर्थात् बंधन में डालती है वह कषाय है। कषाय चार माने गए हैं। ऋषिभाषित के 25वें अम्बड 44. देखें-कल्पसूत्र, टीका 45. सत्थं सल्लं विसं जन्तं, मन्जं बालं दुभासणं। वज्जेन्तोतणिमेत्तेणं, दोसेणं ण वि लुप्पति।। -इसिभासियाई.35/12 46. मिच्छ त्तं अनियत्ती य, पमाओ यावि णेगहा। ___कसाया चेव जोगा य, कम्मादाणस्स कारण।। -वही 9/8 47. देखें- (अ) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 499 (ब) अभिधान राजेंद्र कोश, खण्ड 3, पृ. 395 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी नामक अध्ययन में स्पष्टरूप से आर्यजनों को व्यपगत चतुकषाय कहा गया हैं। पुनः 35वें उद्दालक नामक अध्ययन में इन चारों कषायों का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किया गया है। अतः कषायों के स्वरूप और संख्या के संदर्भ में ऋषिभाषित तथा जैन परंपरा में एकरूपता है जैन परंपरा में मूलतः तो चार ही कषाय माने गए हैं, किन्तु आगे चलकर जैन कर्मसिद्धानत में उनके प्रकारों और उपप्रकारों की चर्चा करते हुए 16 कषायों और 9 नो कषायों (उपकषायों) का उल्लेख हुआ है।८ यहाँ हम केवल ऋषिभाषित के आधार पर ही इन कषायों की चर्चा करेंगे। ऋषिभाषित के 35वें अध्याय में कषायों से संबंधित विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इस अध्याय के प्रारंभ में ही कहा गया है कि यह जीव कुपित होकर अहंकारी होकर, मायावी होकर और लोभी होकर हिंसा आदि पाप कर्मों का सम्पादन करता है। क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण ही वह आत्मस्वरूप का विध्वंस करता हुआ चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कषायों को आत्मस्वगुणों का विध्वंस करने वाला। संसार परिभ्रमण अर्थात् बंधन का कारण और हिंसा आदि पाप कर्मों में प्रकृति का आधार माना गया है। परवर्ती जैन साहित्य में भी कषायों के इसी स्वरूप का चित्रण हुआ है। __ जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं ऋषिभाषित में कषायों के केवल चार ही प्रकारों की चर्चा है उसमें निम्न चार कषायों का विवरण उपलब्ध होता है।-(1) क्रोध, (2) मान, (3) माया और (4) लोभ- ये कषाय आत्मा के स्वगुणों का कैसे विनाश करते हैं। इसका चित्रण करते हुए ऋषिभाषित के उद्दालक नामक अध्ययन में कहा गया है कि "अज्ञान ग्रस्त विमूढ़ आत्मा केवल तात्कालिक हित को देखता है और क्रोध को महाबाण बनाकर अपनी ही आत्मा को बींध डालता है। सामान्य बाण से बींधे जाने पर तो मात्र एक ही भव बिगड़ता है किन्तु क्रोध रूपी बाण से बिद्ध होने पर भव सन्तति ही बिगड़ जाती है। इसी प्रकार का उल्लेख मान माया और लोभ के संदर्भ में भी मिलता है।"५० कषाय के कारण भव परंपरा बिगड़ जाती है यह उल्लेख अपने आप में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस तथ्य का 48. त्तवार्थ सूत्र 8/10 49. चउहि ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पन्ता मज्जन्ता गृहन्ता लुब्मन्ता, वज्जं समादियन्ति, वजं समादिइत्ता चाउरन्तसंसारकन्तारे पुणो पुणो अत्ताणं पडिविद्धसन्ति। -'इसिभासियाई',35/ गद्यभाग 50. अण्णाविष्पमूढप्पा, पच्चुप्पण्णाभिधारए। कोवं किच्चा महाबाणं, अप्पा बिंधइ अप्पक।। मण्णे बाणेण विद्धे तु भवमेक्कं विणिज्जति। लोध बाणेण विद्धे तु, णिज्जती भवसंतति।। अप्पाण.......अप्पा बिंधई अप्पक। -'इसिभासियाइ', 35/2-9 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 123 सूचक है कि प्रत्येक कषाय अपनी अभिव्यक्ति के सम्य कषायों की एक श्रृंखला खड़ी कर लेती है। और यह श्रृंखला ही व्यक्ति की आध्यात्मिक शांति और समाधि को भंग करके उसे जन्म जन्मांतर में पीड़ा देती रहती है। कषाय विजय कैसे संभव है इस संदर्भ में ऋषिभाषित में कहा गया है कि "मन को विजित कर लेने पर कषाय भी विजित हो जाते हैं क्योंकि कषायों का जन्म स्थान मन ही है। ऋषिभाषित में वर्द्धमान कहते हैं कि जो मन और कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह शुद्ध आत्मा ही आहूत अग्नि के समान दैदीप्यमान होता है। ___उद्दालक कषाय विमुक्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि "क्रोधादि चारों कषायों का विनाश करने के लिए सन्मतिपूर्वक समभाव का आलम्बन और स्व तथा पर का ज्ञाता होकर विषय वासना से रहित पथ में विचरण करें।५२ वर्द्धमान और उद्दालक के इन कथनों में एक मनोवैज्ञानिक सत्य रहा हुआ है। सर्वप्रथम तो कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें मन पर विजय प्राप्त करना चाहिये क्योंकि कषाय मन के आधार पर ही जीवित रहते हैं किन्तु मन पर कैसे विजय प्राप्त की जाये-यह भी विचारणीय है। मन पर विजय प्राप्त करने के लिए आत्मद्रष्टा भाव और समत्वभाव का आना आवश्यक है। मन में अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों के अवसर पर जब तक समभाव नहीं रहता है, तब तक चित्त उद्धेलित रहता है और यह उद्धेलित चित्त ही कषायों को जन्म देता है किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति का यह समत्व तभी सम्भव है, जब आत्मा ज्ञाता द्रष्टा भाव में रहे। जब आत्मा द्रष्टा या साक्षीभाव में आता है, तब क्रोधादि के प्रति भी साक्षी भाव बनेगा और ऐसी स्थिति में कर्तृत्त्व भाव का निषेध होने पर क्रोधादि कषाय निर्मूल होकर समाप्त हो जायेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित न केवल कषायों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है अपितु उनके शमन का मनोवैज्ञानिक उपाय भी प्रस्तुत करता है। कषायों की संहारक शक्ति ऋषिभाषित में इस तथ्य को स्पष्टरूप से विवेचित किया गया है कि कषायों का उपशमन कषायों के माध्यम से संभव नहीं है। ऋषिभाषित के 36वें अध्याय में 'तारायण' नामक ऋषि कहते हैं कि "कोपभाजन के प्रति किया गया क्रोध मेरे लिए और उसके लिए अर्थात् दोनों के लिए ही दुःखप्रद होता है। क्रोध अग्नि है अंधकार है, मृत्यु है, विष है, व्याधि है, शत्रु है, रज है, जरा है, हानि है, भय है, शोक है, -'इसिभासियाई' 2917 51. जित्ता मणं कसाए या, जो सम्मं कुरुते तवं। संदिप्पते स सुद्धप्पा, अग्गी वा हविसाऽऽहुते।। 52. तम्हा तेसिं विणासाय, सम्ममागम्म संमति। ... अप्पं परं च जाणित्ता, चरेऽविसयगोय।। -वही, 35/10 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी मोह है, शल्य है और पराजय है। अग्नि को बलशाली माना जाता है, किन्तु क्रोधाग्नि अपरिमित होती है। अग्नि को बुझाया जा सकता है किन्तु क्रोधाग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी बुझाना असंभव है। अग्नि केवल इस शरीर को जलाती है और अग्नि से जला हुआ व्यक्ति स्वस्थ भी हो सकता है किन्तु क्रोधाग्नि भव-भवान्तर में जलाती रहती है। अग्नि का जला हुआ व्यक्ति शांति को प्राप्त कर सकता हैं किन्तु क्रोधाग्नि से जलने वाले व्यक्ति को कभी शांति प्राप्त नहीं होती है। क्रोध स्वयं को तो जलाता ही है किन्तु वह दूसरों को भी जलाता है उसके कारण अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष सभी पुरुषार्थ जल जाते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रज्ञावान क्रोधाग्नि की दुष्टता और भस्मशीलता की समीक्षा करके उसे निरूद्ध कर देता है।५३ ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कषायों के स्व-पर विनाशक स्वरूपों का विस्तृत चित्रण किया गया है और साधक आत्मा को यह निर्देश दिया गया है कि वह कषाय रूपी अग्नि से आत्मा की सुख और शांति को नष्ट न होने दें।५४ -0 53. कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्म च तहेव काम। तीव्वं च वेरं पि करेन्ति कोधा, अधरं गति वा वि उविन्ति कोहा।। 54. कोवो अग्गितमो मच्चू. . . . . . संसारे सव्व देहिणं। -इसिभासियाई, 36/14 -वही, 36/3-8 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 125 षष्ठ अध्याय ऋषिभाषित का नैतिक दर्शन ऋषिभाषित की अध्यात्मिक जीवन दृष्टि ऋषिभाषित मुख्यतः आध्यात्मिक साधना परक ग्रंथ है। अतः आध्यात्मिक जीवन दृष्टि ही उसका प्रतिपाद्य विषय है। ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में उसके इस आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का परिचय हमें मिल जाता है। अध्यात्मवाद का तात्पर्य आत्मा अथवा चेतना को बाह्य पदार्थों अथवा घटनाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना हैं। उसमें आत्मविशुद्धि या चित्त शुद्धि ही चरम लक्ष्य होती है। सांसारिक तथ्यों और कर्मकाण्डों का आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में एक नवीन अर्थ प्रदान करना अध्यात्मवाद की एक विशिष्ट शैली रही है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र में तीर्थ स्नान, यज्ञ आदि कर्मकाण्डीय प्रक्रियाओं का अध्यात्मीकरण करते हुए कहा गया है कि तप ही ज्योति है और आत्मा उस ज्योति का स्थान हैं, शरीर अग्निकुण्ड है कर्म इंधन है और संयम साधना ही शांति पाठ है, ऐसा यज्ञ ही ऋषियों के द्वारा प्रशंसित है। इसी प्रकार तीर्थ स्नान का अध्यात्मीकरण करते हुए कहा गया है कि "धर्म ही तालाब है, ब्रह्मचर्य उसका शांति तीर्थ है। आत्मा की अनाकुलता और प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से आत्मा विशुद्ध हो जाता है। ऐसा स्नान ही महास्नान है, जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है।"२ इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि अध्यात्मवादी जीवनदृष्टि धार्मिक कहे जाने वाले कर्मकाण्डों को एक नवीन संदर्भ प्रदान करती है। ऋषिभाषित में इस आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का परिचय उसके छब्बीसवें एवं बत्तीसवें अध्यायों में मिलता है। जहाँ कृषि संबंधी कार्यों का भी आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया गया हैं। उसमें कहा गया है कि "आत्मा ही खेत है, तप बीज है, संयम हल है और ध्यान उस हल की तीक्ष्ण फाल है। सम्यक्त्व ही जुआ (जुडा) है। समिति ही उसकी युगकीलक है। धैर्य ही जोत है। पाँच इन्द्रियों का शमित और दमित होना ही उसके बैल 1. 2. उत्तराध्ययन 12/44 वही 12/46 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है। । सच्चा ब्राह्मण ऐसी ही दिव्य कृषि खेती करता है। सर्व तत्त्वों के प्रति दयारूप, जो ऐसी कृषि करता है वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र विशुद्धि को प्राप्त होता हैं। शब्दान्तर से इसी प्रकार का विवेचन ऋषिभाषित के बत्तीसवें 'पिंग' नामक अध्ययन में भी मिलता है। बौद्ध परंपरा के सुत्तनिपात के 'कसिभारद्वाजसुत्त ' में भी ऐसी आध्यात्मिक कृषि का उल्लेख हुआ हैं।" 126 वस्तुतः श्रमण परंपराओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जीवन की सामान्य घटनाओं और क्रियाओं को आध्यात्मिक रूपक के द्वारा समझाकर व्यक्ति को आध्यात्मिक साधना की दिशा में प्रवृत्त किया हैं । ज्ञातव्य है कि आध्यात्मिक कृषि के संदर्भ में ऋषिभाषित के छब्बीसवें तथा बत्तीसवें अध्याय में तथा 'सुत्तनिपात' के 'कसिभारद्वाज सुत्त' में जो उल्लेख मिलते हैं, वे रूपकों के कुछ अंतर के साथ समान ही है। वस्तुतः श्रमण परंपरा बाह्य कर्मकाण्डों की अपेक्षा आत्मविशुद्धि के प्रयत्नों को ही धर्म साधना का मूल हार्द्र समझती थी । यही कारण है कि उसने यज्ञ-याग संबंधी कर्मकाण्डों का विरोध करके जनसामान्य के समक्ष एक आध्यात्मिक चित्तविशुद्धि की पद्धति को प्रस्तुत किया। ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, अतः उसमें हमें इसी आध्यात्मिक जीवनदृष्टि का परिचय स्थल-स्थल पर मिलता है। उसकी यही आध्यात्मिक जीवनदृष्टि उसके नैतिक दर्शन का आधार है। नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समन्वय नीतिशास्त्र के विद्वानों ने संकल्प की स्वतंत्रता को नीतिशास्त्र की एक पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार किया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस कर्म का चुनाव व्यक्ति अपने स्वतंत्र संकल्प के द्वारा करता है, उसके लिए ही वह उत्तरदायी होता है। दूसरे शब्दों में नैतिक उत्तरदायित्व के लिए संकल्प की स्वतंत्रता आवश्यक मानी गई हैं । किन्तु प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को संकल्प की स्वतंत्रता उपलब्ध है ? पश्चिम और भारतीय दार्शनिकों में कुछ ऐसे दार्शनिक भी है, जो यह मानते हैं कि मनुष्य के पास संकल्प की स्वतंत्रता जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, उसके समग्र संकल्प और उसका व्यवहार किसी अन्यशक्ति से नियंत्रित और शासित है। ईश्वरवादियों ने इस शक्ति को ईश्वरीय इच्छा या दैवी इच्छा कहा है। वे श्रमण परंपराएँ 3. 4. 5. 'इसिभासियाई' 26/7-15 at, 32/2-4 सदा बीजं तपो वुट्ठि पञ्जा में युगनंगलं। हिरि ईसा मनो योत्तं सति में फालपाचनं ।। कायगुतो वचीगुत्तो आहारे उदरे यतो । सच्चं करोमि निद्दानं सोरच्चं मे पमोचनं । । एवम्सा कसी कट्ठा सा होति अमतप्पला । एतं कसं कसित्वान सव्वदुक्खा पमुच्चतीति।। - सुत्तनिपात 4 - सिभारद्वाजसुत्त Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती हैं उन्होंने उसे पूर्व कर्म संस्कार या स्वभाव के रूप में परिभाषित किया है। ऋषिभाषित में हमें स्वभाववाद और नियतिवाद के कुछ उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ऋषिभाषित के छठें वल्कलचीरी नामक अध्ययन में तथा मंखलिपुत्र नामक ग्यारहवें अध्याय में नियतिवादी तत्त्व परिलक्षित होते है। वल्कलचीरी कहते हैं कि जिस प्रकार गमन की इच्छा होने पर भी रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति गमन नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष सम्यक् मार्ग को प्राप्त करके भी कर्मरूपी रस्सी अर्थात् स्वभाव से जकड़ा होने के कारण लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता निराधार आकाश में छोड़े गए पुष्प के समान दृढ़ रस्सी से बद्ध मनुष्य के लिए विधि अर्थात् भाग्य ही बलवान है । " ऐसा मनुष्य जब आकाश में स्वतंत्र पक्षी को उड़ान भरते देखता है तो वह स्वतंत्र होने की आकांक्षा करता है किन्तु स्वयं को दृढ़ रस्सी से निबद्ध देखकर उसे विधि ही बलवान प्रतीत होती है। " इस प्रकार हम देखते है कि वल्कलचीरी यह प्रतिपादित करते हैं कि यद्यपि मनुष्य में स्वतंत्र होने की आकांक्षा रही हुई है फिर भी वह अपने स्वभाव अर्थात् कर्मों से आबद्ध होने के कारण स्वतंत्र नहीं है। स्वभाव अर्थात् कर्मों से आबद्ध व्यक्ति के लिए विधि को बलवान मानना ही अधिक सार्थक है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तव में स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता उसे संसार में नियति के विधान को स्वीकार करके ही आत्मतोष का अनुभव हो सकता है। उनके अनुसार जिस प्रकार रस्सी में जकड़ा हुआ व्यक्ति एक सीमा से आगे स्वतंत्र रूप से विहरण नहीं कर सकता, उसी प्रकार स्वभाव से निबद्ध अथवा पूर्व कर्म संस्कारों से जकड़ा हुआ व्यक्ति एक सीमा से आगे अपना आचरण करने में स्वतंत्र नहीं है। जिस प्रकार आकाश में फैला गया पुष्प एक निश्चित क्रम में पृथ्वी पर गिरता ही है उसी प्रकार प्राणी अपने स्वभाव के कारण एक निश्चित क्रम में ही आचरण करता है। इसी प्रकार ऋषिभाषित में मंखलिपुत्त नामक ग्यारहवें अध्याय में भी नियतिवाद के तत्त्व परिलक्षित होते हैं। मंखलिपुत्त कहते हैं कि " जो द्रव्यों के गुण लाघव का संयोजक करता है वहीं संयोग - निष्पन्नता समस्त कार्यों को पूर्ण करती है । इसका तात्पर्य यह है कि जिस-जिस वस्तु में जो 2 गुण धर्म रहे हुए हैं उस-उस वस्तु के व्यवहार की अभिव्यक्ति उस उस रूप में ही होती है। " जिस प्रकार आम की 6. 7. सुत्तमेत्तगतिं चेव, गंतुकामे वि से जहा । एवं लद्धा वि सम्मग्गं, सभावाओ अकोविते ।। 127 मुक्कं पुषं व आगासे, णिराधारे तु से णरे । ढ - सुम्बणिबद्धे तु, विहरे बलवं विहिं । । ast, 6/6 -' इसिभासियाई' 6/6, 5 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी गुठली से आम ही उत्पन्न होता है अन्य कोई वृक्ष नहीं।" दूसरे शब्दों में, आम की गुठली में आम के अतिरिक्त अन्य किसी वृक्ष को उत्पन्न करने की क्षमता का अभाव है। उसी प्रकार व्यक्ति के व्यवहार की भी कुछ नियत सीमाएँ हैं, जिनसे अलग हटकर उनका व्यवहार नहीं हो सकता। वस्तुगत नियत सीमाएँ हैं, जिनसे अलग हटकर उनका व्यवहार नहीं हो सकता। वस्तुगत स्वाभाविक नियतता को स्वीकार करना ही मंखलिपुत्त का नियतिवाद है। जैन और बौद्ध परंपराओं में गोशालक को नियतिवादी माना गया हैं यहाँ हम कहना चाहेंगे कि नियतिवादी वह विचारधारा है, जो व्यक्ति के पुरुषार्थ की अपेक्षा विश्व की एक नियत व्यवस्था पर बल देती है और इस नियत व्यवस्था का आधार वस्तु के स्वस्वभाव को मानती है। यह सत्य है कि मंखलिपुत्र एक नियतिवादी विचारक रहे हैं। किन्तु मंखलिपुत्र के इस नियतिवाद का लक्ष्य व्यक्ति के कर्तृत्त्व अहंकार को समाप्त कर उसे एक अनासक्त समभावपूर्ण जीवनदृष्टि प्रदान करना है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, प्रभावित होता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, वह साधक तदनुरूप मनोभावों से प्रभावित होने के कारण आत्मरक्षक नहीं बन सकता।" मंखलिपुत्र के उपदेश का तात्पर्य मात्र इतना है कि विश्व की घटनाएँ उसकी अपनी व्यवस्था के अनुरूप तथा एक निश्चित क्रम में घटित होती रहती है। व्यक्ति के नहीं चाहने पर भी जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों आती है, जो साधक जीवन की इन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को पुद्गल की परिणति समझकर इनसे अप्रभावित, अक्षोभित और अनाहत रहता है वही अपने को दुःखों और तनावों से मुक्त रख सकता है। वस्तुतः नियतिवाद नैतिकता की विरोधी विचारधारा नहीं है, अपितु एक अनासक्त जीवन दृष्टि निर्माण की एक आवश्यक शर्त है। नियतिवाद का मुख्य उद्देश्य नैतिकता का अपलाप करना नहीं, किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त के समत्व की साधना को सीखाना है। हम देखते हैं कि सम्भावपूर्ण अनासक्त जीवन दृष्टि के निर्माण के लिए गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था। जो विचारक यह मानकर चलते हैं कि नियतिवाद और नैतिक दायित्व में परस्पर विरोध है, वे नियतिवाद के प्रयोजन को ही नहीं समझते है। चाहे नैतिक दायित्व और नियतिवाद में अंतरविरोध हो, किन्तु यदि नैतिक और धार्मिक साधना का उद्देश्य चित्तवृत्ति का समत्व माना जाय तो उसकी उपलब्धि के लिए हमें नियतिवादी जीवन-दृष्टि को स्वीकार करना ही होगा। 8. इसिभासियाई, 11/3 9. वही, 11 का गद्यभाग 10. भगवद्गीता 18/6, 17 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जैन दर्शन में भी कर्मविपाक के संदर्भ में किसी सीमा तक इस नियतिवादी दृष्टिकोण को स्वीकार किया गया है। ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद किन्तु उपरोक्त नियतिवादी अवधारणा पुरुषार्थ की विरोधी नहीं है। नियति और पुरुषार्थ वस्तुतः दो जीवन दृष्टियाँ है । घटित घटनाओं के संदर्भ में नियतिवादी जीवन दृष्टि ही हमें चित्त शांति प्रदान कर सकती है, किन्तु जहाँ तक हमारे वर्तमान का प्रश्न है उस संदर्भ में पुरुषार्थ आवश्यक है। क्योंकि वर्तमान का पुरुषार्थ ही भविष्य का आधार बनता है। ऋषिभाषित में नियतिवादी के साथ-साथ पुरुषार्थवाद का भी . प्रतिपादन उपलब्ध होता है। 129 ऋषिभाषित के अंतिम पैतालीसवें अध्याय की अंतिम गाथा स्पष्टरूप से पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन करती है उसमें कहा गया है कि "जिस प्रकार पुष्प का अभिलाषी पुष्प के आदि कारण अर्थात् बीज की रक्षा करता है, उसी प्रकार साधक को स्वयं में प्रकट होने वाली पराक्रम शक्ति का सम्यक् प्रकार से संयम में उपयोग करना चाहिये।११ नियतिवाद और पुरुषार्थवाद का समर्थन ऋषिभाषित नियति और पुरुषार्थ में किस प्रकार समन्वय स्थापित किया जा सकता है इस संबंध में एक सुस्पष्ट दृष्टिकोण उपलब्ध करता है। नवें अध्याय में महाकाश्यप कहते हैं कि "बद्ध स्पृष्ट, निद्धत कर्मों में उपक्रम, उत्कर्ष, संक्षोभ और क्षय हो सकता है किन्तु निकाश्चित् कर्म का तो अनुभव करना ही पड़ता है । देहधारियों की स्थिति अल्प है और उनके दुष्कृत अत्याधिक हैं। अतः पूर्व में बद्ध कर्मों की समाप्ति के लिए दुष्कर तप करना आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में एक ओर वह कुछ कर्मों के फलविपाक को अपरिहार्य मानकर नियतिवाद का समर्थन करता है तो दूसरी ओर कुछ कर्मों को फलभोग किये बिना ही समाप्त किया जा सकता है, यह कहकर पुरुषार्थवाद का समर्थन करता है। दूसरे शब्दों में कुछ कर्मों का फल विपाक नियत होता है और कुछ कर्मों का फल - विपाक अनियत । कर्मों के विपाक की इस अनियता में ही पुरुषार्थ का मूल्य एवं महत्व स्पष्ट होता है। यदि आत्मा में इस पुरुषार्थ को संभव नहीं माना जायेगा तो साधना संबंधी समस्त उपदेश निरर्थक हो जायेगा। अतः हमें यह मानना होगा कि धर्म और नैतिकता के क्षेत्र में अथवा कर्म सिद्धान्त के संदर्भ में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद दोनों ही आवश्यक है । व्यवहारिक जीवन के क्षेत्र में भी न तो मात्र 11. भगवद्गीता, 45/53 12. वही, 9 / 12, 14 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पुरुषार्थ से ही सभी कुछ होता है और न मात्र नियति को ही सब कुछ मान लेने पर कार्य सिद्ध किया जा सकता है। जीवन में नियति और पुरुषार्थ का सम्यक् समन्वय ही हमें यथार्थ दृष्टि प्रदान कर सकती है। हमारे जीवन में नियति और पुरुषार्थ का क्या स्थान है इसे डॉ. राधाकृष्णन ने एक सुंदर रूपक के द्वारा स्पष्ट किया है। वे लिखते है कि "जीवन एक ताश के खेल की तरह है, पत्ते हमें बाँट दिये गये हैं, हमको कैसे पत्ते मिले और कैसे नहीं मिले, इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, यहाँ तक हम पर नियति-वाद का शासन है किन्तु जो भी पत्ते हमें मिले हैं उनसे एक अच्छा खेल भी खेला जा सकता है और एक बुरा खेल भी खेला जा सकता हैं। यह संभव है कि अच्छे पत्ते होने पर भी एक बुरा खिलाड़ी हार सकता है और बुरे पत्ते होने पर भी एक अच्छा खिलाड़ी बाजी जीत सकता है।