SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 152 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी करता है, वह चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र हो, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। ७१ इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में तप, संयम, अहिंसा, आदि की साधना को ही मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। ३३. अरुण ऋषि द्वारा प्रस्तुत साधना मार्ग ऋषिभाषित के 33वें अध्याय में अरुण ऋषि कहते हैं कि वाणी और कर्म का सम्यक् प्रयोग मोक्ष का मार्ग है और इनका मिथ्या प्रयोग बन्धन का मार्ग है, उनके अनुसार " जो साधक वाणी और कर्म का सम्यक् प्रयोग करता है, वही पण्डित है। व्यक्ति को ऐसे ही प्रज्ञाशील पुरुषों का संसर्ग करना चाहिये। उनके अनुसार व्यक्ति की संगति ही उसके गुण-दोष का कारण होती है जिस प्रकार नाना वर्ण वाले पक्षी सुमेरु पर्वत पर पहुँचकर स्वर्णिम आभा से युक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जो सत्पुरुषों की संगति करता है, वह सद्गुणों से युक्त हो जाता है। ऐसे ही जिस प्रकार नदियाँ समुद्र के सान्निध्य में जाकर खारी हो जाती है, उसी प्रकार दुर्गुणियों की संगति से व्यक्ति भी दुर्गुणमय बन जाता है। अतः कल्याणकारी मित्रों का संपर्क ही व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर बनाता है। ७२ वे कहते हैं कि जितेंन्द्रिय और प्रज्ञाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा का ज्ञान प्राप्त कर सदैव कल्याण मित्र का संपर्क करें। ७३ अरुण ऋषि के उपर्युक्त उपदेश से हम मात्र यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सत्पुरुषों के संपर्क में व्यक्ति सत्य को सम्यक् प्रकार से समझकर आध्यात्मिक दिशा में प्रगति कर सकता है। ३४. ऋषिगिरि का संयम साधना का मार्ग ब्राह्मण परिव्राजक ऋषिगिरि के अनुसार " जो पांच महाव्रतों से युक्त है तथा जो कषाय रहित और जितेन्द्रिय है, वह श्रमण उपद्रव रहित जीवन जीता है। जो काम वासना में लुब्ध नहीं होता और जिसने कर्म स्रोत को छिन्न कर दिया है और जो आश्रव 71. आता छेतं तओ बीयं, संजमो जुगणंगला । अहिंसा समिति जोज्जा, एसा धम्मन्तरा किसी । एयं किसिं कसित्ताणं, सव्वसत्तदयावहं । माहणे खत्तिए वेस्से, सुद्दे वा वि य सिज्झती।। 72. सुभासियाए भासाए, सुकडेण य कम्मुणा । पण्डितं तं वियाणेज्जा, धम्माधम्मविणिच्छये। संसग्गितो पसूयन्ति, दोसा वा जइ वा गुणा। समस्सिता गिरिं मेरू, णाणावण्णा वि पक्खिणो । सव्वे मप्पा होन्ति, तस्स सेलस्स सो गुणो ।। 73. वही, 33/17 Jain Education International For Private & Personal Use Only - इसि भासियाई, 32/3, 5 - इसि भासियाई, 33/3, 14, 16 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy