SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी है। अरुण ऋषि के उपर्युक्त कथन से हम इतना तो कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के कुछ ऋषि ज्ञान के महत्त्व को स्थापित कर रहे थे। ऋषिभाषित के पैतालीसवें अध्याय में भी मात्र ज्ञान की महिमा का निरूपण हुआ है। उसमें कहा गया है कि सर्वज्ञ शासन को प्राप्त करके विज्ञान (आत्म-ज्ञान) उसी प्रकार विकसित होता है जैसे हिमालय के सान्निध्य को प्राप्त वृक्षों में सुंदरता का प्रादुर्भाव होता है। जो सर्वज्ञ शासन को प्राप्त करता है उसमें सत्व-बुद्धि, मति, मेधा और गाम्भीर्य की उसी प्रकार वृद्धि होती है जैसे औषधि के सेवन से तेज बल और वीर्य की वृद्धि होती है।११ ऋषिभाषित के कुछ ज्ञानमीमांसीय शब्द ऋषिभाषित में हमें कुछ ज्ञान मीमांसीय शब्द उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे सर्वज्ञ, विज्ञान, बुद्धि, मति, मेधा आदि। (अ) सर्वज्ञ- ऋषिभाषित में सर्वज्ञ शब्द का प्रयोग तो देखा जाता है।१२ किन्तु सर्वज्ञ से उनका क्या तात्पर्य रहा है यह स्पष्ट नहीं होता है। यद्यपि यह सत्य है कि परवर्ती जैन दर्शन में सर्वज्ञ शब्द का अर्थ संसार की समस्त वस्तुओं के त्रैकालिक पर्यायों का ज्ञान माना गया है।१३ किन्तु जैन विद्वानों की दृष्टि में सर्वज्ञ शब्द का यह अर्थ परवर्ती है। सर्वज्ञ शब्द के अर्थ को लेकर पंडित सुखलालजी ने गंभीरता से विचार किया है, उनकी दृष्टि में "प्राचीन स्तर के जैन आगमों में सर्वज्ञ शब्द का जो प्रयोग है, उसका वह अर्थ नहीं है, जो सामान्यतया दार्शनिक युग में समझा जाता है।" पण्डित सुखलाल जी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के संदर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा, जगत एवं साधना मार्ग संबंधी दार्शनिक ज्ञान की पूर्णता ही उस युग में सर्वज्ञता मानी जाती थी, न कि त्रैकालिक ज्ञान को। जैन परंपरा में सर्वज्ञता संबंधी दृष्टिकोण केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समान 10. खइणं पमाणं वत्तं च, देज्जा अज्जेति जो धणं। सद्धम्मवक्कदाणं तु, अक्खयं अमतं मत।। --'इसिभासियाइ33/10 11. सव्वाण्णुसासणं पप्प, विण्णाणं पवियते। हिमवन्तं गिरि पप्पा, तरूणं चारु वागमो।। -वही, 45/33 12. सतं बुद्धि मती मेधा, गंभीरत्तं च वड्ढती। ओसधं वा सुयक्कन्तं, जुन्जए बलवीरिय।। --'इसिभासियाइ' 45/34 13. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्या 30 भाष्य-"सर्वद्रव्यपर्यायेषु च केवल्ज्ञानस्य विषयनिबन्धो भवति। तद्धति सर्वभावग्राहकं संभिन्न लोकालीक विषयम्।" -'सभाष्यतत्वार्थाधिगम्मसूत्रम' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy