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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन द्वितीय अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा ज्ञान का महत्त्व ऋषिभाषित में ज्ञान और अज्ञान की चर्चा गाथापति पुत्र तरुण के उपदेशों में संकलित है। यह स्पष्ट है कि तरुण ऋषि के अनुसार अज्ञान ही समस्त बंधन और दुःख का कारण है। जन्म-मरण की परंपरा, शोक, मान-अपमान आदि सभी अज्ञान के कारण है।' वे ज्ञान का महत्व बताते हुए, स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि "अज्ञान के कारण पहले में न जानता था, न देखता था, न समझता था, और न अवबोध ही रखता था। अब ज्ञानवान होने पर मैं जानता हूँ, देखता हूँ, समझता हूँ और अवबोध रखता हूँ"" पूर्व में अज्ञान के वशीभूत मैंने अनेक पाप किये, अब ज्ञान संपन्न होने पर मैं जातना हूँ कि वासनाओं के वशीभूत होकर किये गये कर्म अनैतिक हैं। इस प्रकार गाथापति पुत्र तरुण ज्ञान के महत्त्व और जीवन मे उसकी उपयोगिता को स्पष्ट करते हैं, किन्तु ऋषिभाषित में ज्ञान के स्वरूप, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन आदि की कोई चर्चा हमें उपलब्ध नहीं होती है। मात्र नैतिक जीवन और साधना के क्षेत्र में ज्ञान का क्या स्थान या महत्त्व है, यही स्पष्ट किया गया है। ऋषिभाषित के इस अध्याय में ज्ञान की चर्चा के संदर्भ में निम्न चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। 2. 69 जानना (जानामि ), देखना (पासामि), समझना (अभिसमावेमि), और अवबोध करना (अभिसंबुज्झामि ) । यहाँ इन शब्दों के अर्थ के संदर्भ में और ज्ञान प्रक्रिया में इनके स्थान के संदर्भ में विचार करना आवश्यक है। जैन आगमों में और 1. मंजरा य मच्चू य, सोको माणोऽवमाणणा अण्णाणमूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती ।। -' इसिभासियाइ' 21/5 मूलं खलु भो पूव्वं न जाणामि न पासामि नोऽभिसमावेमि, नोऽभिसंबुझज्झामि नाणमूलाकं खलु भो ! इयाणिं जाणामि पासामि अभिसमावेमि अभिसंबुज्झामि । - वही, 21 / गद्यभाग पृ. 76 3. अण्णामूलयं खलु मम कामेहिं किच्चं करणिज्जं, णाणमूलं खलु मम कामेहिं अकिच्चं अकरणिज्जं । - वही, 21 / गद्यभाग पृ. 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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