________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
पुत्रोत्पत्ति की थी, जिन्हें धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के रूप में जाना जाता है । द्वैपायन को पाराशर का पुत्र और महाभारत का रचयिता भी कहा है।
ऋषिभाषित में इनके उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य अनिच्छा से इच्छा पर विजय प्राप्त करना है । इनके अनुसार इच्छा या आकांक्षा ही क्लेश या दुःख का कारण है। 184 वे स्पष्टरूप से इसमें कहते हैं कि इच्छा के वशीभूत हुआ मानव माता-पिता, गुरु, राजा आदि का अपमान कर देता है । १८५ इतना ही नहीं, आगे इच्छा को जन्म-मरण का मूल कारण कहा गया है।
इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परंपराओं में इनका उल्लेख होने से यह कहा जा सकता है कि द्वैपायन प्राक् ऐतिहासिक काल के कोई ऋषि रहे होंगे। ४१. इन्दनाग (इन्द्रनाग )
इन्द्रनाग का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन परंपरा के विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति आदि अनेक ग्रंथों में उपलब्ध होता है। १८६ इन्हें जीर्णपुर का निवासी माना गया तथा ये बाल तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध थे। जैन ग्रंथों के अनुसार ये महावीर युगीन ऋषि थे।
बौद्ध और वैदिक परंपरा में हमें इनके व्यक्तित्व और जीवन के संबंध में किसी प्रकार की काई सूचना नहीं मिलती है।
ऋषिभाषित में वर्णित इन्द्रनाम अपने उपदेश में कहते हैं कि आजीविका के निमित्त किया हुआ तप और सुकृत व्यर्थ है । १८७ आगे इसी में मुनि को लक्ष्य करके कहते हैं कि कुछ ज्ञान और चारित्रिक क्रिया से जीवन जीते हैं, इसके विपरीत कुछ मुनिवेष को जीविका का साधन बनाते हैं, वे वस्तुतः दोषपूर्ण जीवन यापन करते हैं । १८८ आगे इसी अध्याय में मुनि के जीवनयापन की पद्धति पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि मुनि को मंत्र, तंत्र, विद्या भविष्यवाणी, दूतिक-कर्म आदि नहीं करना चाहिये । १८९
४२. सोम
67
ऋषिभाषित को बयालीसवां अध्याय सोम अर्हत् ऋषि से संबंधित है। इनके व्यक्तित्व, जीवन और ऐतिहासिकता के संबंध में हमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा 184. इच्छा बहुविधा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति । तम्हा इच्छमणिच्छाए, जिणित्ता सुमेधती ।। 185. इच्छाभिभूया न जाणन्ति मातरं पितरं गुरुं । अधिक्खिवन्ति साधू य, रायाणो देवयाणिय ।। 186. (अ) विशेषावश्यक भाष्य 3290
(ब) आवश्यक नियुक्ति 847 (स) आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति पृ. 347 187. "इसिभासियाइ" 41 / 1, 2 188. णाणमेवोव जीवन्तो, चरितं करणं तहा। लिंगं च जीवणट्ठाए, अविसुद्धंतु जीवति ।। 189. वही 41/11
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- 'इसिभासियाइ' 40/2
- इसिभासियाई 40 / 3
- इसि भासियाइ 41/9
www.jainelibrary.org