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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन प्राक्कथन भारतीय दार्शनिक चिन्तन का विकास औपनिषदिक, जैन और बौद्ध परंपराओं से ही हुआ। जैन धर्म के प्रारंभिक चिन्तन का रूप हमें उसके आगम साहित्य में मिलता है। जैन आगम साहित्य प्राकृत भाषा में रचित है। जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि ग्रन्थ आते हैं। इन ग्रन्थों में भी ऋषिभाषित जैन परम्परा में मान्य तो रहा, किन्तु उसके अध्ययन की उपेक्षा होती रही। उसका कारण यह था कि उसमें न केवल जैन परम्परा के, अपितु औपनिषदिक एवं बौद्ध परम्पराओं के ऋषियों के विचार भी संकलित थे। अतः इस ग्रंथ के अध्ययन पर परवर्ती जैन आचार्यों ने भी विशेष बल नहीं दिया। फलत: जैन भण्डारों में इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ भी बहुलता से उपलब्ध नहीं होती हैं। अपने शोध विषय के चयन के लिए जब मैंने डॉ. सागरमल जैन से चर्चा की तो उन्होंने मुझे इस ग्रन्थ के दार्शनिक पक्ष के अध्ययन का सुझाव दिया। उनकी दृष्टि में यह ऐसा ग्रंथ है, जो जैन परंपरा और प्राकृत भाषा का प्राचीन ग्रंथ होकर भी सभी भारतीय परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही प्राचीन काल में जैन परंपरा की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का परिचायक भी है। आज जब धार्मिक उन्माद, भारतीय राष्ट्र की अस्मिता के लिए चुनौती बन गया है, तब इस प्रकार के उदार एवं सहिष्णुवादी दृष्टि के समर्थक ग्रंथों के अध्ययन की उपयोगिता एवं सार्थकता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। प्रश्न है । सर्वप्रथम इसके मुद्रित 3 प्रस्तुत अध्ययन का वैशिष्ट्य जैन भण्डारों में ऋषिभाषित की हस्तप्रतियाँ बहुत ही कम उपलब्ध होती है। डॉ. शुब्रिंग को भी इसकी मात्र दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई थी, जिसके आधार पर उन्होंने इस ग्रन्थ को प्रकाशित किया था। जिनरत्नकोष (पृ. 59 ) के अनुसार इसकी हस्त प्रतियाँ कुछ शास्त्र भण्डारों में प्राप्त होती है । जहाँ तक इसके प्रकाशित संस्करणों का संस्करण इंदौर, आगरा एवं छाणी से प्रकाशित हुए थे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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