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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी .. सर्वप्रथम विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ इसका प्रकाशन शुबिंग ने किया। शुब्रिग ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने इस ग्रंथ के संदर्भ में विशिष्ट अध्ययन किया था। यद्यपि उनकी भूमिका मात्र बारह पृष्ठ की है, किन्तु उसमें उनकी व्यापक तुलनात्मक दृष्टि और तलस्पर्शी विद्वत्ता परिलक्षित होती है। उनकी इस जर्मन भाषा में लिखी गई भूमिका का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ है और जो मूल ग्रंथ के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। इसमें मूलग्रंथ, संस्कृत टिप्पण और शुब्रिग की भूमिका का अंग्रेजी अनुवाद समाहित है। इसके पश्चात ऋषिभाषित अपने हिन्दी अनुवाद के साथ बम्बई से प्रकाशित हुआ था। यह हिन्दी अनुवाद मुनि श्री विनयचन्द जी ने किया है। यद्यपि इस हिन्दी अनुवाद में मूलग्रंथ की विवरणात्मक व्याख्या तो है, किन्तु उसमें तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से कुछ भी नहीं लिखा गया है। हिन्दी और अंग्रेजी अनुवादों के साथ ऋषिभाषित का प्रकाशन राजस्थान प्राकृत भारती के द्वारा सन् 1988 में हुआ है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि जहाँ इसमें हिन्दी और अंग्रेजी मूलानुसारी अनुवाद है, वहीं इसके प्रारंभ में लगभग एक सौ पृष्ठों में डॉ. सागरमल जैन की हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में एक विस्तृत और तुलनात्मक भूमिका है। डॉ. सागरमल जैन ने अपनी इस भूमिका में ग्रंथ का स्वरूप, जैन परंपरा में, उसका स्थान, उसका रचनाकाल एवं भाषा आदि के साथ-साथ उसके विभिन्न ऋषियों के संबंध में तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया है। यद्यपि ग्रंथ के ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्यांकन की दृष्टि से यह भूमिका विशिष्ट ही है, किन्तु भूमिका के पृष्ठों की सीमा को देखते हुए उसमें ऋषिभाषित में प्रतिपादित दार्शनिक विचारों का मात्र संकेत ही किया गया है। उस संबंध में विशेष विवरणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन उसमें प्रस्तुत नहीं किया गया है। यद्यपि दर्शन के विद्वान् डॉ. सागरमल जैन भूमिका की सीमा और मर्यादा को देखते हुए वे इसके दार्शनिक पक्ष पर अधिक प्रकाश नहीं डाल सके। प्रस्तुत अध्ययन में मैंने उनसे ही सहयोग और मार्गदर्शन को प्राप्त करते हुए ग्रंथ के इस दार्शनिक पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस शोधप्रबन्ध में मैंने मुख्य रूप से ऋषिभाषित की ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा और नीतिशास्त्र संबंधी पक्षों को अपनी बुद्धि के अनुरूप प्रस्तुत करने का एक प्रयत्न किया है। उसमें भी प्रथम कठिनाई तो यही रही कि ज्ञानमीमांसीय दार्शनिक चर्चा का ऋषिभाषित में प्रायः अभाव ही पाया गया। मात्र ज्ञान का महत्त्व साधना में उसकी उपयोगिता आदि कुछ विवरण ही हमें उसमें उपलब्ध हुए हैं। अतः प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का ज्ञानमीमांसा से संबंधित अध्याय अत्यंत संक्षिप्त और मात्र विवरणात्मक ही है। जहाँ तक तत्त्वमीमांसीय चर्चाओं का प्रश्न है वे भी ऋषिभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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