३ वस्तुतः पत्ते मिलना यहाँ तक नियति का शासन है किन्तु उन पत्तों से कैसा खेल खेलना यह पुरुषार्थ का क्षेत्र है। इसीलिए ऋषिभाषित के आर्द्रक नामक अट्ठावीसवें अध्ययन में कहा गया है कि "आँखों में अंजन का क्षय, वल्मिक का संचय और मधु का संग्रह सब प्रयत्नपूर्वक ही होता है इसलिए संयम के क्षेत्र में पुरुषार्थी होना चाहिये। हे सुविहित पुरुष! जो क्षण, स्तोक और मुहूर्त जैसे अल्पकाल के लिए जीवन भर प्रयास करते हैं, उनकी असीम फल प्राप्ति का तो कहना ही क्या? इससे यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित पुरुषार्थ को भी अपेक्षित महत्त्व प्रदान किया गया है, फिर भी यह हमें स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित जिस पुरुषार्थ का समर्थन करता है वह आध्यात्मिक साधना या आत्मविशुद्धि के लिए होना चाहिये। सांसारिक विषय भोगों अथवा सुख-सुविधाओं के लिए किये गये पुरुषार्थ को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता हैं। ऋषिभाषित का निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन हम पूर्व में यह संकेत कर चुके हैं कि ऋषिभाषित में पुरुषार्थ का समर्थन तो उपलब्ध है, किन्तु वह जिस प्रकार के पुरुषार्थ का निर्देश करता है वह जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के क्षेत्र में किया गया पुरुषार्थ न होकर संयम साधना और तप साधना के क्षेत्र में किये जाने वाले पुरुषार्थ से संबंधित हैं। ऋषिभाषित के कूर्मापुत्र नामक साँतवें अध्ययन में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि "साधक प्रव्रजित होकर सर्वोत्तम अर्थ अर्थात् मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करें।१५ इसी प्रकार मातंग नामक 13. (अ) "जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि"-डॉ. राधाकृष्णन पृ. 292 (ब)"भगवतगीता"-डॉ. राधाकृष्णन पृ. 053 14. अंजणस खयं दिस्स, वम्मीयस्स य संचयं। मधुस्स य समाहार, उज्जमो संजमे वरं।। खणथोवमुत्तमन्तरं, सुविहित, पाऊणमप्पकालियां तस्स वि विपुले फलागमे, किं पुण जे सिद्धि परक्कमे।। -'इसिभासियाई' 28/22, 24 15. कामं अकामकारी, अत्तताए परिव्वए। सावजं णिरक्जेणं परिणाए परिक्वएज्जासि त्ति नेमि।। -वही, 7/5 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन छब्बीसवें अध्याय में कहा गया है कि साधक धर्म के विविध अंगों की साधना में नियुक्त होकर ध्यान और अध्ययन परायण बने।६ पुनः सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में कहा गया है कि जिस प्रकार व्याधि का नाश करने के लिए वैद्य द्वारा निर्देशित सुखद और दुःखद औषधिायों का सेवन किया जाता है, उसी तरह साधक मोह का क्षय करने के लिए सुखद या दु:खद साधना करें।१७ __इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में उपदिष्ट पुरुषार्थ भोगपरक न होकर निवृत्तिपरक है। ऋषिभाषित के प्रत्येक अध्याय के अंत में यही कहा गया है कि "जो साधक इस प्रकार की साधना करता है सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, और अपनी आत्मा का पूर्ण त्राता बनता है और पुनः इस संसार में नहीं आता है ऐसा में कहता हूँ।८ प्रत्येक अध्याय की इस पुष्पिका से यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषितकार की जीवनदृष्टि निवृत्तिपरक हैं यहाँ तक कि बीसवें उत्कलवादी नामक अध्ययन जो कि भौतिकवादी जीवनदृष्टि का समर्थक है, में भी यही पुष्पिका दी गई है। इससे स्पष्टरूप से यह फलित होता है कि ऋषिभाषित की जीवनदृष्टि निवृत्तिमार्गी ही है। यद्यपि ऋषिभाषित का जीवन दर्शन निवृत्तिमार्गी है और वह तप त्याग का ही अनुमोदन करता है किन्तु उसके इस निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन का यह अर्थ नहीं है कि वह दैहिक मूल्यों का पूर्णतः निषेधक है। ऋषिभाषित के ही सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में दैहिक मूल्यों की भी एक सीमा तक उपयोगिता स्वीकार की गई है, वह शरीर के विनाश की नहीं बल्कि उसके संरक्षण की बात कहता है। इसी प्रकार वैश्रमण कहते हैं कि "आँख में अंजन लगाना, घाव पर लेप करना, लाख को तपाना और बाण को झुकाना ये सब कार्य किसी उचित प्रयोजन के लिए ही किये जाते हैं, उसी प्रकार साधक संयम के पालन करने हेतु क्षुधा की तीव्र आग का प्रतिकार करने के लिए आहार आदि ग्रहण करता है क्योंकि ऐसा आहार संयम के संरक्षण के लिए होता है अतः वह उचित है।२० अम्बड नामक पच्चीसवें अध्याय में भी यह कहा गया है कि "जिस प्रकार सारथी रथ का भारवाहन करने के लिए धुरा 16. मेहुणं तु न गच्छेज्जा, णेव गेण्हे परिग्गह। धम्मंगेहिं णिजुत्तेहिं, झाण्ज्झायणपरायणो।। -इसिभासियाई, 26/5 17. वाहिक्खयाय दुक्खं वा, सुहं वा णाणदेसिया मोहक्खयाय एमेव, दुहं वा जइ वा सुह।। -वही, 38/n 18. 'इसिभासियाई' 1-45/अंतिम भाग 19. वही, 38/2 20. अक्खोवंगो, वणे लेवो, तावणं जं जउस्स या णामणं उसुणो जंच, जुत्तितो कज्ज कारण।। आहारादीपडीकारो, सव्वण्णुवयणाहितो। अप्पाहु तिव्ववण्हिस्स, संजमट्ठाए संजमो।। -वही, 45/48, 49 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी 132 की सुरक्षा करता है। लाक्षाकार लाख से आभूषण बनाने के लिए लाख को तपाता है उसी प्रकार निर्ग्रन्थ साधक वेदना निवृत्ति सेवा, ईर्ष्या समिति का पालन, संयम का निर्वाह, जीवन के रक्षण और धर्म चिन्तन के लिए आहार करता है। १ सारिपुत्त नामक अड़तीसवें अध्याय में कहा गया है कि "जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यन्तिक सुख है और ऐसा सुख वरेण्य भी है किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति होती हो उस सुख का मुझे समागम न हो अर्थात् ऐसा सुख वरेण्य नहीं है । २२ सारिपुत्त के इस कथन का आशय यह है कि वे सब सुखानुभूतियाँ जो कि अनुभूति में सुखद होकर भी जिनका परिणाम सुखद न हो, वे साधक के लिए वरेण्य नहीं है। प्रश्न अनुभूति की सुखदता या दुःखदता का नहीं है, प्रश्न उनके विपाक की सुखदता और दुःखदता का हैं देह का संरक्षण और भौतिक सुखों की अनुभूति उसी सीमा तक क्षम्य मानी गई है, जब तक कि उसके परिणाम दुःखद न हों या वे व्यक्ति के चित्त की असमाधि का करण न बनें। सारिपुत्त की दृष्टि में साधक के लिए मुख्य लक्ष्य चित्त की समाधि है, जिस प्रकार सुखानुभूति का सारिपुत्त विरोध नहीं करते। वे उस प्रकार की सुखानुभूति का विरोध करते हैं जिसके कारण आसक्ति और तृष्णा बढ़ती हो अथवा चित्त की समाधि भंग होती हो। वे तो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शय्यासन सुंदर आवास में रहकर यदि भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता हो तो उन सबका उपयोग उनके लिए वर्जित नहीं है, क्योंकि साधक का मुख्य लक्ष्य तो चित्त समाधि या चित्तशांति ही है। यदि अमनोज्ञ भोजन करके और अमनोज्ञ शय्यासन का उपभोग करके और असुंदर आवास में रहकर भिक्षु दुःखपूर्वक ध्यान करता है अर्थात् उसकी समाधि और चित्तशान्ति विचलित रहती है तो ऐसा कष्ट कर जीवन भी उसके लिए उचित नहीं है। २३ यहाँ हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में कुछ ऋषि तो अवश्य ही ऐसे हैं जो . स्पष्टरूप से देहदण्डन रूप निवृत्तिमार्ग का निषेध करते हैं और यह मानते हैं कि उस सीमा तक दैहिक मूल्यों का संरक्षण भी आवश्यक है जिस सीमा तक उनसे साधक की चित्त समाधि या मानसिक शांति भंग न होती हो । उपर्युक्त संदर्भों में यह भी स्पष्ट होता है कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि तो अवश्य ही ऐसे हैं जो देहदण्डन रूप निवृत्तिमार्ग के समर्थक नहीं है। यह सत्य है कि ऋषिभाषित उस श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, जो मूलतः सन्यासीमार्गी या निवृत्तिमार्गी है, किन्तु इस निवृत्ति का प्रयोजन सदैव ही चित्तसमाधि या चित्तशांति रहा है। इसलिए अधिकांश श्रमण परंपरा के ऋषियों का उपदेश यही रहा है कि सांसारिक विषय भोगों के प्रति उस आसक्ति 21. 'इसिभासियाई' 25/6 गद्यभाग 22. वही, 38 / 1 23. वही, 38/2, 3 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 133 या तृष्णा का परित्याग किया जाय, जो साधक की चित्त समाधि को, उसकी आत्मिक प्रसन्नता को भंग करती है। यहाँ विरोध भोगों का नहीं अपितु उनसे उत्पन्न तृष्णा और आसक्ति का है। ऋषिभाषित की निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि हमें मात्र यही संकेत करती है कि जहाँ तक भोतिक जीवन का मूल्य, देह संरक्षण और चित्त समाधि में साधक हैं वहाँ तक वे निकृष्ट नहीं कहे जा सकते, किन्तु यदि उनके कारण चित्त की समाधि भंग होती है, तृष्णा और आसक्ति का उदय होता है तथा मनुष्य की आकंक्षा उसके व्यक्तित्व को जर्जरित करने लगती है तो ऐसे भोग या सांसारिक अनुभूतियाँ निकृष्ट हैं। ऋषिभाषित में वर्धमान नामक उन्नतीसवें अध्यय में भी इसी बात का प्रतिपादन किया गया है कि " सच्चा साधक इंद्रियों के मनोज्ञ विषयों पर न तो आसक्त होता है और न अमनोज्ञ विषयां पर घृणा ही करता हैं इस प्रकार जो भोग और त्याग दोनों में ही जागृत रहकर अविरोध पूर्वक उनका सेवन करता है, वह कर्म स्रोत को रोक देता हैं । २४ यहाँ हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित की जीवनदृष्टि भोगवाद या वैराग्यवाद अथवा प्रवृत्ति या निवृत्ति के मध्य एक सम्यक संतुलन बनाने का प्रयास करती है। ऋषिभाषित दैहिक मूल्यों के संरक्षण को उसी सीमा तक स्वीकार करता है जिस सीमा तक वे व्यक्ति की चित्त समाधि और संयम साधना में साधक बनते हैं। जिस प्रकार एक जनसेवक उस सीमा तक अपने शरीर आदि की सुरक्षा करता है जिस सीमा तक वह उसे उसके सेवा कार्य के लिए योग्य बनाए रखता है। इसी प्रकार एक संन्यासी भी अपने शरीर का उस सीमा तक संरक्षण करता है जब तक वह उसकी आत्म साधना व लोक मंगल में सहायक बनती है। ऋषिभाषित में आहर ग्रहण और आहार त्याग के छः छः कारणों की जो चर्चा है, उससे इस तथ्य को स्पष्टरूप से समझा जा सकता है । २५ नैतिक मानदण्ड सामान्यतया हिंसा, झूठ असत्य चोरी व्यभिचार आदि को ऋषिभाषित में दुराचार की कोटि में गिना गया और उनसे विरत रहने का निर्देश दिया गया है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ और इन चार कषायों को भी तथा इनके आधार के रूप में रागद्वेष को भी अनैतिक या दुराचार के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है। अतः स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऋषिभाषित में किसी कर्म के नैतिक या अनैतिक होने के आधार क्या है? दूसरे शब्दों में नैतिकता या अनैतिकता की 24. 'इसिभासियाई' 29/3-10 25. वही, 25/6 गद्यभाग Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कसौटी क्या है? क्यों हम किन्हीं कर्मों को नैतिक और किन्हीं कर्मों को अनैतिक मानते हैं। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से तो इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया गया है। किन्तु यदि हम उसमें उपलब्ध विवरणों पर विचार करें तो हमें उसमें सदाचार और दुराचार के संदर्भ में कुछ कसौटियाँ उपलब्ध हो जाती है। यह पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि ऋषिभाषित निवृत्तिमार्गी परंपरा का ग्रंथ है। उसका चरम साध्य निर्वाण की प्राप्ति है। निर्वाण ही दुःख विमुक्ति का सूचक है अतः हम स्पष्टरूप से यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में किसी कर्म के अनैतिक मानने का आधार यह है कि उसके कारण स्वयं उस कर्म के कर्ता को और दूसरे व्यक्तियों को दु:ख प्राप्त होता हैं। वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज के लिए मानसिक अथवा भौतिक दु:खों के कारण बनते हैं, अनैतिक माने जा सकते हैं। ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि संसार में पूर्वकृत पापकर्म ही दु:ख का मूल है। दूसरे शब्दों में दुःख का मूल पाप है। इसलिए भिक्षु पाप कर्म के निरोध के लिए सम्यक् आचरण करें। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में दुःख और दुःख विमुक्ति यही कर्म के नैतिक और अनैतिक होने का आधार है। जो कर्म व्यक्ति स्वयं को और दूसरे व्यक्तियों को दुःख प्रदान करता है, वह अनैतिक है और वे सभी कर्म स्वयं उस व्यक्ति के और दूसरे व्यक्तियें के दु:खों का नाश करते हैं वे नैतिक हैं। यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि दुःख का मूल कारण क्या है? क्योंकि दु:ख का मूल कारण ही अनैतिकता का आधार होगा, इसके विपरीत दुःख विमुक्ति कैसे हो सकती है यही एक ऐसा तथ्य है कि जो नैतिकता · का आधार बन सकता है। ऋषिभाषित के प्रथम अध्याय में यही बताया गया है कि "निर्ममत्व, विमुक्ति और विरति का अनुसरण करना चाहिये क्योंकि यही दुःख विमुक्ति के आधार है।८ अतः हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में भी सुख और दुःख ही नैतिकता और अनैतिकता के आधार हैं, किन्तु नैतिकता के इस बाह्य आधार के साथ-साथ ऋषिभाषित के इक्कीसवें अध्याय में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि अज्ञान ही परम दुःख है। अज्ञान ही भय का कारण है, अज्ञान ही संसार है।२९ इसके विपरीत अज्ञान का परिवर्जन करके ज्ञान के आधार पर सर्व दु:खों का अंत किया जा सकता है, अतः एक अन्य दृष्टि से हम यह भी कह सकते हैं कि ऋषिभाषित सुख-दु:ख की अनुभूतिमूलक कसौटी के साथ-साथ ज्ञान और 26. संसारे दुःखमूलं तु, पावं कम्मं पुरेकडं। . पावकम्मणिरोधाय, सम्म भिक्खु परिव्वए।। -'इसिभासियाई' 15/6 27. वही, 15/6 28. वही, 1/1 29. वही, 21/1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन अज्ञान की कसौटी को भी नैतिकता का आधार बनाता है। वे सभी कर्म जो अज्ञान से प्रसूत हैं, वे सब अनैतिक हैं और इसके विपरीत जो कर्म ज्ञानमूलक हैं, वे दु:ख का प्रहाण करने में समर्थ होने के कारण नैतिक माने जा सकते हैं। गाथापति नामक इक्कीसवें अध्याय में गाथापति पुत्र तरुण ऋषि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ज्ञान मूलक जीव चतुर्गति रूप संसार का नाश कर देते हैं इसलिए में भी अज्ञान का परित्याग करके और ज्ञान को प्राप्त करके सब दुःखों का अत करूँगा और सब दुःखों का अंत करके शिव, अचल और शाश्वतपद में स्थित होउँगा।३° उपर्युक्त कथन में ज्ञान से दु:खों का नाश होता है यह कह कर पाश्चात्य नैतिक दर्शन का सुखवादी और बुद्धिवादी परंपराओं के बीच समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। यह सत्य है कि हम कर्म परिणाम की दृष्टि से विचार करें तो वे सभी कर्म जो दु:खद है अनैतिक है और वे सभी कर्म जो सुखद है नैतिक हैं। किन्तु यदि हम कर्म प्रेरक की दृष्टि से विचार करते हैं तो वे सभी कर्म जो अज्ञानजन्य ममत्व या आसक्ति से निश्रित होते हैं अनैतिक माने जायेंगे और इसके विपरीत जो कर्म अनासक्ति, निर्ममत्व और ज्ञानपूर्वक किये जाते हैं, वे नैतिक कहे जाते हैं। पाश्चात्य नैतिक दर्शन में कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी को लेकर एक दृष्टिकोण यह है कि जिस कर्म को समाज का समर्थन प्राप्त है वह नैतिक है और जो कर्म समाज के द्वारा अमान्य किया गया है वह अनैतिक है किन्तु ऋषिभाषित नैतिकता की इस कसौटी को मान्य नहीं करता है, ऋषिभाषित के सातवें अध्याय में कूर्मापुत्र स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जनवाद त्राता नहीं हो सकता क्योंकि दुराचरण हमारी समाधि का नाश करता है।" चाहे कोई कर्म जन साधारण के द्वारा अनुमोदित हो किन्तु यदि वह व्यक्ति की चित्त समाधि को भंग करता है तो वह कूर्मापुत्र की दृष्टि में अनैतिक ही माना गया है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि "जो दुरित आचरण करते हैं वे समाधि का नाश करते हैं।३२ ऋषिभाषित के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज की समाधि या शांति में साधक हैं, वे नैतिक हैं और वे सभी कर्म जो व्यक्ति और समाज में अशांति उत्पन्न करते हैं, वे अनैतिक हैं। वस्तुतः सभी श्रमण परंपराएँ समत्व या समाधि को ही नैतिकता की कसौटी मानकर चलती हैं। आचारांगसूत्र में तो धर्म को परिभाषित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "आर्यजनों ने समभाव में धर्म कहा है।"३३ समभाव अर्थात् समाधि में जो भी साधक बनता है वह सब आचरण नैतिक आचरण की कोटि - 30. इसिभासियाई, 21/गद्यभाग पृ. 78 31. जणवादो ण ताएज्जा अच्थित्तं तवसंजमे। समाधिं च विराहेति, जे रिटठचरियं चरे।। 32. वहीं, 7/1 33. सम्यिाए धम्मे, आयरिएहिं पवेइए। -'इसिभासियाई' 7/2 -आचारांगसूत्र 5/3 उद्देशक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में आता है। क्रोध मान, माया, लोभादि कषाय और हिंसा झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि दुष्प्रवृत्तियाँ इसलिए अनैतिक मानी जाती है, क्योंकि वे न केवल वैयक्तिक समाधि का भंग करती है, अपितु सामाजिक समाधि अर्थात् सामाजिक शांति को भी भंग करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सुख दुःख और विवेक - अविवेक की कसौटियों के साथ-साथ समत्व को भी नैतिकता की एक कसौटी के रूप में स्वीकार करता है। 136 पाश्चात्य मानवतावादी विचारकों ने किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता का आधार आत्म चेतनता, विवेकशीलात और संयम को माना है। मानवतावादी विचारकों में इस प्रश्न को लेकर अवश्य मतभेद हैं कि आत्म चेतनता, विवेकशीलता और संयम में से किस गुण को नैतिकता का आधार माना जाय । ३४ किन्तु यदि हम इन तीनों गुणों को एक साथ नैतिकता का आधार मानें तो मानवतावादी विचारणा और ऋषिभाषित एक दूसरे को काफी निकट प्रतीत होते हैं। ऋषिभाषित में प्रमाद अर्थात् आत्मचेतना का अभाव, मिथ्यात्व अर्थात् विवेकशीलता का अभाव, अनिवृत्ति अर्थात् संयम के अभाव को कर्मादान अर्थात् अनैतिकता का कारण माना है । ३५ स्मरण रहे कि यहाँ कषाय का अंतर्भाव प्रमाद में और योग का अंतर्भाव अनिवृत्ति में किया जा सकता है। वस्तुतः कोई मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं कहा जाता कि उसका एक विशिष्ट प्रकार का शारीरिक आकार प्रकार है। जब हम मनुष्य को पशु से पृथक करते हैं तो हमारे सामने तीन ही कसौटियाँ होती है । जहाँ पशु में आत्म चेतना, विवेकशीलता और आत्मसंयम के सामर्थ्य का अभाव होता है। वहाँ मनुष्य में ये तीनों गुण पाये जाते हैं। वस्तुतः ये तीन गुण ही मनुष्य को पशु से पृथक् करते हैं। अतः किसी कर्म के संपादन में इन तीन गुणों की उपस्थिति उस कर्म को नैतिक बना देती है। जबकि इन तीन गुणों का अभाव उसे अनैतिक बना देता है। आत्मचेतना, विवेकशीलता और आत्मनियंत्रण निश्चय ही ऐसे गुण है, जिन्हें हम नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी बना सकते हैं। ऋषिभाषित के उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित भी नैतिकता की कसौटी के रूप में इन तीन गुणों को स्वीकर करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि - ऋषिभाषित में नैतिक मानदण्ड का निरूपण अनेक दृष्टिकोणों से हुआ। नैतिक मूल्यांकन का आधार बाह्य घटना और मनोवृत्ति नैतिक मानदण्ड के संदर्भ में यह स्मरण रखना चाहिये कि शुभ और अशुभ के संदर्भ में ऋषिभाषित केवल बाह्य घटना के आधार पर कर्म का मूल्यांकन न करके उसके आंतरिक भावपक्ष को ही महत्त्वपूर्ण मानता है। ऋषिभाषित में असितदेवल ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि " जो आत्मा राग-द्वेष से अभिभूत होकर 34. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 101 35. 'इसिभासियाई' 9/5 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 137 सूक्ष्म अथवा स्थूल प्राणियों की हिंसा करता है, वही पाप कर्म से लिप्त होता है।३६ इसी प्रकार परिग्रह के संदर्भ में भी असितदेवल कहते हैं कि "जो साधक मूर्छा या आसक्ति के दोष से युक्त होकर अल्प या अधिक परिग्रह को ग्रहण करता है वह पाप कर्मों से लिप्त होता है।"३७ ऋषिभाषित में असितदेवल के उपरोक्त कथन से स्पष्टरूप से यह स्पष्ट होता है कि हिंसा और परिग्रह के संदर्भ में बाह्य तथ्यों की अपेक्ष आंतरिक वृत्ति ही महत्त्वपूर्ण है। हिंसा तभी हिंसा होती है जब प्राणवध की घटना के साथ वधिक राग द्वेष से युक्त हो। इसी प्रकार कोई भी वस्तु परिग्रह तभी बनती है जबकि व्यक्ति का उसके प्रति मूर्छा या आसक्ति का भाव हो। यह सत्य है कि हिंसा आदि पापकर्म तभी बंधन कारक होते हैं जब उसके पीछे व्यक्ति की मनोवृत्ति राग-द्वेष से युक्त होती है। इस प्रकार ऋषिभाषित किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार व्यक्ति की प्रवृत्ति को न बनाकर उसकी वृत्ति को बनाता है। यह सत्य है कि सामान्यतया कोई भी प्रवृत्ति वृत्ति का अनुसरण करती है किन्तु नैतिक जीवन के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वृत्ति और प्रवृत्ति में अंतर होता है। जब वृत्ति और प्रवृत्ति में अंतर हो, उस स्थिति में प्रवृत्ति की अपेक्षा वृत्ति ही नैतिक मूल्यांकन का विषय होती हैं। किसी कर्म को नैतिक कसौटी पर कसते समय हमें मुख्य रूप से बाह्य घटना को नहीं, अपितु कर्म प्रेरणा और कर्ता के मनोभावों को ही देखना होता है। ऋषिभाषित के चतुर्थ अध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि "जिस ज्ञान के द्वारा मैं अपनी आत्मा को पहचान सकूँ वहीं ज्ञान अचल और शाश्वत है।"३८ इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व की पहचान व्यक्ति की अंतरात्मा के द्वारा ही संभव है। सामान्यतया दूसरा व्यक्ति तो कर्म का मूल्यांकन कर्म के बाह्य स्वरूप के आधार पर ही करता है। किन्तु उसका मूल्यांकन सदैव सफल नहीं होता क्योंकि व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों या वृत्ति के द्रष्टा तो उसकी ही अपनी आत्मा होती है। अतः यदि हम किसी कर्म का सम्यक् मूल्यांकन करना चाहते हैं तो हमें व्यक्ति की प्रवृत्ति और वृत्ति दोनों पर ही विचार करना होगा। किनतु यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रवृत्ति और वृत्ति में वृत्ति ही महत्त्वपूर्ण होती है। पुनः इस वृत्ति के शुभत्व और अशुभत्व का मूल्यांकन दूसरे किसी व्यक्ति के द्वारा न होकर अपनी अन्तरात्मा की साक्षी से ही किया जा सकता है। अत: नैतिक मूल्यांकन में व्यक्ति की अंतरात्मा का कार्य ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। ऋषिभाषित में अगिरस ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि "व्यक्ति अपने सुकृत और दुष्कृत को स्वयं ही जानता है। कोई दूसरा 36. इसिभासियाई,3/1 37. इसिभासियाई,3/2 38. इसिभासियाई,4/3 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी व्यक्ति किसी के अच्छे और बुरे कर्मों को नहीं जान सकता। इसका तात्पर्य यही है कि आत्मा ही अपने सुकृत और दुष्कृत का सम्यक् मूल्यांकन कर सकता है। दूसरे व्यक्तियों के द्वारा किया गया किसी व्यक्ति का नैतिक मूल्यांकन आवश्यक नहीं कि सत्य ही हो। अंगिरस ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि "बाहरी दुनिया वाले तो कल्याणकारी को पापकारी बताते हैं और पापकारी को सदाचारी बताते हैं। अतः कर्म के मूल्यांकन में अंतरात्मा की भूमिका ही सबसे प्रधान होती है। इसलिए अंगिरस का अंतिम निर्देश यही है, कि जो व्यक्ति स्वयं ही अपने आचार की सम्यक् रूप से समीक्षा करता है और सदैव धर्म मार्ग में सुप्रतिष्ठित रहता है वह जीवन की सन्ध्या में पश्चाताप नहीं करता। कर्म के मूल्यांकन में संकल्प का पक्ष कितना महत्त्वपूर्ण है। इसे स्पष्ट करते हुए अंगिरस ऋषि कहते हैं कि "पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में संकल्पों के द्वारा जो भी सुकृत अथवा दुष्कृत होता है वह कर्ता का अनुगमन करता है। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के मूल्यांकन में संकल्प की भूमिका ही प्रधान होती है, बाह्य घटनाएँ नहीं। प्रस्तुत संदर्भ में जो पूर्व रात्रि और अपर रात्रि का जो उल्लेख किया गया है वह महत्त्वपूर्ण है। दिन में तो सामान्यतया बाहय रूप से जो कुछ करता है, दूसरे लोगों के लिए सामान्यतया उसका वही सुकृत या दुष्कृत मूल्यांकन का विषय बनता है किन्तु रात्रि में जब व्यक्ति सोया हुआ होता हैं, तब बाह्य घटनाएँ नहीं संकल्प ही मुख्य होते हैं। उसमें भी मध्य रात्रि की गहरी नींद को छोड़कर पूर्व और अपर रात्रि में संकल्प विकल्पों की दौड़ भाग सर्वाधिक होती है और हमारी दृष्टि में संकल्पों की इस सक्रियता को और उसके नैतिक महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए ही अंगिरस ने विशेषरूप से पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के संकल्पों का उल्लेख किया हैं इस समस्त चर्चा का निष्कर्ष यही है कि ऋषिभाषित में संकल्प ही नैतिक मूल्यांकन का विषय है और इस संकल्प का नैतिक मूल्यांकन व्यक्ति अपनी सजग आत्मा के द्वारा कर सकता है। -0 39. इसिभासियाई, 4/12 40. वही, 4/13 41. वही, 4/10 42. वही, 4/11 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 139 सप्तम अध्याय ऋषिभाषित का साधना मार्ग हम स्पष्ट रूप से यह देख चुके हैं कि ऋषिभाषित की समस्त साधना का लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। निर्वाण का सामान्य तात्पर्य दु:ख की समाप्ति है और यह समाप्ति जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाने में ही मानी गई है। ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि अपने उपदेश के अंत में यही कहता है कि "इस प्रकार का आचरण करने से व्यक्ति विरत-पाप होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाता है और पुनः इस संसार में नहीं आता है।' यद्यपि इस निर्वाण या सिद्धावस्था की प्राप्ति हेतु ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि ने अपनी-अपनी दृष्टि से साधना मार्ग का प्रतिपादन किया है। किसी ने क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों के जय को प्रमुखता दी है तो किसी ने इंद्रियों के संयम को प्रधानता दी है। कोई सम्यकत्व को प्रमुख मानता है, तो कोई अज्ञान का निवारण करके ज्ञान की प्राप्ति को ही दुःख विमुक्ति का उपाय बताता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में साधना मार्ग की दृष्टि से विविधताएँ हैं। यहाँ तक कि साधना मार्ग की दृष्टि से उसमें परस्पर विरोधी विचार भी पाये जाते हैं। उसमें कोई श्रद्धा का पाठ पढ़ाता है तो कोई अश्रद्धा को ही प्रमुख मानता है। किसी के अनुसार कठोर तप या देह दण्डन ही निर्वाण की प्राप्ति का उपाय है तो कोई सुविधापूर्ण जीवन के माध्यम से ही दुःख विमुक्ति को संभव मानता है। किसी के लिए दुःखों को सहन करके ही निर्वाण का सुख प्राप्त किया जा सकता है तो किसी की दृष्टि में सुख द्वारा ही आत्यान्तिक सुख अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति संभव मानी गयी है। कोई तप पर बल देता है तो कोई ध्यान पर। इस प्रकार ऋषिभाषित में निर्वाण मार्ग या साधना मार्ग के संदर्भ में विविध दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण भी मिलते हैं। ऋषिभाषित के किस ऋषि ने किस पक्ष पर, अधिक बल दिया है, उसका संक्षिप्त विवरण क्रमशः निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं 1- 'इसिभासियाई', 1/अन्तभाग, पृ. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १. नादर ऋषि द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग नारद ऋषि के अनुसार शौच ही मोक्ष का प्रदाता है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि शौच अर्थात् पवित्रता से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। यद्यपि पवित्रता या शौच से उनका तात्पर्य शारीरिक शुद्धि न होकर मनोवृत्ति की शुद्धि से हैं। शौच के लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने अहिंसा, सत्य, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को ही शौच कहा है। किन्तु अंत में सत्य, दत्त (अचौर्य) और ब्रह्मचर्य की साधना को भी मुक्ति का मार्ग कहा है।' | २. वज्जियपुत्त द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग वज्जियपुत्त के अनुसार व्यक्ति अपने अज्ञान या मोह के कारण ही बंधन में है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "जन्म मरण, दुःख, अनिर्वाण तथा कर्म संतति, इन सभी का कारण मोह है और इस मोह के मूल में व्यक्ति का अज्ञान रहा हुआ है। अतः इस मोह का विनाश ही विमुक्ति है।"५ ३. असितदेवल द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग असितदेवल के अनुसार हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि को लेप कहा गया है अर्थात् ये ही आत्मा के बंधन है। अतः मोक्ष के लिए इन लेपों (पाप कर्मों) से विमुक्ति आवश्यक मानी गयी है, किन्तु इस चर्चा के प्रसंग में असितदेवल यह मानते हैं कि इन समस्त पापकर्मों के मूल में मोह और आसक्ति के तत्त्व रहे हुए हैं। अत: मोह या आसक्ति का परित्याग आवश्यक है। वे कहते हैं कि "जो राग-द्वेष और मोहासक्ति का परिज्ञाता होता है। वही जन्म-मरण का नाश कर सिद्धि को प्राप्त होता है। इस प्रकार असितदेवल एक ओर ज्ञान को, तो दूसरी ओर संयम को मुक्ति का आवश्यक साधन मानते हैं। ४. अंगिरस ऋषि का साधना मार्ग अंगिरस, बंधन और मुक्ति का संबंध बाह्य घटनाओं से न जोड़कर मनुष्य की मनोवृत्ति पर निर्भर करते हैं। उनके अनुसार "व्यक्ति स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता होता हैं। अत: उनकी दृष्टि में ज्ञान मुक्ति का आवश्यक अंग है और यह ज्ञान-आत्मस्वभाव में जागृत रहने की स्थिति है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि “शील 2. इसिभासियाई, 1/1 गद्यभाग वही, 1/2 गद्यभाग वही, 1/3 गद्यभाग 5. वही, 27,8 6. वही,3/12 वही, 3/11 8. वही, 4/12 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 141 ही जिसका रथ है, ज्ञान और दर्शन जिसके सारथी है। ऐसे रथ पर आरूढ होकर आत्मा अपने आत्मस्वभाव को उपलब्ध होता है । १९ उनके उपर्युक्त कथन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अंगिरस के अनुसार ज्ञान, दर्शन और शील ये तीनों ही मोक्ष के मार्ग है। जैन दर्शन में जिस दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का तथा बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा रूप निर्वाण मार्ग का उल्लेख है, उसका ही पूर्व संकेत अंगिरस के उपदेशों में है। ५. पुष्पशाल ऋषि द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग पुष्पशाल ऋषि के अनुसार "हिंसा, असत्य (झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तथा क्रोध, मानादि कषायों से विरत तथा विनय गुण संपन्न व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है । "१० इस प्रकार उन्होंने कषाय-जय और पंच महाव्रती के पालन की आवश्यकता माना है। ये दोनों बाते जैन दर्शन में भी स्वीकृत रही है । पुष्पशाल अपने मोक्ष मार्ग के प्रतिपादन में दो तथ्यों को आवश्यक मानते हैं-- एक तो आत्म पर्यायों का द्रष्टा होना और दूसरा विनय का पालन करना । यहाँ आत्मपर्यायों के दृष्टा होने का तात्पर्य है- आत्मसाक्षी या आत्मदृष्टा होना है या अपने विचारों और भावनाओं के प्रति सजग होना । विनय - पालन का तात्पर्य है - आचार के नियमों का पालन करना । ६. वल्कलचीरी का साधना मार्ग वल्कलचीरी के अनुसार अज्ञान ही सबसे बड़ा बंधन है, अतः मुक्ति के लिए ज्ञान साधना आवश्यक है। वे कहते हैं कि ज्ञानांकुश के बिना आत्मा मोक्ष मार्ग में गतिशील नहीं हो सकता है।" उनकी दृष्टि में " अनासक्ति और ज्ञान, यही मोक्ष का मार्ग है । १२ ७. कुर्मापुत्र द्वारा उपदिष्ट साधना मार्ग कुर्मापुत्र के अनुसार " दुराचरण ही समाधि का नाश करता है । ११३ किन्तु समाधि के प्राप्ति के लिए इच्छा और आकांक्षाओं से ऊपर उठना आवश्यक है, क्योंकि “निरकांक्ष व्यक्ति ही समाधि या आध्यात्मिक आनंद को प्राप्त कर सकता है ९४ अतः समाधि की प्राप्ति के लिए कामनाओं का परित्याग आवश्यक है और कामनाओं का यह परित्याग केवल आत्मचेतनता अथवा अप्रमत्तता के द्वारा ही संभव ११४ 9. इसि भासियाई, 4 / 24 10. वही, 5 / 2-4 11. वही, 6/2 12. वही, 6/1 13. वही, 7/1 14. वही, 7/4 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है। उनकी दृष्टि में "अप्रमत्तता ही मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य तत्त्व है, क्योंकि उसके द्वारा ही काम को अकाम बनाकर वासनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।"१५ ८. केतलीपुत्र द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग केतलीपुत्र के अनुसार राग द्वेष अथवा मिथ्यात्व रूपी ग्रंथियों का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है। वे कहते हैं कि "जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने स्वनिर्मित तंतु के बंधनों को काटकर मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार व्यक्ति राग-द्वेष आदि ग्रंथियों का छेदन करके मुक्त हो जाता है।१६ उनकी दृष्टि में "राग द्वेष रूपी इस बंधन को जानकर ही तोड़ा जा सकता है। जो साधक रागद्वेष रूपी ग्रंथियों को जानकर उनका छेदन करता है, वही मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः इनके अनुसार भी ज्ञान और संयम का समन्वय ही मोक्ष मार्ग सिद्ध होता है। ९. महाकाश्यप द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग __ महाकाश्यप के अनुसार "दुख और बंधन का मूल कर्म है"१८ यहाँ कर्म से उनका तात्पर्य पूर्व आचरित पुण्य और पाप के संस्कारों से हैं। उनके अनुसार पुण्य और पाप के ये संस्कार मिथ्यात्व, अनिवृत्ति, प्रमाद, कषाय और योग से निर्मित होते हैं। अतः जन्म मरण की श्रृंखला या दुःख से विमुक्त होने के लिए कर्म बंधन के इन पांच कारणों का निराकरण आवश्यक है। इसके लिए वे संवर और निर्जरा को आवश्यक मानते है।२० संवर का तात्पर्य मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों का संयमन है तो निर्जरा का तात्पर्य तप साधना के द्वारा पूर्व संचित कर्म संस्कारों या कर्म वर्गणाओं को समाप्त करना है। ये कर्म संस्कार किस प्रकार समाप्त हो, इसके लिए महाकाश्यप "युक्त-योगी" होने का निर्देश करते हैं।२१ युक्त योगी से उनका तात्पर्य समत्व को प्राप्त करना है। इस प्रकार वे मोक्ष के लिए चित्त की अनुकूलता को आवश्यक मानते हैं। अनुकूल परिस्थितियों और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त का समत्व ही साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है।२२ अतः मोक्ष मार्ग के रूप में उन्हें हम समत्व योग का प्रतिपादक कह सकते हैं। (1/24, 25)/33) 15. इसिभासियाई, 7/4 16. वही, 8/1 17. वही, 8/1 18. वही, 9/1 19. वही, 9/5 20. वही, 9/8, 10 21. वही, 9/15 22. वही, 929 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन १०. तेतलीपुत्र का साधना मार्ग तेतलीपुत्र की मोक्ष मार्ग के संदर्भ में जो दृष्टि है, वह ऋषिभाषित के अन्य साधकों से भिन्न है। वे एकमात्र ऐसे ऋषि है, " जो यह कहते हैं कि जहाँ अन्य श्रमण ब्राह्मण श्रद्धा का प्रतिपादन करते हैं। वहाँ में अकेला अश्रद्धा का प्रतिपादन करता हूँ। २३ इस प्रकार तेतलीपुत्र के अनुसार अश्रद्धा ही मुक्ति का मार्ग है । किन्तु यहाँ हमें अश्रद्धा से उनका तात्पर्य क्या है, यह समझ लेना चाहिये । तेतलीपुत्र के अनुसार अनास्था का तात्पर्य धर्म या साधना के प्रति अनास्था नहीं, संसार की व्यवस्था की नियतता के प्रति अनास्था है। दूसरे शब्दों में उनके अनुसार संसार का घटनाक्रम सांयोगिक है और जो इस संसार की सांयोगिकता को समझ लेता है, वह भय ग्रस्त बनता है और भयग्रस्त के लिए श्रामष्य को स्वीकार कर लेना ही एकमात्र मार्ग है। संसार में अनेक बार अकल्पित घटित हो जाता है, अतः संसार अविश्वसनीय है - संसार में कुछ ऐसा नहीं है जिसका विश्वास किया जा सके, अतः संसार का परित्याग ही श्रेयस्कर है । २४ ११. मंखलीपुत्र द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग खलीपुत्र मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि “जो मोक्षमार्ग के रूप में निवृत्ति के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह राग-द्वेष का निवारण कर सिद्धि को प्राप्त करें । २५ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि मंखलीपुत्र के अनुसार राग-द्वेष का निराकरण ही मोक्ष मार्ग है और यह राग द्वेष का निराकरण ज्ञान के द्वारा ही संभव है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं, "जो ज्ञान को प्राप्त करता है वह निश्चय ही त्राता अर्थात् आत्मरक्षक होता है। इस प्रकार मंखलीपुत्र ज्ञान-मार्ग के प्रवर्तक है। १२. याज्ञवल्क्य का साधना मार्ग याज्ञवल्क्य के अनुसार "जहाँ जहाँ लोकेषणा है, वहाँ-वहाँ वित्तेषणा है और जहाँ-जहाँ वित्तेषणा है वहाँ वहाँ लोकेषणा है। अतः मुमुक्षु आत्मा के लिए लोकेषणा और वित्तेषणा का परित्याग करना ही उचित ह । २७ दूसरे शब्दों में वे मोक्ष की प्राप्ति के लिए संन्यास मार्ग की साधना को आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में जो साधक लोकेषणा और वित्तेषणा से ऊपर उठकर निष्काम भाव से श्रमण धर्म का पालन करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। 23. इसिभासियाई, 10/1 गद्यभाग 24. वही, 10 / गद्यभाग 25. वही, 11/5 26. वही, 11/1 गद्यभाग 27. वही, 12 / 1 गद्यभाग 143 13 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 १३. भयाली द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग भयाली ऋषि की दृष्टि में बंधन का मूल कारण कर्म ही है और ये कर्म ममत्व के कारण ही मनुष्य को बाँधते हैं। अतः निर्ममत्व की साधना ही मोक्ष मार्ग हैं।२८ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १४. बाहुक के द्वारा उपदिष्ट मोक्ष मार्ग बाहुक ऋषि की दृष्टि में जो निष्काम भाव से तप या साधना करता है और निष्काम भाव से मरण को प्राप्त होता है, वही व्यक्ति अपनी निष्कामता के कारण सिद्धि को प्राप्त करता है। २९ इस प्रकार बाहुक ऋषि की दृष्टि में निष्कामता ही मोक्ष का मार्ग है। १५. मधुरायण द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग मधुरायण की दृष्टि में दुःखों का, जो मूल कारण है, उसका विनाश करना ही मुक्ति का साधन है। उनके अनुसार दुःख के मूल कारण कर्म माने गए हैं। अतः कर्मों को समाप्त करना ही मधुरायण की दृष्टि में मुक्ति का एकमात्र उपाय है, किन्तु पुन: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मों को समाप्त कैसे किया जाये? इसके प्रत्युत्तर में मधुरायण कहते हैं कि "जिस प्रकार धूम रहित अग्नि, लेन-देन से रहित ऋण और मंत्र से आहत विष, शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार से नये कर्मों का आदान अथवा आश्रव नहीं होने पर पूर्वार्जित कर्म भी क्षीण होकर नष्ट हो जाते हैं । ३० जिस प्रकार सूर्य की किरणों से पानी अपने स्वभाव को छोड़कर ऊष्ण हो जाता है, किन्तु उन किरणों का साहचर्य समाप्त कर देने पर वह पुनः शीतल हो जाता है ठीक इसी प्रकार जब कर्म और आत्मा के बीच का संपर्क समाप्त कर दिया जाता है, तो कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। १ पुनः कर्म और आत्मा के बीच जो संबंध है वह आसक्ति के कारण है। आसक्ति समाप्त होने पर यह संपर्क का सूत्र टूट जाता है और व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनासक्त होना आवश्यक है। १६. सोरियायण का साधना मार्ग सोरियायण ऋषि के अनुसार दुर्दान्त इन्द्रियों के नियंत्रण में होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। वे इन्द्रिय नियमन को ही मोक्ष का एकमात्र उपाय बताते है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'इंद्रियों' का नियमन आवश्यक है, उसी नियमन से राग 28. वही, 13/3 29. वही, 14 / गद्यभाग 30. इसि भासियाइ, 15/25, 27 31. वही, 15/27 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभावित का दार्शनिक अध्ययन 145 और द्वेष से छुटकारा पाया जा सता है।३२ इस प्रकार सोरियायण इन्द्रिय संयम को ही मोक्ष का उपाय बताते हैं। १७. विदुर द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग विदुर ऋषि मुख्यतया ज्ञानमार्गी हे। वे कहते हैं कि जो ज्ञान आत्मभावों का परिज्ञाता होता है अर्थात् आत्मसाक्षी होता है वही ज्ञान दु:ख मोचक होता है। दूसरे शब्दों में आत्मज्ञान ही मोक्ष-मार्ग का उपाय है। कौनसा ज्ञान मुक्ति में सहायक होता है, इसे स्पष्ट करते हुए, वे पुनः कहते हैं कि "जो दूसरों को जानता है वह सब उसका सावध योग है। दूषित व्यवहार है। बंधन और दुःख का कारण है। इसके विपरीत जो ज्ञान आत्मा को जानता है वह ही मोक्ष का उपाय है।''३४ संक्षेप में विदर ऋषि के अनुसार आत्म-ज्ञान ही मोक्षमार्ग है। १८. वारिषेण द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग वारिषेण ऋषि के अनुसार "जो प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों से निवृत्त होता है, वही मोक्ष को प्राप्त करता है।"३५ उनकी दृष्टि में पापाचरण से दूर रहना ही मुक्ति का मार्ग है। दूसरे शब्दों में वे दुराचरण से विमुख होने को ही मोक्ष का साधन या उपाय बताते हैं। १९. आर्यायण का समन्वित मोक्ष मार्ग आर्यायण ऋषि न तो एकान्त रूप से ज्ञानमार्गी है और न एकान्त रूप से चारित्र या संयममार्गी है। वे परवर्ती जैन परंपरा के समान ज्ञान, दर्शन और आचरण की समन्विति को ही मोक्ष-मार्ग कहते हैं। उनके शब्दों में "आर्य का ज्ञान और आर्य का दर्शन और आर्य का आचरण सम्यक् होता है। जो सदैव आर्य कर्म को करता है और आर्य जनों के सान्निध्य में रहता है वह भवसागर से मुक्त हो जाता है।"३६ २०. उक्तटवादियों का निर्वाण संबंधी दृष्टिकोण ऋषिभाषित का बीसवां अध्ययन सामान्यतया भौतिकवादी जीवन दृष्टि का समर्थक है। फिर भी उसमें दुःख विमुक्ति की चर्चा है। उसके अंत में भी वही प्रशस्ति पाई जाती है जो अन्य अध्ययनों में है। इस अध्ययन में यह कहा गया है कि "जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह शरीर के विनाश होने पर दु:खों से मुक्त हो जाता 32. इसिभासियाई, 16/3 33. वही, 17/2 34. वही, 17/गद्यभाग 35. वही, 18/1 गद्यभाग 36. वही, 19/45 37. वही, 20/गद्यभाग का अंत Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 डॉ. सा वी प्रमोदकुमारीजी है। जिस प्रकार जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकलते, उर्स प्रकार शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती, अतः पुण्य-पाप के ग्रहण की और सुख-दुःख की संभावना भी समाप्त हो जाती है।"३८ इस भौतिकवादी जीवन दृष्टि को भी श्रमण परंपरा के अंतर्गत इसलिए माना जाता है कि ये ऋषि भी देहात्मकवाद के समर्थक होते हुए भी भोगवाद के समर्थक न होकर संन्यास मार्ग के समर्थक थे। वे यह मानते थे कि शरीर का त्याग ही दु:ख विमुक्ति का एकमात्र उपाय है और इसलिए शरीर का पोषण न करके उसके शीघ्रातिशीघ्र त्याग का प्रयत्न करना ही दुःख विमुक्ति का उपाय है। २१. गाथापति पुत्र का ज्ञानमार्ग ___गाथापति पुत्र तरुण ऋषि स्पष्टरूप से ज्ञानमार्गी है। वे कहते हैं कि "मैं अज्ञान का परित्याग करके ज्ञान संपन्न होकर समस्त दु:खों का अंत करके शिव, अचल, शाश्वत, स्थिति को प्राप्त करूँगा।" इस समस्त अध्याय में अज्ञान का परित्याग एवं ज्ञान की साधना पर बल दिया गया हैं। स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि "ज्ञान के योग से ही साधना सफल होती है।''४० अतः तरुण ऋषि ज्ञानमार्गी है; इस तथ्य को सुस्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता है। २२. गर्दभाली का ध्यान मार्ग ऋषिभाषित के 22वें अध्याय में हमें मुख्यरूप से ध्यानमार्ग का प्रतिपादन मिलता है। गर्दभाली ऋषि कहते हैं कि "शरीर में जो स्थान मस्तक का है और वृक्ष के लिए जड़ का जो महत्त्व है, उसी प्रकार मुनि धर्म के लिए ध्यान का महत्त्व है।"