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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विशेष रूप से आचारांग जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में जानना और देखना (जानामि-पासामि) का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। इन्हीं दो शब्दों के आधार पर आगे चलकर जैन दर्शन में दर्शन और ज्ञान की स्वतंत्र अवधारणाओं का विकास हुआ। यह स्पष्ट किया है कि ज्ञान-प्रक्रिया में दर्शन के बाद ही ज्ञान को स्थान दिया गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सत्य है कि सर्वप्रथम ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ होती है और उसके बाद ज्ञान होता है। श्रमण परंपरा में इस ऐन्द्रिक अनुभूति को दर्शन कहा जाता है। ऋषिभाषित में इसी प्रक्रिया को पश्यता कहा गया है। इसके लिए ऋषिभाषित में 'पास' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका संस्कृत शब्द रूप 'पश्य' है। सामान्यतया पश्य से चाक्षुष ज्ञान को ही समझा जाता है, किन्तु उसके अंतर्गत समस्त ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ समाविष्ट हैं। इसकी पुष्टि परवर्ती जैन दार्शिनिक ग्रंथों से होती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसे हम संवेदना कह सकते हैं। संवेदना के पश्चात् वस्तु के गुण का जो ज्ञान होता है उसे ही सामान्यतया ज्ञान कहा जाता है। जैन परंपरा में, वस्तु की विशेषताओं सहित होने वाले ज्ञान को ही ज्ञान की कोटि में माना जाता है। जैन आगमों में ज्ञान के लिए 'जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द के प्रयोग हुए हैं। ऋषिभाषित में भी इसी रूप में इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऋषिभाषित में यद्यपि 'जानामि' के पश्चात् 'पासामि' शब्द रखा गया है किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तथा ज्ञान की प्रक्रिया की दृष्टि से पहले 'पासामि' और उसके बाद 'जानामि' को रखना होगा। क्योंकि वस्तु की ऐन्द्रिक अनुभूति के पश्चात ही उसका विशेषरूप से ज्ञान होता है। ऋषिभाषित यहाँ 'अभिसमावेमि' और 'अमिसंबुज्झामि' इन दो शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग करता है। अतः हमें इनके अर्थों को भी सम्यक् प्रकार से समझ लेना चाहिये। 'पाइसद्दमहण्णवो' में 'अभिसमा' का अर्थ ठीक ठीक जानना या निर्णय करना है।" वस्तुतः किसी वस्तु के स्वरूप का व्यवस्थित रूप से या ठीक-ठीक प्रकार से जानना ही अभिसमागम है। अतः हम यह कह सकते हैं कि अभिसमागम जानने की प्रक्रिया का एक आगे बढ़ा हुआ कदम है। इसी प्रकार अभिसंबुज्झ भी ज्ञान की पूर्णता का सूचक है। अत: हम यह कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में ऐन्द्रिक अनुभूति से प्रारंभ करके अभिसंबोध तक ज्ञान की एक विशिष्ट प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। यद्यपि मूलग्रंथ में इन शब्दों का प्रयोग के अतिरिक्त हमें अन्य कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। इस संबंध में जैन परंपरा की ज्ञान प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना होगा।
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4. विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणई पासइ। आचारांगसूत्र 1/2/2 5. (अ) स उपयोगो द्विविधः साकारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगधेत्यर्थः।-तत्वार्थभाष्य पृ 82 (ब) सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणज्ञानम्। तदात्मक स्वरूप ग्रहणं, दर्शनमिति सिद्धम।।
-षट्खण्डागम पर धवला टीका, 1, 1,4 6. 'इसिभासियाइ" 21/गद्यभाग 7. "पाइसद्दमहण्णवो"
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