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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन भाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है। जैन परंपरा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक ज्ञान की पूर्णता को ही प्रकट करता है न कि त्रैकालिक ज्ञान को। केवल शब्द सांख्य दर्शन में भी प्रकृति-पुरुष के विवेक के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। यदि यह शब्द सांख्य परंपरा से जैन परंपरा में आया, यह माना जाय तो इस आधार पर भी केवल ज्ञान का अर्थतत्व यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा, न कि त्रैकालिक ज्ञान। आचारांग का यह वचन कि जो एक आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है। इसी तथ्य का पोषक है अतः "जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ" का अर्थ आत्मा ज्ञान और आत्मा पर्याय का ज्ञान ही हे न कि त्रैकालिक सर्वज्ञता। सर्वज्ञ के संबंध में आगम का यह वचन कि "सिय जाणइ सिय ण जाणइ" (भगवती) भी यही बताता है कि केवल ज्ञान त्रैकालिक सर्वज्ञता नहीं है, वरन् विशुद्ध आध्यात्मिक और दार्शनिक ज्ञान है।"१४ ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परंपरा के आचार्य कुन्दकुन्द और श्वेताम्बर परंपरा के आचार्य हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी परंपरागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की थी। कुन्दकुन्द ने कहा था कि "व्यवहार नय से ही यह कहा जाता है कि सर्वज्ञ लोकालोक की सभी आत्मेतर वस्तुओं को जनता है, किन्तु निश्चय नय से सर्वज्ञ स्वात्मा को ही जानता है।५ इन सब कथनों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभषित में जो 'सव्वण्णु' (सर्वज्ञ) शब्द आया है, उसका अर्थ आत्म-ज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक ही है। (ब) विज्ञान- इसी प्रकार ऋषिभाषित में 'विण्णाण' (विज्ञान) शब्द का प्रयोग हुआ है। वह वस्तुत: आज के अर्थ में प्रयुक्त विज्ञान शब्द से भिन्न है। विज्ञान शब्द का प्रयोग प्राचीन स्तर के जैन आगमों और पालि साहित्य में एक भिन्न अर्थ मं ही हुआ है। वहाँ इसका अर्थ मनोदशाओं का ज्ञान है। ज्ञातव्य है कि इसी विज्ञान शब्द के आधार पर बौद्धों का एक पूरा सम्प्रदाय ही विकसित हुआ है, जिसे विज्ञानवाद कहा जाता है। यहाँ हम उस समग्र चर्चा में न जाकर केवल यह दिखाना चाहते हैं कि ऋषिभाषित में विज्ञान शब्द का प्रयोग मनोदशाओं के ज्ञान के रूप में हुआ है। 14. अप्प्सरूवं पेच्छदि, लोयालोयं ण केवली भगवं। जई कोई भणई एवं, तस्स य किं दूसणं होई।। -नियमसार गाथा 166 पृ. 550 15. जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणए केवली भगवं। केवलणाणि जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाण।। -वही, गाथा 158 16. 'इसिभासियाइ' 45/33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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