४१ यद्यपि इस ध्यान साधना के लिए स्पष्टरूप से तथा विस्तार से नारी निंदा करते हैं। संभवतः उनकी दृष्टि में ध्यान या एकाग्रता में सबसे बाधक तत्त्व नारी ही रही होगी। यह किसी सीमा तक सत्य भी है कि नारी पुरुष के चित्त विचलन का कारण बनती है। वे कहते हैं कि "वे गांव और नगर धिक्कार के योग्य है जहाँ महिला शासन करती है। और वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य है जो नारी के वशीभूत हैं।"४२ संभवतः गर्दभाली के इस कथन के पीछे यह दृष्टि रही होगी कि ध्यान की साधना के क्षेत्र में स्त्री अर्थात् काम वासना ही सबसे अधिक बाधक होती है। वह चित्त को चंचल बनाती है। ध्यान साधना के संदर्भ में उन्होंने इस तथ्य को भी स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि "जहाँ स्वच्छन्दता होती है वहाँ ध्यान साधना संभव नहीं होती, क्योंकि 38. इसिभासियाई, 20/गद्यभाग-अंत 39. वही, 21 गद्यभाग-प्रारंभ 40. वही, 21/10 41. वही, 22/14 42. वही, 22/1 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 147 स्वच्छन्दता की स्थिति में चित्त वृत्ति का समत्व नहीं रहता।"४३ इस आधार पर यह फलित होता है कि यद्यपि गर्दभाली साधना के क्षेत्र में ध्यान को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, फिर भी ध्यान साधना के लिए वे संयम के महत्त्व को भी स्वीकार करते हैं। क्योंकि असंयमी के लिए ध्यान साधना दुष्कर है। २३. रामपुत्त का चतुर्विध साधना मार्ग रामपुत्त श्रमण परंपरा के विश्रुत ऋषि है। उनके उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों परंपराओं में प्राप्त होते हैं। बौद्ध परंपरा में उन्हें ध्यान की एक विशिष्ठ पद्धति का एक प्रस्तोता माना गया है। किन्तु ऋषिभाषित के आधार पर वे चतुर्विध साधना मार्ग के प्रस्तोता प्रतीत होते हैं। वे कहते हैं कि "मैं ज्ञान से जानकर, दर्शन से देखकर, संयम से संयमित होकर और तप से अष्टविध कर्म रज को विधुणित कर एवं आत्मा को शोधित कर अनादि-अनन्त, दीर्घ और चतुर्गति रूप संसार को पार करके शिव, अचल, अरूज, अक्षय, आव्याबाध तथा पुनर्जन्म से रहित सिद्ध स्थान को प्राप्त करूँगा।" उनके उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे चतुर्विध मोक्ष मार्ग के प्रतिपादक हैं। उनके इस चतुर्विध मोक्ष मार्ग में ज्ञान, दर्शन, संयम और तप को समाविष्ट किया गया है। जैन परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र५ में तथा दर्शन प्राभृत में भी हमें चतुर्विध मोक्ष मार्ग का उल्लेख मिलता है। वहाँ भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। दोनों में अंतर यह है कि जहाँ रामपुत्त संयम शब्द का प्रयोग करते हैं वहाँ उत्तराध्ययन और दर्शनप्राभृत चारित्र शब्द का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि जहाँ उत्तराध्ययन दर्शन को श्रद्धा के अर्थ में ग्रहण करता है, वहाँ रामपुत्त उसे अनुभूति या देखने के अर्थ में ग्रहण करते हैं। दर्शन शब्द का अनुभूति के अर्थ मे प्रयोग प्राचीनतम है और इससे ऋषिभाषित की प्राचीनता भी स्पष्ट हो जाती है। २४. हरिगिरि का कर्म विमुक्ति मार्ग हरिगिरि के अनुसार व्यक्ति अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही बंधन में आता है अतः कर्म विमुक्ति ही व्यक्ति का साध्य है। किन्तु कर्म से विमुक्ति किस प्रकार प्राप्त की जाये, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हरिगिरि कहते हैं कि "प्राणी स्वकीय विचित्र कर्मों से ही बद्ध और मुक्त होता है। जैसे रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति दूसरों के इशारे पर चलता है, उसी प्रकार कर्म रूपी रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति संसार में 43. इसिभासियाई, 23/6 वही, 23/गद्यभाग 45. उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 46. दर्शनप्राभृत, गाथा नं. 22, 23 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी परिभ्रमण करता है। उन्होंने इस कर्म रूपी रस्सी से मुक्त होने के लिए कर्म के वैचित्र्य को जानना और समाधि को प्राप्त करना आवश्यक माना है। समाधि ही वह साधन है जिसके द्वारा कर्मों से मुक्त हुआ जा सकता है।४८ २५. अम्बड का संयम साधना मार्ग ___ अम्बड ऋषि के अनुसार जितेंद्रिय और क्षीण कषाय होना ही साधना का लक्ष्य है। वे कहते हैं कि "यह क्षीण कषायता और जितेन्द्रियता राग रहित मोह विजेता व्यक्ति मे ही पूर्णतः होती है। राग युक्त आत्मा में तो वह आंशिक रूप से ही हो सकती है।'' इसका तात्पर्य यह हुआ कि मोह और राग से रहित होना ही साधना का मार्ग है। जो आत्मा वासना जनित पाप कर्मों में लिप्त है, वह पराजित आत्मा है इसके विपरीत जो पाप कर्म से विमुक्त है वे आत्मजयी है।५° उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अम्बड ऋषि राग-द्वेष के प्रहाण पर ही अधिक बल देते हैं, किन्तु इसके लिए वे जितेन्द्रियता या संयम को आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में संयम ही साधना का सार है और यह संयम वीतरागता की स्थिति में फलित होता है। २६. मातंग ऋषि का अध्यात्म मार्ग मातंग ऋषि अपनी साधना पद्धति में आध्यात्मिक दृष्टि का निर्देश करते हैं। वे कहते हैं कि "जो अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है, जो सत्य का द्रष्टा है और शील का प्रेक्षी है, वही सच्चा ब्राह्मण है। पुनः वे कहते हैं कि जो संयम रूपी हल से और ध्यान रूपी तीक्ष्ण फल से, आत्मरूपी क्षेत्र को परिशुद्ध करके, तप रूपी बीज बोता है, वह संवर रूपी फाल को प्राप्त करता है। अहिंसा ही जिसका आचरण है-ऐसी सर्व सत्वों के प्रति दया भाव की धारक कृषि को, जो भी करता है, वह चाहे ब्राह्मण हो चाहे क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्र हो विशुद्धता को प्राप्त होता है। "५२ इस समग्र चर्चा का निष्कर्ष यही है कि जो आध्यात्मिक मलों को दूर कर के सर्व सत्वों के प्रति कारूण्य से युक्त होकर अहिंसा का पालन करता है, वह मुक्ति का अधिकारी बनता tho 47. इसिभासियाई, 24/37 48. वही, 24/38 49. वही, 25/4 गद्यभाग 50. वही, 25/6 गद्यभाग 51. वही, 26/6 52. वही, 26/85 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन २७. वारत्तक ऋषि का ध्यान - स्वाध्याय का साधना मार्ग वारत्तक ऋषि के अनुसार जो आत्मार्थ के लिए प्रिय और अप्रिय को समभाव पूर्वक सहन करता है वह साधक धर्मजीवी होता है । ५३ किन्तु इस समत्व के उपदेश के साथ-साथ वे मुनि को स्नेह बंधन को छोड़कर अपने चित्त को ध्यान और स्वाध्याय में संलग्न रखने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि जो अपनी चेतना को विकारों से रहित करके ध्यान और स्वाध्याय में लगाता है वही सिद्धि को प्राप्त करता है । ५४ उनके उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि वे मुख्यतः ज्ञानमार्गी है, किन्तु अध्ययन के साथ-साथ ध्यान पर उन्होंने जो बल दिया है, उसके आधार पर हम यह कह सकते है कि वे ज्ञान और आचरण दोनों को ही मुक्ति का मार्ग मानते हैं। २८. आर्द्रक का संयम मार्ग आर्द्रक ऋषि के अनुसार जो काम भोगों में गृद्ध होकर पाप कर्म करते हैं वे चतुर्गति रूप महाभयंकर संसार में भटकते हैं । ५५ इसके विपरीत जो काम से विमुक्त हो गए हैं वे शुद्ध आत्माएँ संसार समुद्र को पार कर जाती है। उनका कथन है कि जो व्यक्ति अल्प समय के लिए भी शुभ क्रिया करता है, वह उसको विपुल फल प्राप्त करता है। अतः जो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करते हैं वे तो असीम फल को प्राप्त करेंगे ही। १७ इस आधार पर हम कह सकते है। कि वे संयम मार्ग पर अधिक बल देते हैं। अपने उपदेशों में उनका समस्त बल वासना से ऊपर उठने के लिए हैं। वे स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि "मनुष्य काम वासना के अधीन होकर ही हिंसा, चोरी आदि करते हैं तथा अपनी सम्पत्ति और अपने ज्ञान-विज्ञान का विनाश करते हैं।' ५८ अतः वासना जय ही उनके साधना मार्ग का प्रमुख तत्त्व है। २९. वर्धमान का पाप-वारण का मार्ग वर्धमान ऋषि के अनुसार समस्त पदार्थों से विरत, दान्त, समस्त पाप कर्मों का निवारण करने वाला सभी दुःखों का अंत कर शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है।५९ इस प्रकार वर्धमान ऋषि के अनुसार हिंसा परिग्रह आदि पाप कर्मों से 53. इसिभासियाई, 2717 54. वही, 27/2 55. वही, 28/19 56. वही, 28/18 57. वही, 28/24 58. वही, 28/16 59. सवत्थ विरये दन्ते, सव्ववारीहिं वारिए । सव्वदुक्खप्पहीणे य, सिद्धे भवति णीरये । 149 - वहीं, 29/19 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विरत रहना अर्थात् अहिसक एवं अपरिग्रही होना और संयम मार्ग का पालन करना यही मोक्ष मार्ग है।६० इस अध्याय में अन्यत्र उन्होंने यह भी कहा है कि जो मन और कषायों पर विजय प्राप्त करके सम्यक् प्रकार से तप करता है, वह शुद्ध अग्नि के समान दैदीप्यमान होता है। उपर्युक्त गाथा के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि कषायों और मन पर नियंत्रण रखना तथा सम्यक् तप की साधना ही आत्म विशुद्धि का मार्ग है। मोक्ष मार्ग की इस चर्चा के प्रसंग में इस अध्याय में सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो कही गई है वह यह है कि इन्द्रिय निग्रह का तात्पर्य इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख कर देना नहीं है, अपितु इन्द्रियों के द्वारा अपने विषयों के ग्रहण करते समय उत्पन्न होने वाले राग आर द्वष के मनोभावों पर नियंत्रण रखना है।६२ वर्धमान ऋषि ने इस तथ्य को बहुत ही स्पष्ट तरीके से समझााया है कि जो अप्रमत्त है, उस साधक की पांचों इन्द्रियाँ सुप्त होती हैं और जा प्रमत्त है उस साधक की पांचों इन्द्रियाँ सक्रिय होती है।६३ इसका तात्पर्य यह है कि इंद्रियों की सक्रियता और निष्क्रियता साधक की मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए वे स्पष्टरूप से यह निर्देश देते हैं कि इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में साधक राग नहीं करें और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष नहीं करें।६४ दूसरे शब्दों में, इद्रिय संयम का तात्पर्य राग-द्वेष की वृत्तियों का निवारण है, जो साधक राग द्वेष की वृत्तियों से रहित हो जाता है वह मोक्ष मार्ग में परायण होता है।६५ ३०. वायुऋषि द्वारा प्रस्तुत शुभाचरण का संदेश ऋषिभाषित के 30वें अध्ययन में वायुऋषि यह प्रतिपादन करते हैं कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है, वह उसी प्रकार के फल को प्राप्त करता है। उनकी दृष्टि में यह संसार व्यक्ति के कर्मों की ही प्रतिध्वनि है। उनके शब्दों में कल्याणवचन बोलने वाला कल्याण की प्रतिध्वनि सुनता है और अकल्याणकारी वचन बोलने वाला अकल्याण की प्रतिध्वनि सुनता है। दूसरे शब्दों में कल्याण कारी कार्यों को करने -वही, 29/17 60. इसिभासियाई, 29/19 61. जित्ता मणं कसाए या, जो सम्म कुरुते तवं। संदिप्पते स सुद्धप्पा, अग्गी वा हविसाऽऽहुते।। 62. वही, 29/3-13 63. पंच जागरओ सुत्ता, पंच सुत्तस्स जागरा। पंचहिं रयमादियति. पंचहिं च रयं ठए।। 64. वही, 29/3-13 65. वही, 29/19 कल्लाणं ति भणन्तस्स, कल्लाणा एप्पडिसुया। पावकं ति भणन्तस्स, पावया एप्पडिस्सया। -वही 29/2 -वही, 30/8 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 151 वाला कल्याण को प्राप्त होता है और पापकारी कर्म करने वाला पाप को प्राप्त होता है। हिंसक हिंसा को प्राप्त होता है और विजेता पराजय को प्राप्त करता है । १७ इसलिए वे साधक को निर्देश देते हैं कि शुभाशुभ कर्मों की इस प्रतिश्रुति को समझकर साधक उन कर्मों को नहीं करे, जिनसे उसे नारकीय जीवन जीना पड़े। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय के उपदेशों का सार इतना ही है कि व्यक्ति को उस प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये, जिसे वह अपने प्रति नहीं चाहता है। क्योंकि मनुष्य जैसा करता है तदनुरूप ही फल प्राप्त करता है । " ।६८ अतः उसे अशुभ कर्मों से या पाप कर्मों से विरत रहना चाहिये । यही उसकी मुक्ति का मार्ग है। ३१. पार्श्व का चातुर्याम ऋषिभाषित के इकतीसवें अध्याय में मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि सम्यक् सम्बुद्ध एवं कर्मागमन के द्वार का निरोध कर देने वाला साधक चातुर्याम धर्म का पालन करते हुए आठ प्रकार की कर्म ग्रंथि को नहीं बांधता है। " अतः पार्श्व ऋषि के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह व्रत का पालन करने वाला साधक अष्ट प्रकार की कर्मग्रथियों से विमुक्त हो जाता है और वह चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। इसी अध्याय में अन्यत्र यह भी कहा गया है कि “जिसने अपने कर्तृत्य मार्ग को निश्चित कर लिया है, जो संसार में मात्र निर्जीव पदार्थों का ही आहार करता है जिसने प्रपंच जाल को निरूद्ध कर दिया है, ऐसा भिक्षु संसार का छेदन करता है। संसार - प्रसूत वेदना का छेदन करता है। संसार अर्थात् भव भ्रमण का नाश करता है। और भव- भ्रमण जन्य वेदना का नाश करता है और इस प्रकार पुनः इस संसार के जन्म ग्रहण नहीं करता । ' १७० पार्श्व की उपर्युक्त कथनों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हिंसा आदि पाप कर्मों से विरत रहना, निर्जीव पदार्थों का सेवन करना और प्रपंच जाल से ऊपर उठ जाना, यही उनकी दृष्टि में मोक्ष का मार्ग है। ३२. पिंग ऋषि द्वारा प्रसतुत आधयत्मिक कृषि ऋषिभाषित के 32वें अध्याय में पिंग ऋषि ने भी मुख्य रूप से उसी आध्यात्मिक ऋषि की चर्चा करते हैं जिसका उल्लेख पूर्व में कर चुके हैं। आत्मा जिसका खेत है, तप जिसका बीज है, संयम जिसका हल है, अहिंसादि पांच महाव्रत और ईर्या आदि पांच समितियाँ जिसकी बैल है, ऐसी धर्मगर्भा कृषि को जो साधक 67. इसिभासियाई, 30/4 68. वही, 30/5 69. एस खलु असम्बुद्धे संवुड-कम्पन्ते चाउज्जामे नियण्ठे अट्ठविहं कम्मगण्टिं णो पगरेति । 31 / गद्यभाग 70. वही, 31/ (इ) गद्यभाग Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी करता है, वह चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र हो, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। ७१ इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में तप, संयम, अहिंसा, आदि की साधना को ही मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। ३३. अरुण ऋषि द्वारा प्रस्तुत साधना मार्ग ऋषिभाषित के 33वें अध्याय में अरुण ऋषि कहते हैं कि वाणी और कर्म का सम्यक् प्रयोग मोक्ष का मार्ग है और इनका मिथ्या प्रयोग बन्धन का मार्ग है, उनके अनुसार " जो साधक वाणी और कर्म का सम्यक् प्रयोग करता है, वही पण्डित है। व्यक्ति को ऐसे ही प्रज्ञाशील पुरुषों का संसर्ग करना चाहिये। उनके अनुसार व्यक्ति की संगति ही उसके गुण-दोष का कारण होती है जिस प्रकार नाना वर्ण वाले पक्षी सुमेरु पर्वत पर पहुँचकर स्वर्णिम आभा से युक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जो सत्पुरुषों की संगति करता है, वह सद्गुणों से युक्त हो जाता है। ऐसे ही जिस प्रकार नदियाँ समुद्र के सान्निध्य में जाकर खारी हो जाती है, उसी प्रकार दुर्गुणियों की संगति से व्यक्ति भी दुर्गुणमय बन जाता है। अतः कल्याणकारी मित्रों का संपर्क ही व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर बनाता है। ७२ वे कहते हैं कि जितेंन्द्रिय और प्रज्ञाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा का ज्ञान प्राप्त कर सदैव कल्याण मित्र का संपर्क करें। ७३ अरुण ऋषि के उपर्युक्त उपदेश से हम मात्र यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सत्पुरुषों के संपर्क में व्यक्ति सत्य को सम्यक् प्रकार से समझकर आध्यात्मिक दिशा में प्रगति कर सकता है। ३४. ऋषिगिरि का संयम साधना का मार्ग ब्राह्मण परिव्राजक ऋषिगिरि के अनुसार " जो पांच महाव्रतों से युक्त है तथा जो कषाय रहित और जितेन्द्रिय है, वह श्रमण उपद्रव रहित जीवन जीता है। जो काम वासना में लुब्ध नहीं होता और जिसने कर्म स्रोत को छिन्न कर दिया है और जो आश्रव 71. आता छेतं तओ बीयं, संजमो जुगणंगला । अहिंसा समिति जोज्जा, एसा धम्मन्तरा किसी । एयं किसिं कसित्ताणं, सव्वसत्तदयावहं । माहणे खत्तिए वेस्से, सुद्दे वा वि य सिज्झती।। 72. सुभासियाए भासाए, सुकडेण य कम्मुणा । पण्डितं तं वियाणेज्जा, धम्माधम्मविणिच्छये। संसग्गितो पसूयन्ति, दोसा वा जइ वा गुणा। समस्सिता गिरिं मेरू, णाणावण्णा वि पक्खिणो । सव्वे मप्पा होन्ति, तस्स सेलस्स सो गुणो ।। 73. वही, 33/17 - इसि भासियाई, 32/3, 5 - इसि भासियाई, 33/3, 14, 16 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन रहित है वह साधक दुःखों से मुक्त होकर शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । ७४ इस प्रकार ऋषिगिरि के अनुसार पंच महाव्रतों का पालन करना, क्रोधादि चार कषायों पर विजय प्राप्त करना तथा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना यही मोक्ष का मार्ग है।७५ इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में उन्होंने इस तथ्य पर भी बल दिया है कि सामान्य व्यक्ति देहासक्ति से युक्त होकर जीवन जीता है, जबकि पण्डित पुरुष अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में समभाव पूर्वक जीवन जीता है। जो रागद्वेष से ऊपर उठ चुका है और जो अप्रतिज्ञ अर्थात अनाकांक्षी है, वही ब्राह्मण मोक्ष का अधिकारी बनता है । ७६ ३५. उद्दालक का कषायजय का साधना मार्ग उद्दालक ऋषि मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते हुए सर्वप्रथम बन्धन के कारणों का विश्लेषण करते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर वर्ज्यकर्म अर्थात् पाप कर्म को करता है और उनके पाप कर्मों के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण करते हुए अपनी आत्मा को संक्लेषित करता है। अतः मोक्ष मार्ग के साधक को सर्वप्रथम इन चार कषायों का परित्याग करना चाहिये । ७७ किन्तु कषाय परित्याग के इस निर्देश के साथ-साथ उद्दालक मुनि जीवन की साधना की एक विशिष्ट पद्धति का भी निरूपण करते हैं। वे कहते हैं कि "तीन गुप्तियों से रक्षित, तीन दंडों से विरत, तीन शल्यों से रहित, चार विकथाओं से विरत, पांच समितियों से युक्त तथा शरीर धारण और योग साधना के लिए नो कोटि विशुद्ध उद्गम और उत्पादन दोष से रहित विभिन्न कुलों से गृहीत दूसरों के लिए निष्पादित अग्निरहित, धूम रहित, शस्त्र रहित और परिणत भोजन, शय्या और उपाधि को ग्रहण करता हूँ।' | ११७८ उनके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे अपनी साधना पद्धति में उपरोक्त तथ्यों पर अधिक बल देते होंगे। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्रस्तुत प्रतिपादन में पंच समिति, तीन गुप्ति तथा आहार चर्या की जिस विधि का प्रतिपादन किया गया है, वह आज भी जैन परंपरा यथावत रूप से प्रचलित है। अतः यह प्रश्न विशेष रूप से विचारणीय है कि क्या जैन परंपरा में आहार संबंधी उपर्युक्त नियम उपनियम उद्दालक की परंपरा से जैन परंपरा में आये हैं अथवा जैन आचार्यों 74. जेण लुब्भन्ति कामेहिं, छिण्णसोते अणासवे । सव्वदुक्खपहीणो उ, सिद्धे भवति णीरए । 75. वही, 34/5 76. वही, 34 / 1, 2 77. चउहिं ठाणेहिं.. 78. वही, 35 / गद्यभाग प्रारंभ 153 .तं जहा कोहेणं, माणेण, मायाए, , लोभणं । - इसि भासियाई, 34/7 - वही, 35 / गद्यभाग-प्रारंभ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ने उद्दालक के उपदेशों को प्रस्तुत करते हुए अपनी विचार धारा को ही उनके मुख से प्रस्तुत करवा दिया है। यदि हम इसी अध्याय में पद्य रूप में प्रस्तुत उद्दालक के उपदेशों को देखते हैं तो भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि होती है। इस अध्याय की 19वीं गाथा में वे कहते हैं कि “पाँच इन्द्रियाँ, चार संज्ञाएँ, त्रिदण्ड, त्रिशल्य, त्रिगर्व और बाईस परीषह और चार कषाय ये सभी चोर हैं, इसलिए साधक को सदैव जागृत रहना चाहिये।९ पद्य रूप में प्रस्तुत उद्दालक के उपदेशों में मुख्य रूप से कषाय जय के साथ-साथ अज्ञान के निराकरण और आत्म जागृति पर विशेष रूप से बल दिया गया हैं। वे कहते हैं कि प्रतिक्षण जागृत रहो, सोओ मत, क्योंकि जो सोता है वह सुखी नहीं होता, जो जागता है वही सुखी होता है। सजग साधक के सभी दोष उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे दाहभीरू अग्नि को देखकर उससे दूर हो जाता है। उपर्युक्त आधारों पर उद्दालक द्वारा प्रस्तुत मोक्षमार्ग को निम्न तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है(1) अज्ञान का निवारण और ज्ञान की प्राप्ति। (2) प्रमाद का निवारण और आत्म चेतनता की प्राप्ति। (3) इन्द्रियजय और कषाय निवारण। यदि यहाँ हम सम्यक् दर्शन शब्द का आत्म साक्षात्कार परक अर्थ लेते हैं, तो यह कहा जा सकता है कि उद्दालक के साधना मार्ग में जैन धर्म के त्रिविध साधना मार्ग के पूर्व बीज उपस्थित हैं। यह स्पष्ट है कि जैन साधना मार्ग की ऋषिभाषित में प्रतिपादित उद्दालक के साधना मार्ग से बहुत कुछ निकटता है। ३६. तारायण ऋषि की क्रोध-विजय की साधना पद्धति तारायण ऋषि अपने साधना मार्ग के प्रतिपादन में क्रोध विजय पर बल देते हैं। उनके अनुसार "क्रोधाग्नि स्वयं को भी जलाती है और दूसरों को भी जलाती है। क्रोध से युक्त व्यक्ति अर्थ, धर्म और काम तीनों पुरुषार्थों का नाश कर देता है। क्रोध व्यक्ति का ऐसा शत्रु है जो निग्रह किये जाने पर व्यक्ति को विकल बनाता है और छोड़े जाने पर अर्थात् अभिव्यक्त होने पर भस्मीभूत करता है। अतः साधक को क्रोध का शांत करना योग्य है। प्रस्तुत विवेचन में मुख्यतः क्रोध विजय पर ही बल दिया गया है। किन्तु इस संदर्भ में तारायण ऋषि का यह कहना कि निग्रह करने पर क्रोध -इसिभासियाई,35/20 79. पंचिन्दियाई सण्णां, दण्डा सल्लाइं गारवा तिण्णि। बावीसं च परीसह, चोरा चत्तारि य कसाया।। 