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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन जैन परंपरा में ज्ञान प्रक्रिया के चार अंग माने गये हैं-(1) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय और (4) धारणा। क्या ऋषिभाषित के पासामि, जानामि, अभिसमावेमि और अभिसंबुज्झाामि को इनसे जोड़ा जा सकता है। विद्वानों के लिए यह विचारणीय है। मेरी दृष्टि में पासामि को अवग्रह, जानामि को ईहा, अभिसमावेमि को अवाय और अभिसंबुज्झामि को धारणा कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें कुछ समानता है।
____ ऋषिभाषित मुख्यतः एक उपदेशपरक ग्रंथ है। अतः उसमें ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से किसी भी प्रकार की चर्चा उपलब्ध नहीं है, फिर भी हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि उसमें उल्लेखित पासामि और जानामि शब्द जैन परंपरा में विकसित होने वाले ज्ञान और दर्शन के सिद्धांतों के पूर्व रूप अवश्य है। भाषा विचार
____ऋषिभाषित के तैतीसवें 'अरुण नामक' अध्ययन में यह बताया गया है कि भाषा का सम्यक् प्रयोग ही करना चाहिये। इस अध्याय में दुर्भाषा और सुभाषा की अवधारणा का संकेत अवश्य उपलब्ध होता है, किन्तु इसमें दुर्भाषा और सुभाषा शब्दों का प्रयोग नैतिक आचरण की दृष्टि से ही हुआ है, न कि ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से। ज्ञानमीमांसा का अभाव
__ ऋषिभाषित ज्ञान, अज्ञान, सुभाषा, दुर्भाषा आदि ज्ञानमीमांसीय शब्दावली का प्रयोग तो करता है, किन्तु उसमें किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत का अभाव है। ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की अनुपस्थिति का हमारी दृष्टि में कारण यह है कि संभवतः ई.पू. पांचवीं छठी शताब्दी में नैतिक और धार्मिक साधना पर ही विशेष बल दिया जाता था। यही कारण है कि ऋषिभाषित में जितने स्पष्ट रूप से नैतिक और धार्मिक आचार-विचार की चर्चा है, उतने स्पष्ट रूप में किसी ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की चर्चा नहीं है। ज्ञानदान का महत्त्व
तैतीसवें अध्ययन में अन्य दानों की अपेक्षा ज्ञान दान के महत्त्व को स्थापित करते हुए कहा गया है कि धन संपत्ति के अर्जन और दान का प्रभाव यह सीमित समय तक ही रहता है, किन्तु सद्धर्ममय वाणी का दान तो अक्षय और अमृत होता
-तत्वार्थ सूत्र 1/15
8. 9.
अवग्रहेहाऽपायधारणा:। दुभासियाए भासाए, दुक्कडेण य कम्मुणा। बालमत्तं वियाणेज्जा, कज्जाकज्ज विणिच्छए।। सुभासियाए भासाए, सुक्कडेण य कम्मुणा। पण्डितं वियाणेज्जा, धम्माधम्माविणिच्छय।।
-'इसिभासियाइ' 33/2,3
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