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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। जैन परंपरा में यह कहा गया है कि 'सोम' नाम के ब्राह्मण 'पाश्र्व' के संप्रदाय में दीक्षित हुए थे और मृत्यु के पश्चात शुक्र के रूप में उत्पन्न हुए । '
१९०
ऋषिभाषित में उपदेश भी इतना संक्षिप्त है कि उसके आधार पर यह कहना मुश्किल है कि यही इनका मुख्य सिद्धांत होगा । प्रस्तुत अध्याय में मात्र यही कहा गया है कि व्यक्ति किसी भी पद या अवस्था में रहे, अधिक प्राप्ति का प्रयास नहीं करें। ४३. यम
इनके संबंध में जैन परंपरा में अन्यत्र कोई जानकारी नहीं मिलती है। मात्र इनके उपदेश में यह कहा गया है कि लाभ में प्रसन्न और अलाभ में नाराज न हो। दोनों परिस्थितियों में तटस्थ रहने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ है । १९१ उपनिषदों में यम- नचिकेता का संवाद मिलता है। १९२
४४. वरुण
ऋषिभाषित के चवालीसवें अध्याय में वरुण ऋषि का उपदेश मिलता है। कर्मबंध के दो अंग या कारण- राग और द्वेष हैं। जो इनसे उत्पीड़ित नहीं होता वही वस्तुतः सम्यक् प्रकार से जीवन जीता है । १९३ उत्तराध्ययनसूत्र में भी राग-द्वेष को कर्मबन्ध के दो अंग के या बीज के रूप में व्याख्यायित किया गया है । १९४ ४५. वैश्रमण
ऋषिभाषित का पैतालीसवां अध्ययन वैश्रमण से संबंधित है। इनके उपदेश सोम, यम और वरूण की अपेक्षा विस्तृत हैं। इस अध्ययन के प्रारंभ में काम से निवृत्त होने का निर्देश किया है, जो कि संसार चक्र का मूल है। इस अध्याय में तेल, पात्र, सर्प आदि के उदाहरण आये हैं। ये जैन परंपरा के अन्य ग्रंथों में भी उपलब्ध होते हैं । १९५ उपर्युक्त ऋषिभाषित के चार अंतिम अर्हत् ऋषि सामान्यतया जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा में लोकपाल के रूप में स्वीकार किये गये हैं । १९६ अंतर केवल नाम में है। जहाँ जैन परंपरा सोम, यम, वरुण, वेश्रमण का उल्लेख करती है वहाँ वैदिक परंपरा में इंद्र, अग्नि, यम और वरुण ये चार नाम स्वीकार किये गए हैं। वस्तुतः इन चारों को पौराणिक व्यक्ति माना गया है न कि ऐतिहासिक ।
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190. See - Prakrit Proper Names, Vol. 11, p. 864 191. लाभम्मि जेण सुमणो, अलाभे णेव दुम्मणो ।
से हु सेट्ठे मणुस्साणं, देवाणं व सयक्कऊ ।। 192. कठ - उपनिषद्
193. रागंगे य विदोसे य से हु सम्मं नियच्छती ।
194 उत्तराध्ययन सूत्र 32/7
195. अहं च भोगरायस्स.
.अंधगवण्हिणो।
196. (अ) Prakrit proper Naines, Vol. 11, p.657.
(ब) महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ. 291
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- इसिभासियाइ 43/1
- इसि भासियाई 44 / गद्यभाग पृ. 188
- दशवैकालिक सूत्र 2/8
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