80. जागरह णरा णिच्चं, जागरमाणस्स जागरति सुतं। जे सुवति ण से सुहिते, जागरमाणे सुही होति।। जागरन्तं मुणिं वीरं, दोसा वज्जेन्ति दूरओ। जलन्त जाततेयं वा, चक्खुसा दाहभीरुणो।। -वही, 3523, 24 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 155 व्यक्ति को स्वयं विकल बनाता है और अभिव्यक्त करने पर स्वयं को और दूसरों को भस्मीभूत करता है-महत्त्वपूर्ण है। उनके इस कथन से यह स्पष्ट है कि वे दमन के साधनामार्ग के समर्थक नहीं है, दूसरे शब्दों में, वे यह मानते हैं कि वासना और कषायों को उपशमित कर देने मात्र से उनसे मुक्ति नहीं मिलती, दमित वासनाएँ व्यक्ति के चित् को उद्धेति करती रहती है। अत: वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उनको निर्मूल बनाना आवश्यक है। वासनाओं की निर्मल बनाने का तात्पर्य उनके कारणों का विश्लेषण कर उन्हें समाप्त कर देना ही है। इसे ही जैन परंपरा में क्षायिक मार्ग कहा गया है। यह कहा जा सकता है कि वे उपशम (दमन) के मार्ग के स्थान पर क्षय (निरसन) के मार्ग का प्रतिपादन करते हैं। उनके अनुसार क्रोध या द्वेष ही वह तथ्य है जिसका निरसन करके व्यक्ति साधना के क्षेत्र में प्रगति कर सकता है। ३७. श्रीगिरि का आचार मार्ग ऋषिभाषित के 37वें अध्याय में हमे श्रीगिरि के उपदेशों का चित्रण उपलब्ध होता है, किन्तु श्रीगिरि के उपदेशों का मुख्य भाग तो सृष्टि के स्वरूप संबंधी विवेचन है। वे सृष्टि संबंधी उस युग की विभिन्न अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हुए सृष्टि की अनादिता और यथार्थता का प्रतिपादन करते हैं।८२ जहाँ तक उनके मोक्ष मार्ग संबंधी साधना मार्ग का प्रश्न है वह अल्पतम ही है। वे केवल अपने आचार संबंधी कुछ नियमों को प्रस्तुत करते हैं वे कहते हैं कि "श्रमण को सूर्य के साथ गमन करना चाहिये अर्थात् सूर्य उदय से सूर्यास्त तक ही यात्रा करना चाहिये। सूर्यास्त होने पर जो भी भूमि उपलब्ध हो वही रूक जाना चाहिये, साथ ही यह भी बताया गया है कि वह जिस दिशा में गमन करें, युग मात्र भूमि को देखकर गमन करें। इस प्रकार इस अध्याय में मात्र श्रमण की विहार चर्या का उल्लेख मिलता है। आचार संबंधी अन्य कोई प्रतिपादन इसमें उपलब्ध नहीं होता है।४३ इससे हम मात्र यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उनके अनुसार सतत विचरण करते हुए अनासक्त जीवन शैली को ही मोक्ष प्राप्ति का उपाय माना गया होगा। ३८. सारिपुत्र का मध्यम मार्ग ऋषिभाषित के 38वें अध्याय में सारिपुत्र कहते हैं कि "पण्डित जन को सदैव समत्वभाव में रहना चाहिये। उनके अनुसार "उपलब्ध होने वाले अनेक प्रकार 81. कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्म च तहेव काम। तिव्वं च वेरं पि करेन्ति कोधा, अधरं गतिं वा वि उविन्ति कोहा। हळं करेतीह णिरुज्झमाणो, भासं करेतीह विमुच्चमाणो। हठं च भासं च समिक्ख पण्णे, कोवं णिरुंभेज्ज सदा जित्तप्पा। -इसिभासियाई, 36/14, 18 वही, 37/1-3 गद्यभाग 83. वही, 37/गद्यभाग, पृ. 167 84. वही, 38/5 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी के पदार्थों का परित्याग करके प्राज्ञ व्यक्ति उसमें लुब्ध नहीं हो, यही बुद्ध की शिक्षा है । १८५ सजग साधक की पाँचों इन्द्रियों सुप्त होकर अल्प दुःख का कारण बनती है। प्रज्ञावान साधक उन इन्द्रिय जन्य वासनाओं के विनाश के लिए सतत रूप से प्रयत्नशील रहे।" इस प्रकार सारिपुत्त इन्द्रियजय, आत्मसजगता, अनासक्ति और समभाव की साधना को ही मोक्षमार्ग के रूप में प्रतिपादित करते हैं। उनके अनुसार 'जिसके द्वारा मोह का क्षय हो, वही मोक्षमार्ग है। चाहे वह सुखद हो या दुःखद । जिस प्रकार व्याधि के क्षय के लिए स्वादिष्ट अथवा कटुक औषधियाँ दी जाती है, उसी प्रकार मोह के लिए सुकर या दुष्कर साधना मार्ग प्रतिपादित किये जाते हैं। साधना का मुख्य लक्ष्य तो मोह का क्षय है न कि सुख और दुःख की प्राप्ति । जिस प्रकार व्याधि के उपशमन के लिए चिकित्सा की जाती है और उमसें चाहे रोगी को सुख अथवा दुःख की अनुभूति हो, किन्तु चिकित्सक की दृष्टि में तो वहाँ व्याधि का विनाश ही मुख्य लक्ष्य है। इसी प्रकार साधना का लक्ष्य मोह का विनाश है । ८७ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सारिपुत्र न तो सुविधावादी भौतिक जीवन पद्धति के समर्थक है और न वे देह-दण्डन रूप कठोर तप मार्ग के प्रशंसक है । उनके अनुसार तो वही साधना उपयुक्त है, जो हमारे चित्त को अनाकुल दशा में रख सके । यदि मनोज्ञ भोजन मनोज्ञ शय्यासन और मनोज्ञ आवास में निवास करते हुए भी चित्त् निराकुल रह सकता हैं अथवा समाधि पूर्वक ध्यान संभव है, तो वह वर्जित नहीं है।“ साधना का लक्ष्य चित्त वृत्ति की समाधि है, न कि भौतिक सुख या दुःख । अतः जिन साधनों से भी चित्त वृत्ति का समत्व सधता हो, वे सभी साधना मार्ग के रूप में ग्राह्य हो सकते हैं। अतः सारिपुत्र न तो अरण्यवास पर बल देते हैं और न आश्रम में निवास पर । ३९. संजय द्वारा प्रस्तुत आत्मशोधन की पद्धति 156 ऋषिभाषित के 39 वें अध्ययन में संजय नामक ऋषि कहते हैं कि "जो मनुष्य पाप कर्म करता है वह अन्धकार की इच्छा करता है । पाप का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर कदाचित एक बार कोई दुराचरण हो भी जाय तो भी साधक उसे बार-बार नहीं करे, अर्थात् उसका समूह एकत्र नहीं करे, जो साधक पाप कर्मों को न तो स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है उसे देवता भी नमस्कार करते है । " ९१ 85. एवं अणेगण्णागं, तं परिच्चज्ज पण्डिते । -वही 38/4 surत्थ लुब्भई पण्णे, एयं बुद्धह्मण सासणं ।। 86. इसिभासियाई, 38/6 87. वही, 38/7, 8 88. वही, 38/2 89. परिवारे चेव वेसे य, भावतिं तु विभावए । परिवारे वि गंम्भीरे, ण राया णीलजम्बुओ || 90. दव्वे खेत्ते य काले य, सव्वभावे य सव्वधा । सव्वेसिं लिंगजीवाणं, भावाणं तु विहावए ।। 91. वही, 39 / 1, 2, 3 -इसिभासियाइ, 38/25 -वही 38/29 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 157 संजय ने उपर्युक्त कथन का आशय मात्र इतना ही है कि साधक पाप कर्म न करें। यदि किसी विशिष्ट परिस्थिति में दुराचरण हो भी जाय तो उसकी आवृत्ति न करें और इस प्रकार दुराचरण से दूर रहे, यही मुक्ति मार्ग है। इस अध्याय के अंत में संजय ने विशेष रूप से जिद्धेन्द्रिय के वशीभूत नहीं होने का निर्देश दिया है। संभवतः उनकी दृष्टि में समस्त पापों का मूल कारण स्वाद-लोलुपता रहा हो और इसलिए उन्होंने रसनेन्द्रिय के विजय पर विशेषरूप से बल दिया है। ४०. द्वैपायन की इच्छाजय की साधना पद्धति द्वैयापन ऋषि अपने साधना मार्ग में विशेष रूप से इच्छाओं पर विजय पाने के लिए बल देते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में इच्छाओं की उपस्थिति ही मानसिक असमाधि या अशान्ति का कारण है। जो साधक इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है वह निराकांक्ष व्यक्ति समाधि या आत्मशांति को प्राप्त कर लेता है। वे कहते हैं कि संसार में अनेक प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं और इच्छाओं से बद्ध होकर ही जीव कलेश को प्राप्त होता है। इच्छा ही धनहानि और बंधनों का मूल है। इच्छा करने वाले को नहीं चाहती है अपितु अनिच्छुक को ही चाहती है। दूसरे शब्दों में इच्छाओं के माध्यम से व्यक्ति जिस आत्मिक सुख और शांति की अपेक्षा करता है उसे इच्छा के द्वारा नहीं पाया जा सकता, अपितु अनिच्छा के द्वारा ही पाया जा सकता हैं।१२ अतः द्वैयापन कहते हैं कि जो अनिच्छा के द्वारा इच्छा पर विजय प्राप्त कर लेता है वही सुख को प्राप्त होता है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में निराकांधता ही मोक्ष का मार्ग ४१. इन्द्रनाग का इन्द्रियसंयम का साधना मार्ग ऋषिभाषित में इंद्रनाग अपने साधना मार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि "जो साधक इन्द्रियों के विषय में लिप्त होता है, वह स्वयं अपने ही दु:ख का मार्ग प्रशस्त करता है। घृत की ओर आकर्षित मक्खी अथवा मधुबिन्दु को प्राप्त करने वाला दुर्बुद्धि मनुष्य अपने मृत्यु को नहीं देखता है। मांसलोलुप मत्स्य स्वयं ही जाकर काटे में अपने को फंसाता है। अतः साधक को इन्द्रिय विषयों से विरत रहने का प्रयत्न 92. इच्छा बहुविधा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति। तम्हा इच्छमणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधती।। इच्छामूलं नियच्छन्ति, धणहाणि बन्धणाणि या वियविप्पओगे य बहू, जम्माई मरणाणि या इच्छन्तेणिच्छते इच्छा, अणिच्छं तं पि इच्छति। तम्हा इच्छं अणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेहती।। 93. इसिभासियाई, 40/4 -इसिभासियाई, 40/2, 4,5 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी करना चाहिये।"९४ वे इस तथ्य पर विशेष रूप से बल देते हैं कि "संसार में कुछ व्यक्ति ज्ञान, तप और चारित्र को भी अपनी आजीविका का साधन बनाकर जीते हैं किन्तु उनका यह जीवनयापन दोषपूर्ण है। विद्या, मंत्र, दुष्कार्य, भविष्य कथन आदि के माध्यम से जो मुनि अपना जीवन निर्वाह करता है, वह वस्तुतः दोषपूर्ण जीवन ही जीता है।"१५ उनकी दृष्टि में तप और ज्ञान का प्रदर्शन ही मोक्ष का मार्ग नहीं हो सकता है। वे कहते हैं कि "जो अज्ञानी साधक एक-एक महीने में कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करता है, वह भी श्रुताख्यात धर्म अर्थात् आत्मधर्म के शतांश को भी प्राप्त नहीं करता है।"१६ इसका आशय है कि उनकी दृष्टि में आत्मसंयम और आत्मतोष यही मात्र मुक्ति का उपाय है। ४२. सोम की अहिंसक जीवन दृष्टि ऋषिभाषित में सोम ऋषि अपने साधना मार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि "साधक की सावध अर्थात् पाप कर्म का सेवन नहीं करते हुए निर्वद्य अर्थात् अपाप की स्थिति में रहना चाहिये। इस निर्वद्य अहिंसक साधना पद्धति में क्रमशः विकास की दिशा में आगे बढ़ना चाहिये।"९७ इस प्रकार उनकी दृष्टि में हिंसा और पाप कर्मों से विरत होकर अहिंसामय जीवन जीना ही मोक्ष का मार्ग है। ४३. यम ऋषि की समत्व की साधना पद्धति ऋषिभाषित में यम नामक अर्हत ऋषि का कथन है कि जो लाभ में प्रसन्न नहीं होता और अलाभ में दुःखी नहीं होता, वही व्यक्ति मनुष्यों में श्रेष्ठ है।" इस प्रकार यम ऋषि के अनुसार लाभ और अलाभ में समभाव से जीवन जीना यही साधना का मूलभूत लक्ष्य है। इस प्रकार इन्हें समत्वपूर्ण जीवन शैली का उपदेशक कहा जा सकता है। -इसिभासियाई, 41/5,6 94. पक्खिणो घतकुम्भे वा, अवसा पावेन्ति संखयां मधु पास्यति दुर्बुद्धी, पवातं से ण पस्सति।। आमिसत्थी झसो चेव, मग्गते अप्पणा गलं। आमिसत्थी चरित्तं तु, जीवे हिंसति दुम्मती।। 95. विजामन्तोप देसेहिं, दूतीसंपेसणेहिं वा। भावीभवोवदेसेहिं, अविसुद्धं तु जीवति।। 96. मासे मासे य जो बालो, कुसग्गेण आहारए। ण से सुक्खायधम्मस्स, अग्घती सतिमं कला 97. वही, 42/गद्यभाग पृ. 186 98. लाभमि जे ण सुमणो, अलाभे णेव दुम्मणो। से हु सेढे मणुस्साणं, देवाणं व सयक्कऊ। -वही, 41/10 - वही, 41/12 -वही, 43/1 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ४४. वरूण की वीतरागता की साधना विधि - ऋषिभाषित के 44वें अध्याय में वरुण नामक ऋषि का कथन है कि जिसकी आत्मा राग और द्वेष से उत्पीडित नहीं होती, वही साधक समभाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार वे अपने साधना मार्ग में वीतराग जीवनदृष्टि को ही प्रमुखता देते ४५. वैश्रमण की आत्मार्थ की साधना ऋषिभाषित के अंतिम अध्याय में वैश्रमण नामक ऋषि के उपदेशों का संकलन है। वैश्रमण के अनुसार आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और वही उसके फल का भोक्ता है, अतः आत्मार्थ के लिए व्यक्ति को पाप का मार्ग त्याग देना चाहिये, वे यह भी बताते हैं कि जो व्यक्ति दूसरों के अहित के लिए प्रयत्न करता है, वह स्वयं अपना ही अहित करता है। इसलिए साधक को सम्यक् प्रकार से संयम मार्ग की साधना करना चाहिये।१०० चातुर्याम और पंचमहाव्रत भारतीय साधना की सभी परंपराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है। हिंदू परंपरा में इन्हें पांच यमों के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। पञ्चयम योग-साधना की प्रथम भूमिका है।०९ पांच यमों का पालन करके ही योग-साधना के अग्रिम चरणों पर आगे बढ़ा जा सकता है। पतञ्जलि ने योगसूत्र में इन्हें महाव्रत भी कहा है। बौद्ध परंपरा में भी इन्हें पंचशील के रूप में स्वीकार किया गया हैं।१०२ किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि बौद्ध परंपरा में पंचशीलों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य तो समान रूप से स्वीकार किये गए हैं, किन्तु उसमें अपरिग्रह के स्थान पर मादक द्रव्यों के निषेध को पञ्चम शील माना गया है। उसके पंचशीलों में अपरिग्रह का उल्लेख नहीं है। उसके स्थान पर मादक द्रव्य सेवन निषेध है। जहाँ तक जैन परंपरा का प्रश्न है उसमें पांच महाव्रतों के रूप में इन्हें मान्यता प्राप्त है।०३ -वही 44/प्रारंभ -इसिभासियाई, 45/10 99. दोहिं अंगेहिं उप्पीलन्तेहिं आता जस्स ण उप्पीलति 100. आता कड़ाह कम्माणं, आता भुंजति जं फल। तम्हा आयस्स अट्ठाए, णावमादाय वजए।। 101. भारतीय दर्शन, दत्त एवं चटर्जी, पृ. 192 102. विनयपिटक महावग्ग, 1/56 103. (अ) "हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" (ब) महव्वए पंच अणुव्वएय. तहेव. पंचासव संवरे य। विरतिं इह सामणियमिपन्ने, लवावसक्की समणे तिबेमि। -तवार्थसूत्रम्, 71 -सूत्रकृतंगसूत्रम्, 2/6/6 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी यद्यपि महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्व की परंपरा पंच महाव्रतों के स्थान पर चातुर्याम धर्म का उल्लेख करती है। चातुर्याम के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और बाह्य वस्तुओं के ग्रहण के निषेध (अपरिग्रह ) का उल्लेख मिलता है । १०४ ऋषिभाषित में पंच महाव्रत और चातुर्याम दोनों का उल्लेख है। १०५ पार्श्व की परंपरा में स्त्री को भी परिग्रह में परिगृहीत करके परिग्रह के निषेध के रूप में स्त्री का भी निषेध समाहित मान लिया था। किन्तु महावीर की परंपरा में अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को एक दूसरे से स्वतंत्र करके पांच महाव्रतों की स्थापना की गईं। 160 जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है हम यह उल्लेख कर चुके हैं कि उसमें हमें चातुर्याम और पंच महाव्रत दोनों का ही उल्लेख मिलता है। ऋषिभाषित के प्रथम नारद नामक अध्ययन में और 31वें पार्श्व नामक अध्ययन में चातुर्यामों का उल्लेख मिलता है। पार्श्व नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से चातुर्याम का नामोल्लेख भी किया गया है। १०६ नारद नामक प्रथम अध्ययन में यद्यपि स्पष्टरूप से चातुर्याम शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है किन्तु उसमें शौच ( पवित्रता) के चार लक्षणों का निरूपण किया गया है। इन चार लक्षणों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय को तो स्वतंत्र रूप से एक-एक लक्षण माना गया हैं । किन्तु ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को मिलाकर शौच का चौथा लक्षण बताया गया है। १०७ इस प्रकार इस प्रथम अध्याय में भी चातुर्याम की अवधारणा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। वस्तुतः चातुर्याम और पंच महाव्रत में मौलिक रूप से कोई अंतर नहीं है । जब स्त्री को परिग्रह मानकर परिग्रह के निषेध में स्त्री के भोग का निषेध भी मान लिया जाता है तो यह चातुर्याम धर्म का रूप ले लेता है और जब इन दोनों को एक दूसरे से स्वतंत्र मान लिया जाता है तो वह पंच महाव्रत या पंच याम का रूप ले लेता है। ऋषिभाषित में पंच महाव्रतों का स्पष्ट रूप से उल्लेख पांचवें, चौतीसवें और पैतालीसवें अध्यायों में पाया जाता है। पांचवें 'पुष्पशाल' नामक अध्ययन में कहा गया है कि प्राणों की हिंसा न करें, अलीक वचन न बोले, चोर्यवृत्ति का त्याग करें, मैथुन 104. (अ) चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण, पासेणय महामुनी ।। (ब) पंचजमा पठमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि । आवश्यक निर्युक्ति, 236 105. (अ) इसिभासियाइ, 31/ गद्यभाग (ब) पंचमहव्वयजुत्ते, अकसाए जितिन्दिए । से हू दन्ते सुहं सुयति, णिरुवसग्गे य जीवति ।। 106. (अ) इसिभासियाइ, 1/2 गद्यभाग (ब) वही, 31 / गद्यभाग 107. इसि भासियाइ, 1/2 गद्यभाग -उत्तराध्ययन, 23/12 - वही, 34/6 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 161 का सेवन नहीं करें, और अपरिग्रही बने।१०८ इस प्रकार यहाँ स्पष्टरूप से पांच महाव्रतों का उल्लेख स्पष्ट है। यह स्मरण रखना चाहिये कि योग परंपरा के पाँच यमों को महाव्रत भी कहा गया है। ऋषिभाषित के चौतीसवें ऋषिगिरि नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से पांच महाव्रत का उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि ब्राह्मण वही है, जो पाँच महाव्रतों से युक्त होता है।१०९ यद्यपि यहाँ वे पांच महाव्रत कौन से हैं यह स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु फिर भी हमारी दृष्टि में ऋषिगिरि का पंच महाव्रतों से तात्पर्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से ही रहा होगा, यह माना जा सकता है। पुनः ऋषिभाषित के पैतालीसवें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट रूप से पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं पाया जाता है किन्तु उसमें पांच महाव्रतों में प्रथम अहिंसा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार शस्त्र, अग्नि आदि के कारण अपने शरीर में दाह और वेदना होती है उसी प्रकार सर्वदेहधारियों को होती है।९९० सभी प्राणी को प्राणघात अप्रिय और दया प्रिय है। अतः साधकों को प्राणघात का त्याग कर देना चाहिये।१११ अहिंसा सभी सत्वों के लिए निर्वेद कारक है, जो अहिंसा से युक्त होता है, उसे देवेंद्र और दानवेंद्र भी नमस्कार करते हैं।११२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में चातुर्याम और पंच महाव्रत के उल्लेख उपलब्ध है। फिर भी यह स्पष्ट है कि उसने अंतिम अध्याय में जो अहिंसा को विशेष महत्त्व दिया है, वह संभवतः इसलिए कि अहिंसा सभी महाव्रतों में प्रथम स्थान पर स्वीकार की गई है। जैनागम दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि महावीर ने अहिंसा का प्रथम स्थान पर उपदेश दिया है।११३ उसके अन्य अध्यायों में सत्य और ब्रह्मचर्य के संदर्भ में भी विशेष उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसमें से सत्य संबंधी विवरण की चर्चा भाषा समिति के प्रसंग में की है। ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह संबंधी विवरण ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में भी उपलब्ध है।११४ यह स्पष्ट है कि चातुर्याम और पंच महाव्रत अथवा पंचयाम की अवधारणाएँ भारतीय चिन्तन की प्राचीनतम अवधारणाएँ है और वे हमें ऋषिभाषित में यथावत रूप से उपलब्ध होती है। -इसिभासियाई, 5/4 108. ण पाणे अतिपातेजा, अलियाऽदिण्णं च वजए। मेहुणं च सेकेजा, भवेज्जा अपरिग्गहे।। 109. इसिभासियाई, 34/5 110. वही, 45/18 111. वही, 45/19 112. वही, 45/20 113. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिया अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्व भूएसु संजमो।। 114. इसिभासियाई, 29/5 -दशवैकालिक, 6/9 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी पाँच समिति एवं भिक्षा विधि जैन परंपरा में मुनि जीवन के संरक्षक तत्त्वों में अष्ट प्रवचन-माताओं का उल्लेख मिलता है। ये अष्ट प्रवचन माताएँ पांच समिति और तीन गुप्ति के रूप में वर्गीकृत है। ऋषिभाषित के पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में पंच समिति और त्रिगुप्ति का स्पष्ट उल्लेख है।११५ ऋषिभाषित के पच्चीसवें अम्बड़ नामक अध्याय में मुनि जीवन का विवरण प्रस्तुत करते हुए सच्चे श्रमण को त्रिगुप्तियों से गुप्त होता है। वह सद्गति को प्राप्त करता है।११७ यह स्मरण रखना होगा कि मन, वाक् और शरीर के संयम को ही गुप्ति कहा गया है, जो अपने मन, वाणी और शरीर को दुष्प्रवृत्तियों में नही जाने देता, वही त्रिगुप्तियों से गुप्त माना जाता है। यह स्पष्ट है कि जैन परंपरा में ऋषिभाषित में भी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों के योग को ही बन्धन के कारण के रूप में विवेचितं किया जाता है। पारिभाषिक शब्दावली में इन्हें योग कहे हैं।११८ अतः बन्धन से मुक्ति की साधना में इन तीनों का संयम आवश्यक माना जाता है। मन, वाक्, और शरीर का संयम ही त्रिगुप्ति है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि पंचसमिति और तीन गुप्तियों में जहाँ गुप्ति निषेधात्मक मानी गई है, वहाँ समितियों को विधानात्मक कहा जाता है। गुप्ति यह सूचित करती है कि यह नहीं करना चाहिये, जब कि समिति यह बताती है कि ऐसे करना चाहिये। ऋषिभाषित में यद्यपि स्पष्ट रूप से हमें यह उल्लेख नहीं मिलता है कि समितियों की संख्या जितनी है। किन्तु जैन परंपरा में जो पाँच समितियाँ सुप्रसिद्ध हैं-उनमें से तीन समितियाँ ईर्या, भाषा और ऐषणा का स्पष्ट विवरण हमें ऋषिभाषित में मिल जाता है। ऋषिभाषित के पच्चीसवें अध्याय में आहार के ग्रहण करने के छह कारणों की चर्चा करते हुए उसमें इर्या समिति के पालन को भी आहार ग्रहण करने का एक कारण माना गया है।११९ क्योंकि आहार के अभाव में व्यक्ति की शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है। फलतः वह सावधानी पूर्वक अपनी विहार चर्या नहीं कर पाता। मुनि को अपनी विहार चर्चा कैसे करना चाहिये इस संदर्भ में ऋषिभाषित के श्रीगिरि नामक अध्याय में कहा गया है कि साधक सूर्य के साथ गमन करें।१२० अर्थात् वह दिन में ही यात्रा करें, सूर्यास्त होने पर वह कहीं रुक जाय। उसे 115. पंचसमिते तिगत्ते, इसिभासियाई.35 गद्यभाग 116. वही, 25/2 गद्यभाग 117. वही, 25/2 गद्यभाग 118. (अ) "कार्यावाङमनः कर्मयोगः" तत्त्वार्थसूत्रम् 6/1 (ब) इसिभासियाई, 25/2 गद्यभाग (स) वही, 35/गद्यभाग 119. वही, 25/6 गद्यभाग 120. वही, 37/ गाभाग Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 163 यह यात्रा किस प्रकार करना चाहिये इसका निर्देश भी श्री गिरि नामक ब्राह्मण परिव्राजक अर्हत् ऋषि इस प्रकार से करते हैं। वे कहते हैं कि सूर्य के उदित होने पर पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण किसी भी दिशा में सामने युगमात्र (4 हाथ) भूमि को देखते हुए विहार करना चाहिये।१२१ यदि हम जैन परंपरा में ईर्या समिति का जो उल्लेख मिलता है, उससे ऋषिभाषित के इस उल्लेख की तुलना करते है तो स्पष्ट रूप से दोनों में समानता परिलक्षित होती है। सामने देखते हुए प्रकाश में सावधानीपूर्वक यात्रा करने को ही जैन परंपरा में इर्या समिति कहा गया है। भाषा समिति का उल्लेख भी हमें ऋषिभाषित के तैतीसवें अध्याय में प्राप्त हो जाता है। उसमें अरुण नामक ऋषि कहते हैं कि "जो शिष्ट वाणी बोलता है, वही पण्डित है।१२२ शिष्ट वाणी और प्रशस्त कर्म से ही व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ के समान यश को प्राप्त होता है।१२३ इस प्रकार शिष्टतापूर्वक सम्यक् भाषण को ही भाषायी विवेक कहा जाता है। एषणा समिति मुनि जीवन में अपनी आवश्यकताओं को किस प्रकार पूरा किया जाय, इस संबंध में जो विधि निषेध बताए गए हैं वे एषणा समिति के अंतर्गत आते हैं। ऋषिभाषित के बारहवें याज्ञवल्क्य और पच्चीसवें अम्बड़ नामक अध्याय में ऐषणा समिति का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि "जिस प्रकार पशु-पक्षी अपने भोजन के लिए परिभ्रमण करते है उसी प्रकार मुनि भिक्षाचर्या करे।। भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करता हुए मुनि किसी के प्रति कुपित न हो और न किसी से संभाषण ही करे। वह भिक्षाचर्या करते समय पांच प्रकार के याचकों में बाधक नहीं बनता हुआ भिक्षाचर्या करें।"१२४ पुनः ऋषिभाषित के पच्चीसवें अम्बड़ नामक अध्ययन में भिक्षा समिति या एषणा समिति का हमें विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि मुमुक्षु जितेन्द्रिय मुनि मात्र शरीर धारण के लिए और योग साधना के लिए नवकोटि विशुद्ध उद्गम और उत्पादन के दोषों से रहित विभिन्न कुलों में दूसरे व्यक्तियों के द्वारा बनाया हुआ और दूसरों के लिए निष्पादित भोजन गवेषणा करें।"१२५ गवेषणा करते हुए सौंदर्यवान नारियों को देखकर भी हृदय में वासना का अङ्कुर उत्पन्न नहीं होने दें।१२६ मात्र क्षुधा निवृत्ति दूसरों के प्रति सेवा कार्य, ईर्या -इसिभासियाई, 37/गब 121. पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा पुरतो जुगमेत्तं पेहमाणे आहारीयमेव रीत्तितए। 122. वही, 33/1 123. वही, 33/4 124. इसिभासियाई, 12/1, 2 125. वही, 25/3 गद्यभाग 126. वही, 25/3, 4 गद्यभाग Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी समिति का पालन, संयम का पालन, प्राण रक्षण और धर्म चिन्तन के लिए आहार की गवेषणा करें।१२७ ___ इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित श्रमण साधक को भिक्षाचर्या के प्रति अत्यन्त सजग रहने का निर्देश करता है। मुनि को किस प्रकार से भिक्षाचर्या करना चाहिये इसका ऋषिभाषित में प्रस्तुत उपरोक्त विवरण निम्न तथ्यों को प्रस्तुत करता (1) (3) (4) किसी एक ही गृहस्थ के यहाँ से संपूर्ण भोजन प्राप्त नहीं करना चाहिये। दूसरे शब्दों में परिभ्रमण करते हुए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भिक्षा सामग्री प्राप्त करना चाहिये। भोजन स्वयं नहीं पकाना चाहिये। अपने लिए निर्मित भोजन भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। दूसरे शब्दों में औद्देशिक भोजन नहीं लेना चाहिये। भोजन में प्राप्त सामग्री नवकोटि विशुद्ध होना चाहिये अर्थात् वह मन, वचन और कर्म से तथा कृत, कारित और अनुमोदन के दोष से रहित होना चाहिये। भिक्षा दस दोषों से रहित होना चाहिये. किन्तु ऋषिभाषित में हमें यह स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है कि भिक्षा के ये दस दोष (अतिचार) कौन से है। संभवतः निर्ग्रन्थ परंपरा में एषणा के जो दस दोष माने गए हैं वे ही यहाँ संकेत किये गए होंगे। निर्ग्रन्थ परंपरा में एषणा के निम्न दस दोष माने गए हैं।१२८ (१) शङ्कित आधाकर्मादि दोषों की शङ्का होने पर भी आहारादि लेना। (२) प्रक्षित सचित्त का संघट्टा होने पर अहार लेना। (३) निक्षिप्त सचित्त पर रक्खा हुआ आहार लेना। (४) पिहित सचित्त से ढंका हुआ आहार लेना। 127. इसिभासियाई,25/6 128. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ सागरमल जैन, पृ. 172 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन (५) संहृत पात्र में पहले से रक्खे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से लेना। (६) दायक शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना। (७) उन्मिश्र सचित्त से मिश्रित आहार लेना। (८) अपरिणत पूरे तौर पर बिना पके शाकादि लेना। (९) लिप्त दही, घृत आदि से लिप्त पात्र या हाथ से आहार लेना क्योंकि भिक्षा देने के पहले और पीछे हाथ या पात्र धोने के कारण क्रमशः पूर्व कर्म तथा पश्चात् कर्म दोष होता है। (१०) छद्रित छींटे नीचे गिर रहे हो, ऐसा आहार लेना। __ (6) भिक्षा उद्गम और उत्पादन के दोषों से भी रहित होना चाहिये। ज्ञातव्य है कि निर्ग्रन्थ परंपरा में भिक्षा के उद्गम और उत्पादन से संबंधित सोलह-सोलह दोष माने गए हैं। ऋषिभाषित यद्यपि स्पष्ट रूप से सोलह की संख्या का निर्देश नहीं करता है, किन्तु यह स्पष्ट है कि उसे भी निर्ग्रन्थ परंपरा में मान्य उद्गम और उत्पादन के निम्न सोलह-सोलह दोष ही अभिप्रेत होंगे। उद्गम के सोलह दोष २९ (१) आधाकर्म विशेष साधु के उद्देश्य से आहार बनाना। (२) औदेशिक सामान्य भिक्षुओं के उद्देश्य से आहार बनाना। (३) पूतिकर्म शुद्ध आहार को अशुद्ध आहार से मिश्रित करना। (४) मिश्रजात 129. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 371 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी अपने लिए व साधु के लिए मिलाकर आहार बनाना। (५) स्थापना साधु के लिए खाद्य पदार्थ अलग रख देना। (६) प्राभृतिका साधु को पास के ग्रामादि में आया जानकर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमण वार आदि का दिन आगे पीछे कर देना। (७) प्रादुष्करण अन्धकार युक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना। (८) क्रीत साधु के लिए खरीद कर लाना। (९) प्रामित्य साधु के लिए उधार लाना। (१०) परिवर्तित साधु के लिए अट्टा-सट्टा करके लाना। (११) अभिहत साधु के लिए दूर से लाकर देना। (१२) उभिन्न साधु के लिए लिप्त पात्र का मुख खोलकर घृत आदि देना। (१३) मालापहृत ऊपर की मंजिल से या छीके बगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना। (१४) आच्छेद्य दुर्बल से छीन कर देना। (१५) अनिसृष्ट . साझे की चीज दूसरों की आत्ता के बिना देना। (१६) अध्यवपूरक साधु को गांव में आया जानकर अपने लिए बनाए जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 167 उत्पादन के सोलह दोष९३० (१) धात्री धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिलाकर, हंसा रमाकर आहार लेना। (२) दूती दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना। (३) निमित्त शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना। (४) आजीव आहार के लिए जाति, कुल आदि बताना। (५) वनीपक गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना। (६) चिकित्सा औषधि आदि बताकर आहार लेना। (७) क्रोध क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना। (८) मान अपना प्रभुत्व जमाकर आहार लेना। (९) माया छल कपट से आहार लेना। (१०) लोभ सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना। (११) पूर्वपश्चात्संस्तव दानदाता के माता-पिता अथवा सास-ससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना। (१२) विद्या जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करना। 130. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन, पृ. 371 . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी (१३) मंत्र मंत्र प्रयोग से आहार लेना। (१४) चूर्ण चूर्ण आदि वशीकरण का प्रयोग करके आहार लेना। (१५) योग सिद्धि आदि योगविद्या का प्रयोग करना। (१६) मूलकर्म गर्भ स्तम्भन आदि का प्रयोग बताना। जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं ऋषिभाषित के पैतीसवें अध्याय में पंच समिति शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु ये पंच समितियाँ कौन सी है इसका स्पष्ट उल्लेख हमें ऋषिभाषित में कहीं भी नहीं मिलता है यद्यपि हमें भाषा, एषणा और ईर्या समिति के विस्तृत विवरण उपलब्ध होते हैं किन्तु शेष दो समितियों के विवरण ऋषिभाषित में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। हम यह विश्वास कर सकते हैं कि ऋषिभाषित की पंच समितियाँ वही होगी, जो जैन परंपरा या निर्ग्रन्थ परंपरा में मान्य रही है। शेष चतुर्थ एवं पंचम समिति है-4-आदान भण्ड निक्षेपण समिति--अर्थात वस्तु उठाने और रखने में सावधानी, और 5-परिस्थापन समिति-- अर्थात मूत्र विसर्जन से संबंधित सावधानियाँ। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में ईर्या, भाषा और एषणा समिति के जो विवरण उपलब्ध हैं वे निर्ग्रन्थ परंपरा में उल्लेखित विवरण के समान ही है। विशेष रूप से ईर्या और एषणा के विवरण तो समान है। इसका कारण यह है कि जिन अम्बड़ नामक परिव्राजक ने ऋषिभाषित में भिक्षाचर्या' विधि-निषेधों का उल्लेख किया है वे अम्बड़ परिव्राजक भगवतीसूत्र की सूचना के अनुसार बाद में महावीर के अनुयायी बन गए थे।१३१ अतः वे वर्द्धमान महावीर के द्वारा प्रतिपादित भिक्षा विधि का निर्देश करें, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यहाँ हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में प्रतिपादित आचार के विधि-निषेध बहुत कुछ वे ही है जो जैन परंपरा में आज भी मान्य किये जाते हैं। त्रिगुप्ति जैन परंपरा में साधना के क्षेत्र में अष्टप्रवचन माता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अष्ट प्रवचन माता के अंतर्गत पांच समिति और तीन गुप्ति समाहित है। पांच समितियों का विवरण हम पूर्व में प्रस्तुत कर चुके हैं अब तीन गुप्तियों के संबंध में चर्चा करेंगे। 131. भगवती सूत्र अम्बड परिव्राजक का उद्देशक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 169 ऋषिभाषित में त्रिगुप्ति शब्द पच्चीसवें और अम्बड़ नामक अध्याय में और पैतीसवें उद्दालक नामक अध्याय में उपलब्ध होता है। पच्चीसवें अध्याय में आर्यजनों और पापकर्म से विमुक्त व्यक्तियों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि वे चार कषायों से रहित पंच महाव्रतों से युक्त त्रिगुप्तियों से गुप्त और पंच इन्द्रियों से संवृत होते हैं।१३२ इस प्रकार यहाँ साधक की विशेषता के रूप में उसे त्रिगुप्तियों से गुप्त कहा गया है। इसी प्रकार पैतीसवें अध्याय में उद्दालक अपनी साधना की विशेषताओं की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मैं "त्रिदण्ड से रहित और त्रिगुप्तियों से रक्षित हूँ।१३३ ये तीनों गुप्तियाँ कौन सी हैं इसका स्पष्ट निर्देश हमें ऋषिभाषित में नहीं मिलता है, किन्तु जैन परंपरा में तीन गुप्तियों-मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति का जो उल्लेख मिलता है उससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि त्रिगुप्तियों से ऋषिभाषितकार को भी यही तीन गुप्तियाँ अभिप्रेत होगी, यही कहा जा सकता है। यह सुस्पष्ट है कि गुप्ति का तात्पर्य तत्सम्बंधी प्रवृत्तियों का नियंत्रण है। जैन परंपरा में समिति और गुप्ति ये दो शब्द सुप्रचलित हैं। इनमें समिति विधानात्मक है और गुप्ति निषेधात्मक है। अतः गुप्ति का मतलब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को नियंत्रित रखना है। पापमार्ग में जाती हुई मन, वाक्, काय की प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करना ही गुप्ति है। गुप्ति वह सुरक्षात्मक कवच है जिसके द्वारा आत्मा अपने को पापकारी प्रवृत्तियों से बचा सकता है। चाहे ऋषिभाषित में स्पष्ट रूप से मन गुप्ति, वाक् गुप्ति और काय गुप्ति शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में हमें ऐसे निर्देश प्राप्त होते हैं, जिनमें यह कहा गया है कि साधक को अपना मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को दुराचरण के मार्ग मे जाते हुए रोकना चाहिये। ऋषिभाषित के छब्बीसवें मातंग नामक अध्ययन में गुप्ति को लगाम की संज्ञा दी गई है।१३४ जिस प्रकार लगाम कुमार्ग पर जाते हुए अश्व को नियंत्रित करती है उसी प्रकार गुप्ति मन, वाक्, और काय की असन्मार्ग में होती हुई प्रवृत्ति को रोकती है।१३५ उसी अध्याय में यह भी कहा गया है कि अपनी समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्ति का गोपन करता है वही सत्य द्रष्टा है और वही ब्राह्मण है। ऋषिभाषित के तेतलीपुत्र नामक दसवें अध्याय में भी गुप्ति के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "जो गुप्तिवान् है और जितेन्द्रिय है, उसे संसार में एक भी भय नहीं रहता है। जिस प्रकार कछुआ अपने अङगों को समेट करके भय मुक्त हो जाता है उसी प्रकार जितेन्द्रिय साधक अपनी मन, वाक, और काय की प्रवृत्तियों को नियंत्रित कर भय मुक्त हो जाता है।१३६ 132. इसिभासियाई, 25/2 गद्यभाग 133. वही, 35/गद्यभाग 134. वही, 26/9 135. वही, 26/9 136. वही, 10/गद्यभाग, पृ. 43 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्तियों के महत्त्व एवं साधना के क्षेत्र में उनकी उपयोगिता को स्वीकार किया गया है फिर भी गुप्तियों का जो विस्तृत विवरण उत्तराध्ययन सूत्र में उपलब्ध है वैसा ऋषिभाषित में नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्याय में गुप्तिायें का विस्तृत विवरण निम्न रूप में उपलब्ध है उसमें कहा गया है कि "साधक को संमरंभ, समारंभ और आरंभ में प्रवृत्त होते हुए मन, वाक् और काया की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना चाहिये। जो साधक पांच समितियों से युक्त होकर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता है और तीन गुप्तियों से गुप्त होकर अशुभ मार्ग से निवर्तित होता है वह शीघ्र ही इस संसार से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ११३७ परीषह 'परीषह' शब्द का तात्पर्य मुनि जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सम्भावपूर्वक सहन करना है। ऋषिभाषित में परीषह शब्द का उल्लेख हमें सर्वप्रथम ऋषिगिरि नामक चौतीसवें अध्याय में उपलब्ध होता है। वहाँ कहा गया है कि प्रज्ञाशील मानव अज्ञानियों द्वारा पांच प्रकार से उदीर्ण किये जाने वाले परीषहों और उपसर्गों को समभवपूर्वक सहन करें। 138 दीनभावों से रहित होकर उन्हें सहन करें और उन्हें सहन करते हुए विचलित न हो। इन परिषहों को किस प्रकार सहन किया जाय, इसका भी विस्तृत विवरण ऋषिगिरि नामक चौतीसवें अध्याय में हमें उपलब्ध होता है। इसमें कहा गया है कि "यदि कोई मूर्ख व्यक्ति किसी की परोक्ष में आलोचना करता है, कठोर वचन कहता है तो प्राज्ञ पुरुष यह विचार करें कि वह परोक्ष में ही मेरी आलोचना करता है।, मेरे सम्मुख तो कुछ नहीं कहता। यदि वह अज्ञानी प्रत्यक्ष में आलोचना करता है, अपशब्द कहता है तो प्राज्ञ पुरुष यह सोचे की शब्दों से मेरी आलोचना ही तो करता है मेरे शरीर को तो कोई कष्ट नहीं दे रहा है। यदि वह शस्त्र आदि से शरीर को पीड़ा पहुँचाता है तो प्राज्ञ पुरुष यह सोचे कि वह मेरे शरीर को ही तो पीड़ा देता है, मेरे प्राणों का तो नाश नहीं करता। मान ले कि वह उसके प्राणों का ही वध कर रहा हो तो ऐसे समय प्राज्ञ पुरुष यह विचार करें कि यह अज्ञानी अपने स्वभाव के वशीभूत होकर मेरे प्राणों का ही तो नाश करता है। मेरे धर्म और साधना को तो नष्ट नहीं कर रहा है।"१३१ तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जनों के द्वारा दिये जाने वाले किसी भी प्रकार के कष्ट को उनके अज्ञानता के प्रति करूणा या क्षमाभाव रखते हुए उस पीड़ा को सहन करें। साधक जीवन में ऐसे अनेक 137. उत्तराध्ययनसूत्र, 24/19-27 138. इसिभासियाई,34/गद्यभाग 139. इसिभासियाई,34/1-5 गद्यभाग Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 171 अवसर आते हैं जब अज्ञानी जनों द्वारा व्यक्ति को अनेक प्रकार के कष्ट दिये जाते हैं। उन सभी कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना ही परिषह जय है। जीवन में ऐसे परीषह कौन से है? उनकी संख्या कितनी है? इस संबंध में ऋषिभाषित में जैन परंपरा के समान विस्तृत विवरण तो उपलब्ध नहीं होता है किन्तु ऋषिभाषित के पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से बाईस परीषहों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि वहाँ यह नहीं बताया गया है कि ये बाईस परीषह कौन से हैं? मात्र बाईस की संख्या का निर्देश मिलता है।१४० यह ज्ञातव्य है कि जैन परंपरा में न केवल बाईस परीषहों का निर्देश हुआ है अपितु उसमें यह भी बताया गया है कि ये बाईस परीषह कौन-कौन से हैं? इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र के द्वितीय अध्याय में मिलता है, जो निम्नानुसार है।१४१ (१) क्षुधा परीषह बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त तपस्वी भिक्षु उसे सहन करें और नियम विरूद्ध आहार न करें। (२) पिपासा परीषह (तृषा परिषह) संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित्त जल का सेवन नहीं करें। (३) शीत परीषह विरक्त और अनासक्त मुनि शीत के कष्ट को समभावपूर्वक सहन करें। (४) उष्ण परीषह ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी ठण्डक आदि की आकांक्षा न करें। (५) दंश-मशक-परीषह डाँस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव रखे। (६) अचेल परीषह वस्त्रों के अतिजीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक हो जाउँगा, ऐसा मुनि न सोंचे। अचेलता को समभाव पूर्वक सहन करें। 140. इसिभासियाई, 35/19 141. उत्तराध्ययन सत्र,2/गद्यभाग w Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 (७) अरति परीषह यदि विचरण करते हुए मुनि को संयम के प्रति अरति अरुचि हो जाए तो उसमें समभाव रखे। (८) स्त्री परीषह स्त्रियों के द्वारा भोग के लिए आमंत्रित करने पर भी साधक स्थिर रहे । (९) चर्या परीषह पदयात्रा में कष्ट होने पर भी चातुर्मास काल को छोड़कर गांव नगर में मर्यादा से अधिक न रुकता हुआ सदैव भ्रमण करें। (१०) निषद्या परीषह श्मशान में, सूने घर में और वृक्ष के मूल में एकांकी मुनि अचपल भाव से रहे, दु:खित न हो। ( ११ ) शय्या परीषह ऊँची-नीची अर्थात अच्छी या बुरी शय्या ( उपाश्रय) के उपलब्ध होने पर तपस्वी मुनि दुःखित न हो। ( १२ ) आक्रोश परीषह डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी यदि कोई भिक्षु को गाली या कठोर शब्द कहे, तो भी उसके प्रति क्रोध न करें। (१३) वध परीषह यदि कोई मुनि को लकड़ी आदि से मारे या वध करें, तब भी उस पर समभाव रखें। (१४) याचना परीषह भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ठ हुए साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नहीं है, अतः गृहवास ही श्रेष्ठ है, मुनि ऐसा न सोचे । (१५) अलाभ परीषह आहार थोड़ा मिले, या कभी न मिले तब भी मुनि समभाव रखे । तदजन्य अभाव को सहन करें। (१६) रोग परीषह शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर भी वेदना को समभाव पूर्वक सहन करे, दीन न बने। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 173 (१७) तृणस्पर्श तृण आदि की शय्या पर सोने से तथा नंगे पैर चलने से तृण या कांटे आदि की वेदना को समभावपूर्वक सहन करें। (१८) मल परीषह __ वस्त्र या शरीर पर धूल आदि के कारण मैल जम जावे तो उद्विग्न न होकर सहन करें। (१९) सत्कार परीषह राजा आदि शासकवर्गीय लोगों द्वारा सम्मान मिलने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखें। मुनि मान-सम्मान की स्पृहा न करें। (२०) प्रज्ञा परीषह भिक्षु के बुद्धिमान होने के कारण लोग आकर उससे विवादादि करें तो भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करें कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था। (२१) अज्ञान परीषह यदि भिक्षु की बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सके तो भी खिन्न नहीं होते हुए अपनी साधना में लगे रहना चाहिये। (२२) दर्शन परीषह अन्य सम्प्रदायों और उनके महन्तों का आडम्बर देखकर यह विचार नहीं करना चाहिये कि देखों इनकी कितनी प्रतिष्ठा हैं और सम्यक् या शुद्ध मार्ग पर चलते हुए भी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, ऐसा विचार न करें। ऋषिभाषित में वर्णित सच्चे श्रमण का स्वरूप ऋषिभाषित में सच्चे श्रमण का स्वरूप सामान्य रूप से तो अनेक अध्यायों में वर्णित है किन्तु विशेष रूप से उसका विवरण हमें वारत्तक नामक सत्ताइसवें अध्ययन में मिलता है। वारत्तक के अनुसार "सच्चा श्रमण वह है जो गृहस्थ जनों से अधिक संबंध नहीं रखता है, क्योंकि इससे ममत्व भाव की वृद्धि होती है। यह ममत्व भाव जगत की क्षणिकता के चिन्तन स्वरूप श्रमण के लिए दु:ख का ही कारण होता है। इसलिए श्रमण को स्नेह बंधनों का त्याग करके अपना अधिकांश समय स्वाध्याय और ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिये वस्तुतः जो चित्त के विकार रूपी मल को धोकर अपनी बुद्धि को निर्वाण मार्ग में लगाता है वही सच्चा श्रमण हैं। जो श्रमण मित्रता के वशीभूत हो गृहस्थ की अनुशंसा करता है उसकी यह मधुर भाषिता उसके आत्महित की घातक होती है। सच्चे श्रमण को कौतुहल, लक्षण, स्वप्न और प्रहेलिका आदि से मनोरंजन नहीं करना चाहिये। जो श्रमण इन कार्यों में लिप्त होता है वह श्रमण Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीज धर्म से बहुत दूर हो जाता है। इसी प्रकार जो मुनि अपने गृहस्थशिष्यों के विविध संस्कारों में अथवा वर-वधु के वैवाहिक प्रसंगों में सम्मिलित होता है अथवा उन संस्कारों को करवाता है और राजा के साथ युद्ध में भाग लेता है वह श्रमणत्व से पृथक है। इसी प्रकार आजीविका अथवा पूजा प्रतिष्ठा के हेतु किंवा ऐन्द्रिक विषय भोगों के लिए गृहस्थों के पीछे-पीछे घूमता है वह श्रामण्य से बहुत दूर है। इसके विपरीत जे श्रमण लक्षण, स्वप्न, प्रहेलिका, शस्त्रकौशल आदि के प्रयोग से रहित हो गया है जिसने गृहस्थों के प्रति राग भाव को समाप्त कर दिया है, जो प्रिय और अप्रिय के समभाव से सहन करता है तथा अकिंचन होकर आत्मार्थ धर्मजीवी होता है वही सच्च श्रमण है।"१४२ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सच्चे श्रमण को समस्त सांसारिक प्रपन्चों से दूर रखकर ध्यान और स्वाध्याय को ही उसकी जीवन चर्या का प्रमुख अंग है। सच्चे श्रमण के स्वरूप को लेकर जैन और बौद्ध परंपरा का तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन ने प्रस्तुत किया है।१४३ सच्चे ब्राह्मण का लक्षण ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह ब्राह्मण वर्ग का विरोधी है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि श्रमण परंपरा ने ब्राह्मण परंपरा के कर्मकाण्डों का खुलकर विरोध किया किन्तु उनका यह विरोध वस्तुतः ब्राह्मणों का विरोध न होकर धर्म के नाम पर प्रचलित उन कर्मकाण्डों का विरोध था, जो व्यक्ति की आध्यात्मिकता को धूमिल करते थे। इसलिए श्रमणों ने यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया कि वास्तविक रूप में ब्राह्मण कौन है? श्रमण परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय पच्चीस में और बौद्ध परंपरा के सुत्तनिपात में सच्चे ब्राह्मण के लक्षणों के स्वरूप का विश्लेषण करेंगे। ऋषिभाषित में ब्राह्मण शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ब्राह्मण का प्राकृत रूप माहण है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है "मत मारो"। अतः ब्राह्मण होकर भी तुम युद्ध की शिक्षा क्यों ग्रहण करते हो? इसका तात्पर्य यह है कि ऋषिभाषित के अनुसार सच्चा ब्राह्मण वह है जो अहिंसा का पालन करता है। जो हिंसा से जुड़ा है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता यदि क्षत्रिय और वणिक यज्ञ-याज्ञ करें और ब्राह्मण शस्त्रजीवी हो तो यह उनकी वृत्ति के विपरीत होगा। जिस प्रकार विपरीत दिशाओं से आये हुए अन्ध युगल आपस में टकरा कर समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार अपने स्वभाव से विरूद्ध कर्म करने वाले प्रजाजन भी संघर्ष में फंसकर नष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण राजपथ पर आरूढ होकर युद्ध करते हैं वे ब्रह्म वृत्ति के 142. इसिभासियाई, 27/1, 2, 4, 5 143- जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 384-387 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 175 द्वार को बंद कर लेते हैं, जो रथ और धनुष को धारण कर लेता है वह ब्राह्मण नहीं है । ब्राह्मण तो वह है जो सत्य सम्भाषण करता है और चोरी कर्म से दूर रहता है। सच्चा ब्राह्मण मैथुन और परिग्रह का सेवन नहीं करता है अपितु धर्म के विविध अंगों की साधना में निरत होकर अध्ययन और स्वाध्याय में लगा रहता है। जो समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है और सत्य द्रष्टा है, वही ब्राह्मण है। वस्तुतः जो समस्त शीलांगों को पालन करता है, वह शीलप्रेक्षी ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी हैं । सच्चा ब्राह्मण पाँच इंद्रियों को जीतकर दिव्य आध्यात्मिक कृषि करता है । १४४ वस्तुतः ऋषिभाषित में सच्चे ब्राह्मण के जो लक्षण बताये गये हैं, वे ही प्रकारान्तर या शब्दान्तर से जैन ग्रंथ उत्तराध्ययन, बौद्धग्रन्थ, सुत्तनिपात और हिन्दू परंपरा के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ महाभारत में भी मिलते हैं । १४५ -0 144. इसिभासियाई, 26/1-7 145. सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप के संबंध में उत्तराध्ययन, सुत्तनिपात और महाभारत का तुलनात्मक विवरण के लिए देखें, डॉ. सागरमल जैन के ग्रंथ "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' " भाग 2, अध्याय 11. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 अष्टम अध्याय ऋषिभाषित में वर्णित सामाजिक दर्शन एवं चिन्तन डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी व्यक्ति के सुधार से समाज सुधार हम इस तथ्य को पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि सामान्यतया ऋषिभाषित निवृत्तिमार्गी या संन्यासमार्गी की परंपरा का ग्रंथ है, अतः उनके सांस्कृतिक और सामाजिक चिन्तन के जो संदर्भ उपलब्ध हैं, वे मूलतः वैराग्यवादी प्रकृति के हैं। वे मनुष्य को सांसारिक जीवन से विमुख करने के लिए ही है। अतः उसमें समाज - जीवन का यथार्थवादी पक्ष अनुपलब्ध है, मात्र कुछ आदर्शवादी संकेत-सूत्र प्राप्त है । उसमें त्याग और वैराग्य के जो उपदेश उपलब्ध है, उनके आधार पर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में आज की ही भांति व्यभिचार, युद्ध, संघर्ष, चोरी, व्यावसायिक, अप्रमाणिकता आदि अनेक प्रकार के दोष रहे होंगे जिनके निराकरण के लिए एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन के निर्माण के प्रयत्न किये जा रहे थे। जब ऋषिभाषितकार यह कहता है कि हिंसा नहीं करना चाहिये, झूठ नहीं बोलना चाहिये, चोरी नहीं करना चाहिये अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, तो इससे हम यह फलित निकाल सकते हैं कि उस युग के सामाजिक जीवन में हिंसा, असत्य, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संचय की प्रवृत्ति अवश्य उपस्थित रही होगी, क्योंकि तभी तो इनके विरत होने का निर्देश दिया गया। पूर्व अध्यायों में हम इस संबंध में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं कि ऋषिभाषित में अनेक स्थलों पर हिंसा, अप्रामाणिकता, चौर्यकर्म, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होने के अनेक संदर्भ है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये सभी मात्र वैयक्तिक जीवन की नहीं, अपितु सामाजिक जीवन की भी बुराइयाँ हैं । इनसे न केवल व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है, अपितु सामाजिक शांति, सामाजिक व्यवस्था भी भंग होती है। वस्तुत: ये सामाजिक बुराइयाँ प्रत्येक युग में रही है। अतः ऋषिभाषित के ऋषियों ने भी अपने युग की इन सामाजिक बुराइयों के निराकरण का प्रयत्न अपने उपदेशों के माध्यम से किया और Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 177 वे इन बुराइयों से मुक्त स्वस्थ समाज की सरंचना के लिए प्रयत्नशील भी रहे होंगे। यद्यपि ऐसे स्वस्थ समाज की रचना का यह स्वप्न मात्र एक आदर्श या स्वप्न ही कहा जा सकता है, क्योंकि चाहे कितने ही प्रयत्न किये गए हो, समाज इन बुराइयों से कभी भी पूर्णतः मुक्त नहीं हो सका, क्योंकि मनुष्य के अंदर जो पशुत्व बैठा हुआ है उससे पूर्णतया मुक्ति पा लेना सभी मनुष्यों के लिए संभव नहीं है। यह सत्य है कि किसी व्यक्ति विशेष को पूर्णतः रूपान्तरित करना कभी भी संभव नहीं होता, क्योंकि सभी व्यक्ति अपने अंदर बैठे हुए पशु पर विजय प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते। ऋषिभाषित के अध्ययन से एक बात स्पष्ट है वह यह कि ऋषिभाषित के ऋषि समाज सुधार की बात न करके व्यक्ति के सुधार की बात करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे समाजवादी न होकर व्यक्तिवादी हैं। उनकी मान्यता यही रही है कि जब तक व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास नहीं होता है, तब तक समाज को इन बुराइयों से मुक्त नहीं किया जा सकता। अतः वे व्यक्ति-सुधार के आंदोलन के समर्थक माने जा सकते हैं। उनका सामाजिक दर्शन और चिन्तन इसी तथ्य पर आधारित रहा होगा कि व्यक्ति के सुधार से ही समाज का सुधार संभव है। सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का द्वैत वर्तमान युग की सबसे मुख्य बुराई यह है कि व्यक्ति के जीवन में एक दोहरापन है और वह अपने इस दोहरेपन के कारण सामाजिक जीवन में भी वह दोहरे मानदण्डों का प्रयोग करता है। उसमें अपने दोषों को छिपाने और दूसरे के दोषों को प्रकट करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ऋषिभाषित 'अंगिरस' नामक ऋषि इस संबंध में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। ऋषिभाषित के चतुर्थ अंगिरस अध्याय में जो विवरण उपलब्ध है, उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस युग में भी मनुष्य दोहरा जीवन जीते थे और उनके जीवन में एकरूपता नहीं थी। जीवन का यह दोहरापन सामाजिक क्षेत्र में सबसे प्रमुख बुराई कही जा सकती है, क्योंकि इसके कारण एक ओर पारस्परिक व्यवहार में दोहरे मानदण्ड खड़े होते हैं वही कथन और व्यवहार में एकरूपता न होने के कारण परस्पर सन्देह और अविश्वास जन्म लेते हैं, जिससे समाज की शांति भंग हो जाती है, क्योंकि समाज पारस्परिक विश्वास और नैतिक मानदण्डों की एकरूपता पर ही खड़ा होता है। ऋषिभाषित में इस स्थिति पर व्यंग्य करते हुए यह कहा गया है कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते है। जिनका सभा में दूसरा रूप होता है और एकान्त में कुछ दूसरा रूप होता है अर्थात वे करते कुछ है और कहते कुछ है।' अंगिरस ऐसे व्यक्तियों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि वे धर्म के लिए सदा अनुपस्थित है। अर्थात वे समाज व्यवस्था के लिए एक अभिशाप ही सिद्ध होते 1. इसिभासियाई, 4/8 2. वही, 4/9 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी हैं। इसी प्रसंग में अंगिरस ने सामाजिक जीवन में प्रचलित बिना विचारे अनुकरण करने की प्रवृत्ति या भेड़ चाल की भी निंदा की है। वे कहते हैं कि दुनिया वाले कल्याणकारी को पापकारी और पापकारी को सदाचारी बतलाते है। उन्होंने अन्धानुकरण की इस प्रवृत्ति को भी सामाजिक जीवन के लिए एक अभिशाप ही माना था, क्योंकि इसके कारण समाज में सम्यक गुणों के प्रति सन्निष्ठा की स्थापना संभव नहीं थी। ऋषिभाषित और स्त्री-पुरुष संबंध __ ऋषिभाषित के सामाजिक चिंतन में स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंध को लेकर भी चर्चा हुई है। यह सत्य है कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि ऐसे हैं, जो नारी की अपेक्षा पुरुष की ज्येष्ठता और श्रेष्ठता को स्वीकार करते है। ऋषिभाषित के बाइसवें अध्ययन में गद्रभाली नामक ऋषि स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि धर्म पुरुष प्रधान है। वे कहते हैं कि धर्म पुरुष से स्थापित होता है, वह पुरुष प्रधान, पुरुष ज्येष्ठ, पुरुष कल्पित, पुरुष प्रद्योत्ति, पुरुष समन्वित और पुरुष को केंद्रित करके रहता है। इस प्रकार यहाँ धार्मिक जीवन में भी पुरुष को प्रधानता दी गई है। इसी अध्याय में नारी निंदा भी विशेष रूप से देखी जाती है, इसमें कहा गया है कि वे ग्राम और नगर धिक्कार के योग्य है, जहाँ पर महिला शासन करती है और वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य है, जो नारी के वशीभूत है। नारी निंदा करते हुए उसमें कहा गया है कि वह सर्प वेष्ठित लता के समान है, जो पुरुष को आकर्षित करके, उसे दु:खी बना देती है। उसे सिंहयुक्त स्वर्ण गुफा, विषयुक्त पुष्पों की माला, विष मिश्रित गन्ध-गुटिका तथा भंवरयुक्त नदी कहा गया है। वह मदोन्मत्त बना देने वाली मदिरा के समान है। वह कुल का नाश करने वाली, निधन का तिरस्कार करने वाली, सर्वदुःखों का प्रतिष्ठा स्थान और आर्यत्व का नाश करने वाली है। जिस ग्राम और नगर में स्त्रियाँ बलवान होकर बेलगाम घोड़े की तरह स्वच्छन्द होती है, वे वस्तुतः तिरस्कार के योग्य है। इस समस्त चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि ऋषिभाषित के गद्रभाली ऋषि स्पष्ट रूप से नारी को हेय दृष्टि से देखते हैं। किन्तु इस आधार पर यह कल्पना कर लेना कि श्रमण परंपरा मात्र नारी निंदक है, उचित नहीं होगा। यह सही है कि श्रमण परंपरा के और विशेष रूप से जैन परंपरा के अनेक ग्रंथों जैसे-सूत्रकृतांग, तंदुलवैचारिक आदि ग्रंथों में अनेकों पृष्ठ नारी निंदा से भरे हुए हैं। किन्तु इस आधार पर उन ग्रंथों 3. इसिभासियाई, 4/13 4. पुरिसादीया धम्मा पुरिसपवरा पुरिसजेट्ठ पुरिसकप्पिया पुरिसपज्जोविता--1 वही, 22/1 6. वही, 22/12-6 7. वही, 22n -वही, 22/गद्यभाग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 179 अथवा उनके जुड़ी हुई परंपरा को नारी निंद मान लेना भ्रान्तिजनक ही होगा। यहाँ किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पूर्व हमें श्रमण परंपरा की जीवन दृष्टि को समझना होगा। यह स्पष्ट है कि श्रमण परंपरा वैराग्य प्रधान है, उसमें जो नारी निंदा के चित्र मिलते हैं, उनका प्रयोजन नारी के व्यक्तित्व को गिराना नहीं है, अपितु पुरुष को नारी के प्रति आकर्षित होकर वासना में लिप्त होने से बचाना है। वस्तुतः नारी निंदा के ये समस्त चित्रण पुरुष को नारी से विमुख करने के लिए या उसमें वैराग्य भाव जागृत करने के लिए ही है। क्योंकि यदि उसके सम्मुख नारी जीवन के विकृत पक्ष को उभारा नहीं जायेगा तो उसकी नारी के प्रति आसक्ति नहीं टूटेगी। यहाँ निंदा, निंदा के लिए नहीं किन्तु वैराग्य के लिए हैं। श्रमण परंपरा में नारी को समुचित गौरव प्रदान करने का ही प्रयत्न किया गया है। यही एक ऐसी परंपरा है जो नारी को पुरुष से स्वतंत्र होकर जीवन जीना सिखाती है और स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित करती है कि नारी की आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकती है। यही एक ऐसी परंपरा है, जिसमें नारी पुरुष को प्रबोधित कर उसे सन्मार्ग पर लाती है। जैन श्रमण परंपरा में ब्राहती, सुंदरी और राजीमति आदि ऐसी अनेक नारियों के उल्लेख है जो पुरुषों को प्रबोधित करके सन्मार्ग की दिशा में ले गईं। अत: ऋषिभाषित में नारी निंदा के कुछ चित्रणों को देखकर यह नहीं माना जा सकता कि वह नारी को कोई महत्त्व और मूल्य ही नहीं देता है। ऋषिभाषित और पारिवारिक संबंध ऋषिभाषित में हमें अनेक प्रकार के पारिवारिक संबंधों के उल्लेख मिलते हैं जैसे भाई-बहन, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, पति-पत्नी, माँ-पुत्र, माँ-पुत्री, ऋषिभाषित इन विविध प्रकार के पारिवारिक संबंधों का निर्देश तो करता है, किन्तु उसकी दृष्टि में ये सभी पारिवारिक संबंध व्यक्ति के लिए दुःख का कारण माने गए हैं। वह यह मानता है कि इन पारिवारिक संबंधों के प्रति रागभाव व्यक्ति को बंधन में बांधता है और उनके प्रति घटित होने वाले दु:ख संकट, व्यक्ति के अपने दुःख संकट बन जाते हैं। ऋषिभाषित के 'महाकाश्यप' नामक अध्याय में भी कहा गया है कि "भाई के मरण से भगिनि के मरण से, पुत्र के मरण से, पुत्री के मरण से, भार्या के मरण से, अथवा अन्य स्वजन मित्र, बन्धु-बांधवों के मरण से, उनकी दरिद्रता से, उनके भोजनाभाव से, दुःखग्रस्त होता है, वह उनके वियोग, अपमान, निन्दा, पराजय आदि दु:खों से स्वयं भी दुखित होता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के लेखक की दृष्टि में व्यक्ति एक ओर इन्हीं पारिवारिक संबंधों के कारण परिवार एवं समाज से बंधा हुआ है, तो दूसरी ओर ये सभी पारिवारिक संबंध व्यक्ति के दःख और पीडा के कारण भी है। 8. देखे, जैन धर्म में नारी की भूमिका, डॉ. सागरमल जैन पृ. 9. इसिभासियाई, 7/गद्यभाग 10. इसिभासियाई, 1/गद्यभाग Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ऋषिभाषित में हमें पारिवारिक जीवन के प्रति पारस्परिक दायित्वों की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि पारिवारिक संबंधों और दायित्वों की विस्तृत चर्चा न होने का कारण मूलतः उसका सन्यास प्रधान या वैराग्य प्रधान दृष्टिकोण ही है। क्योंकि निवृत्तिमार्गी परंपरा ने सदैव ही पारिवारिक, जीवन को आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में एक बाधा ही माना था। उसमें पारिवारिक संबंधों के प्रति विश्वसनीयता का भाव परिलक्षित न होकर अविश्वसनीयता का ही भाव दृष्टिगोचर होता है। इस संदर्भ में ऋषिभाषित के तेतलीपुत्र नामक अध्ययन का निम्न संदर्भ द्रष्टव्य है। वे कहते हे। कि श्रमण ब्राह्मण कहते हैं कि श्रद्धा (विश्वास) करना चाहिये किन्तु मैं कहता हूँ कि श्रद्धा विश्वास नहीं करना चाहिये। 'मैं' सपरिजन होकर भी अपरिजन हूँ, मेरे इन वचनों पर कौन विश्वास करेगा? मैं पुत्र सहित होकर भी पुत्ररहित हूँ, मेरे इस कथन को कौन मानेगा? मैं समित्र होकर भी मित्र रहित हूँ, इस बात पर कौन विश्वास करेगा? कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि मुझे अपने स्वजन और परिजनों से विराग हो गया है? कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि जाति, कुल, रूप, विनय आदि से युक्त मेरी पत्नी मुझसे विमुख हो गई है। तेतलीपुत्र के उपयुक्त वचन स्पष्ट रूप से इस बात के सूचक है कि निर्वाण मार्ग के अभिलाषी के लिए ये समस्त पारिवारिक संबंध और पारिवारिक दायित्व निरर्थक बन जाते हैं। एक अनासक्त वीतराग पुरुष इन समग्र संबंधों से ऊपर उठ जाता है। तेतलीपुत्र की दृष्टि में ये समस्त पारिवारिक संबंध विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि ये सभी स्वार्थों पर आधारित होते हैं। जहाँ स्वार्थों की पूर्ति नहीं होती है। वैराग्यवादी जीवन दृष्टि के लिए पारिवारिक संबंध अथवा सामाजिक संबंध यथार्थ नहीं है, अपितु वे आरोपित है और जो आरोपित है वे विश्वसनीय नहीं है। ऋषिभाषित की पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति निषेधात्मक जीवन दृष्टि आलोचना का विषय हो सकती है। यह कहा जा सकता है कि ऋषिभाषित पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों की अवेहलना करता है। निश्चय ही हम इस तथ्य से सहमत है कि उसमें पारिवारिक संबंधों और दायित्वों की उपेक्षा हुई है, किन्तु उसका मूल कारण उसकी वैराग्यवादी जीवन-दृष्टि है। वैराग्यवाद ऋषिभाषित के सभी ऋषियों का एक सामान्य जीवन दर्शन है। यह एक अलग प्रश्न है कि यह वैराग्यवाद उचित है या अनुचित है। यदि ऋषिभाषित संन्यासीमार्गी जीवन-दृष्टि को लेकर चल रहा है तो उसमें पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों की यह उपेक्षा स्वाभाविक ही है। यह उपेक्षा स्वाभाविक ही है। ऋषिभाषित और वर्ण व्यवस्था वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक चिन्तन की एक अपरिहार्य अवधारणा रही है। वैदिक साहित्य में हमें वर्णव्यवस्था संबंधी उल्लेख प्राचीन काल से ही मिलने 11. इसिभासियाई, 10/गद्यभाग Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 181 लगते हैं। चार वर्णों की कल्पना परमपुरुष के चार अंगों के रूप में की गई हैं उसमें कहा गया है कि ब्राह्मण उसका मुख है, क्षत्रिय उसकी भुजाएँ है, वैश्य उसका पेट है और शुद्र उसके पैर है। कुछ इसे इस प्रकार भी व्याख्यायित करते हैं कि उसे मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और चरण से शुद्र उत्पन्न हुए। हमारी दृष्टि में यह प्रश्न उत्पत्ति का नही है, अपितु समाजव्यवस्था के अंतर्गत उनके स्थान पर कार्य के निर्धारण का है। वस्तुतः समाज पुरुष के ही ये चार अंग कहे जा सकते हैं। समाज का विचारक वर्ग ब्राह्मण, संरक्षक वर्ग क्षत्रिय, पोषक वर्ग वैश्य और समाजसेवी ही शूद्र नाम से अभिहित हुए हैं। जहाँ तक श्रमण परंपराओं का प्रश्न है उनमें पहले आर्य और अनार्य ऐसे ही दो प्रकार के वर्ग मिलते हैं। ऋषिभाषित में भी हमें आर्यायण नामक उन्नीसवें अध्याय में हमे आर्य और अनार्य की यह चर्चा उपलब्ध होती है उसमें कहा गया है कि अनार्य विचार और अनार्य आचार तथा अनार्य मित्रों का परित्याग कर, आर्यत्व को प्राप्त करने के लिए समुपस्थित हो।१२ क्योंकि आर्यों का ज्ञान श्रेष्ठ होता है, आर्य के दर्शन श्रेष्ठ होता है। और आर्य का चरित्र श्रेष्ठ होता है; इसलिए आर्यत्व का ही सेवन करना चाहिये।१३ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित प्रथमः समाज को आर्य और अनार्य ऐसे दो भागों में विभाजित करता है। किन्तु आगे चलकर उसमें भारतीय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के भी संकेत मिलने लगते हैं। यह स्पष्ट है कि भारत में ऋषिभाषित के काल तक वर्णव्यवस्था की अवधारण सुस्पष्ट हो चुकी थी। वर्णव्यवस्था के संदर्भ में हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि प्रारंभ में यह वर्णव्यवस्था लचीली थी और कर्मों के आधार पर अथवा व्यक्ति के चरित्र और संस्कार के आधार पर वर्ण परिवर्तन संभव था, किन्तु आगे चलकर पुरोहित वर्ग ने, जो ब्राह्मण था अपने अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए इसे वंशानुगत बनाने का प्रयत्न किया, ताकि उनके संतानों का, पुरोहित्य कर्म का अधिाकर सुरक्षित रहे। श्रमण परंपराओं ने वर्ण व्यवस्था की इस अवधारणा को स्वीकार तो किया किन्तु वे इस बात से सहमत नहीं हुए कि यह वर्ण व्यवस्था जन्मना हैं। उन्होंने वर्ण व्यवसायी को कर्मणा ही माना और यह माना कि व्यक्ति के कर्म और आचरण के आधार पर यह वर्ण परिवर्तन संभव है। जैन परंपरा के प्राचीनतम ग्रंथ उत्तराध्ययन, जो कि किसी समय ऋषिभाषित के साथ ही प्रश्न व्याकरण का एक अंग माना जाता था, में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र होता है।४ वर्णव्यवस्था की यह कर्मणा अवधारणा न केवल जैन और बौद्ध परंपराओं में, अपितु भगवद्गीता में भी पायी जाती है, उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुण और कर्म के आधार पर ही इन चारों वर्षों को सृष्ट किया गया है।५ 12. इसिभासियाई, 19/1 13. इसिभासियाई, 19/5 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है, उसमें स्पष्ट रूप से चारों वर्गों के उल्लेख हमें मिलते हैं। उसमें न केवल इन चारों वर्गों का उल्लेख है, अपितु यह भी कहा गया है कि अपने वर्ग के निर्धारित कर्म का परित्याग करके अन्य वर्ण के कार्य करना उचित नहीं है। मातंग नामक ऋषि कहते हैं कि यदि क्षत्रिय और वणिक यज्ञ याग आदि कर्म करें और ब्राह्मण शस्त्रजीवी हो, तो यह ऐसा ही होगा जैसे विपरीत दिशाओं से आते हुए अन्ध पुरुष आपस में ही टकरा जाते है।१६ ब्राह्मणों के लिए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तुम ब्राह्मण (माहण अर्थात हिंसा नहीं करने वाले) होकर भी युद्ध की शिक्षा क्यों ग्रहण करते हो? रथ और धनुषधारी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं हो सकता? इससे स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि ऋषिभाषित में भी गीता के समान ही अपने-अपने वर्ण के लिए निश्चित कर्म को करने की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण और स्वभाव के आधार पर निर्धारित वर्ण का कर्म करें यह बात ऋषिभाषितकार को मान्य रही है। इस प्रकार ऋषिभाषित कर्मणा आधार पर वर्णव्यवस्था को मान्य करते हुए भी न तो वर्गों में किसी वर्ण में श्रेष्ठ और किसी वर्ण के अधम होने का उल्लेख करता है और न इस बात का ही समर्थन करता है कि आध्यात्मिक और नैतिक विकास की यात्रा किसी एक वर्ण विशेष का अधिकार है। उसके अनुसार आध्यात्मिक विकास का पथ सभी वर्गों के लिए समान रूप से खुला हुआ है।, जो भी अपनी कषायों को क्षीण करेगा और विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति दया या कारुण्य भाव का धारक होगा वह व्यक्ति चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो वह आत्मविशुद्धि को प्राप्त करेगा और पाप विरत होकर निर्वाण का अधिकारी बनेगा। इस प्रकार ऋषिभाषित आध्यात्मिक विशुद्धि और निर्वाण को प्राप्त करने का अधिकार किसी वर्ण विशेष के लिए सुरक्षित नहीं रखता है, अपितु यह मानता है कि जो भी व्यक्ति अध्यात्म की साधना करेगा वह निर्वाण का अधिकारी होगा। संक्षेप में ऋषिभाषित में वर्णव्यवस्था की अवधारणा मान्य है, किंतु यह व्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा ही मानी गई है। वह यह मान्य करता है कि प्रत्येक वर्ण को अपना कार्य करना चाहिये, किन्तु इससे कोई ऊँच या नीच नहीं होता हैं आध्यात्मिक साधना और निर्वाण प्राप्ति का अधिकार सभी को समान रूप से उपलब्ध है, उसमें यह भी माना गया है कि व्यक्ति ब्राह्मण जन्म से नहीं, अपने नैतिक चरित्र से बनता है जो अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है, शीलप्रेक्षी है, सत्यप्रेक्षी है तथा जो समस्त प्राणियों के प्रति कल्याणशील है और जिसकी आत्मा विशुद्ध है उसे ब्राह्मण ही कहा जाना 14. उत्तराध्ययन सूत्र, 25/33 15. देखे, जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 181, 82 16. इसिभासियाई, 26/2 17. वही, 26/4 18. देखें, जैन बौद्ध गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. 19. इसिभासियाई,85/15 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन चाहिये। इस प्रकार ऋषिभाषित ब्राह्मण की व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से करता है। सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसकी चर्चा हम सातवें अध्याय में कर चुके हैं। अत: उसकी यहाँ पुनरूक्ति करना उचित नहीं है। ऋषिभाषित और पुरुषार्थ चतुष्टय ऋषिभाषित में हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों ही पुरुषार्थो का उल्लेख मिलता है।२१ किन्तु श्रमण परंपरा का ग्रंथ होने के कारण इसमें पुरुषार्थ चतुष्टय में से धर्म और मोक्ष को ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह स्पष्ट है कि उसमें अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों को महत्त्व नहीं दिया गया है। न तो वह काम के सेवन को उचित मानता है और न अर्थ के सञ्चय एवं महत्त्व को ही स्वीकार करता है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कामरूपी मृषामुखी कैंची, यद्यपि सामान्य दृष्टि से सुख का अनुकरण करती हुई प्रतीत होती है। किन्तु यह शीघ्र ही व्यक्ति की सुख और शांति का छेदन कर देती है। जिस प्रकार मगर से युक्त सरोवर, विष मिश्रित नारी और सामिष नदी सुख कारक प्रतीत होते हुए भी अंततः दुःखदायी ही होती है, उसी तरह भोगाकांक्षा और वासना की पूर्ति सुखद प्रतीत होते हुए भी मूलतः दु:खद ही होती है।२२ ऋषिभाषितकार का यह स्पष्ट निर्देश है कि कामभोगों के सेवन से चाहे बाह्य रूप से सुख मिलता हो किन्तु वे आध्यात्मिक समाधि और शांति का भंग ही करते हैं। इसी प्रकार अर्थ के संबंध में भी ऋषिभाषित का दृष्टिकोण प्रशस्त नहीं है। उसमें कहा गया है कि बंधन सोने का हो या लोहे का, वह दु:ख का कारण ही होता है। बहुमूल्य वाले दण्ड से मारने पर पीड़ा तो होती है। २३ ऋषिभाषित के अड़तीसवें अध्ययन में सारिपुत्त कहते हैं कि 'अर्थादायी' अर्थात धनलोलुप व्यक्ति को मन को आकर्षित करने वाली मीठी भाषा बोलने वाला समझो। इसका तात्पर्य यह है कि अर्थलोलुप व्यक्ति बाहर से मधुर व्यवहार करता है किन्तु वह अंदर में अहितकारक ही होता है। उसकी अर्थ ग्रहण की इस विसंगतिपूर्ण संतति परंपरा को देखकर धनलोलुप व्यक्ति से दूर ही चलना चाहिये।२४ इस प्रकार ऋषिभाषित में अर्थ और काम दोनों ही पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव ही प्रदर्शित किया गया हैं, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि इसका मूलभूत कारण भी ग्रंथकार की सन्यासीमार्गी जीवन-दृष्टि है। अर्थ और काम दोनों ही सन्यासी के लिए बाधक माने गए हैं, अतः यह स्वाभाविक ही है कि ग्रंथकार इन दोनों पुरुषार्थों के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित करें और धर्म और मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ मानें। 20. वही, 26/6 21. वही, 36/12 22. इसिभासियाई, 45/44, 46 23. वही, 45/50 24. वही, 38/26 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी नवम् अध्याय उपसंहार ऋषिभाषित प्राकृत साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक हैं! इसकी भाषा आर्य प्राकृत या प्राचीन अर्धमागधी है। इसका रचनाकाल विद्वानों ने ईसवीं पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी माना है, जो हमें उपयुक्त लगता है। जहाँ तक ग्रन्थ के रचयिता का प्रश्न है हमें किसी भी स्रोत से कोई ऐसा निर्देश उपलब्ध नहीं हुआ जिसके आधार पर इस ग्रन्थ के रचयिता का निर्णय किया जा सके। यद्यपि इसकी रचना शैली तथा प्रत्येक अध्याय के उपोद्घात और समापन में समरूपता को देखकर ऐसा लगता है कि यह संग्रह ग्रंथ न होकर के किसी एक ही व्यक्ति की रचना है, जिसने अनुश्रुति से प्राप्त श्रमण और ब्राह्मण धारा के ऋषियों के वचनों का संकलन इसमें किया है। यद्यपि इस संकलन में जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आया है- ऐसा लगता है और रचयिता के जैन परम्परा से सम्बद्ध होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। इसमें 44 ऋषियों और उत्कटवादियों के जिन विचारों का संकलन किया गया है उससे ऐसा अवश्य लगता है कि ग्रन्थ निर्माता एक उदार और व्यापक दृष्टि से सम्पन्न रहा होगा। यह ग्रंथ वैचारिक उदारता और धार्मिक सहिष्णुता का प्राचीनतम एवं अनन्य ग्रंथ है; क्योंकि इसमें न केवल जैन परम्परा के ऋषियों के उपदेशों का संकलन है अपितु बौद्ध, औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण धारा के ऋषियों के उपदेशों का भी संकलन किया गया है। मात्र यही नहीं उन्हें अर्हत् ऋषि, अर्हत् बुद्ध, माहण ब्राह्मण- ऋषि ऐसे उदारतम विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। किसी भी परम्परा में दूसरी परम्परा के व्यक्तियों के विचार सामान्यतया आलोचना की दृष्टि से ही प्रस्तुत किये जाते हैं। किन्तु इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें सभी ऋषियों के विचारों को आदर और सम्मानपूर्वक प्रस्तुत किया गया है और उनकी आलोचना का कहीं भी कोई निर्देश नहीं है। यहाँ तक कि भौतिकवादी चार्वाक परम्परा के विचारों को भी उसी प्रकार प्रस्तुत किया गया है जिस प्रकार अन्य ऋषियों के उपदेश को। यद्यपि इतना अवश्य है कि भौतिकवाद के प्रस्तोता किसी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ऋषि का निर्देश इसमें नहीं है। भौतिकवाद का निर्देश उत्कटवादियों के नाम से हुआ है। इसमें जिन ऋषियों के उपदेशों का संकलन है उनमें नारद, असित, देवल, अंगिरस, याज्ञवल्क्य, विदुर, अरुण, उद्दालक, द्वैपायन आदि औपनिषदिक परम्परा के सुविश्रुत ऋषि है। इसी प्रकार महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जियपुत्त का उल्लेख बौद्ध परम्परा में पाया जाता है। पार्श्व, वर्धमान, अम्बड़, मातंग, आर्द्रक, तेतलीपुत्त के उल्लेख जैन परम्परा में पाये जाते हैं। मंखलिपुत्त, रामपुत्त, संजय (वेलट्ठीपुत्त) आदि बुद्ध और महावीर के समकालीन अन्य श्रमण परम्पराओं के ऋषि हैं। इससे यह फलित होता है कि ऋषिभाषित में ईसवीं पूर्व छठीं शताब्दी तक के लोकविश्रुत अनेक ऋषियों के उपदेशों का संकलन किया गया था। उसमें इस तथ्य का कोई विचार नहीं किया गया है कि किस परम्परा विशेष से सम्बन्धित है। समन्वय, धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का इसे बढ़कर अन्य कोई उदाहरण नहीं हो सकता है। जहाँ तक इन ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न है, शुब्रिग और डॉ. सागरमल जैन आदि ने इस तथ्य को विस्तारपूर्वक प्रमाणित किया है कि इसमें सोम, यम, वरुण और वैश्रवण इन चार लोकपालों को छोड़कर इसके बाकी सभी व्यक्ति ऐतिहासिक हैं, काल्पनिक नहीं। इन ऋषियों में से लगभग पैंतीस ऋषि ऐसे हैं, जिनके उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त भी जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के अन्य ग्रंथों में भी पाये जाते हैं जिसके आधार पर इनकी ऐतिहासिकता सुनिश्चित की जा सकती है। हमने प्रथम अध्याय में इन्हीं सब पक्षों के संबंध में स्पष्ट एवं विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इस अध्याय के लेखन के संदर्भ में शुब्रिग और डॉ. सागरमल जैन की भूमिकाएँ हमारे लिये उपजीव्य रही हैं। इस शोध प्रबंध का द्वितीय अध्याय मुख्य रूप से ज्ञान मीमांसा से सम्बन्धित है; किन्तु मुझे यह स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है, कि प्रस्तुत ग्रंथ में किसी भी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत का निरूपण नहीं पाया जाता। इसका कारण यह है कि यह ग्रंथ उस काल का है जब ज्ञान मीमांसीय सिद्धांत अस्तित्व में ही नहीं आये थे। प्रस्तुत ग्रंथ मात्र अज्ञान को दु:ख का मूल कारण बताकर ज्ञान के महत्त्व की स्थापना करता है। इसमें ज्ञान से तात्पर्य संसार, दु:ख और दुःख के कारणों के ज्ञान से ही लिया गया है। ज्ञान के महत्त्व की चर्चा इसके इक्कीसवें, तैंतीसवें और पैंतालीसवें अध्याय में विस्तार से पाई जाती है। फिर भी वह उपदेशात्मक हैदार्शनिक या तार्किक नहीं है। अतः इतना तो मानना ही होगा कि इस ग्रंथ में ज्ञान सम्बन्धी किसी दार्शनिक सिद्धांत का उल्लेख नहीं हुआ है। यह मात्र साधना और आध्यात्मिक विशुद्धि के संदर्भ में ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। प्रस्तुत शोध निबन्ध का तृतीय अध्याय तत्त्व मीमांसा से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित की यह विशेषता है कि इसको तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं में चार्वाकों के Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी भौतिकवाद, बौद्धों के सन्ततिवाद, क्षणिकवाद और पंचस्कन्धवाद जैनों के नित्यानित्यवाद या परिणामी नित्यतावाद, सांख्यों और औपनिषदिक विचारकों के आत्मकूटस्थतावाद, पंचमहाभूतवाद, पार्श्व के पंचास्तिकायवाद आदि विविध तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं पर संक्षिप्त विवरण भी पाये जाते हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में बौद्ध, जैन, औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की प्राचीन तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएँ निर्दिष्ट है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रंथ में किसी भी तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत की दार्शनिक दृष्टि से समालोचना नहीं की गई है, मात्र यही बताया गया है कि इन सिद्धांतों को मानकर व्यक्ति किसी प्रकार अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि को प्राप्त कर सकता है। ऋषिभाषित के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उस काल में विभिन्न तत्त्वमीमांसीय अवधारणाएँ व्यक्ति को सांसारिकता से विमुख करके आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर होने के लिए एक पूर्व पीठिका के रूप में प्रस्तुत की जाती थी । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं को नैतिक और आध्यात्मिक विकास की अधिमान्यता के रूप में ही प्रस्तुत करता है। यहाँ तत्त्वमीमांसा, तत्त्वमीमांसा के लिए न होकर आध्यात्मिक और नैतिक विशुद्धि के लिए ही आधारभूत मानी गई है। 186 शोध प्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय कर्म सिद्धांत का विवेचन करता है। यह सुस्पष्ट है कि कर्म सिद्धांत भारतीय नैतिक चिन्तन की आधारभूमि है। सभी भारतीय विचारक चाहे वे किसी भी श्रमण और औपनिषदिक परम्परा से सम्बद्ध रहे हों, कर्म सिद्धांत को मानकर चले हैं। कर्म सिद्धांत की चर्चा ऋषिभाषित के अधिकांश अध्यायों में पाई जाती है। ऋषिभाषित कर्मों के शुभत्व और अशुभत्व की और उनके शुभाशुभ फलों की चर्चा विस्तार से करता है। किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य कर्म ग्रन्थी का विमोचन है। अतः ऋषिभाषित में भी इस बात पर बल दिया गया है कि व्यक्ति को शुभाशुभ कर्मों का अतिक्रमण करना चाहिये । शुभ और अशुभ से ऊपर उठकर शुद्ध आध्यात्मिक दशा में अवस्थित होना ही भारतीय साधना पद्धति का मुख्य लक्ष्य रहा है, जिसका निर्देश हमें ऋषिभाषित में भी उपलब्ध होता है। ऋषिभाषित में बौद्धों के सन्ततिवाद का विवेचन भी इसी कर्म सिद्धांत के प्रसंग में ही हुआ है। महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जियपुत्त नामक अध्यायों में इसे तथ्य को देखा जा सकता है। प्रस्तुत शोध निबन्ध का पाँचवा अध्याय मनोविज्ञान से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित के चौथे अध्याय में मानव प्रकृति का सुन्दर विवेचन उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त अन्य अध्यायों में भी पाँचों इन्द्रियों और उनके विषयों की न केवल चर्चा की गई है, किन्तु संयम साधना के संदर्भ में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि इन्द्रियों को उपस्थिति में सेन्द्रियों के विषयों में करता है कि इन्द्रय निरोध का तात्पर्य इन्द्रियों को अपने विषयों के भोग से वंचित करना नहीं, अपितु इन्द्रिय का, अपने Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 187 विषय से सम्पर्क होने पर चित्त का अनुकूल विषयों के प्रति राग और प्रतिकूल विषयों के प्रति द्वेष से विरक्त रखना है। इस प्रकार ऋषिभाषित दमन की मनोवैज्ञानिक समस्या का भी सम्यक् समाधान प्रस्तुत करता है। इस चर्चा के अतिरिक्त प्रस्तुत अध्याय में संज्ञा, कषाय आदि मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर भी विचार किया गया है। प्रस्तुत शोध निबन्ध का षष्ठम् अध्याय ऋषिभाषित के आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन दर्शन का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस अध्याय में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की समस्या का विवेचन किया गया है और यह बताया गया है कि नियतिवाद का मुख्य प्रयोजन व्यक्ति में अनासक्त जीवन दृष्टि का विकास करना है। नियति और पुरुषार्थ दोनों ही आध्यात्मिक जीवन दृष्टि साधना के लिये अपेक्षित हैं। अत: जीवन में दोनों का सम्यक स्थान निर्धारित करना आवश्यक है। ऋषिभाषित के मंखलि, गौशालक नियतिवाद के पुरस्कर्ता हैं, किन्तु उनका यह नियतिवाद मुख्य रूप से वित्त समाधि के लिए हैं क्योंकि पुरुषार्थवादी अवधारणा वित्त की विकल्पों से युक्त बनाती है। निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन में नियतिवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में कार्य करता है, इस तथ्य को ऋषिभाषित मान्य करता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद की अवहेलना की गई है। तप और ध्यान साधना तथा सम्यक् आचार के परिपालन के लिए ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों ने पुरुषार्थवाद का समर्थन किया है और उसे साधना क्षेत्र में सक्रिय बने रहने का निर्देश दिया है। ऋषिभाषित का सप्तम अध्याय मुख्य रूप से साधना मार्ग से सम्बन्धित है। इसमें हमने विस्तार से इस तथ्य की चर्चा की है कि ऋषिभाषित के विभिन्न ऋषि किस प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का निर्देश करते हैं। सर्वप्रथम तो ऋषिभाषित में विभिन्न ऋषियों के विचारों का संकलन है। साथ ही ये सभी ऋषि भी एक ही परम्परा के न होकर, विभिन्न परम्परा के हैं। अतः यह स्वाभाविक है कि ऋषिभाषित में किसी एक साधना मार्ग का निर्देश न मिलकर विभिन्न साधना मार्गों का निर्देश हुआ है। कोई ऋषि ज्ञान पर बल देता है तो कोई ध्यान पर। किसी के लिए सदाचार ही साधना का केन्द्र है तो कोई श्रद्धा पर बल देता है। किन्तु कोई श्रद्धा का विरोध करके अश्रद्धा का तात्पर्य सांसारिक व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति अश्रद्धा से ही है। ऋषिभाषित में तेतलीपुत्र इस अश्रद्धा के प्रमुख प्रतिपादक हैं। ऋषिभाषित में वर्णित साधना वैविध्य की चर्चा हमने इस अध्याय में विस्तार से की है। साधना वैविध्य के होते हुए लक्ष्य की एकरूपता उनकी विशिष्टता है। इसी अध्याय में पाव के चातुर्याम तथा अन्य ऋषियों के पंचयाम या पाँच महाव्रतों का भी विवेचन किया गया है, क्योंकि पंचयाम, पंचशील और पंचमहाव्रत भारतीय नैतिक चिन्तन के आधारभूत तथ्य हैं। साथ ही समिति, गुप्ति, परिषद् आदि की भी विस्तृत चर्चा की Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी गई है। ये अवधारणाएँ मुख्यत: जैन परम्परा में पाई जाती है। अष्टम् अध्याय में ऋषिभाषित के सामाजिक दर्शन और चिन्तन को प्रस्तुत किया गया है। इस अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा की के प्रसंग में हम पाते हैं कि वह वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार करके उसे कर्मणा मानता है और प्रत्येक वर्ण को अपने नियत कर्म करने का निर्देश देता है। पुनः पुरुषार्थों में वह मोक्ष को महत्त्व देता है। निष्कर्ष में हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में विविध साधना मार्गों का निर्देश हुआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, ध्यान आदि को आध्यात्मिक विकास का साधन माना गया है। किन्तु यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित के अनेक ऋषि इन सबको समन्वित रूप में देखते हैं और ज्ञान और सदाचरण के समन्वय में ही मुक्ति की उपलब्धि सम्भव मानते हैं। -0 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ सहयोगी श्री गुजराती बीसा पोरवाड़ धार्मिक एवं पारमार्थिक न्यास शुजालपुर अ.भा. बीसा पोरवाड़ सेवा समाज चतुर्थ अधिवेशन 28/2/09 शीआन द्वीप प्रज्जवलित करते हुएसुश्रावक श्री अमृतलालजी जैन, श्री नेमीचंदजी जैन (अध्यक्ष- जिला सहकारी बैंक शाजापुर), श्री पारसजी जैन (मंत्री म.प्र. शासन) डॉ. सागरमलजी जैन, श्री अचल चौधरी (अध्यक्ष) श्री प्रवीण जैन (संयोजक) व. श्रीमती सजनबाई मूथा एवं पुत्र स्व. श्री प्रकाश मूथा की स्मृति में मूथा परिवार उज्जैन द्वारा m स्व. श्रीमती सजनबाई मूथा परम देव आचार्य समार द्वितीय पट्ट पर 1000 इत्याद श्री आनन्द जी म.सा. की स चतुर्थ अधिवेशन शुजालपुर के अवसर पर प्रवचन देते हुए साध्वी डॉ. प्रमोदकुमारजी अपने साध्वी मण्डल के साथ स्व. श्री प्रकाशजी मूथा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. साध्वी रत्न डॉ. श्री प्रमोद कुंवरजी म. का सांसारिक परिचय / भाई गुरु माता - सूरजबाईचौधरी पिता - श्रीमानचांदमलजीसा.चौधरी जन्मस्थान - नीमच सीटी जन्मतारीख - 5-11-1948 गौत्र - धूपिया पदवी चौधरी बीसाओसवाल श्रीतेजकुमारजी, श्री देवेन्द्रकुमारजी बहन सुभद्राजी, इन्दुबालाजी दीक्षापरिचय - प.पू.आचार्यसम्राट 1008 श्रीआनन्दऋषिजी म. गुरुणी - मालव सिंहनीप्रवर्तिनीप.पू. श्रीरतन कुंवर श्रीजीम. दीक्षा - आगर (म.प्र.) व्यवहारिक शिक्षा - हायर सेकण्ड्री बी.ए.एम.ए., एफएच.डी. इंग्लिश एम.ए. प्रथम वर्ष, वर्धा....मध्यमा (गोल्ड मेडल) धार्मिक अध्ययन प्रथमा, मध्यमा, प्रभाकर शास्त्रजैन सिद्धान्ताचार्य ज्ञानध्यान पुच्छीसुणं, सुखविपाक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी इत्यादि 100 थोकड़े दीक्षासन अगहन, दिनांक 7-12-1966,बुधवार रचनात्मक सामाजिक कार्य - आनन्द गौशाला अंजड़, आनन्द ऋषिधाम-शिवपुरी, आनन्द विद्या मंदिर-मद्रास, ताम्बरम, आनन्द सिलाई मशीन- नागदा जंक्शन, आनन्द बुक बैंक-कोयम्बटुर उज्जैन, आनन्द प्रसाद-भोपाल, आनन्द दिवाकरसाधर्मी फंड-नीमचसीटी, ब्राह्मी बहुमंडल, शुजालपुर, इन्दौर, शिवपुरी, कोयम्बटुर, पैंची, गुना, बीना, नागदा जंक्शन, आनन्द भवन शिवपुरीलोकाशाहधार्मिक पाठशालाऔर भी छोटेबड़ेअनेक कार्य विचरण क्षेत्र मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडू पदवी-नीमच - जिनशासनचन्द्रिकापू.गौतममुनिजी प्रथमद्वारा प्रदत्त For Private Printed at Alcati Offset, UJJAIN Ph. 0734-2561720, 982767778